Friday 21 November 2014

लिख और दिख

'कलम अपनी साध, मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध, जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख, और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख....चीज़ ऐसी दे कि जिसका स्वाद सिर चढ़ जाए, बीज ऐसा बो कि जिसकी बेल बन बढ़ जाए' (भवानीप्रसाद मिश्र)

गुल्लक / पवन करण

बिटिया बड़े जतन से सिक्के जोड़ती
कान से सटाकर देखती बजाकर
गुल्लक में सिक्के खन-खन करते
पिता के सामने गुल्लक रखती
उसकी हथेली पर गुल्लक में भरने
एक सिक्का और रखते पिता
बिटिया जाती गुल्लक छुपाती माँ हँसती
बिटिया बड़ी हो चुकी, ब्याह हो चुका
जा चुकी अपने घर
कहाँ आ पाती है पिता के घर
चिट्ठियाँ आती हैं
जब कोई चिट्ठी उसकी आती है
घर में बसी उसकी यादें
गुल्लक में भरे सिक्कों-सी
खन-खन बजती हैं...

गरीब वेश्या की मौत / लीलाधर जगूड़ी

कल-पुर्जों की तरह थकी टांगें, थके हाथ उसके साथ
जब जीवित थी लग्गियों की तरह लंबी टांगें जूतों की तरह घिसे पैर
लटके होठों के आस-पास टट्टुओं की तरह दिखती थी उदास
तलवों में कीलों की तरह ठुके सारे दुख
जैसे जोड़-जोड़ को टूटने से बचा रहे हों
उखड़े दाँतों के बिना ठुकी पोपली हँसी ठक-ठकाया एक-एक तन्तु
जन्तु के सिर पर जैसे बिन बाए झौव्वा भर बाल
दूसरे का काम बनाने के काम में जितनी बार भी गिरी
खड़ी हो जा पड़ी किसी दूसरे के लिए
अपना आराम कभी नहीं किया अपने शरीर में
दाम भी जो आया कई हिस्सों में बँटा बहुतों को वह दूर से
दुर्भाग्य की तरह मज़बूत दिखती थी
ख़ुशी कोई दूर-दूर तक नहीं थी सौभाग्य की तरह
कोई कुछ कहे, सब कर दे कोई कुछ दे-दे, बस ले-ले
चेहरे किसी के उसे याद न थे दीवार पर सोती थी
बारिश में खड़े खच्चर की तरह ऐसी थकी पगली औरत की भी कमाई
ठग-जवांई ले जाते थे धूपबत्तियों से घिरे
चबूतरे वाले भगवान को देखकर
किसी मुर्दे की याद आती थी
सदी बदल रही थी सड़क किनारे उसे लिटा दिया गया था
अकड़ी पड़ी थी जैसे लेटे में भी खड़ी हो
उस पर कुछ रुपए फिंके हुए थे अंत में कुछ जवान वेश्याओं ने चढाए थे
कुछ कोठा चढते-उतरते लोगों ने
एक बूढा कहीं से आकर उसे अपनी बीवी की लाश बता रहा था
एक लावारिस की मौत से दूसरा कुछ कमाना चाहता था
मेहनत की मौत की तरह एक स्त्री मरी पड़ी थी
कल-पुर्जों की तरह थकी टांगें, थके हाथ
उसके साथ अब भी दिखते थे
बीच ट्रैफ़िक भावुकता का धंधा करने वाला अथक पुरुष विलाप जीवित था
लगता है दो दिन लाश यहाँ से हटेगी नहीं।

रसोईघर की दीवार से फ़ेसबुक की दीवार तक / संजीव चंदन

लिखने की छटपटाहट ने आज से 150 साल पहले रसोई घर की दीवारों पर अपना स्पेस बनाया. बांग्ला की पहली आत्मकथा (अमार जीबॉन -1876) की लेखिका राससुन्दरी देवी ने 12 साल की छोटी उम्र में अपने विवाह के बाद लिखने की अपनी तीव्र कामना को रसोईघर की दीवारों पर पूरा किया. उसी पर खड़िया से उन्होंने वर्णमाला उकेरी और सीखी.
समय बदल गया है आज स्त्रियों के लिखने के लिए मार्क ज़करबर्ग ने आभासी दुनिया में एक बड़ी दीवार बना दी है, जहां सबकी अपनी–अपनी वॉल हैं- फ़ेसबुक की अपनी वॉल. पुरुषों के साथ स्त्रियां भी बड़ी संख्या में वहाँ अभिव्यक्त हो रही हैं. साहित्य के पारंपरिक गढ़ टूट रहे हैं, संपादक और आलोचक लेखक और पाठक के बीच अनिवार्य उपस्थिति से बेदखल हुए हैं. जारी है "सुल्ताना का सपना" रुकैया शखावत हुसैन की चर्चित रचना "सुल्तानाज़ ड्रीम" 1905 में पहली बार प्रकाशित हुई. रुकैया ने मर्दों के वर्चस्व को उलट देने का सपना देखा– यूटोपिया पेश किया. इस सपने में हर मर्द क़िरदार औरतों के लिए तय की गई भूमिका में ख़ुद क़ैद है, परदेदारी और आज्ञाकारिता के लिए बाध्य.
"सुल्ताना के सपने" की तरह स्त्री की अभिव्यक्ति हर दौर में अपने ऊपर नियंत्रण और संसाधनों से अपने वंचन के ख़िलाफ़ विद्रोह और संघर्ष को अभिव्यक्त करती रही है.
प्रसिद्ध हिन्दी रचनाकार और आलोचक अर्चना वर्मा के अनुसार स्त्रियां इन नियंत्रणों और संघर्षों से मुक्ति के आह्लाद में लिखती हैं– अपने दुखों की अभिव्यक्ति में भी साक्षी भाव में होती हैं, आनंदित होती हैं. साहित्यकार पूनम सिंह कहती हैं, "हम अपने होने की तलाश में लिखती हैं, वजूद की खोज में अन्यथा हमारा होना दूसरों के लिए होने की विवशता और ज़िम्मेवारी से भरा है." लेखिका अनिता भारती कहती हैं, "मैं एक दलित लेखिका के तौर पर लिखती हूं. उत्पीड़न के दोनों ही केंद्र- जेंडर और जाति मेरे लेखन का विषय हैं, इसलिए हम जैसे लोग दोतरफ़ा प्रहार झेलते हैं- दलितेतर पुरुषों से और दलित पुरुषों से भी, कभी–कभी सवर्ण स्त्रियां भी हमारे विरुद्ध हो जाती हैं." बौद्धकालीन स्त्रियां प्रव्रज्या लेकर बौद्ध संघों में रहने लगीं, मुक्ति के इस आनंद की अभिव्यक्ति उन्होंने अपने पदों में की. 'थेरीगाथा' के नाम से जाने जाने वाले उनके पदों में पुरुष वर्चस्व के ख़िलाफ़ आक्रोश और उससे मुक्ति के आह्लाद दर्ज हैं.
सुमंगला थेरी लिखती हैं, "अहा, मैं मुक्त हुई तीन टेढ़ी चीजों से/ ओखली से, मूसल से/ अपने कुबड़े पति से/ गया मेरा निर्लज्ज पति गया/ जो मुझे उन छातों से भी तुच्छ समझता था/ जिन्हें वह बनाता था अपनी जीविका के लिए." अपना वजूद तलाशती, परिवार, पुरुष वर्चस्व, जाति उत्पीड़न के ख़िलाफ़ अभिव्यक्त होती स्त्रियां विद्रोह और आनंद के सम्मिलित भाव में लिखती हैं. पिछले दिनों फ़ेसबुक पर "चालीस साल की स्त्रियां" कविता का विषय बनीं, संयोग से इन्हें लिखने वाली कवयित्रियां भी प्रायः चालीस साल की उम्र जी चुकी हैं. आधा दर्जन से अधिक की संख्या में इन कविताओं में अपने व्यक्तित्व के आकार लेने और 'निर्धारित लक्ष्मण रेखा' से मुक्ति की अभिव्यक्ति है. कलावंती की कविता की पंक्तियां हैं, "कभी-कभी बड़ी ख़तरनाक होती है/ यह चालीस पार की औरत/ वह तुम्हें ठीक ठीक पहचानती है/ जिसे तुम नहीं पढ़ा सकते चालीस का पहाड़ा".अंजू शर्मा की कविता की पंक्तियां भी ग़ौरतलब हैं, "अपनी पूर्ववर्तियों से ठीक अलग/ वे नहीं ढूंढ़ती हैं देवालयों में/ देह की अनसुनी पुकार का समाधान/ अपनी कामनाओं के ज्वार पर अब वे हँस देती हैं ठठाकर". इन कविताओं ने एक बेचैनी पैदा की. हिन्दी के एक साहित्यिक मासिक के सम्पादक प्रेम भारद्वाज ने फ़ेसबुक को एक दरीचे के खुलने जैसा बताते हुए अपने सम्पादकीय में इन्हें नसीहत दी. उन्हें सावधान किया, "उनकी कविताओं को मिलने वाली लाइक की संख्या उनके शब्दों की गहराई से नहीं उनकी ख़ूबसूरती से बढ़ती है."
उम्मीद के अनुरूप स्त्रियों ने इस साहित्यिक पुलिसिंग का प्रतिवाद भी किया. कवयित्री निवेदिता ने लिखा, "जिस फ़ेसबुक को स्त्री के लिए किसी दरीचे के खुलने जैसा मान रहे हैं उसके खुलेपन से इतने आहत क्यों? फ़ेसबुक पुरुषों की भी चरागाह है, जहां वे शिकारियों की तरह ताक में बैठे रहते हैं कि जाने कौन किस चाल में फंसे." युवा आलोचक धर्मवीर के अनुसार यह समय "स्त्रियों की अभिव्यक्ति के लिए बढ़े स्पेस से घबराए सत्ता संस्थानों की बेचैनी का समय है, अपने अप्रासंगिक होने के भयबोध से उपजी बेचैनी." मध्यकालीन भक्त कवयित्री मीरा इसी बेचैनी का उपहास उड़ाते हुए लिखती हैं, "लोकलाज कुल कानी जगत की दई बहाय, जस पानी, अपने घर का परदा कर लो मैं अबला बौरानी". (बीबीसी से साभार)

पत्रकार.... हत्या, सीबीआई छापा, जुर्माना

पत्रकार पर जुर्माना : न्यायमूर्ति एस रविंद्र भट और न्यायमूर्ति विपिन सांघी की खंडपीठ ने वरिष्ठ पत्रकार एसपीके गुप्ता पर एक लाख रुपए जुर्माना लगाया है। इस पत्रकार ने याचिका में आरोप लगाया था कि उसके दिवंगत दोस्त की बेटी को उसकी बहन ने पुर्नवास सेंटर में भर्ती करा दिया है, जबकि वह मानसिक रूप से स्वस्थ है। 81 वर्षीय पूर्व संसद संवाददाता और वरिष्ठ पत्रकार एसपीके गुप्ता ने हैबियस कॉरपस (बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका) दायर करके मांग की थी कि हौजखास पुलिस को निर्देश दिया जाए कि नीलिमा वारेरकार को अदालत में पेश करे। उसे मानसिक रोगियों के सेंटर में भर्ती करा दिया गया है।

पत्रकार के घर सीबीआई छापा : चिट फंट मामले को लेकर उड़ीसा में दो दिनों में 18 जगहों पर छापेमारी के बाद सीबीआई जांच की आंच अब पत्रकारों तक भी पहुंच गई है। इस बीच सीबीआई ने वरिष्ठ पत्रकार ललित पत्ताजोशी के घर पर भी छापे मारे की। सीबीआई को शक है कि उनके संबंध चिट फंड फर्म सीशोर से हैं।

पत्रकार की हत्या : सोमालिया के पुटलैंड में मंगलवार देर रात अज्ञात बंदूकधारियों ने रेडियो पत्रकार की गोली मारकर हत्या कर दी। वह दलजीर रेडियो दलजीर में काम करते थे।

हैफ़ा वेहबे के उत्तेजक लिबास पर घमासान

लेबनान की एक पॉप स्टार की पोशाक ने अरब देशों के सोशल मीडिया में बहस छेड़ दी है. मिस्र, जॉर्डन और सऊदी अरब की कई महिलाओं ने हैफ़ा की पोशाक की तीखी आलोचना की है. पिछले हफ़्ते गायिका हैफ़ा वेहबे ने अरब स्टार एकेडमी म्यूज़िक शो पर प्रस्तुति दी थी. समूचे अरब देशों में प्रसारित किए जाने वाले इस शो में हैफ़ा ने कुछ हद तक पारदर्शी लिबास पहना था. बीस लाख से ज़्यादा लोगों ने हैफ़ा की इस प्रस्तुति को ऑनलाइन भी देखा है. लेकिन वीडियो पर की गई टिप्पणियाँ बताती हैं कि अरब देशों में महिलाओं के कपड़ों को लेकर बहस का किस हद तक ध्रुवीकरण हो गया है.
कई महिलाएं ने इसे उत्तेजक और शर्मनाक क़रार दिया है. यू-ट्यूब पर एक टिप्पणी में लिखा गया, "कला की भी सीमाएं हैं और हैफ़ा तुमने उन्हें लांघ दिया है." अरब देशों में महिलाएं क्या पहन सकती हैं और क्या नहीं पहन सकती हैं इसको लेकर अलग-अलग देशों में अलग-अलग विचार हैं. लेबनान में मिनी स्कर्ट और बिकनी पहनना असमान्य बात नहीं है लेकिन सऊदी अरब की महिलाएं ख़ुद को सिर से पैरों तक ढका रखती हैं. लेकिन ऐसे समुदायों में भी जब महिलाओं सिर्फ़ महिलाओं के बीच ही होती हैं तो वे भी सिने सितारों की तरह ही पोशाक़ पहनती हैं. हैफ़ा के कपड़ों को लेकर पहले भी विवाद हो चुका है. मिस्र की एक महिला ने ट्विटर पर लिखा, "यह सच है कि हम उनके शर्मनाक़ पहनावों को देखने के आदि हो गए हैं लेकिन इस हद तक नहीं. यह दर्शकों के लिए आघात है."
हैफ़ा ने ट्वीट कर कहा है कि वह जानकर हैरान है कि स्टेज पर उनकी ड्रैस कैसी दिख रही थी. कुछ ने हैफ़ा का बचाव भी किया. एक महिला ने लिखा, "आपको ही उन्हें ऐसी पोशाक़ में देखने की आदत डाल लेनी चाहिए. सबको अपना पहनावा चुनने की आज़ादी है." एक अन्य महिला ने ट्वीट किया, "उत्तेजक लिबास पहनने वाली वे पहली या आख़िरी महिला नहीं हैं, वे इसमें बहुत ख़ूबसूरत लग रहीं थीं." लेबनानी लाइफ़स्टाइल ब्लॉगर दाना ख़ैरल्लाह कहती हैं कि लोगों ने इस पर विवाद किया क्योंकि अरब संस्कृति में इनदिनों अंदरुनी घमासान चल रहा है.
वे कहती हैं, "लोगों को लगता है कि यदि महिलाएं ऐसी पोशाक पहनेंगी तो इससे संस्कृति का ग़लत प्रतिनिधित्व होगा लेकिन मुझे ये पाखंड ज़्यादा लगता है क्योंकि क्लबों में अरब लड़कियाँ इससे भी उत्तेजक कपड़े पहनती हैं. उन पर कोई ग़ौर नहीं करता क्योंकि वहाँ कैमरा नहीं होता है." एक टिप्पणी में कहा गया, "इस तरह की महिलाओं को इस्लामिक स्टेट भेजे जाने की ज़रूरत है." शो को प्रसारित करने वाले मिस्र के चैनल सीबीसी ने इसके लिए माफ़ी मांग ली है. हैफ़ा ने भी मंच की रोशनी को इसके लिए ज़िम्मेदार बताते हुए कहा कि उनके कपड़े इतने उत्तेजक नहीं थे. उन्होंने कहा, "मैं ये जानकर चकित हूँ कि तेज़ रोशनी में यह पोशाक़ बिलकुल अलग नज़र आ रही थी." (बीबीसी से साभार)