Monday 8 September 2014

और आज ही के दिन 9 सितंबर 1828 को उन्नीसवीं सदी के सर्वाधिक सम्मानित लेखकों में से एक लियो निकोलायेविच टालस्टाय का जन्म रूस के तुला के यास्नया पोलियाना में हुआ था। धन-दौलत व साहित्यिक प्रतिभा के बावजूद तालस्तोय मन की शांति के लिए तरसते रहे। अंततः 1890 में उन्होंने अपनी धन-संपत्ति त्याग दी। आखिरकार 20 नवंबर 1910 को अस्तापवा नामक एक छोटे से रेलवे स्टेशन पर इस धनिक पुत्र ने एक गरीब, निराश्रित, बीमार वृद्ध के रूप में मौत का आलिंगन किया था। वार ऐंड पीस, अन्ना कैरेनिना आदि उनकी विश्वप्रसिद्ध कृतियां रहीं उन्होंने अपने 'रिसरेक्शन' नामक उपन्यास की समस्त आय रूस की शांतिवादी जाति दुखेबोर लोगों को रूस का परित्याग कर कैनाडा में जा बसने के लिये दे दी थी।


टॉलस्टॉय के माता पिता का देहांत इनके बचपन में ही हो गया था, अत: लालन पालन इनकी चाची तत्याना ने किया। उच्चवर्गीय ताल्लुकेदारों की भॉति इनकी शिक्षा के दीक्षा के लिये सुदक्ष विद्वान् नियुक्त थे। घुड़सवारी, शिकार, नाच-गान, ताश के खेल आदि विद्याओं और कलाओं की शिक्षा इन्हें बचपन में ही मिल चुकी थी। चाची तात्याना इन्हें आदर्श ताल्लुकेदारों बनाना चाहती थी और इसी उद्देश्य से, तत्मालीन संभ्रात समाज की किसी महिला को प्रेमपात्री बनाने के लिये उसकाया करती थीं। युवावस्था में तॉलस्तॉय पर इसका अनुकूल प्रभाव ही पड़ा। पर तॉलस्तॉय का अंत:करण इसे उचित नहीं समझता था। अपनी डायरी में उन्होंने इसकी स्पष्ट भर्त्सना की है।
1844 में तॉलस्तॉय कज़ान विश्वविद्यालय में प्रविष्ट हुए और 1847 तक उन्होनें पौर्वात्य भाषाओं (eastern languages) और विधिसंहिताओं (कानून) का अध्ययन किया। रियासत के बँटवारे का प्रश्न उपस्थित हो जाने के कारण स्नातक हुए बिना ही इन्हे विश्वविद्यालय छोड़ देना पड़ा। रियासत में आकर इन्होंने अपने कृषक असामियों की दशा में सुधार करने के प्रयत्न किए और सुविधापूर्वक उन्हें स्वतंत्र भूस्वामी हो जाने के लिये कतिपय शर्तें उपस्थित कीं, परंतु असामी वर्ग आसन्न स्वतंत्रता की अफवाहों से प्रभावित था, अत: उसने तॉलस्तॉय की शर्ते ठुकरा दीं। पर यह अफवाह अफवाह ही रही और अंतत: कृषकों को पश्चाताप करना ही हाथ लगा। उनकी कहानी "ए लैंड औनर्स मोर्निग" (1856) इसी घटना पर आधृत है।
1851 में तॉलस्तॉय कुछ समय के लिये सेना में भी प्रविष्ट हुए थे। उनकी नियुक्ति कोकेशस में पर्वतीय कबीलों से होनेवाली दीर्घकालीन लड़ाई में हुई जहाँ अवकाश का समय वे लिखने पढ़ने में लगाते रहे। यहीं पर उनकी प्रथम रचना चाइल्डहुड 1852 में निर्मित हुई जो एल0 टी0 के नाम से "टि कंटेंपोरेरी" नामक पत्र में प्रकाशित हुई। उस रोमैंटिक युग में भी इस नीरस यथार्थवादी ढंग की रचना ने लोगों को आकृष्ट किया और उसके रचनाकार के नाम के संबंध में तत्कालीन साहित्यिक तरह तरह के अटकल लगाने लगे थे।
1854 में तॉलस्तॉय डैन्यूब के मोर्चे पर भेजे गए; वहाँ से अपनी बदली उन्होने सेबास्तोपोल में करा ली जो क्रीमियन युद्ध का सबसे तगड़ा मोर्चा था। यहाँ उन्हें युद्ध और युद्ध के संचालकों को निकट से देखने परखने का पर्याप्त अवसर मिला। इस मोर्चे पर वे अंत तक रहे और अनेक करारी मुठभेड़ों में प्रत्यक्षत: संघर्षरत रहे। इसी के परिणामस्वरूप उनकी रचना "सेबास्टोपोल स्केचेज" (1855-56) निर्मित हुई। युद्ध की उपयोगिता और जीवन पर उसके प्रभावों को निकट से देखने समझने के यथेष्ट अवसर उन्हें यहाँ मिले ओर इन उपलब्धियों का यथोचित उपयोग उन्होंने अपनी अनेक परवर्ती रचनाओं में किया।
1855 में उन्होने पीटर्सवर्ग की यात्रा की जहाँ के साहित्यिकारों ने इनका बड़ा सम्मान किया। 1857 ओर 1860-61 में इन्होंने पश्चिमी यूरोप के विभिन्न देशों का पर्यटन किया। परवर्ती पर्यटन का मुख्य उद्देश्य एतद्देशीय शिक्षापद्धतियों और दातव्य संस्थाओं के संघटन और क्रियाकलापों ही जानकारी प्राप्त करना था। इसी यात्रा में उन्हे यक्ष्मा (टीबी) से पीड़ित अपने बड़े भाई की मृत्यु देखने को मिली। घोरतम यातनाओं के अनंतर होनेवाली यक्ष्माक्रांत भाई की मृत्यु का तॉलस्तॉय पर मर्मातक प्रभाव पड़ा। वार ऐंड पीस, अन्ना कैरेनिना और दि डेथ आव इवैन ईलियच में मृत्यु के जो अत्यंत मार्मिक चित्रण मिलते हैं, उनका आधार उपर्युक्त घटना ही रही है।
यात्रा से लौटकर उन्होंने अपने गाँव यास्नाया पोल्याना में कृषकों के बच्चों के लिये एक स्कूल खोला। इस विद्यालय की शिक्षा पद्धति बड़ी प्रगतिशील थी। इसमें वर्तमान परीक्षाप्रणाली एवं इसके आधार पर उत्तीर्ण अनुत्तीर्ण कारने की व्यवस्था नहीं रखी गई थी। विद्यालय बड़ा सफल रहा जिसका मुख्य कारण तॉलस्तॉय की नेतृत्व शक्ति और उसके प्रति हार्दिक लगन थी। विद्यालय की ओर से, गाँव के ही नाम पर ""यास्नाया पोल्याना"" नामक एक पत्रिका भी निकलती थी जिसमें प्रकाशित तॉलस्तॉय के लेखों में विद्यालय ओर उसके छात्रों की विभिन्न समस्याओं पर बड़े ही सारगर्भित विचार व्यक्त हुए हैं।
1862 में तॉलस्तॉय का विवाह साफिया बेर्हस नामक उच्चवर्गीय संभ्रांत महिला से हुआ। उनके वैवाहिक जीवन का पूर्वाश तो बड़ा सुखद रहा पर उत्तरांश कटुतापूर्ण बीता। तॉलस्तॉय के वैवाहिक जीवन में गृहिणी का आदर्श पूर्णत: भारतीय गृहिणी का सा था: पर तत्कालीन रूसी संभ्रांत समाज के विचार बिल्कुल भिन्न थे।
1863 से 1869 तक तॉलस्तॉय का समय "वार ऐंड पीस" की रचना में एवं 1873 से 76 तक का समय "अन्ना कैरेनिना" की रचना में बीता। इन दोनों रचनाओं ने तॉलस्तॉय की साहित्यिक ख्याति को बहुत ऊँचा उठाया। वे मनुष्यजीवन का रहस्य और उसके तत्वचिंतन के प्रति विशेष जागरूक थे। 1875 से 1879 तक का समय उनके लिये बड़ा निराशजनक था- ईश्वर पर से उनकी आस्था तक उठ चुकी थी ओर आत्महत्या तक करने पर वे उतारू हो गए थे। पर अंत में उन्होंने इसपर विजय पाई। 1878-79 में इन्होने "कनफेशन" नामक अपनी विवादपूर्ण कृति की रचना की। इसके क्रांतिकारी विचार ऐसे हैं जिनके कारण रूस में इसके प्रकाशन की अनुमति भी नहीं मिली और पुस्तक स्विटलरलैंड में प्रकाशित हुई। इस समय की उनकी अन्य कई रचनाएँ इसी कोटि की हैं और वे सब स्विटजरलैंड में छपी हैं।
1878 से लेकर 1885 तक की अवधि में फलात्मक साहित्य सृजन की दृष्टि से तॉलस्तॉय निष्क्रिय रहे। उनकी अंतर्वृति मानव जीवन के रहस्य की खोज में उलझी रही। अंबतक की समस्त रचनाएँ उन्हें व्यर्थ प्रतीत होने लगीं। पर 1886 में वे पुन: उच्चकोटि के सिद्धहस्त उपन्यास लेखक के रूप में सामने आए और इसी वर्ष उनकी महान् उपन्यासिक रचना ""डि डेथ आव इवैन ईल्यिज"" प्रकाशित हुई।
उनके आचार संबंधी विश्वासों के प्रति अब सारा संसार आकृष्ठ हो चुका था, और यास्नाया पोल्याना ग्राम की मान्यता उत्कृष्ट तीर्थस्थली के रूप में जगद्धिख्यात हो चुकी थी। हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी इस समय युवक थे। इन्हीं दिनों उन्होंने तॉलस्तॉय की रचनाएँ रुचिपूर्वक पढ़ी थीं और उनकी ओर आकृष्ट हुए थे।
19वीं शताब्दी का अंत होते होते दरिद्रों और असहायों के प्रति तॉलस्तॉय की सेवावृति यहाँ तक बढ़ी कि उन्होने अपनी रचनाओं से रूस देश में होनेवाली अपनीं समस्त आय दान कर दी। अपनी पत्नी को मात्र उतना अंश लेने की उन्होंने अनुमति दी जितना परिवार के भर पोषण के लिये अनिवार्य था। "रिसरेक्शन" (1899) नामक अपने उपन्यास की समस्त आय उन्होंने रूस की शांतिवादी जाति दुखेबोर लोगों को रूस का परित्याग कर कैनाडा में जा बसने के लिये दे दी।
1910 में सहसा उन्होंने अपने पैत्रिक ग्राम "यास्नाया पोल्याना" को सर्वदा के लिये परित्यक्त करने का निश्चय किया। 10 नवंबर 1910 को अपनी पुत्री ऐलेक्लेंड्रा के साथ उन्होनें प्रस्थान किया, पर 22 नवबंर 1910 को मार्ग के स्टेशन ऐस्टापोवो में अकस्मात् फेफड़े में दाह होने से वहीं उनका शरीरांत हो गया।

पाश ने कहा था- 'हम लड़ेंगे साथी, जब तक दुनिया में लड़ने की ज़रूरत बाकी है...हम लड़ेंगे कि लड़े बगैर कुछ नहीं मिलता, हम लड़ेंगे कि अब तक लड़े क्यों नहीं...'। आज 09 सितंबर को है पंजाबी के इस महान क्रांतिकारी कवि अवतार सिंह संधु 'पाश' का जन्मदिन, खालिस्तानी आतंकवादियों ने 39 साल की उम्र में 23 मार्च 1988 को उनके ही गांव में उनकी गोली मारकर हत्या कर दी थी।

1950 को जन्मे पाश का मूल नाम था अवतार सिंह संधु। उन्होंने महज 15 साल की उम्र से ही कविता लिखनी शुरू कर दी और उनकी कविताओं का पहला प्रकाशन 1967 में हुआ। उन्होंने सिआड, हेम ज्योति और हस्तलिखित हाक पत्रिका का संपादन किया। पाश 1985 में अमेरिका चले गए। उन्होंने वहां एंटी 47 पत्रिका का संपादन किया। पाश ने इस पत्रिका के जरिए खालिस्तानी आंदोलन के खिलाफ सशक्त प्रचार अभियान छेडा। पाश कविता के शुरुआती दौर से ही भाकपा से जुड गए। उनकी नक्सलवादी राजनीति से भी सहानुभूति थी। पंजाबी में उनके चार कविता संग्रह.. लौह कथा, उड्डदे बाजां मगर, साडे समियां विच और लडांगे साथी प्रकाशित हुए हैं। हिन्दी में इनके काव्य संग्रह बीच का रास्ता नहीं होता और समय ओ भाई समय के नाम से अनूदित हुए हैं। पंजाबी के इस महान कवि की महज 39 साल की उम्र में 23 मार्च 1988 को उनके ही गांव में खालिस्तानी आतंकवादियों ने गोली मारकर हत्या कर दी। पाश धार्मिक संकीर्णता के कट्टर विरोधी थे। धर्म आधारित आतंकवाद के खतरों को उन्होंने अपनी एक कविता में बेहद धारदार शब्दों में लिखा है- मेरा एक ही बेटा है धर्मगुरु वैसे अगर सात भी होते वे तुम्हारा कुछ नहीं कर सकते थे तेरे बारूद में ईश्वरीय सुगंध है तेरा बारूद रातों को रौनक बांटता है तेरा बारूद रास्ता भटकों को दिशा देता है मैं तुम्हारी आस्तिक गोलियों को अ‌र्ध्य दिया करूंगा..।
जिन्हें अंग्रेजी हुकूमत ने फांसी दी थी और इसके 57 साल बाद पंजाब के क्रांतिकारी कवि अवतार सिंह ‘पाश’ आतंकवादियों की गोलियों का निशाना बने. यह संयोग हो सकता है कि भगत सिंह के शहीदी दिवस अर्थात 23 मार्च को ही पंजाब में पैदा हुए अवतार सिहं ‘पाश’ भी शहीद होते हैं लेकिन इनके उद्देश्य व विचारों की एकता संयोग नहीं है. यह वास्तव में भारतीय जनता की सच्ची आजादी के संघर्ष की परंपरा का सबसे बेहतरीन विकास है. यह शहादत राजनीति और संस्कृति की एकता का सबसे अनूठा उदाहरण है.
जो लोग भगत सिंह और उनके साथियों के विचारों से थोड़ा भी परिचित हैं, वे जानते हैं कि उन्होंने एक ऐसे भारतीय समाज का सपना देखा था जो दमन, अत्याचार, शोषण व अन्याय जैसे मानव विरोधी मूल्यों से सर्वथा मुक्त हो तथा जहां सत्ता मजदूरों-किसानों के हाथों में हो. भगत सिंह के विचारों की रोशनी में देखें तो 15 अगस्त 1947 की आजादी की लड़ाई को जारी रखने तथा पूरी करने के लिए वे वैचारिक आवेग प्रदान करते हैं. भगत सिंह ने बार-बार स्पष्ट किया था कि आजादी से उनका मतलब ब्रिटिश सत्ता की जगह देशी सामन्तों व पूंजीपतियों की सत्ता नहीं, बल्कि शोषण-उत्पीड़न से करोड़ों-करोड़ मेहनतकशों की आजादी तथा मेहनतकश जनता के हाथों में वास्तविक सत्ता होना है. भगत सिंह ने ‘समाजवाद की बुनियाद पर समाज निर्माण करने’ तथा ‘मनुष्य के हाथों मनुष्य का कौमों के हाथों कौमों का शोषण समाप्त करने’ के लिए क्रांति का आह्वान किया था. लेकिन अफसोस कि भगत सिंह और उनके साथियों ने आजादी का जो सपना देखा था, जिस संघर्ष और क्रांति का आह्वान किया था, वह अधूरा ही रहा.
भारतीय जनता के गौरवशाली संघर्ष और विश्व पूंजीवाद के आंतरिक संकट के परिणामस्वरूप जो राजनीतिक आजादी 1947 में मिली, उसका लाभ केवल पूंजीपतियों, सामंतों और उनसे जुड़े मुट्ठीभर विशेषाधिकार प्राप्त लोगों ने ही उठाया है. आज हालत और भी बदतर है. कल जो राजनीति त्याग व सेवा का कार्य था, आज मुनाफे का धंधा है. देश नई गुलामी के जाल में फंस चुका है. हम देखते हैं कि सातवां दशक आते-आते आजादी से मोहभंग की प्रक्रिया शुरू हो जाती है. भारत के शासक वर्ग के खिलाफ जन असंतोष तेज होता है जिसकी अभिव्यक्ति राजनीति में ही नहीं, संस्कृति व साहित्य में भी होती है. इस दौर में पंजाबी साहित्य के क्षेत्र में नये पीढ़ी के कवियों ने पंजाबी कविता को नया रंग-रूप प्रदान किया. अवतार सिंह पाश इन्हीं की अगली पांत में थे.
उनकी पहली कविता 1967 में छपी थी. अमरजीत चंदन के संपादन में भूमिगत पत्रिका ‘दस्तावेज’ के चौथे अंक में परिचय सहित पाश की कविताओं का प्रकाशन पंजाबी साहित्य के क्षेत्र में धमाके की तरह था. उन दिनों पंजाब में क्रांतिकारी संघर्ष अपने उभार पर था. पाश का गांव तथा इलाका इस संघर्ष के केन्द्र में था. उन्होंने इसी संघर्ष की जमीन पर कविताएं रचीं और इसके ‘जुर्म’ में गिरफ्तार हुए. करीब दो वर्षों तक जेल में रहकर सत्ता के दमन का मुकाबला करते हुए उन्होंने ढेरों कविताएं लिखीं. वहीं रहते उनका पहला कविता संग्रह ‘लोककथा’ प्रकाशित हुआ जिसने पंजाबी कविता में उनकी पहचान दर्ज करा दी.
1972 में जेल से रिहा होने के बाद पाश ने ‘सिआड’ नाम की साहित्यिक पत्रिका निकालनी शुरू की. पंजाब में क्रांतिकारी आंदोलन बिखरने लगा था. साहित्य के क्षेत्र में भी पस्ती व हताशा का दौर शुरू हो गया था. ऐसे में पाश ने आत्मसंघर्ष करते हुए सरकारी दमन के खिलाफ व जन आंदोलनों के पक्ष में रचनाएं की. पंजाब के लेखकों-संस्कृतिकर्मियों को एकजुट व संगठित करने के प्रयास में पाश ने ‘पंजाबी साहित्य-सभ्याचार मंच’ का गठन किया तथा अमरजीत चंदन, हरभजन हलवारही आदि के साथ मिलकर ‘हेमज्योति’ पत्रिका निकाली. इस दौर की पाश की कविताओं में भावनात्मक आवेग की जगह विचार व कला की ज्यादा गहराई थी. चर्चित कविता ‘युद्ध और शांति’ उन्होंने इसी दौर में लिखी. 1974 में उनका दूसरा कविता संग्रह ‘उडडदे बाजा मगर’ छपा और तीसरा संग्रह ‘साडे समियां विच’ 1978 में प्रकाशित हुआ.
उनकी मृत्यु के बाद ‘लड़ेगें साथी’ शीषर्क से चौथा संग्रह आया जिसमें प्रकाशित व अप्रकाशित कविताएं संकलित हैं. पाश की कविताओं का मूल स्वर राजनीतिक-सामाजिक बदलाव अर्थात क्रांति और विद्रोह का है. उनमें एक तरफ सांमती-उत्पीड़कों के प्रति जबर्दस्त गुस्सा व नफरत का भाव है, वहीं अपने जन के प्रति अथाह प्यार है. नाजिम हिकमत और ब्रेख्त की तरह इनकी कविताओं में राजनीति व विचार की स्पष्टता व तीखापन है. कविता राजनीतिक नारा नहीं होती लेकिन राजनीतिक नारे कला व कविता में घुल-मिलकर उसे नया अर्थ प्रदान करते हैं तथा कविता के प्रभाव और पहुंच को आश्चर्यजनक रूप में बढ़ाते हैं. यह बात पाश की कविताओं में देखी जा सकती है. पाश ने कविता को नारा बनाये बिना अपने दौर के तमाम नारों को कविता में बदल दिया.
पाश की नजर में एक तरफ ‘शब्द जो राजाओं की घाटियों में नाचते हैं, जो प्रेमिका की नाभि का क्षेत्रफल मापते हैं, जो मेजों पर टेनिस बॉल की तरह दौड़ते हैं और जो मैचों की ऊसर जमीन पर उगते हैं, कविता नहीं होते.’ तो दूसरी तरफ ‘युद्ध हमारे बच्चों के लिए कपड़े की गेंद बनकर आएगा/युद्ध हमारी बहनों के लिए कढाई के सुन्दर नमूने लायेगा/युद्ध हमारी बीवियों के स्तनों में दूध बनकर उतरेगा/युद्ध बूढी मां के लिए नजर का चश्मा बनेगा/युद्ध हमारे पुरखों की कब्रों पर फूल बनकर खिलेगा.’ और ‘तुम्हारे इंकलाब में शामिल हैं संगीत और साहस के शब्द/ खेतों से खदानों तक युवा कंधों और बलिष्ठ भुजाओं से रचे हुए शब्द... बर्बर सन्नाटों को चीरते हजार कंठों से निकली आवाज ही पाश की कविता में शब्दबद्ध होती है. पाश की कविताओं में इन्हीं कंठों की ऊष्मा है.
1985 में पाश ने अमेरिका से ‘एंटी-47’ पत्रिका के जरिये खालिस्तान का खुला विरोध किया. मार्च 1988 में वह छुट्टियां बिताने गांव आये थे और 23 मार्च को आतंकवादियों ने नहाते समय उनकी हत्या कर दी. सरकारी जेलें हों या आंतकवादियों की बन्दूकें, पाश ने झुकना नहीं स्वीकारा.
दलित-पीड़ित शोषित कंठों से निकली आवाज को कविता में पिरोते हुए अंतत: वह अपने प्रिय शहीद भगत सिंह की राह चलते हुए शहीद हो गये. भले ही इनकी शहादत के बीच 57 वर्षों का अंतर है परन्तु दोनों राजनीति और संस्कृति की दुनिया को बहुत गहरे प्रभावित करते हैं.

सबसे ख़ूबसूरत है वह समुद्र जिसे अब तक देखा नहीं हमने
सबसे ख़ूबसूरत बच्चा जो अब तक बड़ा नहीं हुआ
सबसे ख़ूबसूरत हैं वे दिन जिन्हें अभी तक जिया नहीं हमने
सबसे ख़ूबसूरत हैं वे बातें जो अभी कही जानी हैं ।
(नाज़‍िम हिक़मत)