Saturday 20 July 2013

मैं नास्तिक क्यों हूँ : भगत सिंह


एक नई समस्‍या उठ खड़ी हुई है – क्‍या मैं किसी अहंकार के कारण सर्वशक्तिमान सर्वव्‍यापी तथा सर्वज्ञानी ईश्‍वर के अस्तित्‍व पर विश्‍वास नहीं करता हूँ? मैंने कभी कल्‍पना भी न की थी कि मुझे इस समस्‍या का सामना करना पड़ेगा। लेकिन अपने दोस्‍तों से बातचीत के दौरान मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मेरे कुछ दोस्‍त, यदि मित्रता का मेरा दावा गलत न हो, मेरे साथ अपने थोड़े से संपर्क में इस निष्‍कर्ष पर पहुँचने के लिए उत्‍सुक हैं कि मैं ईश्‍वर के अस्तित्‍व को नकार कर कुछ जरूरत से ज्‍यादा आगे जा रहा हूँ और मेरे घमंड ने कुछ हद तक मुझे इस अविश्‍वास के लिए उकसाया है। जी हाँ, यह एक गंभीर समस्‍या है। मैं ऐसी कोई शेखी नहीं बघारता कि मैं मानवीय कमजोरियों से बहुत ऊपर हूँ। मैं एक मनुष्‍य हूँ और इससे अधिक कुछ नहीं। कोई भी इससे अधिक होने का दावा नहीं कर सकता। एक कमजोरी मेरे अंदर भी है। अहंकार मेरे स्‍वभाव का अंग है। अपने कामरेडों के बीच मुझे एक निरंकुश व्‍यक्ति कहा जाता था। यहाँ तक कि मेरे दोस्‍त श्री बी.के. दत्त भी मुझे कभी-कभी ऐसा कहते थे। कई मौकों पर स्‍वेच्‍छाचारी कहकर मेरी निन्‍दा भी की गई। कुछ दोस्‍तों को यह शिकायत है, और गंभीर रूप से है, कि मैं अनचाहे ही अपने विचार उन पर थोपता हूँ और अपने प्रस्‍तावों को मनवा लेता हूँ। यह बात कुछ हद तक सही है, इससे मैं इंकार नहीं करता। इसे अहंकार भी कहा जा सकता है। जहाँ तक अन्‍य प्रचलित मतों के मुकाबले हमारे अपने मत का सवाल है, मुझे निश्‍चय ही अपने मत पर गर्व है। लेकिन यह व्‍यक्तिगत नहीं है। ऐसा हो सकता है कि यह केवल अपने विश्‍वास के प्रति न्‍यायोचित गर्व हो और इसको घमंड नहीं कहा जा सकता। घमंड या सही शब्‍दों में अहंकार तो स्‍वयं के प्रति अनुचित गर्व की अधिकता है। तो फिर क्‍या यह अनुचित गर्व है जो मुझे नास्तिकता की ओर ले गया, अथवा इस विषय का खूब सावधानी के साथ अध्‍ययन करने और उस पर खूब विचार करने के बाद मैंने ईश्‍वर पर अविश्‍वास किया? यह प्रश्‍न है जिसके बारे में मैं यहाँ बात करना चाहता हूँ। लेकिन पहले मैं यह साफ कर दूँ कि आत्‍माभिमान और अहंकार दो अलग-अलग बातें हैं।
पहली बात तो मैं यह समझने में पूरी तरह से असमर्थ रहा हूँ कि अनुचित गर्व या वृथाभिमान किस प्रकार किसी व्‍यक्ति के ईश्‍वर में विश्‍वास करने के रास्‍ते में रोड़ा बन सकता है। मैं वास्‍तव में किसी महान व्‍यक्ति की महानता को मान्‍यता न दूँ यह तभी हो सकता है जब मुझे भी थोड़ा ऐसा यश प्राप्‍त हो गया हो जिसके या तो मैं योग्‍य नहीं हूँ या मेरे अंदर वो गुण नहीं है जोकि इसके लिए आवश्‍यक अथवा अनिवार्य है। यहाँ तक तो समझ में आता है। लेकिन यह कैसे हो सकता है कि एक व्‍यक्ति, जो ईश्‍वर में विश्‍वास रखता हो, सहसा अपने व्‍यक्तिगत अहंकार के कारण उसमें विश्‍वास करना बंद कर दे? दो ही रास्‍ते संभव हैं। या तो मनुष्‍य अपने को ईश्‍वर का प्रतिद्वंद्वी समझने लगे या वह स्‍वयं को ही ईश्‍वर मानना शुरू कर दे। इन दोनों ही अवस्‍थाओं में वह सच्‍चा नास्तिक नहीं बन सकता। पहली अवस्‍था में तो वह प्रतिद्वंद्वी के अस्तित्‍व को नकारता ही नहीं है। दूसरी अवस्‍था में भी वह एक ऐसी चेतना के अस्तित्‍व को मानता है, जो पर्दे के पीछे से प्रकृति की सभी गतिविधियों का संचालन करती है। हमारे लिए इस बात का कोई महत्व नहीं कि वह अपने को ही परम आत्‍मा समझता है या यह समझता है कि वह परम चेतना उससे परे कुछ और है। मूल बात तो मौजूद है। या यह समझता है कि वह परम चेतना उससे परे कुछ और है। मूल बात तो मौजूद है। उसका विश्‍वास मौजूद है। वह किसी भी तरह एक नास्तिक नहीं है। तो मैं यह कहना चाहता था कि न तो मैं पहली श्रेणी में आता हूँ और न दूसरी में। मैं तो उस सर्वशक्तिमान परम आत्‍मा के अस्तित्‍व से ही इंकार करता हूँ। मैं इससे क्‍यों इंकार करता हूँ इसको बाद में देखेंगे। यहाँ तो मैं एक बात यह स्‍पष्‍ट कर देना चाहता हूँ कि यह अहंकार नहीं है जिसने मुझे नास्तिकता के सिद्धांत को ग्रहण करने के लिए प्रेरित किया। न तो मैं एक प्रतिद्वंद्वी, न ही अवतार और न ही स्‍वयं परम आत्‍मा। एक बात निश्चित है, यह अहंकार नहीं है जो मुझे इस भाँति सोचने की ओर ले गया। इस अभियोग को अस्‍वीकार करने के लिए आइए, तथ्‍यों पर गौर करें। मेरे इन दोस्‍तों के अनुसार, दिल्‍ली बम केस और लाहौर षड्यंत्र केस के दौरान मुझे जो अनावश्‍यक यश मिला, शायद उस कारण मैं वृथाभिमानी हो गया हूँ। तो फिर आइए, देखें कि क्‍या यह पक्ष सही है। मेरा नास्तिकतावाद कोई अभी हाल की उत्‍पत्ति नहीं है। मैंने तो ईश्‍वर पर विश्‍वास करना तब छोड़ दिया था जब मैं एक अप्रसिद्ध नौजवान था, जिसके अस्तित्‍व के बारे में मेरे उपरोक्‍त दोस्‍तों को कुछ पता भी न था। कम से कम एक कालेज का विद्यार्थी तो ऐसे किसी अनुचित अहंकार को नहीं पाल-पोस सकता जो उसे नास्तिकता की ओर ले जाए। यद्यपि मैं कुछ अध्‍यापकों का चहेता था तथा कुछ अन्‍य को मैं अच्‍छा नहीं लगता था, पर मैं कभी बहुत मेहनती अथवा पढ़ाकू विद्यार्थी नहीं रहा। अहंकार जैसी भावना में फँसने का तो कोई मौका ही न मिल सका। मैं तो एक बहुत लज्‍जालु स्‍वभाव का लड़का था, जिसकी भविष्‍य के बारे में कुछ निराशावादी प्रकृति थी। और उन दिनों मैं पूर्ण नास्तिक नहीं था। मेरे बाबा, जिनके प्रभाव से मैं बड़ा हुआ, एक रूढ़िवादी आर्यसमाजी हैं। एक आर्यसमाजी और कुछ भी हो, नास्तिक नहीं होता। अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद मैंने डी.ए.वी. स्‍कूल, लाहौर में प्रवेश लिया और पूरे एक साल उसके छात्रावास में रहा। वहाँ सुबह और शाम की प्रार्थना के अतिरिक्‍त मैं घंटों गायत्री मंत्र जपा करता था। उन दिनों मैं पूरा भक्‍त था। बाद में मैंने अपने पिता के साथ रहना शुरू किया। जहाँ तक धार्मिक रूढ़िवादिता का प्रश्‍न है, वह एक उदारवादी व्‍यक्ति हैं। उन्‍हीं की शिक्षा से मुझे स्‍वतंत्रता के ध्‍येय के लिए अपने जीवन को समर्पित करने की प्रेरणा मिली। किंतु वे नास्तिक नहीं हैं। उनका ईश्‍वर में दृढ़ विश्‍वास है। वे मुझे प्रतिदिन पूजा-प्रार्थना के लिए प्रोत्‍साहित करते रहते थे। इस प्रकार से मेरा पालन-पोषण हुआ। असहयोग आंदोलन के दिनों में मैंने राष्‍ट्रीय कालेज में प्रवेश लिया। यहाँ आकर ही मैंने सारी धार्मिक समस्‍याओं, यहाँ तक कि ईश्‍वर के बारे में उदारपूर्वक सोचना, विचारना तथा उसकी आलोचना करना शुरू किया। पर अभी भी मैं पक्‍का आस्तिक था। उस समय तक मैंने अपने बिना काटे व सँवारे हुए लंबे बालों को रखना शुरू कर दिया था, यद्यपि मुझे कभी भी सिख या अन्‍य धर्मों की पौराणिकता और सिद्धांतों में विश्‍वास न हो सका था। किंतु मेरी ईश्वर के अस्तित्‍व में दृढ़ निष्‍ठा थी।

बाद में मैं क्रांतिकारी पार्टी से जुड़ा। वहाँ पर जिस पहले नेता से मेरा संपर्क हुआ, वे तो पक्‍का विश्‍वास न होते हुए भी ईश्‍वर के अस्तित्‍व को नकारने का साहस नहीं कर सकते थे। ईश्‍वर के बारे में मेरे हठपूर्वक पूछते रहने पर वे कहते, "जब इच्‍छा हो तब पूजा कर लिया करो।" यह नास्तिकता है जिसमें इस विश्‍वास को अपनाने के साहस का अभाव है। दूसरे नेता जिनके मैं संपर्क में आया वे पक्‍के श्रद्धालु थे। उनका नाम बता दूँ - आदरणीय कामरेड शचींद्रनाथ सान्‍याल, जोकि आजकल काकोरी षड्यंत्र केस के सिलसिले में आजीवन कारावास भोग रहे हैं। उनकी अकेली प्रसिद्ध पुस्‍तक ‘बंदी जीवन’ में पहले पेज से ही ईश्‍वर की महिमा का जोर-जोर से गान है। उस सुंदर पुस्‍तक के दूसरे भाग के अंतिम पेज में उन्‍होंने ईश्‍वर के ऊपर प्रशंसा के जो रहस्‍यात्‍मक वेदांत के कारण पुष्‍प बरसाए हैं वे उनके विचारों का अजीबोगरीब हिस्‍सा हैं। 28 जनवरी, 1925 को पूरे भारत में जो ‘दि रिवाल्‍यूशनरी’ (क्रांतिकारी) पर्चा बाँटा गया था वह अभियोग पक्ष की कहानी के अनुसार उन्‍हीं के बौद्धिक श्रम का परिणाम है। अब इस प्रकार के गुप्‍त कार्यों में कोई प्रमुख नेता अनिवार्यत: अपने विचारों को ही रखता है, जो उसे स्‍वयं बहुत प्रिय होते हैं और अन्‍य कार्यकर्ताओं को उनसे सहमत होना होता है। उन मतभेदों के बावजूद जो उनके हो सकते हैं। उस पर्चे में पूरा एक पैराग्राफ उस सर्वशक्तिमान तथा उसकी लीला एवं कार्यों की प्रशंसा से भरा पड़ा था। यह सब रहस्‍यवाद है। मैं जो कहना चाहता था वह यह है कि ईश्‍वर के प्रति अविश्‍वास का भाव क्रांतिकारी दल में भी प्रस्‍फुटित नहीं हुआ था। काकोरी के प्रसिद्ध सभी चार शहीदों ने अपने अंतिम दिन भजन प्रार्थना में गुजारे थे। रामप्रसाद बिस्मिल एक रूढ़िवादी आर्यसमाजी थे। समाजवाद तथा साम्‍यवाद में अपने वृहद अध्‍ययन के बावजूद, राजेंद्र लाहिड़ी उपनिषद् एवं गीता के श्‍लोकों के उच्‍चारण की अपनी अभिलाषा को दबा न सके। मैंने उन सबमें सिर्फ एक ही व्‍यक्ति को देखा जो कभी प्रार्थना नहीं करता था और कहता था, "दर्शनशास्‍त्र मनुष्‍य की दुर्बलता अथवा ज्ञान के सीमित होने के कारण उत्‍पन्‍न होता है।" वह भी आजीवन निर्वासन की सजा भोग रहा है। परंतु उसने भी ईश्‍वर के अस्तित्‍व को नकारने की कभी हिम्‍मत नहीं की।

इस समय तक मैं केवल एक रोमांटिक आदर्शवादी क्रांतिकारी था। अब तक हम दूसरों का अनुसरण करते थे, अब अपने कंधों पर जिम्‍मेदारी उठाने का समय आया था। कुछ समय तक तो, अवश्‍यंभावी प्रक्रिया के फलस्‍वरूप पार्टी का अस्तित्‍व ही असंभव-सा दिखा। उत्‍साही कामरेडों, नहीं नेताओं ने भी हमारा उपहास करना शुरू कर दिया। कुछ समय तक तो मुझे यह डर लगा कि एक दिन मैं भी कहीं अपने कार्यक्रम की व्‍यर्थता के बारे में आश्‍वस्‍त न हो जाऊँ। वह मेरे क्रांतिकारी जीवन का एक निर्णायक बिंदु था। अध्‍ययन की पुकार मेरे मन के गलियारों में गूँज रही थी - विरोधियों द्वारा रखे गए तर्कों का सामना करने योग्‍य बनने के लिए अध्‍ययन करो। अपने मत के समर्थन में तर्क देने के लिए सक्षम होने के वास्‍ते पढ़ो। मैंने पढ़ना शुरू कर दिया। इससे मेरे पुराने विचार व विश्‍वास अद्भुत रूप से परिष्‍कृत हुए। हिंसात्‍मक तरीकों को अपनाने का रोमांस, जोकि हमारे पुराने साथियों में अत्‍यधिक व्‍याप्‍त था, की जगह गंभीर विचारों ने ले ली। अब रहस्‍यवाद और अंधविश्‍वास के लिए कोई स्‍थान नहीं रहा। यथार्थवाद हमारा आधार बना। हिंसा तभी न्‍यायोचित है जब किसी विकट आवश्‍यकता में उसका सहारा लिया जाए। अहिंसा सभी जन आंदोलनों का अनिवार्य सिद्धांत होना चाहिए। यह तो रही तरीकों की बात। सबसे आवश्‍यक बात उस आदर्श की स्‍पष्‍ट धारणा है जिसके लिए हमें लड़ना है। चूँकि उस समय कोई विशेष क्रांतिकारी कार्य नहीं हो रहा था अतः मुझे विश्‍व क्रांति के अनेक आदर्शों के बारे में पढ़ने का खूब मौका मिला। मैंने अराजकतावादी नेता बाकुनिन को पढ़ा, कुछ साम्‍यवाद के पिता मार्क्‍स को, किंतु ज्‍यादातर लेनिन, त्रात्‍स्‍की व अन्‍य लोगों को पढ़ा जो अपने देश में सफलतापूर्वक क्रांति लाए थे। वे सभी नास्तिक थे। बाकुनिन की पुस्‍तक ‘ईश्‍वर और राज्‍य’ इस विषय पर, यद्यपि आंशिक रूप में, एक अच्‍छा अध्‍ययन है। बाद में मुझे इस बात का विश्‍वास हो गया कि सर्वशक्तिमान परम आत्‍मा की बात - जिसने ब्रह्मांड का सृजन किया, दिग्‍दर्शन और संचालन किया - एक कोरी ब‍कवास है। मैंने अपने इस अविश्‍वास को प्रदर्शित किया। मैंने इस विषय पर अपने दोस्‍तों से बहस की। मैं एक घोषित नास्तिक हो चुका था। किंतु इसका अर्थ क्‍या था, यह मैं आगे बतलाऊँगा।

मई 1927 में मैं लाहौर में गिरफ्तार हुआ। यह गिरफ्तारी अकस्‍मात हुई थी। मुझे इसका जरा भी अहसास नहीं था कि पुलिस को मेरी तलाश है। अचानक एक बगीचे से गुजरते हुए मैंने पाया कि मैं पुलिसवालों से घिरा हुआ हूँ। मुझे स्‍वयं आश्‍चर्य हुआ कि मैं उस समय बहुत शांत रहा। न तो कोई सनसनी महसूस हुई, न ही जरा भी उत्तेजना का अनुभव हुआ। मुझे पुलिस हिरासत में ले लिया गया था। अगले दिन मुझे रेलवे पुलिस हवालात में ले जाया गया, जहाँ मुझे पूरा एक महीना काटना पड़ा। पुलिस अफसरों से कई दिनों की बातचीत के बाद मुझे ऐसा लगा कि उन्‍हें मेरे काकोरी दल के संबंधों के बारे में तथा क्रांतिकारी आंदोलन से संबंधित मेरी गतिविधियों के बारे में कुछ जानकारी है। उन्‍होंने मुझे बताया कि मैं लखनऊ में था जब वहाँ मुकदमा चल रहा था, कि मैंने उन्‍हें छुड़ाने की किसी योजना पर बात की थी, कि उनकी सहमति पाने के बाद हमने कुछ बम प्राप्‍त किये थे, कि 1926 में दशहरा के अवसर पर उन बमों में से एक परीक्षण के लिए भीड़ पर फेंका गया। उसके बाद मेरे भले के लिए उन्‍होंने मुझे बताया कि यदि मैं क्रांतिकारी दल की गतिविधियों पर प्रकाश डालनेवाला एक वक्‍तव्‍य दे दूँ तो मुझे गिरफ्तार नहीं किया जाएगा और इनाम दिया जाएगा। मैं इस प्रस्‍ताव पर हँसा। यह सब बेकार की बात थी। हम लोगों की भाँति विचार रखनेवाले अपनी निर्दोष जनता पर बम नहीं फेंका करते। एक दिन सुबह सी.आई.डी. के वरिष्‍ठ अधीक्षक श्री न्‍यूमन मेरे पास आए। लंबी-चौड़ी सहानुभूतिपूर्ण बातों के बाद उन्‍होंने मुझे, अपनी समझ में, यह अत्‍यंत दुखद समाचार दिया कि यदि मैंने उनके द्वारा मांगा गया वक्‍तव्‍य नहीं दिया तो वे मुझ पर काकोरी केस से संबंधित विद्रोह छेड़ने के षड्यंत्र तथा दशहरा बम उपद्रव में क्रूर हत्‍याओं के लिए मुकदमा चलाने पर बाध्‍य होंगे। और आगे उन्‍होंने मुझे यह भी बताया कि उनके पास मुझे सजा दिलाने व [फाँसी पर] लटकाने के लिए उचित प्रमाण मौजूद हैं। उन दिनों मुझे यह विश्‍वास था, यद्यपि मैं बिल्‍कुल निर्दोष था, कि पुलिस यदि चाहे तो ऐसा कर सकती है। उसी दिन से कुछ पुलिस अफसरों ने मुझे नियम से दोनों समय ईश्‍वर की स्‍तुति करने के लिए फुसलाना शुरू कर दिया। पर अब मैं एक नास्तिक था। मैं स्‍वयं के लिए यह बात तय करना चाहता था कि क्‍या शांति और आनंद के दिनों में ही मैं नास्तिक होने का दंभ भरता हूँ अथवा ऐसे कठिन समय में भी मैं उन सिद्धांतों पर अडिग रह सकता हूँ। बहुत सोचने के बाद मैंने यह निश्‍चय किया कि किसी भी तरह ईश्‍वर पर विश्‍वास तथा प्रार्थना मैं नहीं कर सकता। न ही मैंने एक क्षण के लिए भी अरदास की। यही असली परीक्षण था और इसमें मैं सफल रहा। एक क्षण को भी अन्‍य बातों की कीमत पर अपनी गर्दन बचाने की मेरी इच्‍छा नहीं हुई। अब मैं एक पक्‍का नास्तिक था और तब से लगातार हूँ। इस परीक्षण पर खरा उतरना आसान काम न था। ‘विश्‍वास’ कष्‍टों को हल्‍का कर देता है, यहाँ तक कि उन्‍हें सुखकर बना सकता है। ईश्‍वर से मनुष्‍य को अत्‍यधिक सांत्‍वना देनेवाला एक आधार मिल सकता है। ‘उसके’ बिना मनुष्‍य को स्‍वयं अपने ऊपर निर्भर होना पड़ता है। तूफान और झंझावात के बीच अपने पांवों पर खड़ा रहना कोई बच्‍चों का खेल नहीं है। परीक्षा की इन घडि़यों में अहंकार, यदि है, तो भाप बन कर उड़ जाता है और मनुष्‍य आम विश्‍वास को ठुकराने का साहस नहीं कर पाता। पर यदि करता है, तो इससे यह निष्‍कर्ष निकलता है कि उसके पास सिर्फ अहंकार नहीं, वरन कोई अन्‍य शक्ति है। आज बिलकुल वैसी ही स्थिति है। पहले ही अच्‍छी तरह पता है कि [मुकदमें का] क्‍या फैसला होगा। एक सप्‍ताह में ही फैसला सुना दिया जाएगा। मैं अपना जीवन एक ध्‍येय के लिए कुर्बान करने जा रहा हूँ, इस विचार के अतिरिक्‍त और क्‍या सांत्‍वना हो सकती है? ईश्‍वर में विश्‍वास रखनेवाला हिंदू पुनर्जन्‍म पर एक राजा होने की आशा कर सकता है, एक मुसलमान या ईसाई स्‍वर्ग में व्‍याप्‍त समृद्धि के आनंद की तथा अपने कष्‍टों और बलिदानों के लिए पुरस्‍कार की कल्‍पना कर सकता है। किंतु मैं किस बात की आशा करूँ? मैं जानता हूँ कि जिस क्षण रस्‍सी का फंदा मेरी गर्दन पर लगेगा और मेरे पैरों के नीचे से तख्‍ता हटेगा, वही पूर्ण विराम होगा - वही अंतिम क्षण होगा। मैं, या संक्षेप में आध्‍यात्मिक शब्‍दावली की व्‍याख्‍या के अनुसार, मेरी आत्‍मा, सब वहीं समाप्‍त हो जाएगी। आगे कुछ भी नहीं रहेगा। एक छोटी सी जूझती हुई जिंदगी, जिसकी कोई ऐसी गौरवशाली परिणति नहीं है, अपने में स्‍वयं एक पुरस्‍कार होगी, यदि मुझमें उसे इस दृष्टि से देखने का साहस हो। यही सब कुछ है। बिना किसी स्‍वार्थ के, यहाँ या यहाँ के बाद पुरस्‍कार की इच्‍छा के बिना, मैंने आसक्‍त भाव से अपने जीवन को स्‍वतंत्रता के ध्‍येय पर समर्पित कर दिया है, क्‍योंकि मैं और कुछ कर ही नहीं सकता था। जिस दिन हमें इस मनोवृत्ति के बहुत से पुरुष और महिलाएँ मिल जाएँगे, जो अपने जीवन को मनुष्‍य की सेवा तथा पीड़ित मानवता के उद्धार के अतिरिक्‍त और कहीं समर्पित कर ही नहीं सकते, उसी दिन मुक्ति के युग का शुभारंभ होगा। वे शोषकों, उत्‍पीड़कों और अत्‍याचारियों को चुनौती देने के लिए उत्‍प्रेरित होंगे, इसलिए नहीं कि उन्‍हें राजा बनना है या कोई अन्‍य पुरस्‍कार प्राप्‍त करना है - यहाँ या अगले जन्‍म में या मृत्‍योपरांत स्‍वर्ग में। उन्‍हें तो मानवता की गर्दन से दासवृत्ति का जुआ उतार फेंकने और मुक्ति एवं शांति स्‍थापित करने के लिए इस मार्ग को अपनाना होगा। क्‍या वे उस रास्‍ते पर चलेंगे जो उनके अपने लिए खतरनाक किंतु उनकी महान आत्‍मा के लिए एकमात्र शानदार रास्‍ता है? क्‍या अपने महान ध्‍येय के प्रति उनके गर्व को अहंकार कहकर उसका गलत अर्थ लगाया जाएगा? कौन इस प्रकार के घृणित विशेषण लगाने का साहस करता है? मैं कहता हूँ कि ऐसा व्‍यक्ति या तो मूर्ख है या धूर्त। हमें चाहिए कि उसे क्षमा कर दें, क्‍योंकि वह उस हृदय में उद्वेलित उच्‍च विचारों, भावनाओं, आवेगों तथा उनकी गहराई को महसूस नहीं कर सकता। उसका हृदय एक मांस के टुकड़े की तरह मृत हैं। उसकी आँखें अन्‍य स्‍वार्थों के प्रेत की छाया पड़ने से कमजोर हो गई हैं। स्‍वयं पर भरोसा करने के गुण को सदैव अहंकार की संज्ञा दी जा सकती है। और यह दुखपूर्ण एवं कष्‍टप्रद है, पर चारा ही क्‍या है?

तुम जाओ, और किसी प्रचलित धर्म का विरोध करो; जाओ और किसी हीरो की, महान व्‍यक्ति की - जिसके बारे में सामान्‍यतः यह विश्‍वास किया जाता है कि वह आलोचना से परे है क्‍योंकि वह गलती कर ही नहीं सकता, आलोचना करो, तो तुम्‍हारे तर्क की शक्ति हजारों लोगों को तुम पर वृथाभिमानी होने का आक्षेप लगाने को मजबूर कर देगी। ऐसा मानसिक जड़ता के कारण होता है। आलोचना तथा स्‍वतंत्र विचार, दोनों ही एक क्रांतिकारी के अनिवार्य गुण हैं। क्‍योंकि महात्‍मा जी महान हैं, अत: किसी को उनकी आलोचना नहीं करनी चाहिए। चूँकि वह ऊपर उठ गए हैं, अतः हर बात जो वे कहते हैं - चाहे वह राजनीति के क्षेत्र की हो अथवा धर्म, अर्थशास्‍त्र अथवा नीतिशास्‍त्र के - सब सही है। आप चाहे आश्‍वस्‍त हों अथवा नहीं ले जा सकती है। यह तो स्‍पष्‍ट रूप से प्रतिक्रियावादी है।

क्‍योंकि हमारे पूर्वजों ने किसी परम आत्‍मा (सर्वशक्तिमान ईश्‍वर) के प्रति विश्‍वास बना लिया था अत: किसी भी ऐसे व्‍यक्ति को, जो उस विश्‍वास की सत्‍यता या उस परम आत्‍मा के अस्तित्‍व ही को चुनौती दे, विधर्मी, विश्‍वासघाती कहा जाएगा। यदि उसके तर्क इतने अकाट्य हैं कि उनका खंडन वितर्क द्वारा नहीं हो सकता और उसकी आस्‍था इतनी प्रबल है कि उसे ईश्‍वर के प्रकोप से होनेवाली विपत्तियों का भय दिखाकर दबाया नहीं जा सकता, तो उसकी यह कहकर निंदा की जाएगी कि वह वृथाभिमानी है, उसकी प्रकृति पर अहंकार हावी है। तो इस व्‍यर्थ विवाद पर समय नष्‍ट करने का क्‍या लाभ? फिर इन सारी बातों पर बहस करने की कोशिश क्‍यों? ये लंबी बहस इसलिए, क्‍योंकि जनता के सामने यह प्रश्‍न आज पहली बार आया है और आज ही पहली बार इस पर वस्‍तुगत रूप से चर्चा हो रही है।

जहाँ तक पहले प्रश्‍न की बात है, मैं समझता हूँ कि मैंने यह साफ कर दिया है कि यह मेरा अहंकार नहीं था, जो मुझे नास्तिकता की ओर ले गया। मेरे तर्क का तरीका संतोषप्रद सिद्ध होता है या नहीं, इसका निर्णय मेरे पाठकों को करना है, मुझे नहीं। मैं जानता हूँ कि वर्तमान परिस्थितियों में ईश्‍वर पर विश्‍वास ने मेरा जीवन आसान और मेरा बोझ हल्‍का कर दिया होता और उस मेरे अविश्‍वास ने सारे वातावरण को अत्‍यंत शुष्‍क बना दिया है और परिस्थितियां एक कठोर रूप ले सकती हैं। थोड़ा-सा रहस्‍यवाद इसे कवित्‍वमय बना सकता है। किंतु मेरे भाग्‍य को किसी उन्‍माद का सहारा नहीं चाहिए। मैं यथार्थवादी हूँ। मैं अपनी अंतःप्रकृति पर विवेक की सहायता से विजय चाहता हूँ। इस ध्‍येय में मैं सदैव सफल नहीं हुआ हूँ। प्रयत्‍न तथा प्रयास करना मनुष्‍य का कर्तव्‍य है, सफलता तो संयोग तथा वातावरण पर निर्भर है।

और दूसरा सवाल, कि यदि यह अहंकार नहीं था, तो ईश्‍वर के अस्तित्‍व के बारे में प्राचीन तथा आज भी प्रचलित श्रद्धा पर अविश्‍वास का कोई कारण होना चाहिए। जी हाँ, मैं अब इस पर आता हूँ। कारण है। मेरे विचार से कोई भी मनुष्‍य जिसमें जरा सी भी विवेकशक्ति है वह अपने वातावरण को तार्किक रूप से समझना चाहेगा। जहाँ सीधा प्रमाण नहीं होता, वहाँ दर्शनशास्‍त्र महत्‍वपूर्ण स्‍थान बना लेता है। जैसा कि मैंने पहले कहा था, मेरे क्रांतिकारी साथी कहा करते थे कि दर्शनशास्‍त्र मनुष्‍य की दुर्बलता का परिणाम है। जब हमारे पूर्वजों ने फुरसत के समय विश्‍व के रहस्‍य को, इसके भूत, वर्तमान एवं भविष्‍य, इसके क्‍यों और कहाँ से को-समझने का प्रयास किया तो सीधे प्रमाणों के भारी अभाव में हर व्‍यक्ति ने इन प्रश्‍नों को अपने-अपने ढंग से हल किया। यही कारण है कि विभिन्‍न धार्मिक मतों के मूल तत्‍व में ही हमें इतना अंतर मिलता है कभी-कभी तो वैमनस्‍य तथा झगड़े का रूप ले लेता है। न केवल पूर्व और पश्चिम के दर्शनों में मतभेद है, बल्कि प्रत्‍येक गोलार्द्ध के विभिन्‍न मतों में आपस में अंतर है। एशियायी धर्मों में, इस्‍लाम तथा हिंदू धर्मों में जरा भी एकरूपता नहीं है। भारत में ही बुद्ध तथा जैन धर्म उस ब्राह्मणवाद से बहुत अलग हैं, जिसमें स्‍वयं आर्यसमाज व सनातन धर्म जैसे विरोधी मत पाए जाते हैं। पुराने समय का एक अन्‍य स्‍वतंत्र विचारक चार्वाक है। उसने ईश्‍वर को पुराने समय में ही चुनौती दी थी। यह सभी मत एक-दूसरे से मूलभूत प्रश्‍नों पर मतभेद रखते हैं और हर व्‍यक्ति अपने को सही समझता है। यही तो दुर्भाग्‍य की बात है। बजाय इसके कि हम पुराने विद्वानों एवं विचारकों के अनुभवों तथा विचारों को भविष्‍य में अज्ञानता के विरुद्ध लड़ाई का आधार बनाएँ और इस रहस्‍यमय प्रश्‍न को हल करने की कोशिश करें, हम आलसियों की तरह, जो कि हम सिद्ध हो चुके हैं, विश्‍वास की, उनके कथन में अविचल एवं संशयहीन विश्‍वास की, चीख-पुकार मचाते रहते हैं और इस प्रकार मानवता के विकास को जड़ बनाने के अपराधी हैं।

प्रत्येक मनुष्य को, जो विकास के लिए खड़ा है, रूढ़िगत विश्वासों के हर पहलू की आलोचना तथा उन पर अविश्वास करना होगा और उनको चुनौती देनी होगी। प्रत्येक प्रचलित मत की हर बात को हर कोने से तर्क की कसौटी पर कसना होगा। यदि काफी तर्क के बाद भी वह किसी सिद्धांत या दर्शन के प्रति प्रेरित होता है, तो उसके विश्वास का स्वागत है। उसका तर्क असत्य, भ्रमित या छलावा और कभी-कभी मिथ्या हो सकता है। लेकिन उसको सुधारा जा सकता है क्योंकि विवेक उसके जीवन का दिशा-सूचक है। लेकिन निरा विश्वास और अंधविश्वास खतरनाक है। यह मस्तिष्क को मूढ़ और मनुष्य को प्रतिक्रियावादी बना देता है। जो मनुष्य यथार्थवादी होने का दावा करता है उसे समस्त प्राचीन विश्वासों को चुनौती देनी होगी। यदि वे तर्क का प्रहार न सह सके तो टुकड़े-टुकड़े होकर गिर पड़ेंगे। तब उस व्यक्ति का पहला काम होगा, तमाम पुराने विश्वासों को धराशायी करके नए दर्शन की स्थापना के लिए जगह साफ करना। यह तो नकारात्मक पक्ष हुआ। इसके बाद सही कार्य शुरू होगा, जिसमें पुनर्निर्माण के लिए पुराने विश्वासों की कुछ बातों का प्रयोग किया जा सकता है। जहाँ तक मेरा संबंध है, मैं शुरू से ही मानता हूँ कि इस दिशा में मैं अभी कोई विशेष अध्ययन नहीं कर पाया हूँ। एशियाई दर्शन को पढ़ने की मेरी बड़ी लालसा थी पर ऐसा करने का मुझे कोई संयोग या अवसर नहीं मिला। लेकिन जहाँ तक इस विवाद के नकारात्मक पक्ष की बात है, मैं प्राचीन विश्वासों के ठोसपन पर प्रश्न उठाने के संबंध में आश्वस्त हूँ। मुझे पूरा विश्वास है कि एक चेतन, परम-आत्मा का, जो कि प्रकृति की गति का दिग्दर्शन एवं संचालन करती है, कोई अस्तित्व नहीं है। समस्त प्रगति का ध्येय मनुष्य द्वारा, अपनी सेवा के लिए, प्रकृति पर विजय पाना है। इसको दिशा देने के लिए पीछे कोई चेतन शक्ति नहीं है। यही हमारा दर्शन है।

जहाँ तक नकारात्मक पहलू की बात है, हम आस्तिकों से कुछ प्रश्न करना चाहते हैं - यदि, जैसा कि आपका विश्वास है, एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक एवं सर्वज्ञानी ईश्वर है जिसने कि पृथ्वी या विश्व की रचना की, तो कृपा करके मुझे यह बताएँ कि उसने यह रचना क्यों की? कष्टों और आफतों से भरी इस दुनिया में असंख्य दुखों के शाश्वत और अनंत गठबंधनों से ग्रसित एक भी प्राणी पूरी तरह सुखी नहीं।

कृपया, यह न कहें कि यही उसका नियम है। यदि वह किसी नियम में बँधा है तो वह सर्वशक्तिमान नहीं। फिर तो वह भी हमारी ही तरह गुलाम है। कृपा करके यह भी न कहें कि यह उसका शग़ल है। नीरो ने सिर्फ एक रोम जलाकर राख किया था। उसने चंद लोगों की हत्या की थी। उसने तो बहुत थोड़ा दुख पैदा किया, अपने शौक और मनोरंजन के लिए। और उसका इतिहास में क्या स्थान है? उसे इतिहासकार किस नाम से बुलाते हैं? सभी विषैले विशेषण उस पर बरसाए जाते हैं। जालिम,निर्दयी, शैतान-जैसे शब्दों से नीरो की भर्त्सना में पृष्ठ-के पृष्ठ रंगे पड़े हैं। एक चंगेज खाँ ने अपने आनंद के लिए कुछ हजार जानें ले लीं और आज हम उसके नाम से घृणा करते हैं। तब फिर तुम उस सर्वशक्तिमान अनंत नीरो को जो हर दिन, हर घंटे और हर मिनट असंख्य दुख देता रहा है और अभी भी दे रहा है, किस तरह न्यायोचित ठहराते हो? फिर तुम उसके उन दुष्कर्मों की हिमायत कैसे करोगे, जो हर पल चंगेज के दुष्कर्मों को भी मात दिए जा रहे हैं? मैं पूछता हूँ कि उसने यह दुनिया बनाई ही क्यों थी - ऐसी दुनिया जो सचमुच का नर्क है, अनंत और गहन वेदना का घर है? सर्वशक्तिमान ने मनुष्य का सृजन क्यों किया जबकि उसके पास मनुष्य का सृजन न करने की ताक़त थी? इन सब बातों का तुम्हारे पास क्या जवाब है? तुम यह कहोगे कि यह सब अगले जन्म में, इन निर्दोष कष्ट सहने वालों को पुरस्कार और ग़लती करने वालों को दंड देने के लिए हो रहा है। ठीक है, ठीक है। तुम कब तक उस व्यक्ति को उचित ठहराते रहोगे जो हमारे शरीर को जख्मी करने का साहस इसलिए करता है कि बाद में इस पर बहुत कोमल तथा आरामदायक मलहम लगाएगा? ग्लैडिएटर संस्था के व्यवस्थापकों तथा सहायकों का यह काम कहाँ तक उचित था कि एक भूखे-खूँख्वार शेर के सामने मनुष्य को फेंक दो कि यदि वह उस जंगली जानवर से बचकर अपनी जान बचा लेता है तो उसकी खूब देख-भाल की जाएगी? इसलिए मैं पूछता हूँ, ‘‘उस परम चेतन और सर्वोच्च सत्ता ने इस विश्व और उसमें मनुष्यों का सृजन क्यों किया? आनंद लूटने के लिए? तब उसमें और नीरो में क्या फर्क है?’’

मुसलमानों और ईसाइयों। हिंदू-दर्शन के पास अभी और भी तर्क हो सकते हैं। मैं पूछता हूँ कि तुम्हारे पास ऊपर पूछे गए प्रश्नों का क्या उत्तर है? तुम तो पूर्व जन्म में विश्वास नहीं करते। तुम तो हिंदुओं की तरह यह तर्क पेश नहीं कर सकते कि प्रत्यक्षतः निर्दोष व्यक्तियों के कष्ट उनके पूर्व जन्मों के कुकर्मों का फल है। मैं तुमसे पूछता हूँ कि उस सर्वशक्तिशाली ने विश्व की उत्पत्ति के लिए छः दिन मेहनत क्यों की और यह क्यों कहा था कि सब ठीक है। उसे आज ही बुलाओ, उसे पिछला इतिहास दिखाओ। उसे मौजूदा परिस्थितियों का अध्ययन करने दो। फिर हम देखेंगे कि क्या वह आज भी यह कहने का साहस करता है - सब ठीक है।

कारावास की काल-कोठरियों से लेकर, झोंपड़ियों और बस्तियों में भूख से तड़पते लाखों-लाख इंसानों के समुदाय से लेकर, उन शोषित मजदूरों से लेकर जो पूँजीवादी पिशाच द्वारा खून चूसने की क्रिया को धैर्यपूर्वक या कहना चाहिए, निरुत्साहित होकर देख रहे हैं। और उस मानव-शक्ति की बर्बादी देख रहे हैं जिसे देखकर कोई भी व्यक्ति, जिसे तनिक भी सहज ज्ञान है, भय से सिहर उठेगा; और अधिक उत्पादन को जरूरतमंद लोगों में बाँटने के बजाय समुद्र में फेंक देने को बेहतर समझने से लेकर राजाओं के उन महलों तक - जिनकी नींव मानव की हड्डियों पर पड़ी है। उसको यह सब देखने दो और फिर कहे - ‘‘सबकुछ ठीक है।’’ क्यों और किसलिए? यही मेरा प्रश्न है। तुम चुप हो? ठीक है, तो मैं अपनी बात आगे बढ़ाता हूँ।

और तुम हिंदुओ, तुम कहते हो कि आज जो लोग कष्ट भोग रहे हैं, ये पूर्वजन्म के पापी हैं। ठीक है। तुम कहते हो आज के उत्पीड़क पिछले जन्मों में साधु पुरुष थे, अतः वे सत्ता का आनंद लूट रहे हैं। मुझे यह मानना पड़ता है कि आपके पूर्वज बहुत चालाक व्यक्ति थे। उन्होंने ऐसे सिद्धांत गढ़े जिनमें तर्क और अविश्वास के सभी प्रयासों को विफल करने की काफी ताकत है। लेकिन हमें यह विश्लेषण करना है कि ये बातें कहाँ तक टिकती हैं।

न्यायशास्त्र के सर्वाधिक प्रसिद्ध विद्वानों के अनुसार, दंड को अपराधी पर पड़नेवाले असर के आधार पर, केवल तीन-चार कारणों से उचित ठहराया जा सकता है। वे हैं प्रतिकार, भय तथा सुधार। आज सभी प्रगतिशील विचारकों द्वारा प्रतिकार के सिद्धांत की निंदा की जाती है। भयभीत करने के सिद्धांत का भी अंत वही है। केवल सुधार करने का सिद्धांत ही आवश्यक है और मानवता की प्रगति का अटूट अंग है। इसका उद्देश्य अपराधी को एक अत्यंत योग्य तथा शांतिप्रिय नागरिक के रूप में समाज को लौटाना है। लेकिन यदि हम यह बात मान भी लें कि कुछ मनुष्यों ने (पूर्व जन्म में) पाप किए हैं तो ईश्वर द्वारा उन्हें दिए गए दंड की प्रकृति क्या है? तुम कहते हो कि वह उन्हें गाय, बिल्ली, पेड़, जड़ी-बूटी या जानवर बनाकर पैदा करता है। तुम ऐसे 84 लाख दंडों को गिनाते हो। मैं पूछता हूँ कि मनुष्य पर सुधारक के रूप में इनका क्या असर है? तुम ऐसे कितने व्यक्तियों से मिले हो जो यह कहते हैं कि वे किसी पाप के कारण पूर्वजन्म में गदहा के रूप में पैदा हुए थे? एक भी नहीं? अपने पुराणों से उदाहरण मत दो। मेरे पास तुम्हारी पौराणिक कथाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। और फिर, क्या तुम्हें पता है कि दुनिया में सबसे बड़ा पाप गरीब होना है? गरीबी एक अभिशाप है, वह एक दंड है। मैं पूछता हूँ कि अपराध-विज्ञान, न्यायशास्त्र या विधिशास्त्र के एक ऐसे विद्वान की आप कहाँ तक प्रशंसा करेंगे जो किसी ऐसी दंड-प्रक्रिया की व्यवस्था करे जो कि अनिवार्यतः मनुष्य को और अधिक अपराध करने को बाध्य करे? क्या तुम्हारे ईश्वर ने यह नहीं सोचा था? या उसको भी ये सारी बातें-मानवता द्वारा अकथनीय कष्टों के झेलने की कीमत पर - अनुभव से सीखनी थीं? तुम क्या सोचते हो। किसी गरीब तथा अनपढ़ परिवार, जैसे एक चमार या मेहतर के यहाँ पैदा होने पर इन्सान का भाग्य क्या होगा? चूँकि वह गरीब हैं, इसलिए पढ़ाई नहीं कर सकता। वह अपने उन साथियों से तिरस्कृत और त्यक्त रहता है जो ऊँची जाति में पैदा होने की वजह से अपने को उससे ऊँचा समझते हैं। उसका अज्ञान, उसकी गरीबी तथा उससे किया गया व्यवहार उसके हृदय को समाज के प्रति निष्ठुर बना देते हैं। मान लो यदि वह कोई पाप करता है तो उसका फल कौन भोगेगा? ईश्वर, वह स्वयं या समाज के मनीषी? और उन लोगों के दंड के बारे में तुम क्या कहोगे जिन्हें दंभी और घमंडी ब्राह्मणों ने जान-बूझकर अज्ञानी बनाए रखा तथा जिन्हें तुम्हारी ज्ञान की पवित्र पुस्तकों - वेदों के कुछ वाक्य सुन लेने के कारण कान में पिघले सीसे की धारा को सहने की सजा भुगतनी पड़ती थी? यदि वे कोई अपराध करते हैं तो उसके लिए कौन ज़िम्मेदार होगा और उसका प्रहार कौन सहेगा? मेरे प्रिय दोस्तो, ये सारे सिद्धांत विशेषाधिकार युक्त लोगों के आविष्कार हैं। ये अपनी हथियाई हुई शक्ति, पूँजी तथा उच्चता को इन सिद्धान्तों के आधार पर सही ठहराते हैं। जी हाँ, शायद वह अपटन सिंक्लेयर ही था, जिसने किसी जगह लिखा था कि मनुष्य को बस (आत्मा की) अमरता में विश्वास दिला दो और उसके बाद उसकी सारी धन-संपत्ति लूट लो। वह बगैर बड़बड़ाए इस कार्य में तुम्हारी सहायता करेगा। धर्म के उपदेशकों तथा सत्ता के स्वामियों के गठबंधन से ही जेल, फाँसीघर, कोड़े और ये सिद्धांत उपजते हैं।

मैं पूछता हूँ कि तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को उस समय क्यों नहीं रोकता है जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है? ये तो वह बहुत आसानी से कर सकता है। उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं को या उनके अंदर लड़ने के उन्माद को समाप्त किया और इस प्रकार विश्वयुद्ध द्वारा मानवता पर पड़ने वाली विपत्तियों से उसे क्यों नहीं बचाया? उसने अंग्रेजों के मस्तिष्क में भारत को मुक्त कर देने हेतु भावना क्यों नहीं पैदा की? वह क्यों नहीं पूँजीपतियों के हृदय में यह परोपकारी उत्साह भर देता कि वे उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत संपत्ति का अपना अधिकार त्याग दें और इस प्रकार न केवल संपूर्ण श्रमिक समुदाय, वरन समस्त मानव-समाज को पूँजीवाद की बेड़ियों से मुक्त करें। आप समाजवाद की व्यावहारिकता पर तर्क करना चाहते हैं। मैं इसे आपके सर्वशक्तिमान पर छोड़ देता हूँ कि वह इसे लागू करे। जहाँ तक जनसामान्य की भलाई की बात है, लोग समाजवाद के गुणों को मानते हैं, पर वह इसके व्यावहारिक न होने का बहाना लेकर इसका विरोध करते हैं। चलो, आपका परमात्मा आए और वह हर चीज को सही तरीके से कर दें। अब घुमा-फिराकर तर्क करने का प्रयास न करें, वह बेकार की बातें हैं। मैं आपको यह बता दूँ कि अंग्रेजों की हुकूमत यहाँ इसलिए नहीं है कि ईश्वर चाहता है, बल्कि इसलिए कि उनके पास ताक़त है और हम में उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं। वे हमें अपने प्रभुत्व में ईश्वर की सहायता से नहीं रखे हुए हैं बल्कि बंदूकों, राइफलों, बम और गोलियों, पुलिस और सेना के सहारे रखे हुए हैं। यह हमारी ही उदासीनता है कि वे समाज के विरुद्ध सबसे निंदनीय अपराध - एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र द्वारा अत्याचारपूर्ण शोषण-सफलतापूर्वक कर रहे हैं। कहाँ है ईश्वर? वह क्या कर रहा है? क्या वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मजा ले रहा है? वह नीरो है, चंगेज है, तो उसका नाश हो।

क्या तुम मुझसे पूछते हो कि मैं इस विश्व की उत्पत्ति और मानव की उत्पत्ति की व्याख्या कैसे करता हूँ? ठीक है, मैं तुम्हें बतलाता हूँ। चार्ल्स डारविन ने इस विषय पर कुछ प्रकाश डालने की कोशिश की है। उसको पढ़ो। सोहन स्वामी की ‘सहज ज्ञान’ पढ़ो। तुम्हें इस सवाल का कुछ सीमा तक उत्तर मिल जाएगा। यह (विश्व-सृष्टि) एक प्राकृतिक घटना है। विभिन्न पदार्थों के, निहारिका के आकार में, आकस्मिक मिश्रण से पृथ्वी बनी। कब? इतिहास देखो। इसी प्रकार की घटना से जंतु पैदा हुए और एक लंबे दौर के बाद मानव। डारविन की ‘जीव की उत्पत्ति’ पढ़ो। और तदुपरांत सारा विकास मनुष्य द्वारा प्रकृति से लगातार संघर्ष और उस पर विजय पाने की चेष्टा से हुआ। यह इस घटना की संभवतः सबसे संक्षिप्त व्याख्या है।

तुम्हारा दूसरा तर्क यह हो सकता है कि क्यों एक बच्चा अंधा या लँगड़ा पैदा होता है, यदि यह उसके पूर्वजन्म में किए कार्यों का फल नहीं है तो? जीवविज्ञान-वेत्ताओं ने इस समस्या का वैज्ञानिक समाधान निकाला है। उनके अनुसार इसका सारा दायित्व माता-पिता के कंधों पर है जो अपने उन कार्यों के प्रति लापरवाह अथवा अनभिज्ञ रहते हैं जो बच्चे के जन्म के पूर्व ही उसे विकलांग बना देते हैं।

स्वभावतः तुम एक और प्रश्न पूछ सकते हो - यद्यपि यह निरा बचकाना है। वह सवाल यह कि यदि ईश्वर कहीं नहीं है तो लोग उसमें विश्वास क्यों करने लगे? मेरा उत्तर संक्षिप्त तथा स्पष्ट होगा - जिस प्रकार लोग भूत-प्रेतों तथा दुष्ट-आत्माओं में विश्वास करने लगे, उसी प्रकार ईश्वर को मानने लगे। अंतर केवल इतना है कि ईश्वर में विश्वास विश्वव्यापी है और उसका दर्शन अत्यंत विकसित। विपरीत मैं इसकी उत्पत्ति का श्रेय उन शोषकों की प्रतिभा को नहीं देता जो परमात्मा के अस्तित्व का उपदेश देकर लोगों को अपने प्रभुत्व में रखना चाहते थे और उनसे अपनी विशिष्ट स्थिति का अधिकार एवं अनुमोदन चाहते थे। यद्यपि मूल बिंदु पर मेरा उनसे विरोध नहीं है कि सभी धर्म, सम्प्रदाय, पंथ और ऐसी अन्य संस्थाएँ अन्त में निर्दयी और शोषक संस्थाओं, व्यक्तियों तथा वर्गों की समर्थक हो जाती हैं। राजा के विरुद्ध विद्रोह हर धर्म में सदैव ही पाप रहा है।

ईश्वर की उत्पत्ति के बारे में मेरा अपना विचार यह है कि मनुष्य ने अपनी सीमाओं, दुर्बलताओं व कमियों को समझने के बाद, परीक्षा की घड़ियों का बहादुरी से सामना करने, स्वयं को उत्साहित करने, सभी खतरों को मर्दानगी के साथ झेलने तथा संपन्नता एवं ऐश्वर्य में उसके विस्फोट को बाँधने के लिए - ईश्वर के काल्पनिक अस्तित्व की रचना की। अपने व्यक्तिगत नियमों और अविभावकीय उदारता से पूर्ण ईश्वर की बढ़ा-चढ़ाकर कल्पना एवं चित्रण किया गया। जब उसकी उग्रता तथा व्यक्तिगत नियमों की चर्चा होती है तो उसका उपयोग एक डरानेवाले के रूप में किया जाता है, ताकि मनुष्य समाज के लिए एक खतरा न बन जाए। जब उसके अविभावकीय गुणों की व्याख्या होती है तो उसका उपयोग एक पिता, माता, भाई, बहन, दोस्त तथा सहायक की तरह किया जाता है। इस प्रकार जब मनुष्य अपने सभी दोस्तों के विश्वासघात और उनके द्वारा त्याग देने से अत्यंत दुखी हो तो उसे इस विचार से सांत्वना मिल सकती है कि एक सच्चा दोस्त उसकी सहायता करने को है, उसे सहारा देगा, जो कि सर्वशक्तिमान है और कुछ भी कर सकता है। वास्तव में आदिम काल में यह समाज के लिए उपयोगी था। विपदा में पड़े मनुष्य के लिए ईश्वर की कल्पना सहायक होती है।

समाज को इस ईश्वरीय विश्वास के विरुद्ध उसी तरह लड़ना होगा जैसे कि मूर्ति-पूजा तथा धर्म-संबंधी क्षुद्र विचारों के विरुद्ध लड़ना पड़ा था। इसी प्रकार मनुष्य जब अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास करने लगे और यथार्थवादी बन जाए तो उसे ईश्वरीय श्रद्धा को एक ओर फेंक देना चाहिए और उन सभी कष्टों, परेशानियों का पौरुष के साथ सामना करना चाहिए जिसमें परिस्थितियाँ उसे पलट सकती हैं। मेरी स्थिति आज यही है। यह मेरा अहंकार नहीं है। मेरे दोस्तों, यह मेरे सोचने का ही तरीका है जिसने मुझे नास्तिक बनाया है। मैं नहीं जानता कि ईश्वर में विश्वास और रोज-बरोज की प्रार्थना - जिसे मैं मनुष्य का सबसे अधिक स्वार्थी और गिरा हुआ काम मानता हूँ - मेरे लिए सहायक सिद्ध होगी या मेरी स्थिति को और चौपट कर देगी। मैंने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा है, जिन्होंने सभी विपदाओं का बहादुरी से सामना किया, अतः मैं भी एक मर्द की तरह फाँसी के फंदे की अंतिम घड़ी तक सिर ऊँचा किए खड़ा रहना चाहता हूँ।

देखना है कि मैं इस पर कितना खरा उतर पाता हूँ। मेरे एक दोस्त ने मुझे प्रार्थना करने को कहा। जब मैंने उसे अपने नास्तिक होने की बात बतलाई तो उसने कहा, ‘देख लेना, अपने अंतिम दिनों में तुम ईश्वर को मानने लगोगे।’ मैंने कहा, ‘नहीं प्रिय महोदय, ऐसा नहीं होगा। ऐसा करना मेरे लिए अपमानजनक तथा पराजय की बात होगी। स्वार्थ के लिए मैं प्रार्थना नहीं करूँगा।’ पाठकों और दोस्तो, क्या यह अहंकार है? अगर है, तो मैं इसे स्वीकार करता हूँ।

पिता के पत्र पुत्री के नाम : जवाहरलाल नेहरू



शुरू का इतिहास कैसे लिखा गया

अपने पहले पन्‍ने में मैंने तुम्हें बताया था कि हमें संसार की किताब से ही दुनिया के शुरू का हाल मालूम हो सकता है। इस किताब में चट्टान, पहाड़, घाटियॉं, नदियाँ, समुद्र, ज्वालामुखी और हर एक चीज, जो हम अपने चारों तरफ देखते हैं, शामिल हैं। यह किताब हमेशा हमारे सामने खुली रहती है, लेकिन बहुत ही थोड़े आदमी इस पर ध्यान देते या इसे पढ़ने की कोशिश करते हैं। अगर हम इसे पढ़ना और समझना सीख लें, तो हमें इसमें कितनी ही मनोहर कहानियाँ मिल सकती हैं। इसके पत्थर के पृष्ठों में हम जो कहानियाँ पढ़ेंगे वे परियों की कहानियों से कहीं सुंदर होंगी।

इस तरह संसार की इस पुस्तक से हमें उस पुराने जमाने का हाल मालूम हो जाएगा जब कि हमारी दुनिया में कोई आदमी या जानवर न था। ज्यों-ज्यों हम पढ़ते जाएँगेगे हमें मालूम होगा कि पहले जानवर कैसे आए और उनकी तादाद कैसे बढ़ती गई। उनके बाद आदमी आए; लेकिन वे उन आदमियों की तरह न थे, जिन्हें हम आज देखते हैं। वे जंगली थे और जानवरों में और उनमें बहुत कम फर्क था। धीरे-धीरे उन्हें तजरबा हुआ और उनमें सोचने की ताकत आई। इसी ताकत ने उन्हें जानवरों से अलग कर दिया। यह असली ताकत थी जिसने उन्हें बड़े-से-बड़े और भयानक से भयानक जानवरों से ज्यादा बलवान बना दिया। तुम देखती हो कि एक छोटा-सा आदमी एक बड़े हाथी के सिर पर बैठ कर उससे जो चाहता है करा लेता है। हाथी बड़े डील-डौल का जानवर है, और उस महावत से कहीं ज्यादा बलवान है, जो उसकी गर्दन पर सवार है। लेकिन महावत में सोचने की ताकत है और इसी की बदौलत वह मालिक है और हाथी उसका नौकर। ज्यों-ज्यों आदमी में सोचने की ताकत बढ़ती गई, उसकी सूझ-बूझ भी बढ़ती गई। उसने बहुत-सी बातें सोच निकालीं। आग जलाना, जमीन जोत कर खाने की चीजें पैदा करना, कपड़ा बनाना और पहनना, और रहने के लिए घर बनाना, ये सभी बातें उसे मालूम हो गईं। बहुत-से आदमी मिल कर एक साथ रहते थे और इस तरह पहले शहर बने। शहर बनने से पहले लोग जगह-जगह घूमते-फिरते थे और शायद किसी तरह के खेमों में रहते होंगे। तब तक उन्हें जमीन से खाने की चीजें पैदा करने का तरीका नहीं मालूम था। न उनके पास चावल था, न गेहूँ जिससे रोटियाँ बनती हैं। न तो तरकारियाँ थीं और न दूसरी चीजें जो हम आज खाते हैं। शायद कुछ फल और बीज उन्हें खाने को मिल जाते हों मगर ज्यादातर वे जानवरों को मार कर उनका माँस खाते थे।

ज्यों-ज्यों शहर बनते गए, लोग तरह-तरह की सुंदर कलाएं सीखते गए। उन्होंने लिखना भी सीखा। लेकिन बहुत दिनों तक लिखने का कागज न था, और लोग भोजपत्र या ताड़ के पत्तों पर लिखते थे। आज भी बाज पुस्तकालयों में तुम्हें समूची किताबें मिलेंगी जो उसी पुराने जमाने में भोजपत्रों पर लिखी गई थीं। तब कागज बना और लिखने में आसानी हो गई। लेकिन छापेखाने न थे और आजकल की भाँति किताबें हजारों की तादाद में न छप सकती थीं। कोई किताब जब लिख ली जाती थी तो बड़ी मेहनत के साथ हाथ से उसकी नकल की जाती थी। ऐसी दशा में किताबें बहुत न थीं। तुम किसी किताबबेचनेवाले की दुकान पर जा कर चटपट किताब न खरीद सकतीं। तुम्हें किसी से उसकी नकल करानी पड़ती और उसमें बहुत समय लगता। लेकिन उन दिनों लोगों के अक्षर बहुत सुंदर होते थे और आज भी पुस्तकालयों में ऐसी किताबें मौजूद हैं, जो हाथ से बहुत सुंदर अक्षरों में लिखी गई थीं। हिंदुस्तान में खास कर संस्कृत, फारसी और उर्दू की किताबें मिलती हैं। अकसर नकल करनेवाले पृष्ठों के किनारों पर सुंदर बेल-बूटे बना दिया करते थे।

शहरों के बाद धीरे-धीरे देशों और जातियों की बुनियाद पड़ी। जो लोग एक मुल्क में आस-पास रहते थे उनका एक दूसरे से मेल-जोल हो जाना स्वाभाविक था। वे समझने लगे कि हम दूसरे मुल्कवालों से बढ़-चढ़ कर हैं और बेवकूफी से उनसे लड़ने लगे। उनकी समझ में यह बात न आई, और आज भी लोगों की समझ में नहीं आ रही कि लड़ने और एक-दूसरे की जान लेने से बढ़ कर बेवकूफी की बात और कोई नहीं हो सकती। इससे किसी को फायदा नहीं होता।

जिस जमाने में शहर और मुल्क बने, उसकी कहानी जानने के लिए पुरानी किताबें कभी-कभी मिल जाती हैं। लेकिन ऐसी किताबें बहुत नहीं हैं। हाँ, दूसरी चीजों से हमें मदद मिलती है। पुराने जमाने के राजे-महाराजे अपने समय का हाल पत्थर के टुकड़ों और खंभों पर लिखवा दिया करते थे। किताबें बहुत दिन तक नहीं चल सकतीं। उनका कागज बिगड़ जाता है और उसे कीड़े खा जाते हैं। लेकिन पत्थर बहुत दिन चलता है। शायद तुम्हें याद होगा कि तुमने इलाहाबाद के किले में अशोक की बड़ी लाट देखी है। कई सौ साल हुए अशोक हिंदुस्तान का एक बड़ा राजा था। उसने उस खंभे पर अपना एक आदेश खुदवा दिया है। अगर तुम लखनऊ के अजायबघर में जाओ, तो तुम्हें बहुत-से पत्थर के टुकड़े मिलेंगे जिन पर अक्षर खुदे हैं।

संसार के देशों का इतिहास पढ़ने लगोगी तो तुम्हें उन बड़े-बड़े कामों का हाल मालूम होगा जो चीन और मिस्रवालों ने किये थे। उस समय यूरोप के देशों में जंगली जातियाँ बसती थीं। तुम्हें हिंदुस्तान के उस शानदार जमाने का हाल भी मालूम होगा जब रामायण और महाभारत लिखे गए और हिंदुस्तान बलवान और धनवान देश था। आज हमारा मुल्क बहुत गरीब है और एक विदेशी जाति हमारे ऊपर राज्य कर रही है। हम अपने ही मुल्क में आजाद नहीं हैं और जो कुछ करना चाहें नहीं कर सकते। लेकिन यह हाल हमेशा नहीं था और अगर हम पूरी कोशिश करें तो शायद हमारा देश फिर आजाद हो जाए, जिससे हम गरीबों की दशा सुधार सकें और हिंदुस्तान में रहना उतना ही आरामदेह हो जाए, जितना कि आज यूरोप के कुछ देशों में है।

मैं अपने अगले खत में संसार की मनोहर कहानी शुरू से लिखना आरंभ करूँगा।

एक पाँव का जूता

 भैरव प्रसाद गुप्त

 जाने कैसी आवाज़ उनके कानों में पड़ी कि वह चिहुक उठीं। तीन दिन से रात में कई-कई बार ऐसा हो रहा था। जीवन में पहले ऐसा कभी हुआ हो, उन्हें याद नहीं। इसी कारण दो रातों वह अपने कानों पर विश्वास न कर सकीं, यों ही, कुछ नहीं कहकर उन्होंने अपने को बहला लिया और करवट बदलकर सो गयीं। किन्तु आज वह कुछ सावधान थीं, दो रातों के लगातार अनुभव ने उनके मन में अनजाने की एक सन्देह पैदा कर दिया था। दिन में कई-कई बार उन्होंने बाबूजी को घूर-घूर कर देखा था। बाबूजी उन्हें बेहद उदास दिखाई पड़ते थे। उन्हें ऐसा लगा था कि अबकी लखनऊ से वापस आने के बाद बाबूजी की बोली बहुत कम सुनने को मिली थी। लेकिन ऐसा तो जीवन में अनेक बार हो चुका था। उनके मौन-व्रत से कौन परिचित नहीं? फिर भी आज उन्हें लगा कि ज़रूर कोई बात है! बाबूजी उदास यों ही नहीं होते, मौन-व्रत भी वह सब से कहकर ही धारण करते। लेकिन इधर तो बाबूजी ने उनसे भी कोई बात नहीं की थी।

उन्होंने पूछा था-क्या बात है? ऐसे खोये-खोये क्यों दिखाई देते हैं? तबीयत तो ठीक है?

बाबूजी ने जाने कैसी नज़रों से उन्हें एक पल को देखा था और फिर आँखें झुकाकर घर से बाहर चले गये थे। उन्हें उस तरह जाते हुए देखकर मन में खटका होना स्वाभाविक ही था। उन्होंने सोचा, शायद वह बाहर बैठक में जाएँगे। वह दरवाजे तक आयी थीं। लेकिन बाबूजी तो दूसरी दिशा में उसी तरह सिर झुकाये जाने कहाँ चले जा रहे थे। बिना कोई ख़ बर दिये तो वह कभी कहीं नहीं जाते। वह वहीं फ़र्श पर बैठ गयी थीं।

ज़रा दूर जाकर ही बाबूजी लौट आये थे। द्वार पर ठिठककर वह बोले थे-मन व्यग्र है। लेकिन तुम कोई चिन्ता न करो। जाकर भोजन करो। मैं थोड़ा आराम करूँगा।-और वह बैठक की ओर बढ़ गये थे।

बाबूजी के इस तरह के व्यवहार की वह अभ्यस्त थीं। बाबूजी ने उन्हें शुरू से ही सिखाया था कि उनकी व्यग्रता की स्थिति में उन्हें अकेले छोड़ देना चाहिए, उनके पीछे नहीं पडऩा चाहिए और उनके आदेश का, बिना किसी हील-हुज्जत के, पालन करना चाहिए। उन्हें इसी से शान्ति मिलती है।

वह अन्दर जाकर बाबूजी के आदेश का पालन करने लगीं। बाबूजी की तरह इनका भी जीवन यान्त्रिक होकर रह गया था। सन् ३१ में जो बाबूजी ने एक व्रत लिया था, जीवन-भर के लिए उसी के व्रती होकर रह गये। कभी किसी ने कोई अन्तर नहीं देखा ... वही एक जोड़ा अपने काते सूत के खद्दर का कुर्ता, धोती, गंजी, गाँधी टोपी और झोला ... वही चप्पल, वही अपने हाथ से कपड़े साफ करना, दिन-रात में एक बार भोजन करना, चौकी पर चटाई बिछाकर सोना, सदा तीसरे दर्जे में सफ़र करना, सच बोलना और जनता की सेवा के लिए सदा तत्पर रहना। पहले तो बाबूजी का यह सुराजी बाना जाने कैसा-कैसा उन्हें लगा था। यह किसी ऋषि की तपस्या से किसी भी माने में कम नहीं था। लेकिन बाबूजी की दृढ़ता भी कोई साधारण नहीं थी। कभी वह अपने पन से डिगे हों, ऐसा किसी ने नहीं देखा। वह बेचारी क्या करतीं? बब्बू को गोद में लिये वह मन-ही-मन रोतीं, लेकिन ऊपर से बाबूजी के आदेशों के पालन में कोई कमी दिखाई न दे, इसके प्रयत्न में लगी रहतीं। बब्बू के होने के बाद बाबूजी ने यह व्रत लिया, इसे वह अपना सौभाग्य समझतीं, वर्ना ... और इसके आगे सोचकर वह काँप-काँप उठतीं। बाबूजी कभी ऐसे हठी हो जाएँगे, कौन सोचता था।

बाबूजी की तपस्या सफल होते बहुत देर न लगी। जनता के वह प्रिय हो गये। कस्बे से जि़ले के और फिर प्रान्त के नेता हो गये। चारों ओर बाबूजी की धूम, सब के मुँह पर बाबूजी-बाबूजी! लेकिन बाबूजी का जीवन वहीं-का-वहीं। रंचमात्र का भी परिवर्तन नहीं, जैसे जो बाबूजी पहले थे, वही अब भी, कहीं कोई अन्तर आया ही नहीं। फि र जेल ... पुलिस की लाठियाँ ... और सन् बयालीस ... भगवान की कृपा से उन्हें सिर्फ़ दस साल की सज़ा हुई, वर्ना लोग तो कहते थे, फाँसी पर लटका दिये जाएँगे। ... प्यूनिटिव टैक्स ... खेती-बारी ज़ब्त। ... कैसे कटे थे बब्बू की माँ के दिन! भगवान दुश्मन को भी न दिखाये वैसे दिन! लोग उनके पास भी आते सहमते। घर में एक दाना नहीं। रात को पड़ोसी सोता पडऩे पर छुपकर कुछ खाने को दे जाता, तो अधम काया की भूख मिटती वर्ना फ़ाका ...

आखिर वे यातना और आतंक के दिन भी कट ही गये। स्थिति सुधरी तो खोज-खबर लेनेवाले भी आये। ... फिर तीन बरस बीतते-न-बीतते बाबूजी छूटकर आ गये। उनका स्वागत देखकर जैसे सारा कष्ट भूल गया। वह एक दिन और यह एक दिन! बाबूजी घर में आये तो बब्बू को गोद में उठाकर चूमा और उसकी माँ के सिर पर हाथ रखकर पूछा-तुम्हें बहुत कष्ट सहना पड़ा न!

तीन वर्ष तक रोते-रोते बब्बू की माँ के आँसू जैसे सूख गये थे। इस क्षण अचानक जाने कहाँ से फिर उबल पड़े।

बाबूजी जाने कैसे कण्ठ से बोले -रोती हो? मैं तो नहीं रोया।

बब्बू की माँ आँचल से आँसू पोंछती हुई बोलीं-आप आ गये, ये तो ख़ुशी के आँसू थे।

बाहर भीड़ 'बाबूजी जि़न्दाबाद' के नारे लगा रही थी।

बाबूजी अचानक गम्भीर होकर बोले-मैं आ गया, तुम ख़ुश हो। लेकिन मेरी ख़ुशी तो ग़ुलामी ने लूट ली है। जब तक हमारा देश आज़ाद नहीं हो जाता, हमारी ख़ुशी वापस नहीं आने की। आज़ादी बहुत मुश्किल चीज़ है, इसके लिए ... और वह बब्बू को गोद से उतारकर बाहर चले गये।

बब्बू की माँ की समझ में कुछ न आया था। उनकी ख़ुशी बहुत ही छोटी थी, वही उनका जीवन था। उन्होंने बाबूजी को कभी किसी शिकायत का मौक़ा नहीं दिया। ... लेकिन जब बाबूजी की ख़ुशी के दिन आये तो अचानक ही बब्बू की माँ को लगा कि अब उनकी ख़ुशी बहुत बड़ी हो गयी है। कई बार उनका मुँह खुला कि बाबूजी से कुछ कहें। लेकिन कुछ कहने की हिम्मत नहीं पड़ी। जाने वह ख़ुशी बाबूजी के चेहरे पर कब आयी और कब चली गयी, जैसे एक फुलझड़ी जली हो, और बुझ गयी हो। और बब्बू की माँ मुँह ताकती रह गयी हों।

बब्बू ने किसी तरह हाईस्कूल पास किया और अपनी योग्यता से या भाग्य से रेलवे में क्लर्क हो गया। लोगों ने बब्बू की माँ से कहा-बाबूजी का इकलौता लडक़ा और ...

लेकिन बब्बू की माँ ने बाबूजी से फिर भी कोई शिकायत न की।

लोगों ने कहा-बाबूजी के सभी-के-सभी साथी जाने क्या-से-क्या हो गये। लेकिन बाबूजी एम.एल.ए. होकर भी ...

लेकिन बब्बू की माँ ने बाबूजी से फिर भी कोई शिकायत न की।

और बाबू जी के जीवन में जैसे कोई परिवर्तन आने ही वाला न हो। वही सब-कुछ, बल्कि और भी सख्ती के साथ। कभी-कभी वह आप ही बब्बू की माँ के पास आ बैठते और जैसे आत्म-स्वीकृति कर रहे हो, बोल उठते-बब्बू की माँ! मैं कितना ग़लत सोचता था! आज़ादी अपने में कोई ख़ुशी की चीज़ नहीं। ख़ुशी तो देश की ख़ुशहाली में है। हाय, हम कितने ग़रीब हैं, कितने दुखी हैं! जिस दिन यह ग़रीबी दूर होगी, दरअसल वही ख़ुशी का दिन होगा! ...

और बब्बू की माँ जैसे उनकी यह बात भी नहीं समझती और उनका मुँह ताकती रहतीं। उनकी ख़ुशहाली बहुत छोटी थी और वह सोचती थीं कि बाबूजी उसे बड़ी आसानी से हासिल कर सकते हैं, लेकिन वह कुछ भी न कहतीं।

लोग कहते-बाबूजी सचमुच महात्मा हैं!

बब्बू की माँ सुनतीं और गुनतीं कि महात्मा का अर्थ क्या होता है, लेकिन कहतीं कुछ नहीं।

लोग कहते-न रहने पर तो सभी फ़क़ीर बनते हैं, रहने पर जो फ़क़ीर बने वही सच्चा फ़क़ीर!

बब्बू की माँ सुनतीं और गुनतीं कि फ़क़ीर किसे कहते हैं, लेकिन कहतीं कुछ नहीं।

उनकी बानी तो बाबूजी थे, उन्हें ख़ुद कहने की क्या ज़रूरत?

एक बार पहले भी इसी तरह लखनऊ से लौटकर उन्होंने अपनी व्यग्रता प्रकट की थी। लेकिन उस बार तो ज़रा ही देर बाद बब्बू की माँ के पास आकर हँसते हुए कह गये थे-वे सब मुझे पाखण्डी कहते हैं, बब्बू की माँ। कहते हैं, जब फ़स्र्ट क्लास का टिकट मिलता है तो थर्ड क्लास में सफ़र करने का क्या मतलब? कुछ समझती हो?

बब्बू की माँ क्या समझें? जीवन में उन्होंने सफ़र कब किया कि उन्हें फ़स्र्ट और थर्ड की तमीज़ हो?

लेकिन उस बार रात में कभी कोई ऐसी आवाज़ सुनाई नहीं दी थी। अबकी तो तीन-तीन दिन बीत गये। दिन-भर बाबूजी मौन व्यग्रता में पड़े रहते हैं। और रात में कई-कई बार जाने कैसी आवाज़ बब्बू की माँ के कानों में पड़ती है कि वह चिहुक-चिहुककर उठ बैठती हैं। लगता है, जैसे कोई बालक रोता हो, बापू-बापू की रट लगाता हो।

बब्बू की माँ आज रात अपने को बहला न सकीं। वह उठ बैठीं। आवाज़ वैसी ही आ रही है। उन्होंने ज़रा ध्यान से आहट ली, तो लगा, आवाज बाहर से आ रही है। बाहर सहन में बाबूजी सो रहे थे। अन्दर आँगन की अपनी चारपाई से बब्बू की माँ उठ खड़ी हुई। आँगन में मैली चाँदनी फैली हुई थी। दिन-भर की लू की मारी हवा इस वक़्त कुछ ठण्डी-ठण्डी सी लग रही थी। रात के सन्नाटे में वह किसी बालक के रुदन-सी आवाज़ कितनी भयानक लग रही थी! बब्बू की माँ को ध्यान आया कि पहले तो यह आवाज़ ज़रा-ज़रा देर में चुप हो जाती थी, लेकिन आज तो यह जाने कब से आ रही है। ... दूर के अपने स्टेशन पर जाने बब्बू कैसे है? क्यों ऐसा लगता है कि जैसे बब्बू ही रो रहा हो? जैसे शिकायत कर रहा हो कि बाबूजी ने उसकी पढ़ाई भी पूरी नहीं करायी ... यह उम्र हो गयी, अभी शादी नहीं करायी ... लेकिन नहीं, नहीं, वह शिकायत करने वाला, मुँह लेकर कुछ कहने वाला बेटा नहीं है! जैसी माँ वैसा ही बेटा। ...

वह आवाज़ जैसे और भी करुण, और भी भयानक हो उठी। अकेले घर में बब्बू की माँ को डर लगने लगा। वह चारपाई से उठ खड़ी हुई। बाहर के दरवाज़े के पास की खिडक़ी से उन्होंने बाहर झाँका। आवाज़ बाहर से आ रही थी। बाबूजी चौकी पर दायीं करवट पड़े थे। कुहनी में उनका मुँह छुपा हुआ था, साफ़ दिखाई न दे रहा था। वह आवाज़ उसी तरह बही आ रही थी। फिर बाबूजी को देखते हुए बब्बू की माँ को सहसा ही ऐसा लगा कि जैसे अब वह आवाज़ उनके कानों से टकराकर दूर चली गयी है और उनको एक बहुत पुरानी बात याद आ गयी। ... जब वह इस घर में आयी थीं तो बाबूजी अकेले ही थे। उनके माँ-बाप जाने कब के गुज़र चुके थे। रात में चारों ओर जब सोता पड़ जाता तो वह इसी खिडक़ी पर आकर उन्हें धीरे-धीरे पुकारते, दरवाज़ा खोलो ... और एक बार वह भी इस खिडक़ी पर आयी थीं। यही जेठ के दिन थे। आँगन में सोयी थीं कि अचानक उनकी नींद उचट गयी। जाने मन में क्या उठा कि वह इस खिडक़ी पर आ गयीं। लेकिन उन्हें पुकारें कैसे? फिर आँगन में से कुछ कंकड़ियाँ चुन लायीं और एक-एक कर खिडक़ी से उनकी चारपाई पर फेंकने लगीं। वह उठे तो दरवाज़ा ज़ोर से खोलकर आँगन में चली गयी थीं। उन्होंने अन्दर आकर कहा-एक कंकड़ी मेरी भौंह पर लगी है!

-अरे, उन्होंने व्यस्त होकर कहा था-कहाँ? चोट तो नहीं लगी?

-नहीं, नहीं, वह कंकड़ी थी कि पंखुड़ी? ...

और वह बब्बू! हे भगवान, उस रात कहीं वह चुक गयी होतीं तो उन्हें बब्बू की माँ कौन कहता? और फिर उसके बाद तो ...

उनके मन में आया, एक कंकड़ी फेकूँ क्या? ... कि अचानक बाबूजी चौकी पर उठ बैठे।

और बब्बू की माँ के मन में आया, दरवाज़ा खोल दूँ क्या? और सच ही बढक़र उन्होंने दरवाज़ा खोला ही था कि उनकी आवाज़ आयी-बब्बू की माँ!-उस आवाज़ में कैसी तो एक तड़प थी कि बब्बू की माँ का सपना टूट गया। सिर का आँचल ठीक करती हुई जैसे एक अपराधी की तरफ वह बोलीं-कहिए!

-इस बेला तुमने दरवाज़ा क्यों खोला?

-मुझे ऐसा लगा कि बाहर कोई बालक रो रहा है।

-तुमने सुना था?

-तीन रातों से सुन रहीं हूँ।

-ओह! तनिक रुककर बाबूजी ने कहा-यहाँ आओ।

वह सहमी-सहमी-सी उनके पास आ गयीं।

वह बोले-बैठो!

आपकी चौकी पर?

-हाँ, तुमसे एक बात कहनी है।

-मुझसे?

-हाँ, बाबूजी खड़े-खड़े ही बोले-अपनी यह बात मैं और किसी से कह नहीं सकता। ... जानती हो तीन रातों से मैं ही रो रहा हूँ ...

-आप?

-हाँ, मैं। तुम ने ठीक ही किसी बालक का रुदन सुना। इन्सान जब रोता है तो बालक ही बन जाता है।

-लेकिन क्यों? आप तो मोह-माया ...

-कितने दिनों बाद आज तुमने मुझसे एक सवाल पूछा है ...

-ओह, क्षमा कीजिए!

-नहीं-नहीं, बब्बू की माँ! एक नहीं तुम हज़ार सवाल पूछो!

मेरा पतन हो गया है। जिस सिंहासन पर तुम लोगों ने मुझे बैठा रखा था, उससे मैं च्युत हो गया हूँ। मैं ...

-यह-सब आप क्या कहते हैं? मेरी समझ ...

-आज तक तुम ने समझकर मेरी कोई बात नहीं मानी। मेरी बात ही तुम लोगों के लिए वेद-वाक्य रही। लेकिन आज मैं चाहता हूँ कि पहले तुम मेरी बात समझो। तुम्हें मैं वह पूरी घटना ही सुनाता हूँ, जिसने मेरे जीवन के सभी आदर्शों, सिद्धान्तों और बड़ी-बड़ी त्याग-तपस्या की बातों को एक मामूली-सी स्थिति की चट्टान पर पटककर चूर-चूर कर दिया है। मैं तीन दिनों से रो रहा हूँ, लेकिन ऐसा लगता है कि सारी जि़न्दगी जिस राह मैं चला हूँ, उसी पर मैं भटक गया हूँ। सुनो! उस दिन गाड़ी में बेहद भीड़ थी। दोपहर को गाड़ी पहुँची, तो ऐसी भीड़ डब्बे में घुसी कि मेरा दम फूलने लगा। ऐसा लग रहा था। कि मैं बेहोश हो जाऊँगा। लोगों की साँसों से जैसे लपटें छूट रही थीं सोचा, उतरकर जान बचाऊँ, लेकिन उस भीड़ में से उतरना कोई मामूली काम न था। फिर भी मैं झोला लेकर उठ खड़ा हुआ। और किसी तरह एक पग बढ़ाया ही था कि गाड़ी ने सीटी दे दी। अब क्या करूँ, लोगों ने कहा, बैठ जाइए, गाड़ी चलेगी तो थोड़ी राहत मिलेगी। मेरे बैठते-बैठते गाड़ी चल पड़ी। तभी एक चमौंधा जूता मेरी गोद में आ गिरा। मैंने खिडक़ी की ओर नज़र घुमायी तो एक पोटली मेरी पीठ से बज उठी। देखा, एक बूढ़ा किसान मेरी खिडक़ी में पाँव डाले ऊपर चढ़ रहा है। जाने मुझे क्या हुआ कि मेरा दिमाग़ ही ख़ राब हो गया। गोद का जूता उठाकर मैंने बाहर फेंक दिया और मारे ग़ुस्से से काँपने लगा। किसानों ने अन्दर आकर माथे का पसीना मेरे सिर पर चुलाते हुए कहा, छिमा कीजिएगा, बाबूजी, हमें दो ही टीसन जाना है। उसके मुँह से 'बाबूजी' सुनकर मेरे ऊपर घड़ों पानी पड़ गया। वह शायद मुझे पहचानता था। मैंने दूसरी ओर मुँह फेर लिया वह अपनी पोटली और जूते सँभालने लगा। फिर बोला, हमारा एक जूता किधर जा पड़ा? मैं जानता था कि उसका एक जूता कहाँ है, लेकिन मेरे मुँह से कोई बात नहीं निकली। अब मैं सोच रहा था कि कहीं इसे मालूम हो जाय कि मैंने ही इसका एक जूता ... वह छटपटाकर आस-पास के लोगों से पूछ रहा था और लोग उसे डाँट रहे थे। आख़िर हार-पछताकर उसने पूछना बन्द कर दिया। फिर भी रह-रहकर बोल उठता था, जाने हमारा एक जूता कहाँ चला गया? भुभुर में मेरा पाँव जल जाएगा। ... आख़िर बेल्थरा रोड आया और जब वह एक जूता और पोटली लटकाये नीचे उतर गया, तो मेरी जान में जान आयी। लेकिन, बब्बू की माँ, फिर जो दृश्य मैंने देखा है, वह ... वह ... -बाबू जी का गला भर्रा गया-वह मैं कभी भी न भूल सकूँगा! वह किसान एक पाँव में जूता डाले और दूसरे नंगे पाँव से पिघलते कोलतार पर चला जा रहा था। वह उसका नंगा पाँव पिघलते कोलतार पर ऐसे पड़ रहा था, जैसे अंगार पर ... और फिर मुझे ऐसा लगा कि वह नंगा पाँव अंगार पर नहीं, मेरी छाती पर चल रहा है ... और मैं कुचला जा रहा हूँ ... कुचला जा रहा हूँ ... बब्बू की माँ, मैं क्या करूँ? क्या करूँ?-और बाबूजी अपनी छाती मसलते हुए चौकी पर बैठ गये।


बब्बू की माँ को लगा कि जैसे वही आवाज़ फिर उनके कानों से आकर टकराने लगी। वह उठ खड़ी हुईं और दरवाज़े की तरफ बढ़ती हुई बोलीं-मैं क्या जानूँ, बाबूजी मेरी समझ में तो आज तक आपकी कोई बात नहीं आयी, फिर यह बात तो और भी मुश्किल मालूम होती है। मैं आपको क्या बता सकती हूँ