Saturday 6 July 2013

फ़ज़ल इमाम मल्लिक की कलम से ढेर सारी बातें किताबों की



किताबों की भीड़ में कुछ और किताबें : देवेंद्र कुमार मिश्र को पिछले कुछ सालों से जानता हूँ। ज़ाहिर है इसकी वजह सनद ही रही है। सनद के लिए अपनी कुछ रचनाएँ उन्होंने भेजी थी। वे बहुत ही निष्ठा और समर्पण के साथ रचने में जुटे हैं। बिना किसी शोर-शराबे के वे कविताएँ और कहानियाँ रच रहे हैं। लेकिन मेरा ताल्लुक़ उनकी कविताओं से ही रहा है। उनकी कविताएँ पढ़ता रहा हूँ। अभी हाल ही में उनकी दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं ‘प्रजातंत्र का फ़्लाप शो’ और ‘कल तुम्हारा होगा’ (प्रकाशक: उद्योगनगर प्रकाशन, 695 न्यू कोट गाँव, जीटी रोड, गाजियाबाद-201001, मूल्य: सौरुपए) के नाम से। किसी कवि के दो संग्रहों का एकसाथ प्रकाशन निश्चित ही महत्त्व की बात है। वह भी समय के उस दौर में जहाँ शब्द अपने अर्थ खोते जा रहे हों।
देवेंद्र कुमार मिश्र के कविताओं में अपने समय और समाज को देखा जा सकता है। पहला संग्रह व्यंग्य कविताओं का है तो दूसरे संग्रह में सामजिक सरोकार के रंग बिखरे पड़े हैं। ‘प्रजातंत्र का फ़्लाप शो’ के नाम से ही पता चलता है कि संग्रह की कविताओं के केंद्र में राजनीति और व्यवस्था है। संग्रह में मिश्रा की 106 कविताएँ हैं। संग्रह की कवितओं में राजनीतिक रंग भी है और इस राजनीति से उपजी सड़ी-गली व्यवस्था का ज़िक्र भी। जीवन से जुड़े सरोकारों और सवालों को देवेंद्र कुमार मिश्र बार-बार हमारे सामने रखते हुए कहते हैं ‘आजकल बिकता है/सच/अजकल बेईमान कहलाता है/व्यवहार कुशल, दक्ष, होशियार’। बाज़ार में बदलती दुनिया भी उनकी कविताओं में दिखाई देती है। वे कहते हैं-‘अब जब सब कुछ बाज़ार है/सब कुछ व्यापार है/तो रिश्ते-नातों का क्या’। देवेंद्र कुमार मिश्र की कविताओं में जीवन के कई रंग बिखरे दिखाई पड़ते हैं। उन रंगों में यक़ीन की दपदपाती लौ हमें बेतहर दुनिया को लेकर आश्वस्त भी करती है। ‘कल तुम्हारा होगा’ में उनकी छोटी-बड़ी 118 कविताएँ हैं। समाज में फैली विसंगतियों पर वे बहुत ही सलीक़े से बात करते हैं। अच्छी बात यह है कि दमोह में रह कर भी वे लगातार लिख रहे हैं और अच्छा लिख रहे हैं। उनकी कविताओं में ताज़गी भी है और अपने समाज की चिंता भी। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में उनकी और भी बेहतर रचनाएँ सामने आएँगी और व्यापक दुनिया से सरोकार बनाएँगी।
‘अनुकथन’ श्याम सुंदर निगम की कृति है। विभिन्न रचनाकारों के कृतित्व और व्यक्तित्व पर प्रकाशित लेखों के इस संग्रह की बड़ी ख़ूबी यह है कि श्याम सुंदर निगम ने गीतकारों को अपने लेखन के केंद्र में रखा है। ‘कोशिश’ के तहत लिखी गई भूमिका में बहुत ही साफ़गोई से वे साहित्य की राजनीति का ज़िक्र करते हुए साहित्य के मठों में बैठे महंतों पर सवाल खड़े करते हैं। अपने इस संग्रह को लेकर भी वे किसी तरह की लम्बी-चौड़ी बात नहीं करते हैं। वे कहते हैं कि ‘अनुकथन’ मेरे पाठकीय सोच का प्रतिफल है। यानी एक पाठक की हैसियत से ही उन्होंने उन रचनाकारों का आकलन किया है जिनके गीतों ने उन्हें प्रभावित किया। संग्रह में शामिल गीतकारों के गीतों को देकर श्याम सुंदर निगम ने पाठकीय दायित्व का बख़ूबी निर्वाह किया है।
ऋषभ देव शर्मा का संग्रह ‘ताकि सनद रहे’ (तेवरी प्रकाशन, 4-7-419,इसामिया बाज़ार, हैदराबाद-500027, मूल्य-120रुपए) कुछ साल पहले प्रकाशित हुआ था। शर्मा लम्बे समय से सृजनरत हैं। संग्रह की कविताएँ एक बेहतर दुनिया को लेकर हमें आश्वस्त करती हैं। ‘घर बसे हैं’ जैसी कविताएँ उम्मीद और यक़ीन की कविता है। ‘हाथ में रथचक्र’ ‘धुआं और गुलाल’ ‘सूरज होने का दर्द’ शिल्प और प्रयोग के स्तर पर अच्छी कविताएँ हैं। दिल्लीलोक निर्माण विभाग ने ‘काव्यांजलि’ नाम से अपने यहाँ कार्यरत कर्मचारियों की कविताओं का संग्रह प्रकाशित किया है। संग्रह के संपादक हैं सुरेंद्र मोहन कोहली और संयोजक हैं भीष्म कुमार चुघ। सरकारी कार्यलयों में काम करने वालों को आमतौर पर यह मान लिया जाता है कि उनका साहित्य से सरोकार न के बराबर है। लेकिन यह संग्रह उन मान्यताओं को तोड़ता है। संग्रह में नीलमा शर्मा, पीके शर्मा, उत्सव श्रीवास्तव, हेमंत कुमार, शशि, अवनेश शर्मा, रेखा कुमार, अजय कुमार श्रीवास्तव, एलपी श्रीवास्तव, कमलप्रीत सिंह, एचएस रोहिला, सुमो कोहली, अविनाश चंद्र ‘फ़ितरत’ के अलावा राजेंद्र नागदेव व अलका सिन्हा की कविताएँ संकलित हैं। इस तरह की कोशिश दूसरे सरकारी दफ़्तरों में भी हो तो हिंदी का सरोकार भी बढ़ेगा और साहित्य का भी।

इक़बाल का पुनर्पाठ : डॉ. मोहम्मद इक़बाल उर्दू के उन गिने-चुने शायरों में हैं जिन्होंने अपनी कविताओं से अपने समय और समाज से मुठभेड़ किया। यह बात अलग है कि उर्दू शायरी का ज़िक्र आते ही बात मीर से शुरू हो कर ग़ालिब पर ख़त्म हो जाती है। इक़बाल जैसे शायरों की यह बदक़िस्मती ही कही जाएगी कि न तो उर्दू में उनका मूल्याँकन ठीक से किया गया और न ही हिंदी वालों ने उन्हें समझा।
कभी-कभी लगता है कि इक़बाल ने अगर ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ सरीखा गीत नहीं लिखा होता तो क्या उन्हें हम एक बेहतरीन शायर के तौर पर जानते-समझते। इक़बाल की बदक़िस्मती ही कही जाएगी कि हिंदी समाज में भी उनकी शायरी के बहुत ज़्यादा क़द्रदान नहीं हैं। ऐसा क्यों और किन वजहों से हुआ ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता। हिन्दुस्तान छोड़ कर पाकिस्तान जा बसना एक वजह हो सकती है, पर यह वजह मुझे बहुत क़ायल नहीं करता है क्योंकि जोश मलीहाबादी से लेकर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ तक को लोगों ने सर-आँखों पर बैठाया। पर इक़बाल को वह रेक्गनाइज़ेशन नहीं मिली। हालाँकि इक़बाल के यहाँ रचना का जो विस्तार मिलता है, वह विस्तार दूसरे बहुत सारे शायरों के यहाँ कम ही दिखाई देता है। उन्होंने बच्चों के लिए भी नज़्में लिखीं और बड़ों के लिए भी। इन नज़्मों में जीवन की लय और दर्शन के रंग बहुत ही शिद्दत से दिखाई पड़ते हैं। न जाने क्यों मुझे आज भी इक़बाल दूसरे शायरों से कई अर्थों में बेहतर लगते हैं क्योंकि उनके पास जो रेंज़ है वह बहुतों के यहाँ नहीं है। मीर और ग़ालिब की शायरी का मैं भी क़ायल हूँ लेकिन इक़बाल मुझे इनसे कई मानों में अलग और बेहतर लगते हैं। ऐसा इसलिए भी कि उन्होंने आसान और सरल भाषा में नज़्में लिखीं और ज़िंदगी को नए अर्थ दिए। उनकी नज़्में मुश्किल घड़ी में जीने के लिए प्रेरित करती हैं। ‘मुसीबत में न काम आतीं हैं तदबीरें, न तक़दीरें, जो हो जौक़-ए-यक़ीं पैदा तो कट जाती है जंजीरें’ या कि फिर ‘यक़ीन महकम, अमल पैहम, मोहब्बत फ़ातह-ए-आलम, ज़हाद-ए-ज़िंदगानी में यही होती हैं मर्दों की शमशीरें’ जैसी पँक्तियां ज़िंदगी को बड़े अर्थ तो देती ही हैं, हमें कुछ करने के लिए भी बार-बार प्रेरित करती हैं। शायद यही वजह है कि इक़बाल मेरे प्रिय शायरों में सबसे ऊपर हैं। ‘शिकवा’ और ‘जवाब-ए-शिकवा’ जैसी कालजयी नज़्में पढ़ते हुए बार-बार जीवन के नए अर्थ खुलते हैं। पर उर्दू वाले मीर-ग़ालिब से आगे सोचते ही नहीं और हिंदी में भी इक़बाल के प्रशंसक कम ही हैं। हालाँकि इक़बाल की शायरी हमसे बार-बार एक अंतरंग संवाद बनाती है।
यह बात भी कम चौंकाने वाली नहीं है कि ‘सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्तां हमारा’ जैसी कालजयी रचना लिखने वाले इक़बाल पर कुछ-कुछ सांप्रदायिक होने का इलज़ाम भी समय-समय पर लगता रहा है। उनके कई ऐसे आलोचक भी मिल जाएँगे जो इक़बाल को महज़ हिन्दुस्तान से हिज़रत करने की वजह से उन्हें सांप्रदायिक क़रार देकर कटघरे में खड़ा कर डालते हैं। पर सच यह भी है कि जो उन्हें इस कसौटी पर कसने की कोशिश करते हैं, उन्होंने इक़बाल को एक मुकम्मल शायर के तौर पर कभी न तो पढ़ा न पढ़ने की कोशिश की। इक़बाल के यहाँ जीवन का जो राग है, उसे अगर अक़्ल व शऊर के साज़ पर सुनें तो जो आवाज़ सुनाई देगी, उसमें अमन है, मोहब्बत है और आपसी रिश्तों को मज़बूत करने की वकालत है। भारतीय भाषाओं के ढेरों कवियों ने मोहब्बत के तराने तो गाए हैं पर उनमें एक व्यापक संसार की कमी दिखाई पड़ती है। जबकि इक़बाल के यहाँ वह सरोकार बहुत शिद्दत के साथ दिखाई पड़ते हैं। वह इक़बाल ही हैं जिनकी कविाताओं में गौतम बुद्ध, विश्वामित्र, राम, भर्तृहरि का ज़िक्र मिलता है। ‘हिन्दुस्तानी बच्चों का क़ौमी गीत’ में चिश्ती के साथ गुरुनानक की ज़िक्र है तो ‘नानक’ नज़्म में गौतम बुद्ध को पैगंबर बताया गया है। अपनी नज़्म ‘राम’ में उन्होंने भगवान राम का गुणगाण करते हुएस उन्हें ‘हिन्दुस्तां के इमाम’ से संबोधित किया है। इसी तरह पंजाब के मशहूर संत रामतीरथ की मौत के बाद ‘स्वामी रामतीरथ’ शीर्षक से नज़्म लिखी। इक़बाल ने दूसरे कौमों और उनके धार्मिक नायकों का पूरा-पूरा सम्मान किया है। वे इस बात को पसंद नहीं करते थे कि दूसरी कौमों के महान कामों की तारीफ़ न की जाए। उनकी नज़र में यह नैतिक अपराध था। हैरत इस बात की है कि भारतीय भाषाओं के दूसरे कवियों की सोच में मुसलमानों के नायकों को लेकर बहुत कम ही लिखा गया है। पर इस पर ज़िक्र फिर कभी।
फ़िलहाल मेरे सामने ‘जावेदनामा’ का हिंदी अनुवाद है। फ़ारसी में उनका लिखा यह मशहूर महाकाव्य है। अब इसका हिंदी में तर्जुमा मोहम्मद शीस ख़ान ने किया है। क़रीब साढ़े तीन सौ पृष्ठ में फैले इस महाकाव्य को पढ़ना इक़बाल को नए अर्थों में जानने जैसा है। शीस ख़ान ने कोई ग्यारह साल पहले इक़बाल की कृति ‘रिकंस्ट्रक्शन आफ रिलीज़ियस थाउट्स ऑफ़ इस्लाम’ का अनुवाद किया था। ग्यारह साल बाद उन्होंने इक़बाल के इस फ़ारसी महाकाव्य का अनुवाद किया है। बड़ी बात यह है कि शीस ख़ान ने इसका अनुवाद बहुत ही मेहनत और लग्न से किया है। इक़बाल के पूरे संसार को हिंदी दुनिया के सामने रखने के लिए उन्होंने हिंदी मुहावरों और देसी कहावतों का इस्तेमाल किया है। ये मुहावरे और कहवातें हमारे समाज के बीच से उठाई गई है इसलिए ‘जावेदनामा’ पढ़ते हुए ठेठ भारतीय रंग दिखाई देता है। इन रंगों में दर्शन भी है, अध्यात्म भी है, तस्सववुफ़ भी है और राष्ट्रीयता भी है। ज़ाहिर है कि इसे पढ़ते हुए इक़बाल का नया रंग हमारे सामने आता है।
इक़बाल की कृति ‘जावेदनामा’ काव्य-नाटक है क्योंकि इसमें देश-दुनिया के कई पात्र आपस में संवाद करते हैं। इन पात्रों में फ़ारसी के महान शायर रूमी भी हैं और बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध भी। ऋषि विश्वमित्र और दार्शनिक भर्तृहरि भी हैं। जर्मन दार्शनिक नीत्शे हैं तो सूडान के सूफ़ी-संत मेहदी भी हैं। ग़ालिब भी इस कृति में अपने रंग में दिखाई देते हैं तो रूसी साहित्यकार टालस्टाय भी हैं। नर्तकी मणिका भी है और टीपू सुल्तान भी। मीर जाफ़र और मीर सादिक़ भी हैं। इनके अलावा ढेरों पात्र हैं जो अपने समय और समाज की अक्कासी करते हैं। शीस ख़ान पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं कि ऐसा माना जाता है कि दांते की मौत के छह सौ साल बाद ‘जावेदनामा’ सामने आया और इक़बाल ने एशिया की तरफ से यूरोप को ‘डिवाइन कामेडी’ का जवाब दिया। ‘जावेदनामा’ को एशिया की डिवाइन कामेडी इसलिए भी कहा जाता है क्योंकि नीत्शे और लार्ड किचनर को छोड़ कर इसके सभी मुख्यपात्रों का ताअल्लुक़ एशिया से है। जावेदनामा में हिंदुस्तामन से उनके जुड़ाव को गहरे महसूस किया जा सकता है। शीस ख़ान के लिए सचमुच फ़ारसी की इस कृति का अनुवाद करना बहुत कठिन रहा होगा। उर्दू में हालांकि दो लोगों ने इसका अनुवाद किया है पर हिंदी में इस कृति का यह पहला अनुवाद है। इक़बाल के नाम पर जो लोग नाक-भौं सिकोड़ते हैं और उन पर हिन्दुस्तान विरोधी होने का ठप्पा लगाते हैं, उन्हें इस कृति में इक़बाल का वह रूप दिखाई देगा जो ख़ालिस हिन्दुस्तानी है। ऐसे समय में जब इक़बाल पर कुछ लोग फिर से सवाल उठा रहे हों और उन्हें भारत के विभाजन का ज़िम्मेदार मान रहे हैं, जावेदनामा वैसे लोगों के सारे सवालों का जवाब देता है और यक़ीनन इसके लिए शीस ख़ान को जितनी भी बधाई दी जाए कम है। इक़बाल को लेकर जिन लोगों के मन में किसी तरह का भी भ्रम है, उन्हें यह पुस्तक ज़रूर पढ़नी चाहिए।

साहित्यकारों की एक छोटी मगर ख़ूबसूरत दुनिया : क़रीब दो साल पहले रायपुर में वहाँ के लेखकों ने मुलाक़ात के दौरान मुझे कई किताबें दी थीं। उनमें से बहुतों को मैं जानता तक नहीं था। फिर भी उन्होंने मुझे अपनी पुस्तकें भेंट की। उन किताबों को लेकर दिल्ली आया और उनमें से कुछ पुस्तकों पर लिखा भी। हालाँकि मेरा यह अनुभव भी रहा है कि इस तरह मिलने वाली किताबों को कई लोग होटल या जहाँ उन्हें ठहराया गया होता है छोड़ कर चले आते हैं। अपने साथ के ही कई लेखकों को ऐसा करते देखा है। मुझे कम से कम यह बात अच्छी नहीं लगती है कि आपको किसी शहर में कोई अगर किताब देता है तो आप उसे अपने साथ लाना भा गवारा नहीं करते हैं। अगर किताबों को कूड़ा समझ कर फेंकना ही है तो फिर उन लेखकों को ही मना कर दें कि मुझे किताबें भेंट न करें, क्योंकि मैं इन किताबों को पढ़ नहीं पाऊँगा। पर ऐसा कहने की हिम्मत वे जुटा नहीं पाते और किताब को कूड़ा समझ कर वहीं फेंक आते हैं। यह लेखक का अपमान तो है ही, किताब और शब्दों का अपमान भी है।
पीड़ा तब और होती है जब ऐसा करने वाले ख़ुद को शब्दों का साधक कहते हैं और शब्द, भाषा और शब्दों के महत्त्व पर प्रवचन करते रहते हैं। लेकिन इस तरह का प्रवचन देते वक़्त वे उन लोगों को बिसरा देते हैं जो छोटे शहरों या क़स्बों में रह कर साहित्य साधाना में लगे रहते हैं। इन पँक्तियों को लिखते हुए कमलेश्वर जी याद आ रहे हैं। एकबार बातचीत में उन्होंने बताया था कि दिल्ली से लेखकों का दल पूर्वी उत्तर प्रदेश के दौरे पर गया था। क़रीब पंद्रह दिनों तक हम लोग कई शहरों और क़स्बों में गए थे। हमारे साथ राजेंद्र यादव भी थे। स्थानीय साहित्यकार हमें सर-माथे पर बिठाते। जहाँ-जहाँ हम गए, वहाँ के साहत्यिकार अपनी किताबें भी देते। एक जगह हमें कुछ किताबें मिलीं। राजेंद्र यादव ने एक युवा साहित्यकार को एक पुस्तक देते हुए कहा कि इसे पढ़ें बहुत ही अच्छी किताब है। वह युवा साहित्यकार पहले तो सकुचाया फिर उसने हौले से कहा - यह किताब उसी की लिखी हुई है और उसने ही उन्हें भेंट की थी। इस एक घटना से दिल्ली के बड़े साहित्यकारों की मानसिकता को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। रचना और रचनाकार की किस तरह से उपेक्षा दिल्ली में बैठे हमारे ‘साहित्यिक महानायक’ करते हैं, यह आसानी से समझा जा सकता है। रायपुर से लौटने के क्रम में भी कई लेखकों ने इसी तरह का काम किया। किताबें जो मिलीं थीं, उसे होटल के उस कमरे में छोड़ दिया था, जहाँ उन्हें टिकाया गया था।
यह सही है कि घर में किताबों की बहुत जगह नहीं होती। लेकिन यह भी तो सही है कि किताबें और शब्द ही तो हमारी संपदा हैं। इनकी इस तरह उपेक्षा करना कहाँ तक और कितना उचित है। घर में किताबों के लिए जगह अगर नहीं भी है तो ढेरों पुस्तकलायें ऐसी हैं जिन्हें किताबों की ज़रूरत होती है । हम इन किताबें को ऐसी पुस्तकालयों को भेंट कर सकते हैं। लेकिन किताबें ‘ढो’ कर लाने की ज़हमत से बचने की कोशिश में हम किताबों और साहित्यकारों दोनों का अपमान करते हैं।
पिछले साल खगड़िया में आयोजित प्रेमचंद समारोह में जाना हुआ। किंकर जी की देखरेख में यह समारोह आयोजित होता है। दो दिनों तक चले इस समारोह में कई स्थानीय साहित्यकारों से भेंट-मुलाक़ात रही। चूँकि मैं दिल्ली से गया था इसलिए लोगों ने मुझ दिल्ली वाला ही समझा। कई लेखकों ने अपनी किताबें भेंट की। उन्हें सहेज कर दिल्ली लेते आया। साहित्य के केंद्र से दूर रहने वाले लेखकों की त्रासदी है कि उनकी रचनाओं का ज़िक्र तक नहीं होता। जबकि वे लेखन से लेकर प्रकाशन तक के लिए दौड़-धूप करते रहते हैं। पहले वे रचते हैं फिर प्रकाशक न मिलने की वजह से घर से पैसे लगा कर पुस्तकें प्रकाशित करवाते हैं फिर अपनी ही गाँठ ढीली कर वे अपनी पुस्तकों को आलोचकों-समीक्षकों तक पहुँचाते हैं। इतना करने के बावजूद उनकी पुस्तक पर न तो एक लाइन की कोई समीक्षा लिखता है और न ही कोई आलोचक उनका ज़िक्र करता है। हालाँकि उन किताबों में कई ऐसी रचनाएँ होती हैं जो अपने समय और समाज से मुठभेड़ करती हैं। लेकिन चूँकि वे दिल्ली से दूर रहते हैं इसलिए दिल्ली भी उनसे दूर-दूर ही रहती है।
खगड़िया से लौटते हुए यह संकल्प लिया था कि दूर-दराज़ के इन साहित्यकार मित्रों की पुस्तकों पर जब भी मौका मिलूँगा ज़रूर लिखूँगा। हालाँकि ऐसा पहले भी करता रहा। ढेरों ऐसे रचनाकारों की पुस्तकों की समीक्षाएँ की हैं जो साहित्य के केंद्र में भले नहीं हों लेकिन साहित्य उनके केंद्र में ज़रूर है। इसी शीर्षक से यह सिलसिला लगातार बनाए रखने की कोशिश करूँगा। एक जगह और इलाक़े के साहित्यकारों की पुस्तकों पर इस तरह से लगातार टिप्पणी कर उनके साहित्य का मूल्याँकन करने का प्रयास रहेगा। यह सही है कि हर किताब अच्छी नहीं हो सकती। लेकिन यह बात तो दिल्ली में बैठे साहित्यकारों पर भी लागू होती है।
खगड़िया में साहित्यकारों ने मुझे कई पुस्तकें दीं। इनमें से स्वतंत्रता सेनानी जगदंबा प्रसाद मंडल पर प्रकाशित पुस्तक ‘स्मृति शेष-जगदंबा प्रसाद मंडल’ (प्रकाशक: जगदंबा प्रसाद मंडल प्रकाशन समिति, कोलबारा, खगड़िया) का विमोचन तो मेरे हाथों ही हुआ था। पुस्तक का प्रकाशन जगदंबा प्रसाद मंडल प्रकाशक समिति ने किया है। पुस्तक के प्रधान संपादक हैं तेजनारायण कुशवाहा और संपादन किया है मणिलाल मंडल ‘मणि’ ने। पुस्तक न सिर्फ़ जगदंबा प्रसाद मंडल के व्यक्तित्व पर केंद्रित है बल्कि इस पूरे इलाके का इतिाहस और भूगोल को भी समेटा गया है। ज़ाहिर है कि इस इलाक़े को जानने-समझने में यह पुस्तक मदद देती है, मंडल जी के व्यक्तित्व और उस दौर के आदर्श मूल्यों को भी हमारे सामने रखता है। झिटकिया के मज़ार की जानकारी बिहार के कितने लोगों को होगी यह तो नहीं पता लेकिन सांस्कृतिक एकता के इस प्रतीक की जानकारी इस पुस्तक के ज़रिए मिलती है। फिर अघोरी स्थान, हरिपुर गाँव को एक नए रूप में हम जानते हैं। खगड़िया की साहित्यक अवदान की चर्चा कर संपादकों ने बेहतर काम किया है।
बोढ़न मेहता ‘बिहारी’ का खंडकाव्य ‘स्वयं सिद्धा: माँ शबरी’ (प्रकाशक: प्रगति मंच प्रकाशन, गांधी नगर, खगड़िया) भील संस्कृति पर आधारति है। ज़ाहिर है कि महतों ने काफ़ी मेहतन से इस ग्रंथ को तैयार किया है। हालाँकि यह बात अटपटी लगती है कि उन्होंने पुस्तक पर यह मुहर क्यों लगाई कि इसका विमोचन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने किया है। इससे पुस्तक का महत्त्व बढ़ता तो नहीं है।
मुक्तेश्वर मुकेश से पुराना परिचय है। उनकी कविता पुस्तक ‘रंग-बदरंग’ (प्रकाशक: खोजी पूर्वांचल टाइम्स, बेगुसराय) में उनकी उनसठ कविताएँ संकलित हैं। कविताएँ छंद में भी है औंर मुक्त छंद में भी। कुछ कविताएँ ज़रूर प्रभावित करती हैं। सहरसा के नीलमणि सिंह की काव्य पुस्तक ‘युगध्वनि’ की कविताएँ बहुत ज़्यादा प्रभावित नहीं करतीं। इसकी एक बड़ी वजह ग़ज़लों की तरह यह लिखी गई हैं और तुकबंदी ही ज़्यादा है। डॉ. सुरेश प्रसाद सिंह की पुस्तक ‘छायावाद-युग की कविताओं में मानवतावादी’ (प्रकाशक: अपर्णा प्रकाशन, पसराहा, खगड़िया) अच्छी पुस्तक है। पाँच खंडों में प्रकाशित इस पुस्तक में लेखक ने कुछ अच्छी बातें हमारा सामने रखी है, हालाँकि यह बात समझ से परे है कि उन्होंने पुस्तक का नाम ऐसा क्यों रखा क्योंकि बिना मानवता के साहित्य तो रचा ही नहीं जा सकता। यह बात थोड़ा चौंकाती भी है और अचंभित भी करती ही है।

भारतीय पत्रकारिता, मुद्दे और अपेक्षाएँ


सुरेश कुमार पंडा

विषय शुष्कता का सीमोलँघन कर इतिहास और वर्तमान की बहुचर्चित, बहु प्रचारित घटनाओं को सरस ढंग से प्रस्तुतकर पाठक को आकर्षण की अदृश्य लहरियों में किल्लोल कराने में समर्थ श्री बबनप्रसाद जी मिश्र का शोध एवँ बोध परक कृति " भारतीय पत्रकारिता, मुद्दे और अपेक्षाएँ अपने आप में पत्रकारिता के समस्त आयामों का एक सम्पूर्ण दस्तावेज है । यह आपकी पाँचवीं प्रकाशित कृति है । प्रकाशक हैं श्री प्रकाशन, दुर्ग, छत्तीसगढ़ ।

मिश्र जी समाचार पत्र सम्पादक के रुप में पत्रकारिता से एक लम्बे समय तक जुड़े रहे हैं । वर्तमान में आप सुप्रसिद्ध साहित्यकार पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी सृजनपीठ, भिलाई तथा छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य परिषद जैसी प्रतिष्ठित संस्थाओं के अध्यक्ष हैं । अपने सुदीर्ध कार्यकाल में आपको उत्कृष्ट कार्य तथा साहित्य सेवा हेतु अनेकानेक बार सम्मानित किया गया है ।

मिश्र जी ने अपने सुदीर्घ पत्रकार जीवन में अनुभूत राजनीतिक और सामाजिक सर्जनाओं एवँ वर्जनाओं को इस पुस्तक के बहाने नैष्ठिक इमानदारी के साथ विश्लेषित किया है । ऐसे अनुभव सम्पन्न, जागरुक और एकत्र ज्ञान के धरोहर को अगली पीढ़ी को सौंप रखने में कटिबद्ध विवेकवान से इसकी प्रत्याशा रहती ही है । इसीलिये मिश्र जी ने अपने विश्लेषण को गवेषणात्मक ढ़ाँचे के भीतर आगुँफित कर अकादमिक चर्चा का रुप देने का प्रयास किया है । आप अपने इस प्रयास में प्रत्याशित रुप से सफल भी रहे हैं ।

मीडिया और बाजार, लेख में प्रतिबद्धता का सवाल उठाते हुए मिश्र जी संयम के बाँध को टूटने से बचाते नजर आते हैं । आपने तथाकथित उच्चस्तरीय घटनाओं और पत्रजगत द्वारा स्पेस और टाइम को आलोच्य विषय बनाकर गुणवत्ता एवँ सँवेदना का प्रश्न उठाया है । पत्रकारों के समाज के अँग के रुप में अपने दायित्व की ओर से आँख फेर लेने की घटनाओं से मिश्र जी व्यथित हुए हैं और उन्होने इस व्यथा को सटीक ढंग से अभिव्यक्त भी किया है । वे कहते हैँ, " एक आदमी जन समस्याओं को लेकर अपने शरीर को आग लगा रहा है और मीडिया देश को केवल उसका तमाशा दिखा रहा है । यह कौन सा सामाजिक दायित्व है ।"

आप आगे एक जगह लिखते हैं, " हम पुलिस का रोजनामचा, बुराई के रोज के सँदेशवाहक नहीं हैं, समाजोत्थान की बड़ी भूमिका के आधार स्तँभ हैं ।" मेरे विचार से यह मीडिया का नीति वाक्य होना चाहिये ।

अधिकार और दायित्व लेख मिश्र जी के पाँडित्य का लेखा जोखा है । वे किसस्तर के विषय विशेषज्ञ हैं । उनकी दृष्टी कितनी सूक्ष्म है । सम्प्रेषणीयता के आयामों पर उनकी पकड़ कितनी है तथा लेखन में कितनी धार है इसके सूत्र तो पूरे ग्रँथ में विखरे पड़े हैं, परन्तु इस लेख में ज्यादा मुखर हैं । मिश्र जी ने मीडिया की सीमारेखा को बड़ी ही सूक्ष्मता से परखा है और कुशलतापूर्वक अँकित किया है, साथ ही मीडिया के शक्तिकेन्द्रों को भी सूचिबद्ध कर दिया है जहाँ से पत्रकार अपने अधिकार आहरित कर आवश्यक शस्त्रों से लैस हो सकें ।

मिश्र जी भावी पीढ़ी को जहाँ एक ओर अधिकार के प्रमाद से सतर्क रहने के लिये आव्हान करते हैं, वहीं कर्तव्यों के प्रति सजग व्यवहार के लिये
अनेकों उदाहरण देकर अभिप्रेरण की दिशा में आगे बढ़ते दिखते हैं । यह एक ऐसा विषय है जो शाश्वत है, सार्वजनीन है तथा सार्वकालिक है । इसमें आश्वस्ति की संभावना भले ही निशेष हो परन्तु सजग अभिप्रेरण निरन्तरता की सदैव माँग करता है ।

मिश्र जी की दृष्टिबाजार के प्रति सकारात्मक है । वे सुरसा की तरह समस्त संभावनाओं को आत्मसात करने के लिये आकुल निरंतर बिस्तारित होते जाते बाजार से भयभीत नहीं होते वरन् बाजार की विशिष्टताओं, तकनीकी उन्नति और लाभ आधारित क्रियाशीलता को कुछ अँशों में मीडिया के लिये आवश्यक मानते हैं ताकि समाचार का श्रोत सूख न जाय । मीडिया का अपना अर्थतंत्र ही न बिखर जाय । निश्चय ही मिश्र जी का विविध आयामी सुदीर्ध अनुभव उन्हें ऐसी संतुलित विचारधारा में सहयोगी रहा प्रतीत होता है । फिर भी बाजारवाद के बढ़ते हुए दुष्प्रभावों तथा पत्रकार | सम्पादक की आर्थिक लाचारी के कारण समझौता परक व्यवहार को व्यापक ढंग से न सही अपने व्यथित होने के कारणों में गिनाकर अपना असंतोष, अस्विकृति तथा नाराजगी व्यक्त करने से नहीं चूकते ।

पुस्तक का एक चौथाई भाग मिश्र जी ने विषय विशेषज्ञों, राजनीतिज्ञों, ब्यूरोक्रेटस्, और वरिष्ठ मीडियाजनों के लेख से संजोया है । ऐसे संयोजन
के पीछे मिश्र जी की क्या मँशा थी मैं नही जानता । हाँ एक बात जरुर स्पष्ट है कि जिन बिन्दुओं पर मिश्र जी ने कम लिखा है या अपेक्षित गहराई तक नहीं गये हैं उन पर इन विद्वानों ने भरपूर प्रकाश डाला है । हो सकता है मिश्र जी ने विषय को अधक स्पष्ट, अधिक ग्राह्य के रुप में प्रस्तुत करने के लिये ऐसा किया हो । ये लेख किसी भी तरह से अनावश्यक नहीं कहे जा सकते वरन् पुस्तक की उपादेयता में वृद्धि ही करते हैं ।

मिश्र जी के इस प्रयास को मैं संदर्भ ग्रँथ की उपादेयता से लवरेज पाता हूँ । उन्होने पत्रकारिता के इतिहास को शब्द दिया ही दिया है साथ ही १९७५ के आपातकाल के दिन के घटनाक्रम को यथातथ्य देकर उस परिदृश्य को सजीव कर दिया है जिससे अगली पीढ़ी घटनाओं के घटने की दशा और दिशा का अनुमान ज्ञान कर सके ।

इधर कुछ समय से मीडिया, खासकर कार्पोरेट मीडिया, आर्थिक सक्षमता के चक्कर में एक नये बने कार्टेल का सदस्य बनता दिख रहा है जिसके अन्य सदस्य राजनेता, व्यूरोक्रेटस्, तथा उन्ही के बनाये तदर्थ सामाजिक संगठन हैं । यह कार्टेल राजनीति साधने, आर्थिक कालाबाजियों को छुपाने, तथा कतिपय गाभीर कदाचारों के अभियोग से बच निकलने के लिये अराजनीतिक दाँवपेंच अख्तियार कर जनमानस को दिग्भ्रमित करने में सक्षम हो रहा है । यह प्रजातंत्र के लिये, सामान्य जन के लिये तो हानिकारक है । इसके परिणाम भी दूरगामी होंगे । मिश्र जी से इसपर टिप्पणी करने की अपेक्षा करना हो सकता है जल्दबाजी हो परन्तु श्री बबन प्रसाद जी मिश्र जैसे प्रकाश स्तँभ से ही निरापद मार्ग की अपेक्षा सर्थक हो सकती है ।
कृति- भारतीय पत्रकारिता, मुद्दे और अपेक्षाएँ

आधुनिकतावाद की लहरों में अथाह साहित्यिक संपदा


सोलोमन आर. गुगेन्हीम म्यूज़ियम होफ्मन केवल एक कलाकार के रूप में ही नहीं, बल्कि एक कला शिक्षक के रूप में भी मशहूर थे, और वे अपने स्वदेश जर्मनी के साथ-साथ बाद में अमेरिका के भी एक आधुनिकतावादी सिद्धांतकार थे. 1930 के दशक के दौरान न्यूयॉर्क एवं कैलिफोर्निया में उन्होंने अमेरिकी कलाकारों की एक नई पीढ़ी के लिए आधुनिकतावाद एवं आधुनिकतावादी सिद्धांतों की शुरुआत की. ग्रीनविच गांव एवं मैसाचुसेट्स के प्रोविंस टाउन में स्थित अपने कला विद्यालयों में अपने शिक्षण एवं व्याख्यान के माध्यम से उन्होंने अमेरिका में आधुनिकतावाद के क्षेत्र का विस्तार किया. इसका मतलब यह नहीं है कि सभी आधुनिकतावादी लोगों या आधुनिकतावादी आन्दोलनों ने या तो धर्म को या ज्ञानोदय की सोच के पहलुओं को मानने से इंकार कर दिया है, इसके बजाय कि आधुनिकतावाद को अतीत काल की ''सूक्तियों'' के पूछताछ के रूप में देखा जा सकता है.
आधुनिकतावाद की एक मुख्य विशेषता आत्म-चेतना है. इसकी वजह से अक्सर रूप, और कार्य पर प्रयोग किया जाता है जो प्रक्रियाओं और प्रयुक्त सामग्रियों की तरफ ध्यान आकर्षित करता है. "मेक इट न्यू!" के लिए कवि एज़्रा पाउंड पर रूप निदर्शनात्मक निषेधाज्ञा लग गई थी. आधुनिकतावादियों के "नव निर्माण" में एक नया ऐतिहासिक युग शामिल था या नहीं, यह अब बहस का मुद्दा बना हुआ है. दार्शनिक और संगीतकार थियोडोर एडोर्नो हमें चेतावनी देते हैं: "आधुनिकता एक गुणात्मक, न कि एक कालानुक्रमिक, वर्ग है. जिस तरह इसे केवल अमूर्त रूप में नहीं लाया जा सकता है, ठीक उसी तरह समान आवश्यकता के साथ इसे पारंपरिक सतह सम्बद्धता, सद्भाव की उपस्थिति, केवल प्रतिकृति द्वारा मंडित क्रम की तरफ से अपना मुंह फेर लेना चाहिए."
एडोर्नो ने हमें आधुनिकता को ज्ञानोदय की सोच, कला, एवं संगीत की गलत समझ, सद्भाव, और सम्बद्धता की अस्वीकृति के रूप में समझाया होगा. लेकिन अतीत चिपचिपा साबित होता है. पाउंड के नव निर्माण करने की सामान्य अनिवार्यता, और एडोर्नो द्वारा गलत सम्बद्धता एवं सद्भाव के चुनौतीपूर्ण उपदेश को परंपरा के साथ कलाकार के सम्बन्ध पर टी. एस. ईलियट के गुरूच्चरण का सामना करना पड़ता है. ईलियट ने लिखा है: "हमलोग अक्सर पाएंगे कि एक कवि की रचना के केवल सबसे अच्छे ही नहीं, बल्कि सबसे व्यक्तिगत हिस्से भी, ऐसी रचनाएं हो सकती हैं जिसमें मृत कवि, उनके पूर्वज, अपनी अमरता पर सबसे ज्यादा जोशपूर्ण ढंग से जोर देते हैं."
साहित्यिक विद्वान पीटर चाइल्ड्स जटिलता का सार प्रस्तुत करते हैं: "यदि विरोध नहीं हुआ, तो क्रन्तिकारी एवं प्रतिक्रियात्मक परिस्थितियों के प्रति असत्यवत प्रवृत्ति, नवीनता का भय और पुराने, शून्यवाद एवं कट्टर उत्साह, रचनात्मकता एवं निराशा के ख़त्म होने पर ख़ुशी होती थी."
ये प्रतिरोध आधुनिकतावाद में निहित है: यह आधुनिक युग से अलग होने की वजह से अतीत के आकलन के इसके व्यापक सांस्कृतिक समझ में निहित है, ऐसी मान्यता थी कि विश्व और अधिक जटिल होता जा रहा था, और यह भी कि पुराने "अंतिम अधिकारी" (ईश्वर, सरकार, विज्ञान, एवं कारण) अत्यधिक महत्वपूर्ण संवीक्षा के अधीन थे.
आधुनिकतावाद की वर्तमान व्याख्याओं में अंतर है. कुछ बीसवीं सदी की प्रतिक्रिया को आधुनिकतावाद एवं उत्तरआधुनिकतावाद में विभाजित करते हैं, जबकि अन्य इन्हें एक ही आन्दोलन के दो पहलुओं के रूप में देखते हैं.
कुछ टिप्पणीकार आधुनिकतावाद को सोच की सम्पूर्ण रूप से सामाजिक दृष्टि से प्रगतिशील प्रवृत्ति के रूप में प्रस्तावित करते हैं, जो व्यावहारिक प्रयोग, वैज्ञानिक ज्ञान या प्रौद्योगिकी की सहायता के साथ, अपने वातावरण का निर्माण करने, इसमें सुधार लाने, और इसे नयी आकृति प्रदान करने की मानव जाति की शक्ति की पुष्टि करता है.
इस दृष्टिकोण से, आधुनिकतावाद ने वाणिज्य से दर्शन तक अस्तित्व के प्रत्येक पहलू की पुनः परीक्षा को प्रोत्साहित किया, जिसका लक्ष्य यह पता लगाना था कि प्रगति में किस वजह से रूकावट पैदा हो रही थी, और उसी लक्ष्य तक पहुंचने के लिए इसकी जगह नए तरीकों का इस्तेमाल किया.
अन्य आधुनिकतावाद को एक सौंदर्यात्मक आत्मनिरीक्षण के रूप में प्रस्तुत करते हैं. यह प्रथम विश्व युद्ध में प्रौद्योगिकी के उपयोग की विशिष्ट प्रतिक्रियाओं, और नीत्शे से सैमुएल बेकेट के समय के विभिन्न विचारकों और कलाकारों की रचनाओं के प्रौद्योगिकी-विरोधी एवं शून्यवादी पहलुओं के सोच-विचार को सहज बनाता है.
उन्नीसवीं सदी के प्रथमार्द्ध में यूरोप में अनगिनत युद्ध और क्रांति हुए, जिसने राजनीतिक एवं सामाजिक विखंडन की वास्तविकताओं से "अलग" एक सौन्दर्यपरक परिवर्तन में योगदान दिया, और इस तरह स्वच्छंदतावाद - व्यक्तिगत व्यक्तिपरक अनुभव पर जोर, उदात्त, कला के एक विषय के रूप में "प्रकृति" की सर्वोच्चता, अभिव्यक्ति का क्रन्तिकारी या कट्टरपंथी विस्तार, और व्यक्तिगत स्वतंत्रता - की तरफ एक झुकाव को सहज बनाया. हालांकि, इस सदी के मध्य तक, आंशिक रूप से 1848 के प्रेमपूर्ण एवं लोकतांत्रिक क्रांतियों की विफलता के प्रतिक्रियास्वरूप, स्थिर शासी रूपों के साथ इन विचारों का एक संश्लेषण प्रकट हुआ था. ओट्टो वॉन बिस्मार्क की रियलपोलिटिक और प्रत्यक्षवाद जैसे "व्यावहारिक" दार्शनिक विचारों द्वारा इसे उदाहरण के साथ समझाया गया. विभिन्न नामों वाले—ग्रेट ब्रिटेन में इसे "विक्टोरियन युग" नाम दिया गया है—इस स्थायीकरण संश्लेषण की जड़ इस विचार में थी कि व्यक्तिपरक प्रभावों पर वास्तविकता हावी है.
इस संश्लेषण के बीच में सन्दर्भ की आम मान्यताएं और संस्थागत रचनाएं थीं जिसमें ईसाई धर्म में पाई जाने वाली धार्मिक दृष्टि, पारंपरिक भौतिकी में पाए जाने वाले वैज्ञानिक दृष्टि और कुछ ऐसे सिद्धांत भी शामिल थे जो इस बात पर जोर देते थे कि एक वस्तुनिष्ठ मानदंड से बाहरी वास्तविकता का चित्रण केवल संभव ही नहीं बल्कि वांछनीय भी था. संस्कृति आलोचक एवं इतिहासकार सिद्धांतों के इस समूह पर यथार्थवाद का लेबल लगाते हैं, हालांकि यह शब्द सार्वभौमिक नहीं है. दर्शन में, बुद्धिवादी, भौतिकवादी और प्रत्यक्षवादी आन्दोलनों ने कारण एवं प्रणाली की एक प्रधानता की स्थापना की.
विचारों की एक श्रृंखला के वर्तमान चलन के खिलाफ, उनमें से कुछ प्रेमपूर्ण वैचारिक स्कूलों की निरंतरता को निर्देशित करते हैं. इनमें से प्लास्टिक कला एवं कविता (जैसे - पूर्व-रफेलवादी भाईचारे एवं दार्शनिक जॉन रस्किन) में कृषि एवं धार्मिक पुरुत्थानवादी आन्दोलन उल्लेखनीय थे. बुद्धिवाद ने भी दर्शन में तर्कवादी-विरोधियों की प्रतिक्रिया को आकर्षित किया. विशेष रूप से, हेगेल की सभ्यता एवं इतिहास सम्बन्धी द्वंद्वात्मक दृष्टिकोण ने फ्रेडरिक नीत्शे और सोरेन कियर्कगार्ड की प्रतिक्रियाओं को आकर्षित किया, जो अस्तित्ववाद के प्रमुख प्रेरणा थे. इनमें से सभी अलग-अलग प्रतिक्रियाओं ने एकसाथ सभ्यता, इतिहास, या शुद्ध कारण द्वारा व्युत्पन्न निश्चितता की किसी भी आरामदायक विचारों के लिए एक चुनौती प्रदान करता हुआ दिखाई देने लगा.
1870 के दशक के बाद से इन विचारों पर उत्तरोत्तर प्रहार होता रहा कि इतिहास एवं संभ्यता स्वाभाविक रूप से प्रगतिशील थे और यह भी कि प्रगति सदैव अच्छी होती थी. समकालीन सभ्यता पर अपनी आलोचनात्मक लेखों और उन चेतावनियों के लिए वैगनर एवं इब्सन जैसे लेखकों की काफी भर्त्सना की गई थी कि त्वरक "प्रगति" सामाजिक मूल्यों से अलग और अपने साथियों से पृथक व्यक्तियों के निर्माण का नेतृत्व करती थी. बहस होने लगी कि कलाकार और समाज के मूल्य केवल अलग ही नहीं थे, बल्कि समाज प्रगति के प्रति विरोधात्मक भी थे, और यह अपने वर्तमान रूप में आगे नहीं बढ़ सकता था. दार्शनिकों ने पिछले आशावाद पर प्रश्न उठाया. शोपेनहावर के कृत्यों पर इसके "इच्छा का निषेध" विचार के लिए "निराशावादी" का लेबल लग गया, यह एक ऐसा विचार था जिसे नीत्शे जैसे परवर्ती विचारकों द्वारा अस्वीकार भी किया गया और अंतर्भुक्त भी किया गया.
चार्ल्स डार्विन और कार्ल मार्क्स
इस अवधि के सबसे महत्वपूर्ण विचारकों में से दो विचारक - जीव विज्ञान में चार्ल्स डार्विन और राजनीति विज्ञान में कार्ल मार्क्स थे. डार्विन की प्राकृतिक चयन के आधार पर विकास के सिद्धांत ने आम जनता की धार्मिक निश्चितता और बुद्धिजीवियों की मानव अद्वितीयता की भावना को ठेस पहुंचाई. मानव जाति "छोटे-छोटे जानवरों" की तरह के एकसमान आवेगों से संचालित थी, एक उदात्त आध्यात्मिकता के विचार के साथ सामंजस्य स्थापित करने में यह धारणा काफी मुश्किल साबित हुई. कार्ल मार्क्स का तर्क था कि पूंजीवादी व्यवस्था के भीतर कुछ मौलिक विरोधाभास थे और यह भी कि श्रमिक कुछ भी मगर आजाद थे. दोनों विचारकों ने रक्षकों और वैचारिक समूह को जन्म दिया जो आधुनिकतावाद की स्थापना में निर्णायक बन गए.
इतिहासकारों ने आधुनिकतावाद के शुरूआती अंकों के रूप में विभिन्न तारीखों का सुझाव दिया है. विलियम एवरडेल ने तर्क दिया है कि आधुनिकतावाद की शुरुआत 1872 में रिचर्ड डेडेकिंड की वास्तविक संख्या रेखा के विभाजन और 1874 में बोल्ट्जमन की सांख्यिकीय ऊष्मप्रवैगिकी से हुई. क्लेमेंट ग्रीनबर्ग ने इमानुएल कान्त को "प्रथम वास्तविक आधुनिकतावादी" कहा,[8] लेकिन साथ में यह भी लिखा, "जिसे सुरक्षित रूप से आधुनिकतावाद कहा जा सकता है, उसका प्रादुर्भाव अपेक्षाकृत स्थानीय तौर पर फ़्रांस में साहित्य में बौडेलेर और चित्रकला में मानेट, और गद्य कल्पना में शायद फ्लौबर्ट के साथ अंतिम सदी के मध्य में हुआ था. (कुछ देर बाद, और इतना स्थानीय तौर पर नहीं, कि आधुनिकतावाद संगीत और वास्तुकला में दिखाई दिया)."[9] शुरू में, आधुनिकतावाद को "कला-अग्रणी" कहा जाता था, और यह शब्द ऐसी गतिविधियों का वर्णन करता रहा जो अपने आपको परंपरा या यथास्थिति के कुछ पहलुओं को उखाड़ फेंकने का प्रयास करने वाले के रूप में पहचान करती हैं.
अलग से, कला और पत्रों में, फ़्रांस में उत्पन्न होने वाले दो विचारों का विशेष प्रभाव पड़ा. इनमें से पहला प्रभाववाद अर्थात् एक चित्रकला समूह था जो शुरू में बाहर में (en plein air ), न कि स्टूडियो में, किए गए काम पर ध्यान देता था. प्रभाववादी चित्र प्रदर्शन करते थे कि मानव जाति वस्तुओं को नहीं देखती है, बल्कि इसकी जगह इसके स्वयं के प्रकाश को देखती है. इस समूह ने अपने प्रमुख चिकित्सकों के दरम्यान आतंरिक प्रभागों के बावजूद अनुयायियों को इकठ्ठा किया और तेजी से प्रभावशाली बन गया. उस समय शुरू में सबसे महत्वपूर्ण वाणिज्यिक प्रदर्शन से अस्वीकृत, सरकार द्वारा प्रायोजित पेरिस सैलून नामक प्रभाववादियों ने 1870 और 1880 के दशक के दौरान वाणिज्यिक स्थलों में वार्षिक सामूहिक प्रदर्शनियों का आयोजन किया जिसने उन्हें सरकारी सैलून के साथ बराबरी करने का मौका दिया. 1863 का एक महत्वपूर्ण सैलून - सैलून डेस रिफ्यूज़ेज़ था जिसका निर्माण शासक नेपोलियन तृतीय ने पेरिस सैलून द्वारा अस्वीकृत सभी चित्रकलाओं का प्रदर्शन करने के लिए किया था. जबकि उनमें से अधिकांश चित्रकलाएं मानक शैलियों में निर्मित थीं, लेकिन गौण कलाकारों की, मानेट की रचना ने जबरदस्त आकर्षण प्राप्त किया, और आन्दोलन के लिए वाणिज्यिक दरवाजे खोल दिए.
दूसरा स्कूल प्रतीकवाद था, जो एक विश्वास द्वारा चिह्नित था कि भाषा स्पष्ट रूप से अपनी प्रकृति और देशभक्ति के एक चित्रण में प्रतीकात्मक होता है, और यह भी कि कविता और लेखन को संयोजनों का अनुसरण करना चाहिए जो शब्दों की प्रवण ध्वनि एवं संरचना से निर्मित होता है. कवि स्टीफन मलार्मी को उसके लिए विशेष महत्व दिया गया जो बाद में घटित हुआ.
उस समय सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक शक्तियां कार्यरत थीं जो मौलिक रूप से विभिन्न प्रकार कला और सोच के लिए तर्क का आधार बन गईं. इनमें से मुख्य - वाष्प संचालित औद्योगीकरण था, जिसने ऐसे-ऐसे भवनों का निर्माण किया जिन्होंने नए औद्योगिक सामग्रियों में कला और इंजीनियरिंग को एक सूत्र में बांध दिया, जैसे - ढलवा लोहा, जिसका इस्तेमाल रेलमार्ग के पुलों और सीसे एवं लोहे से बने ट्रेन की छावनियों का निर्माण करने के लिए किया गया—या आइफल टॉवर, जिसने सभी पिछली सीमाबद्धताओं को तोड़ दिया कि मानव निर्मित वस्तुएं कितनी लम्बी हो सकती थी—और उसी समय मौलिक रूप से शहरी जीवन में एक अलग वातावरण प्रस्तुत किया.
विषयों की वैज्ञानिक परीक्षा से पैदा होने वाले औद्योगिक शहरीवाद के दुखों और संभावनाओं की वजह से कई परवर्तन हुए जिसने यूरोपीय सभ्यता को हिलाकर रख दिया, जो उस समय तक अपने आपको नवजागरण से विकास की सतत एवं प्रगतिशील रेखा का पोषक मानता था. टेलीग्राफ द्वारा एक नई शक्ति को काम में लगाने के साथ, कुछ दूरी से तत्काल संचार की सुविधा प्रदान करके, समय का अनुभव खुद-ब-खुद बदल गया.
कई आधुनिक शास्त्रों (उदाहरण के लिए, भौतिकी, अर्थशास्त्र, और कला, जैसे - नृत्य-नाट्य और वास्तुकला) ने अपने पूर्व-बीसवीं सदी रूपों को "शास्त्रीय" रूप में निरूपित किया. यह अंतर उन परिवर्तनों के क्षेत्र को दर्शाता है जो इस अवधि के दौरान बड़े पैमाने पर होने वाली वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों के साथ हुआ था.
1890 के दशक में सोच की एक लड़ी ने इस बात पर जोर देना शुरू कर दिया कि वर्तमान तकनीकों के प्रकाश में अतीत के ज्ञान की केवल पुनरावृत्ति करने के बजाय, पिछले मानदंडों को सम्पूर्ण रूप से एक तरफ हटाने की जरूरत थी. कला के क्षेत्र में अपना सिर उठाने वाला आन्दोलन भौतिकी में सापेक्षता का सिद्धांत; आतंरिक दहन इंजन एवं औद्योगीकरण का बढ़ता एकीकरण; और सार्वजनिक नीति में सामाजिक विज्ञान की वर्धित भूमिका जैसे विकासों के साथ-साथ चलता रहा. यह तर्क दिया जाता था कि, यदि वास्तविकता की प्रकृति खुद सवालों के घेरों में थी, और यदि मानव गतिविधि के आसपास व्याप्त प्रतिबंधों में कमी आ रही थी, तो कला में भी मौलिक रूप से परिवर्तन होगा. इस प्रकार, बीसवीं सदी के प्रथम पंद्रह वर्षों में कई श्रृंखलाबद्ध लेखकों, विचारकों, और कलाकारों ने साहित्य, चित्रकला, एवं संगीत का आयोजन करने के पारंपरिक साधनों से अपना सम्बन्ध तोड़ लिया.
सिगमंड फ्रायड एवं अर्न्स्ट माक के सिद्धांत आधुनिकता की इस लहर में शक्तिशाली प्रेरणास्रोत थे जिन्होंने 1880 के दशक के आरंभिक दौर में तर्क दिया था कि मस्तिष्क की एक मौलिक संरचना होती थी, और यह भी कि व्यक्तिपरक अनुभव इसी मस्तिष्क के भागों की परस्पर क्रिया पर आधारित था. फ्रायड के विचारों के अनुसार सभी व्यक्तिपरक वास्तविकता मूल प्रेरणा और सहज ज्ञान की भूमिका पर आधारित थी जिसके जरिए बाहरी दुनिया की कल्पना की गई थी. अर्न्स्ट माक ने विज्ञान में एक प्रसिद्ध दर्शन विकसित किया जिसे अक्सर "प्रत्यक्षवाद" कहा जाता था, जिसके अनुसार प्रकृति में वस्तुओं के संबंधों की कोई गारंटी नहीं थी बल्कि इन्हें केवल एक प्रकार की मानसिक आशुलिपि के माध्यम से ही जाना जाता था. इसने अतीत से एक अलगाव का प्रतिनिधित्व किया, जिसमें पहले यही माना जाता था कि बाहरी एवं निरपेक्ष वास्तविकता अपने आप, जैसी यह थी, एक व्यक्ति पर पर प्रभाव डाल सकती थी, जैसे कि, उदाहरण के तौर पर, जॉन लोके का अनुभववाद, एक अछूते युवा मस्तिष्क के रूप में शुरुआत करने वाले मस्तिष्क के साथ होता था. फ्रायड के व्यक्तिपरक दशाओं के वर्णन, जिसमें प्रतिसंतुलनीय स्व-अधिरोपित प्रतिबंधों और आरंभिक आवेगों से भरा हुआ एक अचेत मस्तिष्क शामिल था, को कार्ल जंग ने एक सामूहिक अचेत को अनुबंधित करने के लिए प्राकृतिक सार में एक विश्वास के साथ संयुक्त कर दिया जो मूल पदार्थ अध्ययन से भरा हुआ था कि सचेत मस्तिष्क लड़ते या गले लगाते थे. डार्विन की रचना ने लोगों के मन में "मानव, पशु" की अवधारणा को प्रस्तुत किया था, और जंग के दृष्टिकोण ने सुझाव दिया कि सामाजिक मानदंडों का उल्लंघन करने के प्रति लोगों के आवेग बचपना या अज्ञानता का फल नहीं था, बल्कि मानव पशु के आवश्यक से व्युत्पन्न था.[कृपया उद्धरण जोड़ें]फ्रेडरिक नीत्शे एक ऐसे दर्शन के पक्षपाती थे जिसमें बल, ख़ास तौर पर 'शक्ति प्रदान करने की इच्छा', तथ्यों और बातों से अधिक महत्वपूर्ण थे. इसी तरह, हेनरी बर्गसन की रचनाएं वास्तविकता की स्थैतिक अवधारणाओं पर महत्वपूर्ण 'जीवन बल' की पक्षपाती थी. ये सभी लेखक विक्टोरियन प्रत्यक्षवाद और निश्चितता के एक रोमांटिक अविश्वास के जरिए एकजुट हुए. इसके बजाय उन्होंने इसका पक्ष लिया, या, फ्रायड के मामले में, तर्कसंगतता या परिपूर्णता की दृष्टि से तर्कहीन सोच की प्रक्रियाओं को समझाने का प्रयास किया. यह परिपूर्ण शब्दों में सोच के प्रति सदियों से चली आ रही प्रवृत्ति से जुड़ा हुआ था, जिसमें तंत्र-मन्त्र में एक वर्धित रुचि और "प्राणशक्ति" शामिल थी.
स्वच्छंदतावाद से व्युत्पन्न विचारों की इस टक्कर और अब तक अज्ञात तथ्य को समझाने के लिए एक तरीका ढूंढ निकालने के एक प्रयास के फलस्वरूप रचनाओं की पहली लहर का आगमन हुआ, जिसने, जबकि इन रचनाओं के लेखक अपनी रचनाओं को कला में व्याप्त मौजूदा रूझान का विस्तार मानते थे, आम जनता के साथ व्याप्त अनुबंध को तोड़ दिया कि कलाकार बुर्जुआ संस्कृति एवं विचारों के व्याख्याता और प्रतिनिधि थे. इन "आधुनिकतावादी" घटनाओं में 1908 में अर्नोल्ड शोएनबर्ग के सेकण्ड स्ट्रिंग क्वार्टेट अतान का अंत, 1903 में वैसिली कैंडिंस्की अभिव्यंजनावादी चित्रकलाओं का आरम्भ एवं 1911 में म्यूनिख में ब्लू राइडर समूह की स्थापना और उनकी पहली अमूर्त चित्रकला के साथ समाप्ति, और 1900 एवं 1910 के बीच के वर्षों में हेनरी मैटिस, पाब्लो पिकासो, जॉर्ज्स ब्रेक़ एवं अन्य के स्टूडियो से फौविज़्म का उत्थान एवं घनवाद का अविष्कार शामिल है.
आधुनिक गतिविधि की इस लहर ने बीसवीं सदी के पहले दशक में अतीत से अपना सम्बन्ध तोड़ लिया और विभिन्न कलारूपों को एक क्रन्तिकारी तरीके से फिर से परिभाषित करने का प्रयास किया. इस आन्दोलन के साहित्यिक खंड (या, कुछ हद तक, इन आन्दोलनों) के भीतर अग्रणी प्रकाशों में शामिल हैं:
    राफेल अल्बर्टी
    गैब्रिएल डी'अनुंज़ियो
    गिलौम अपोलिनेयर
    लुई आरागॉन
    डीजुना बार्न्स
    बर्टोल्ट ब्रेक्ट
    बेसिल बंटिंग
    इवान कैंकर
    मारियो डे सा-कार्नीरो
    कॉन्स्टैन्टाइन पी. कैवेफी
    ब्लैस सेंड्रर्स
    जीन कोक्टो
    जोसेफ कॉनरैड
    टी. एस. ईलियट
    पॉल एलुअर्ड
    विलियम फौल्क्नेर
    ई. एम. फोर्स्टर
    एच. डी.
    अर्नेस्ट हेमिंग्वे
    ह्यूगो वॉन होफ्मंस्थल
    मैक्स जैकब
    जेम्स जॉयस
    फ्रैंज़ काफ्का
    डी. एच. लौरेंस
    वाइंडहम लुईस
    फेडेरिको गार्सिया लोर्का
    ह्यूग मैकडिअर्मिड
    मरियन मूर
    रॉबर्ट मुसिल
    अल्माडा नेग्रीरोस
    लुइगी पिरांडेलो
    एज़्रा पाउंड
    मार्सेल प्राउस्ट
    पियरे रेवर्डी
    रेनर मारिया रिल्क
    गेर्ट्रुड स्टीन
    वॉलेस स्टीवंस
    इटालो स्वेवो
    ट्रिस्टन त्ज़ारा
    गियूसेप उंगरेटी
    पॉल वैलेरी
    रॉबर्ट वॉल्सर
    विलियम कार्लोस विलियम्स
    वर्जीनिया वुल्फ
    विलियम बटलर येट्स
शोएनबर्ग, स्ट्राविंस्की, और जॉर्ज ऐंथील जैसे संगीतकार संगीत में आधुनिकतावाद का प्रतिनिधित्व करते हैं. गुस्टाव क्लिम्ट, हेनरी रूसो, वैसिली कैंडिंस्की, पाब्लो पिकासो, हेनरी मैटिस, जॉर्ज्स ब्रेक़, मार्सेल डुचैम्प, जियोर्जियो डी चिरिको, जुआन ग्रिस, पीट मोंड्रियन जैसे कलाकार और लेस फौवेस, घनवाद, डाडा एवं अतियथार्थवाद जैसी आन्दोलन दृश्य कला में आधुनिकतावाद की विभिन्न लय का प्रतिनिधित्व करती हैं, जबकि फ्रैंक लॉयड राइट, ले कोर्बिज़ियर, वॉल्टर ग्रोपियस, एवं मिएस वैन डेर रोहे जैसे वास्तुकारों और डिज़ाइनरों ने रोजमर्रा के शहरी जीवन में आधुनिकतावादी विचारों को सामने लाया. कलात्मक आधुनिकतावाद ने इस गतिविधि के बाहर की हस्तियों को प्रभावित किया; उदाहरण के लिए, जॉन मेनार्ड कीन्स, ब्लूम्सबरी समूह के वूल्फ और अन्य लेखकों के मित्र थे.
प्रथम विश्व युद्ध की पूर्व संध्या को, 1905 की रूसी क्रांति और "कट्टरपंथी" दलों के क्षोभ में दिखाई देने वाले, सामाजिक व्यवस्था के साथ एक बढ़ते तनाव और बेचैनी को हर माध्यम में कलात्मक कृत्यों में प्रकट हुआ जिसने मौलिक रूप से पिछली प्रथा को सरलीकृत या अस्वीकृत कर दिया. पाब्लो पिकासो और हेनरी मैटिस जैसे युवा चित्रकार चित्रकलाओं के निर्माण के साधन के रूप में परंपरागत दृष्टिकोणों को अस्वीकृत करके पिछली प्रथा पर आघात कर रहे थे—यह एक ऐसा कदम था जिसे किसी भी प्रभाववादी, यहां तक कि सिज़ेन ने भी, नहीं उठाया था. 1907 में, पिकासो अपने डेमोइसेलेस डी'एविगनन की चित्रकारी कर रहे थे, ओस्कर कोकोश्का अपने मोर्डर, होफनंग डेर फ्रौएन (मर्डरर, होप ऑफ़ वीमन अर्थात् हत्यारा, महिलाओं की उम्मीद) का लेखन कर रहे थे, जो पहला अभिव्यंजनावादी नाटक था (जिसे 1909 में घोटाले के साथ प्रस्तुत किया गया था), और अर्नोल्ड शोएनबर्ग अपने स्ट्रिंग क्वॉर्टेट #2 इन एफ-शार्प माइनर की संगीत रचना कर रहे थे, जो उनकी पहली "तानगत केंद्र रहित" संगीत रचना थी. 1911 में, कैंडिंस्की ने बिल्ड मिट क्रेईस (पिक्चर विथ ए सर्कल अर्थात् एक केंद्र युक्त तस्वीर) की चित्रकारी की जिसे उन्होंने बाद में प्रथम अमूर्त चित्रकला कहा. 1913 में—जो एडमंड हसर्ल के आइडियाज़ , नील्स बोहर की प्रमात्रित परमाणु, एज़्रा पाउंड द्वारा बिम्बवाद की स्थापना, न्यूयॉर्क में आर्मरी शो, और, सेंट पीटर्सबर्ग में, "प्रथम भविष्यवादी ओपेरा," एलेक्सी क्रुचेनीख, वेलिमिर ख्लेब्निकोव और कासिमिर मालेविच की विक्टरी ओवर द सन का वर्ष था—सर्गेई डायघिलेव और बैलेट्स रुसेस के लिए पेरिस में काम करने वाले एक अन्य रूसी संगीतकार आइगर स्ट्राविंस्की ने एक नृत्य-नाटक के लिए द राईट ऑफ़ स्प्रिंग की संगीत-रचना की जिसका नृत्य-निर्देशन वास्लव निजिंस्की ने किया था और जो मानव बलिदान को दर्शाता था.
इन गतिविधियों ने उसे एक नया अर्थ देना शुरू कर दिया जिसे 'आधुनिकतावाद' की संज्ञा दी गई: इसने जीव विज्ञान से लेकर काल्पनिक चरित्र के विकास और फिल्म निर्माण तक हर चीज़ में अनिरंतरता और अस्वीकार्य निर्विघ्न परिवर्तन को गले लगाया. इसने साहित्य एवं कला में सरल यथार्थवाद में विघ्न, अस्वीकृति या उससे बाहर गमन करने की और संगीत में रागिनी को अस्वीकृत करने या नाटकीय ढंग से इसमें फेरबदल करने की मंजूरी दी. इसने आधुनिकतावादियों को 19वीं सदी के कलाकारों से अलग कर दिया, जो केवल निर्विघ्न परिवर्तन ('क्रन्तिकारी' की अपेक्षा 'विकासात्मक') में ही नहीं, बल्कि ऐसे परिवर्तन की प्रगतिशीलता—'प्रगति'—में भी विश्वास करने की प्रवृत्ति रखते थे. डिकेंस और टॉल्स्टॉय जैसे लेखक, टर्नर जैसे चित्रकार, और ब्राहम्स जैसे संगीतकार 'कट्टरपंथी' या 'बोहेमियाई' नहीं थे, बल्कि समाज के मूल्यवान सदस्य थे जिन्होंने कला का निर्माण किया जिसे समाज में, यहां तक कि कभी-कभी इसके कम वांछनीय पहलुओं की प्रत्यालोचना करते समय भी, शामिल किया गया. आधुनिकतावाद, जबकि अभी भी "प्रगतिशील," ने उत्तरोत्तर परंपरागत रूपों और परंपरागत सामाजिक व्यवस्थाओं को निरोधक प्रगति के रूप में देखा, और इसलिए कलाकार को ज्ञानवर्धक के बजाय अपदस्थ, क्रन्तिकारी के रूप में फिर से ढाल दिया.
भविष्यवाद इस प्रवृत्ति की मिसाल देता है. 1909 में, पेरिस के अखबार ले फिगारो ने एफ. टी. मारिनेटी के प्रथम घोषणापत्र को प्रकाशित किया. इसके तुरंत बाद चित्रकारों (गियाकोमो बल्ला, अम्बर्टो बोक्सियोनी, कार्लो कार्रा, लुइगी रुसोलो, और गिनो सेवेरिनी) के एक समूह ने भविष्यवादी घोषणापत्र पर सह-हस्ताक्षर किया. पिछली सदी के प्रसिद्ध "साम्यवादी घोषणापत्र" के मॉडल पर तैयार किए गए ऐसे घोषणापत्रों ने उन विचारों को प्रस्तुत किया जिसका तात्पर्य अनुयायियों को उत्तेजित करना और उन्हें एकत्र करना था. बर्गसन एवं नीत्शे से काफी प्रभावित भविष्यवाद विघ्न की आधुनिकतावादी युक्तिकरण की सामान्य प्रवृत्ति का हिस्सा था.
आधुनिकतावादी दर्शन और कला को अभी भी बृहत्तर सामाजिक गतिविधि के केवल एक भाग के रूप में देखा जाता था. क्लिम्ट एवं सिज़ेन जैसे कलाकार, और माहलर एवं रिचर्ड स्ट्रॉस जैसे संगीतकार "भयानक रूप से आधुनिक" थे—कला-अग्रणियों से कोसों दूर रहने वाले लोग जिनके बारे में बहुत ज्यादा कहा-सुना जाता था. रैखिकीय या विशुद्ध अमूर्त चित्रकारी के पक्ष में विवादात्मक तथ्य ज्यादातर छोटे-छोटे परिसंचारानों वाली "छोटी-छोटी पत्रिकाओं" (ब्रिटेन की द न्यू एज की तरह) तक ही सीमित थे. आधुनिकतावादी आदिमवाद और निराशावाद विवादास्पद थे, लेकिन उन्हें एडवर्डियाई मुख्यधारा के प्रतिनिधि के रूप में नहीं देखा जाता था, जिनका रूझान बहुत हद तक प्रगति और उदार आशावाद में एक विक्टोरियन विश्वास की तरफ था.
इलस्ट्रेशन ऑफ़ स्पिरिट ऑफ़ सेंट लुइस
हालांकि, महान युद्ध और उसके बाद की दुर्घटनाएं प्रलयकारी उत्थान थीं जिसे लेकर 19वीं सदी के अंतिम दौर के ब्राहम्स जैसे कलाकार चिंतित थे, और जिसे कला-अग्रणीवादियों ने गले लगा लिया था. सबसे पहले, पिछली यथापूर्व स्थिति की विफलता एक पीढ़ी के लिए स्व-साक्ष्य प्रतीत हुआ जिसने लाखों लोगों को धरती के टुकड़ों के लिए लड़ते-मरते देखा था—युद्ध से पहले, तर्क दिया गया था कि कोई ऐसा युद्ध नहीं लड़ेगा, क्योंकि इसकी लागत बहुत ज्यादा थी. दूसरा, मशीन युग के आगमन ने जीवन की परिस्थितियों को बदल दिया—मशीन युद्ध अंतिम वास्तविकता का एक कसौटी बन गया. अंत में, अनुभव की बेहद दर्दनाक प्रकृति ने बुनियादी मान्यताओं को धराशायी कर दिया: यथार्थवाद दिवालिया प्रतीत हुआ जब इसका सामना खाई युद्ध की मौलिक अतिकाल्पनिक प्रकृति से हुआ, जिसका उदाहरण एरिच मारिया रेमार्क की ऑल क्वाईट ऑन द वेस्टर्न फ्रंट जैसी पुस्तकों द्वारा दिया गया था. इसके अलावा, मानव जाति धीमी और निरंतर नैतिक प्रगति कर रही थी, यह दृष्टिकोण अर्थहीन हत्या के सामने हास्यास्पद लगने लगा. प्रथम विश्व युद्ध ने प्रौद्योगिकी की कठोर यांत्रिक रैखिकीय समझदारी को मिथक की भयानक तर्कहीनता से भुला दिया.
इस प्रकार आधुनिकता, जो युद्ध से पहले एक अल्पसंख्यक रुचि थी, 1920 के दशक को परिभाषित करने लगा. यह यूरोप में डाडा जैसे माहत्वपूर्ण आन्दोलनों के रूप में और उसके बाद अतियथार्थवाद के रूप में रचनात्मक आन्दोलनों में, और साथ-ही-साथ ब्लूम्सबरी ग्रुप जैसे अपेक्षाकृत छोटी गतिविधियों में प्रकट हुआ. इनमें से प्रत्येक "आधुनिकतावाद," जैसा कि कुछ प्रेक्षकों ने उस समय इस पर जो लेबल लगाया था, ने नए परिणाम देने के लिए नए-नए तरीकों पर जोर दिया. फिर, प्रभाववाद एक अग्रदूत साबित हुआ जिसने राष्ट्रीय स्कूलों के विचार से सम्बन्ध तोड़ लिया जिसे कलाकारों और लेखकों ने अंतर्राष्ट्रीय आन्दोलनों के विचारों के रूप में अपनाया था. अतियथार्थवाद, घनवाद, बौहौस, और लेनिनवाद सभी उन आन्दोलनों के उदाहरण हैं जिसने बड़ी तेजी से इसे अपनाने वालों को उनकी भौगोलिक मूल से कोसों दूर उन्हें स्थापित करते हैं.
प्रदर्शनी, थिएटर, सिनेमा, पुस्तक और इमारत सभी ने इस धारण को देखने के लोगों के नजरिए को माबूत करने का काम किया कि ज़माना बदल रहा था. इन पर अक्सर प्रतिकूल प्रतिक्रियाएं होती रहीं, जैसे - चित्रकलाओं पर थूका गया, रचनाओं के उद्घाटन पर दंगे हुए, और राजनीतिक हस्तियों ने आधुनिकतावाद को अस्वास्थ्यकर और अनैतिक कहते हुए इसकी भर्त्सना की. उसी समय, 1920 के दशक को "जैज़ युग" के नाम से जाना जाता था, और जनता ने कार, हवाई यात्रा, टेलीफोन और अन्य प्रौद्योगिकीय उन्नति के प्रति काफी उत्साह दिखाया.
1930 तक, आधुनिकतावाद ने राजनीतिक और कलात्मक प्रतिष्ठानों सहित अन्य प्रतिष्ठानों में एक मुकाम हासिल कर लिया था, हालांकि इस समय तक आधुनिकतावाद खुद बदल गया था. 1918 के पहले के अहुनिक्तावाद के खिलाफ 1920 के दशक में एक सामान्य प्रतिक्रिया दिखाई पड़ी थी, जिसने इसके खिलाफ और उस अवधि के पहलुओं के खिलाफ विद्रोह करते समय अतीत के साथ इसकी निरंतरता पर जोर दिया जो बहुत ज्यादा सभी, तर्कहीन, और भावुकतावादी प्रतीत हुआ. विश्व युद्ध के बाद की अवधि ने शुरू में या तो व्यवस्थापन या शून्यवाद की तरफ रूख किया और से अपनी सबसे निदर्शनात्मक आन्दोलन, डाडा को प्राप्त किया था.
जबकि कुछ लेखकों ने नूतन आधुनिकतावाद के पागलपन पर प्रहार किया, अन्य लेखकों ने इसे निष्प्राण एवं यंत्रवत बताया. आधुनिकतावादियों के दरम्यान जनता के महत्व, दर्शकों के साथ कला के सम्बन्ध, और समाज में कला की भूमिका को लेकर काफी विवाद था. आधुनिकतावाद में इसके सार्वभौमिक सिद्धांतों से लड़ने के प्रयास और इसी तरह की समझी जाने वाली स्थिति की कभी-कभी विरोधाभासी प्रतिक्रियाओं की एक श्रृंखला शामिल थी. अंत में अक्सर 18वीं सदी के ज्ञानोदय के मॉडल को ग्रहण करके विज्ञान और वैज्ञानिक चेतना, तर्क और स्थिरता के स्रोत के रूप दिखाई देने लगे, जबकि नूतन मशीन युग की प्रतीयमानतः सहजज्ञान-विरोधी कृत्यों के साथ-साथ बुनियादी आदिम यौन एवं अचेत प्रेरणाओं को मूल भावनात्मक पदार्थ के रूप में ग्रहण किया गया. इन दो प्रतीयमान असंगत स्तंभों से आधुनिकतावादियों ने एक सम्पूर्ण जीवन दर्शन को रूप देने के काम में लग गए जिसमें जीवन के हर पहलू को अंतर्भुक्त करने की क्षमता थी.
1930 तक, आधुनिकतावाद ने लोकप्रिय संस्कृति में प्रवेश कर लिया था. आबादी के बढ़ते शहरीकरण के साथ, इसे तत्कालीन चुनौतियों से निपटने वाले स्रोत के रूप में देखा जाने लगा. जिस समय आधुनिकतावाद शैक्षिक समुदाय की तरफ आकर्षित हुआ, उस समय यह अपने स्वयं के महत्व के प्रति एक सजग सिद्धांत का विकास कर रहा था. लोकप्रिय संस्कृति, जो उच्च संस्कृति से नहीं बल्कि अपने स्वयं की वास्तविकताओं (विशेष रूप से विशाल उत्पादन) से व्युत्पन्न हुआ था, ने आधुनिकतावादी नवाचार को काफी प्रेरित किया. 1930 तक द न्यूयॉर्कर मैगज़ीन ने डोरोथी पार्कर, रॉबर्ट बेंचले, ई. बी. व्हाइट, एस. जे. पेरेलमैन, और जेम्स थर्बर जैसे युवा लेखकों और हास्यकारों के नए और आधुनिक विचारों को प्रकाशित करना शुरू कर दिया. कला में आधुनिक विचार विज्ञापनों और लोगो में दिखाई दिए, जिसमें से सबसे प्रसिद्ध लन्दन अंडरग्राउंड लोगो था जिसे एडवर्ड जॉन्स्टन ने 1919 में डिज़ाइन किया था जो स्पष्ट, आसानी से पहचानने योग्य और यादगार दृश्य प्रतीकों की जरूरत का एक आरंभिक उदाहरण है.
इस समय का एक और शक्तिशाली प्रभाव मार्क्सवाद था. आम तौर पर प्रथम विश्व युद्ध से पहले के आधुनिकतावाद के आदिमवादात्मक/ तर्क हीनवादी पहलू के बाद, जिसने कई आधुनिकतावादियों के लिए केवल राजनीतिक समाधानों के लिए किसी सम्बद्धता और 1920 के दशक के नवआभिजात्यवाद को प्रतिबंधित कर दिया, जिसे टी. एस. ईलियट और आइगर स्ट्राविंस्की ने काफी मशहूर तरीके से प्रदर्शित किया—जिसने आधुनिक समस्याओं के लिए लोकप्रिय समाधानों को अस्वीकृत कर दिया—फासीवाद का उदय, महामंदी, और युद्ध यात्रा ने एक पीढ़ी को कट्टरपंथी बनाने में सहायता की. रूसी क्रांति ने अधिक स्पष्ट रूप से राजनीतिक रूख के साथ राजनीतिक कट्टरपंथ और काल्पनिकता के समेकन को उत्प्रेरित किया. बर्टोल्ट ब्रेक्ट, डब्ल्यू. एच. ऑडेन, आन्ड्रे ब्रेटन, लुईस आरागॉन और दार्शनिक - एंटोनियो ग्राम्स्की और वॉल्टर बिन्यामीन शायद इस आधुनिकतावादी मार्क्सवाद के सबसे प्रसिद्ध मिसाल हैं. वाम कट्टरपंथी के लिए यह कदम, हालांकि, न तो सार्वभौमिक और न ही परिभाषात्मक था, और आधुनिकतावाद, मौलिक रूप से, 'वामपंथ' के साथ, सहयोग करने की कोई विशेष वजह नहीं थी. स्पष्टतया "दक्षिणपंथी" आधुनिकतावादियों में लुईस-फर्डिनांड सेलिन, साल्वाडोर डाली, वाइंडहम लुई, विलियम बटलर येट्स, टी. एस. ईलियट, एज़्रा पाउंड, डच लेखक मेन्नो टेर ब्राक और कई अन्य शामिल हैं.
इस अवधि के सर्वाधिक प्रत्यक्ष परिवर्तनों में से एक परिवर्तन - दैनिक जीवन में आधुनिक उत्पादन की वस्तुओं का ग्रहण था. बिजली, टेलीफोन, ऑटोमोबाइल—और इन सबके साथ काम करने, इनकी मरम्मत करने और इनके साथ जीने की जरूरत—ने शिष्टाचार और सामाजिक जीवन के नए तौर-तरीकों का निर्माण किया. 1880 के दशक में विघ्नकारी घटनाओं का होना बहुत आम बात हो गया था जिसके बारे में बस कुछ ही लोग जानते थे. उदाहरण के लिए, 1890 के शेयर दलालों के लिए आरक्षित संचार की गति पारिवारिक जीवन का हिस्सा बन गई.
सामाजिक संगठन की तरफ ले जाने वाला आधुनिकतावाद यौन और संयुक्त परिवार के बजाय पृथक परिवार के बुनियादी सम्बन्ध की जांच-पड़ताल की जरूरतों को पैदा करता था. बचकानी कामुकता और बच्चों के पालन-पोषण की फ्रायडियाई तनाव ने और उग्र रूप धारण कर लिया क्योंकि लोगों के पास बहुत कम बच्चे थे और इसलिए प्रत्येक बच्चे के साथ उनका अधिक विशिष्ट सम्बन्ध था: सैद्धांतिक, फिर से, व्यावहारिक और यहां तक कि लोकप्रिय भी बन गए.
ब्रिटेन और अमेरिका में, एक साहित्यिक आन्दोलन के रूप में आधुनिकतावाद को आम तौर पर 1930 के दशक के आरम्भ तक प्रासंगिक माना जाता है, और खास तौर पर 1945 के बाद के लेखकों के लिए शायद ही "आधुनिकतावादी" शब्द का इस्तेमाल किया जाता है. यह कुछ हद तक दृश्य एवं प्रदर्शन कला को छोड़कर संस्कृति के सभी क्षेत्रों के लिए सच है.
युद्ध के बाद की अवधि ने आर्थिक और भौतिक दृष्टि से पुनर्निर्माण और राजनीतिक दृष्टि से पुनर्समूहीकरण की आवश्यकता के साथ यूरोप की राजधानियों को उथल-पुथल की हालत में छोड़ दिया. पेरिस में (यूरोपीय संस्कृति का पूर्व केंद्र और कला की दुनिया की पूर्व राजधानी) कला का माहौल एक मुसीबत थी. महत्वपूर्ण संग्रहकर्ता, डीलर, और आधुनिकतावादी कलाकार, लेखक, और कवि भागकर यूरोप के न्यूयॉर्क और अमेरिका चले गए थे. यूरोप के प्रत्येक सांस्कृतिक केंद्र के अतियथार्थवादी और आधुनिक कलाकार नाज़ियों के आक्रमण से बचने के लिए एक सुरक्षित आश्रय की तलाश में भागकर संयुक्त राज्य अमेरिका चले गए. जो लोग भाग नहीं पाए, उनमें से कईयों को ख़त्म कर दिया गया. कुछ कलाकार, खासकर पाब्लो पिकासो, हेनरी मैटिस, और पियारे बोनार्ड, फ़्रांस में जीवित बचे रहे.
1940 के दशक में न्यूयॉर्क शहर में अमेरिकी अमूर्त अभिव्यंजनावाद की जीत का उद्घोष हुआ, यह एक ऐसा आधुनिकतावादी आन्दोलन था जिसमें हेनरी मैटिस, पाब्लो पिकासो, अतियथार्थवाद, जोआन मिरो, घनवाद, फौविज़्म, और हंस होफ्मन एवं जॉन डी. ग्राहम जैसे अमेरिकी महान शिक्षकों के जरिए आरंभिक आधुनिकतावाद से सीखे गए सबक शामिल थे. अमेरिकी कलाकारों ने पीट मोंड्रियन, फर्नांड लेगर, मैक्स अर्न्स्ट और आंड्रे ब्रेटन समूह, पियारे मैटिस की गैलरी, और पेगी गुगेंहीम की गैलरी द आर्ट ऑफ़ दिस सेंचुरी , के साथ-साथ अन्य कारकों की उपस्थिति का लाभ उठाया.
पोलक और अमूर्त प्रभाव
1940 के दशक के अंतिम दौर में चित्रकला के प्रति जैक्सन पोलक के कट्टरपंथी दृष्टिकोण ने उनका अनुसरण करने वाले सभी समकालीन कला की क्षमता में क्रन्तिकारी परिवर्तन ला दिया. कुछ हद तक पोलक को एहसास हुआ कि एक कलाकृति के निर्माण की यात्रा उतना ही महत्वपूर्ण था जितना कि खुद वह कलाकृति थी. घनवाद और निर्मित मूर्तिकला के जरिए सदी के मोड़ के पास चित्रकला और मूर्तिकला के प्रति पाब्लो पिकासो के अभिनव पुनर्खोज की तरह पोलक ने कला के निर्माण के तरीके को पुनर्परिभाषित किया. चित्रफलक चित्रकला और अभिसमय से दूर उनका स्थानांतरण उनके युग के कलाकारों और उनके बाद आने वाले सभी कलाकारों के लिए एक मुक्ति संकेत था. कलाकारों को एहसास हुआ कि जैक्सन पोलक की प्रक्रिया—फर्श पर संकुचित अपरिष्कृत कैनवास को रखकर जहां कलात्मक और औद्योगिक सामग्रियों का इस्तेमाल करके इस पर चारों तरफ से आक्रमण किया जा सकता था; रैखिक रंग समूह को टपकाकर और फेंककर; चित्रकारी, रंगकारी, और ब्रशिंग करके; कल्पना और गैर-कल्पना का इस्तेमाल करके—ने अनिवार्य रूप से किसी भी पूर्व सीमा से परे कलाकारी में धमाकेदार वृद्धि की. अमूर्त अभिव्यंजनावाद ने आमतौर पर नई कलाकृतियों के निर्माण के लिए कलाकारों के लिए उपलब्ध परिभाषाओं और संभावनाओं को विस्तृत और विकसित किया.
अन्य अमूर्त अभिव्यंजनावादियों ने अपने खुद की नवीन सफलताओं के साथ पोलक की सफलता का अनुसरण किया. एक तरह से जैक्सन पोलक, विलेम डी कूनिंग, फ्रैंज़ क्लाइन, मार्क रोथ्को, फिलिप गुस्टन, हंस होफ्मन, क्लाइफ़ोर्ड स्टिल, बार्नेट न्यूमैन, ऐड रीन्हार्ड, रॉबर्ट मदरवेल, पीटर वौल्कस और अन्य हस्तियों के नवाचारों ने उनका अनुसरण करने वाली सभी कला की विविधता और क्षेत्र के पूर-द्वार खोल दिए. हालांकि लिंडा नोच्लिन, ग्रिसेल्डा पोलक, और कैथरीन डे ज़ेघर जैसे कला इतिहासकारों द्वारा अमूर्त कला के पुनर्पठन से आलोचनात्मक ढंग से पता चलता है कि आधुनिक कला में प्रमुख नवाचारों की शुरुआत करने वाली अग्रणी महिला कलाकारों को इसके इतिहास के आधिकारिक विवरणों द्वारा नज़रंदाज़ कर दिया गया था.
1950 और 1960 के दशकों के दौरान अमूर्त अभिव्यंजनावाद के आत्मनिष्ठावाद के विरूद्ध एक प्रतिक्रिया के रूप में कट्टरपंथी कला-अग्रणी क्षेत्रों में और कलाकारों के स्टूडियो में अमूर्त चित्रकला में हार्ड-एज पेंटिंग और अन्य प्रकार के रैखिकीय सारग्रहण जैसी कई दिशाएं दिखाई देने लगी. क्लेमेंट ग्रीनबर्ग उत्तरचित्रकाररुपी सारग्रहण के आवाज़ बने जब उन्होंने 1964 में पूरे संयुक्त राज्य अमेरिका में महत्वपूर्ण कला संग्रहालयों के दौरे वाले नूतन चित्रकला के एक प्रेरणात्मक प्रदर्शनी में सहयोग दिया. कलर फील्ड पेंटिंग, हार्ड-एज पेंटिंग और गीतात्मक सारग्रहण[16] कट्टरपंथी नई दिशाओं के रूप में प्रकट हुए.
हालांकि 1960 के दशक के अंत तक, उत्तरअतिसूक्ष्मवाद, प्रक्रिया कला और आर्टे पोवेरा भी गीतात्मक सारग्रहण एवं उत्तरअतिसूक्ष्मवादी आन्दोलन के जरिए, और आरंभिक वैचारिक कला में, क्रन्तिकारी अवधारणाओं और आन्दोलनों के रूप में प्रकट हुए जिसमें आरंभिक चित्रकला और मूर्तिकला दोनों समाविष्ट थे. पोलक द्वारा प्रेरित प्रक्रिया कला ने कलाकारों को शैली, सामग्री, पदार्थ, स्थान, समयानुभव, और प्लास्टिक एवं वास्तविक स्थान के एक विविध विश्वकोश पर प्रयोग करने और उसका इस्तेमाल करने में सक्षम बनाया. नैन्सी ग्रेव्स, रोनाल्ड डेविस, हावर्ड होड्गकिन, लैरी पून्स, जेनिस कौनेलिस, ब्राइस मार्डेन, ब्रूस नौमैन, रिचर्ड टटल, एलन सारेट, वॉल्टर डार्बी बनार्ड, लिंडा बेंगलिस, डैन क्रिस्टेंसन, लैरी ज़ोक्स, रॉनी लैंडफील्ड, ईवा हेस, कीथ सोनियर, रिचर्ड सेर्रा, सैम गिलियम, मारियो मर्ज़ और पीटर रेगिनाटो कुछ ऐसे युवा कलाकार थे जिनका उद्भव आधुनिकतावाद के अंतिम दौर के युग के दौरान हुआ था जिन्होंने 1960 के दशक के अंतिम दौर की कला के उमंग को जन्म दिया.
1962 में सिडनी जेनिस गैलरी ने न्यूयार्क शहर में एक अपटाउन आर्ट गैलरी में द न्यू रियलिस्ट्स नामक प्रथम प्रमुख पॉप कला समूह प्रदर्शनी का आयोजन किया. जेनिस ने 15 ई. 57वें स्ट्रीट पर स्थित अपनी गैलरी के पास 57वें स्ट्रीट पर एक स्टोर के सामने वाले हिस्से में इस प्रदर्शनी का आयोजन किया. इस कार्यक्रम ने न्यूयॉर्क स्कूल को हैरत में डाल दिया और सारी दुनिया पर छा गया. इंग्लैण्ड में बहुत पहले 1958 में "पॉप कला" शब्द का इस्तेमाल लौरेंस एलोवे ने उन चित्रकलाओं का वर्णन करने के लिए किया था जिसने उत्तर द्वितीय विश्व युद्ध युग के उपभोक्तावाद का जश्न मनाया था. इस आन्दोलन ने अमूर्त अभिव्यंजनावाद और विपुल उत्पादन युग के सामग्री उपभोक्ता संस्कृति, विज्ञापन, और प्रतिमा विज्ञान का प्रदर्शन और अक्सर इनका अनुष्ठान करने वाले कला के पक्ष में व्याख्यात्मक और मनोवैज्ञानिक अंतरंग पर इसके ध्यान को अस्वीकार कर दिया. डेविड हॉक्नी के आरंभिक कृत्यों और रिचर्ड हैमिल्टन एवं एडुआर्डो पाओलोज़ी के कृत्यों को इस आन्दोलन के मौलिक उदाहरण माने जाते थे. इस बीच न्यूयॉर्क के ईस्ट विलेज के 10वें स्ट्रीट की गैलरियों के डाउनटाउन दृश्य में कलाकार पॉप कला के एक अमेरिकी संस्करण को सूत्रबद्ध कर रहे थे. क्लेस ओल्डेनबर्ग ने अपने स्टोर के सामने वाले हिस्से में, और 57वें स्ट्रीट पर स्थित ग्रीन गैलरी में टॉम वेसेलमन और जेम्स रोसेनक्विस्ट की रचनाओं को दिखाना शुरू किया. बाद में लियो कास्टेली ने अन्य अमेरिकी कलाकारों की रचनाओं का प्रदर्शन किया जिसमें एंडी वारहोल और रॉय लिचेंस्टीन द्वारा उनके करियर में निर्मित रचनाओं में से अधिकांश रचनाएं शामिल थीं. हास्य भावना के मालिक मार्सेल डुचैम्प एवं मैन रे नामक विद्रोही डाडावादियों और क्लेस ओल्डेनबर्ग, एंडी वारहोल, एवं रॉय लिचेंस्टीन जैसे पॉप कलाकारों के कट्टरपंथी कृत्यों के दरम्यान एक सम्बन्ध है, जिनकी चित्रकलाओं ने वाणिज्यिक पुनरुत्पादन में इस्तेमाल किए जाने वाले बेंडे डॉट्स नामक एक तकनीक के नजरिए का पुनरुत्पादन किया.
1960 के दशक के आरम्भ तक कला में एक अमूर्त आन्दोलन के रूप में अतिसूक्ष्मवाद का उद्भव हुआ (जिसकी जड़ काज़िमिर मालेविच, बौहौस और पीट मोंड्रियन के रैखिकीय सारग्रहण में थी) जिसने संबंधपरक और व्यक्तिपरक चित्रकला, अमूर्त अभिव्यंजनावादी सतहों की जटिलता, और एक्शन पेंटिंग के क्षेत्र में मौजूद विवादात्मक कुशलता एवं भावनात्मक युगचेतना के विचार को त्याग दिया. अतिसूक्ष्मवाद ने तर्क दिया कि अत्यधिक सादगी कला में आवश्यक सभी विशिष्ट प्रदर्शन पर कब्ज़ा कर सकती थी. फ्रैंक स्टेला जैसे चित्रकारों का सहयोग प्राप्त करने वाला, अन्य क्षेत्रों के विपरीत, चित्रकला के क्षेत्र में अतिसूक्ष्मवाद एक आधुनिकतावादी आन्दोलन है. अतिसूक्ष्मवाद को नाना प्रकार से या तो उत्तरआधुनिकतावाद का एक अग्रदूत, या खुद एक उत्तरआधुनिक आन्दोलन समझा जाता है. बाद वाले दृष्टिकोण में, आरंभिक अतिसूक्ष्मवाद ने उन्नत आधुनिकतावादी कृत्यों को जन्म दिया, लेकिन इस आन्दोलन ने आंशिक रूप से इस दिशा का त्याग कर दिया जब रॉबर्ट मॉरिस जैसे कुछ कलाकारों ने निर्माण-विरोधी आन्दोलन के पक्ष में दिशा परिवर्तन किया.
हिल फ़ॉस्टर अपने द क्रुक्स ऑफ़ मिनिमलिज़्म नामक निबंध में उस हद तक जांच करते हैं जिस हद तक डोनाल्ड जुड और रॉबर्ट मॉरिस दोनों अतिसूक्ष्मवाद के अपने प्रकाशित परिभाषाओं में ग्रीनबर्गवादी आधुनिकतावाद को स्वीकार और उसका विस्तार करते हैं.[19] वह तर्क देते हैं कि अतिसूक्ष्मवाद आधुनिकतावाद का एक "मृत अंत" नहीं, बल्कि "आज भी विस्तार किए जाने वाले उत्तरआधुनिक प्रथाओं का एक निदर्शनात्मक बदलाव" है.
मध्य-अप्रैल 2005 में, शीर्ष रोजेल पॉइंट से स्मिथसन का "स्पिरल जेटी".इसका निर्माण 1970 में किया गया था और यह आज भी मौजूद है, हालांकि यह झील के अस्थिर जल स्तर से अक्सर जलमग्न हो जाता है.इसमें लगभग 6500 टन बेसाल्ट, मिट्टी एवं नमक है.
1960 के दशक के अंतिम दौर में रॉबर्ट पिंकस-विटेन ने अतिसूक्ष्मवादी-व्युत्पन्न कला का वर्णन करने के लिए उत्तरअतिसूक्ष्मवाद शब्द की रचना की जिसमें वे सामग्री और प्रासंगिक मकसदों निहित थे जिन्हें अतिसूक्ष्मवाद ने त्याग दिया था. पिंकस-व्हिटेन ने ईवा हेस, कीथ सोनियर, रिचर्ड सेर्रा की रचनाओं और रॉबर्ट स्मिथसन, रॉबर्ट मॉरिस, एवं सोल लेविट जैसे पूर्व अतिसूक्ष्मवादियों और बैरी ले वा, एवं अन्य हस्तियों की नई रचनाओं के लिए इस शब्द का इस्तेमाल किया. डोनाल्ड जुड, डैन फ्लेविन, कार्ल आंड्रे, एग्नेस मार्टिन, जॉन मैकक्रैकेन और अन्य सहित अन्य अतिसूक्ष्मवादी अपने करियर की शेष अवधि तक अंतिम दौर की आधुनिकतावादी चित्रकला और मूर्तिकला का निर्माण करते रहे.
1960 के दशक में ला मोंटे यंग, फिलिप ग्लास, स्टीव रेच, और टेरी रिले जैसे कला-अग्रणी अतिसूक्ष्मवादी संगीतकारों की रचनाओं ने भी न्यूयॉर्क के कला की दुनिया में प्रसिद्धि हासिल की. उसके बाद से, कई कलाकारों ने अतिसूक्ष्मवादी और उत्तरअतिसूक्ष्मवादी शैलियों को अपनाया है और उन पर "उत्तरआधुनिक" होने का लेबल लग गया है.
चित्रकला एवं मूर्तिकला की पिछली परंपरा से दूर जाने वाले कलाकार सामग्रियों के साथ निर्मित वस्तुओं के संयोजन का उद्भव अमूर्त अभिव्यंजनावाद से संबंधित था. रॉबर्ट रॉशनबर्ग की कृति इस प्रवृत्ति की एक मिसाल है. 1950 के दशक के उनके "जत्थे" पॉप कला और अधिष्ठापन कला के अग्रणी थे, और भरे हुए जानवर, पक्षी और वाणिज्यिक तस्वीरों समेत बड़े-बड़े भौतिक वस्तुओं के संग्रह का इस्तेमाल करते थे. रॉशनबर्ग, जैस्पर जॉन्स, लैरी रिवर्स, जॉन चेम्बरलेन, क्लेस ओल्डेनबर्ग, जॉर्ज सेगल, जिम डाइन, और एडवर्ड कीन्होल्ज़ की गिनती अमूर्त और पॉप दोनों तरह की कलाओं के प्रमुख अग्रदूतों में की जाती थी. कला-निर्माण की नई परंपरा का निर्माण करके उन्होंने असम्भाव्य सामग्रियों की अपनी कृत्यों में कट्टरपंथी अंतर्वेशन के गंभीर समकालीन कला चक्रों को स्वीकार्य बना दिया. समुच्चित चित्रकला के एक और अग्रदूत जोसेफ कॉर्नेल थे, जिनके अतिपरिचित प्रवर्धित कृत्यों को उनके प्राप्त वस्तुओं के उपयोग और निजी प्रतिमा विज्ञान दोनों वजह से कट्टरपंथी रूप में देखा जाता था.
20वीं सदी के आरम्भ में मार्सेल डुचैम्प ने एक मूत्रालय को एक मूर्तिकला के रूप में प्रदर्शित किया. उन्होंने अपनी मंशा जाहिर करते हुए कहा कि लोग मूत्रालय को इस तरह से देखते हैं मानों यह एक कलाकृति हो क्योंकि उन्होंने कहा कि यह एक कलाकृति थी. वह अपने कृत्य को "रेडीमेड्स" कृत्य के रूप में संदर्भित करते थे. फाउन्टेन एक मूत्रालय था जिस पर छद्म नाम आर. मट का हस्ताक्षर था, जिसकी प्रदर्शनी ने 1917 में कला की दुनिया को हैरानी में डाल दिया. इसे और डुचैम्प के अन्य कृत्यों पर आम तौर पर डाडा का लेबल लगा हुआ है. डुचैम्प को वैचारिक कला के एक अग्रदूत के रूप में देखा जा सकता है, अन्य प्रसिद्ध उदाहरणों में जॉन केज का 4'33" और रॉशनबर्ग का इरेज़्ड डे कूनिंग का प्रमुख स्थान है, 4'33" चार मिनट तैंतीस सेकण्ड की चुप्पी है. कई विचारिक कृत्य स्थिति को ग्रहण करते हैं कि कला एक वस्तु को देखने वाले के नज़रिए या कला के रूप में काम करने का परिणाम है, न कि खुद उस कृत्य की आतंरिक गुणवत्ता का. इस तरह, चूंकि फाउन्टेन का प्रदर्शन किया गया, यह एक मूर्तिकला थी.
मार्सेल डुचैम्प ने प्रसिद्धिपूर्वक शतरंज के पक्ष में "कला" का परित्याग कर दिया. कला-अग्रणी संगीतकार डेविड ट्यूडर ने रीयूनियन (1968) नामक एक लेख की रचना की जिसे उन्होंने लोवेल क्रॉस के साथ मिलकर लिखा था, जो एक ऐसे शतरंज के खेल को दर्शाता है जिसमें प्रत्येक चाल एक प्रकाशवान प्रभाव या प्रक्षेपण को शुरू करता है. डुचैम्प और केज ने कृत्य के प्रीमियर पर इस खेल को खेला.
स्टीवन बेस्ट और डगलस केल्नर रॉशनबर्ग एवं जैस्पर जॉन्स की पहचान आधुनिकतावाद एवं उत्तरआधुनिकतावाद के दरम्यान, मार्सेल डुचैम्प द्वारा प्रेरित, संक्रमणकालीन चरण के हिस्से के रूप में करते हैं. दोनों ने उच्च आधुनिकतावाद के सारग्रहण एवं चित्रकार के भाव को कायम रखते समय अपनी रचनाओं में साधारण वस्तुओं की छवियों को या खुद वस्तुओं का इस्तेमाल किया.
नव-डाडा से जुड़े कला में एक और प्रवृत्ति एक साथ असंख्य विभिन्न माध्यम का इस्तेमाल है. अंतर्माध्यम (इंटरमीडिया), इस शब्द का अविष्कार डिक हिगिंस ने किया था जिसका तात्पर्य फ्लक्सस, मूर्त कविता, प्राप्त वस्तुओं, प्रदर्शन कला, और कंप्यूटर कला की पंक्तियों के साथ नए कलारूपों को संप्रेषित करना है. हिगिंस समथिंग एल्स प्रेस के प्रकाशक, एक मूर्त कवि, कलाकार एलिसन नोल्स के पति और मार्सेल डुचैम्प के एक प्रशंसक थे.
1950 के दशक के अंतिम दौर में और 1960 के दशक के दौरान काफी रुचि लेने वाले कलाकारों ने समकालीन कला की सीमाओं को बढ़ाना शुरू कर दिया. फ़्रांस में यवेस क्लेन, और न्यूयॉर्क शहर में कैरोली श्नीमन, यायोई कुसामा, चारलोट मूरमैन और योको ओनो प्रदर्शन-आधारित कलाकृतियों के अग्रदूत थे. जुलियन बेक एवं जुडिथ मलिना के साथ द लिविंग थिएटर जैसे समूहों ने मूर्तिकारों और चित्रकारों के साथ मिलकर वातावरण तैयार करने में सहयोग किया और मौलिक रूप से खास तौर पर अपनी रचना पैराडाइज़ नाउ में दर्शक और प्रदर्शक के बीच के सम्बन्ध को बदल दिया. न्यूयॉर्क के जुडसन मेमोरियल चर्च में स्थित जुडसन डांस थिएटर और जुडसन डांसर, विशेष रूप से यवोन रेनर, ट्रिशा ब्राउन, एलेन समर्स, सैली ग्रोस, सिमोन फोर्टी, डेबोरा हे, लुसिंडा चाइल्ड्स, स्टीव पैक्सटन और अन्य ने रॉबर्ट मॉरिस, रॉबर्ट व्हिटमैन, जॉन केज, रॉबर्ट रॉशनबर्ग जैसे कलाकारों और बिली क्लुवर जैसे इंजीनियरों के साथ मिलकर काम किया. पार्क प्लेस गैलरी स्टीव रेच, फिलिप ग्लास जैसे इलेक्ट्रॉनिक संगीतकारों और जोआन जोनास सहित अन्य उल्लेखनीय प्रदर्शन कलाकारों के संगीत प्रदर्शन का एक केंद्र था. इन प्रदर्शनों का इरादा एक ऐसे नए कला रूप की रचनाओं का प्रदर्शन करना था जिसमें मूर्तिकला, नृत्य, और संगीत या ध्वनि का समावेश हो जिसमें अक्सर दर्शकों की भागीदारी रहती थी. उन्हें अतिसूक्ष्म्वाद की न्यूनीकृत दर्शनों और अमूर्त अभिव्यंजनावाद के सहज आशुराचना एवं व्यंजकता द्वारा अभिलक्ष्यित किया जाता था.
इसी अवधि के दौरान विभिन्न कला-अग्रणी कलाकारों ने तमाशों का निर्माण किया. तमाशे विभिन्न निर्दिष्ट स्थानों में कलाकारों और उनके मित्रों और रिश्तेदारों की रहस्यमयी एवं अक्सर सहज एवं अलिखित सम्मलेन होते थे, जिसमें अक्सर असंगति, भौतिकता, वेशभूषा, सहज नग्नता, और विभिन्न यादृच्छिक या प्रतीतात्मक असम्बद्ध कृत्य अंतर्भुक्त होते थे. इन तमाशों के उल्लेखनीय रचनाकारों में एलन कैप्रो, क्लेस ओल्डेनबर्ग, जिम डाइन, रेड ग्रूम्स, और रॉबर्ट व्हिटमैन शामिल थे.
एलन कैप्रो की प्रदर्शन कला ने कला और जीवन को एकीकृत करने का प्रयास किया. तमाशों के माध्यम से जीवन, कला, और दर्शक के बीच का अलगाव धुंधला हो जाता है. ये तमाशे कलाकार को शरीर की गति, रिकॉर्ड की गई ध्वनि, लिखित एवं कथित पाठ्य, और यहां तक कि गंध के साथ भी प्रयोग करने की अनुमति प्रदान करते हैं. एलन कैप्रो के सबसे आरंभिक तमाशों में से एक "हैपनिंग्स इन द न्यूयॉर्क सीन" था जिसकी रचना 1961 में की गई थी जिस समय इस कलारूप का विकास हो रहा था.
1958 में कैप्रो ने "द लीगेसी ऑफ़ जैक्सन पोलक" नामक निबंध प्रकाशित किया. इसमें वह "रंग, कुर्सी, भोजन, बिजली और नियन रौशनी, धूम्रपान, जल, पुराने मोज़े, कुत्ता, फिल्म जैसे रोजमर्रा की सामग्रियों से निर्मित एक "मूर्त कला" की मांग करते हैं. इस विशेष पाठ में, वह यह कहते हुए पहली बार "तमाशा" शब्द का इस्तेमाल करते हैं कि शिल्प कौशल एवं स्थायित्व को भूल जाना चाहिए और कला में नश्वर सामग्रियों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए.
उत्तरआधुनिक शब्द से जुडी कला की एक और प्रवृत्ति एकसाथ असंख्य मीडिया का उपयोग है. अंतर्माध्यम (इंटरमीडिया), इस शब्द का अविष्कार डिक हिगिंस ने किया था जिसका तात्पर्य फ्लक्सस, मूर्त कविता, प्राप्त वस्तुओं, प्रदर्शन कला, और कंप्यूटर कला की पंक्तियों के साथ नए कलारूपों को संप्रेषित करना है. हिगिंस समथिंग एल्स प्रेस के प्रकाशक, एक मूर्त कवि, कलाकार एलिसन नोल्स के पति और मार्सेल डुचैम्प के एक प्रशंसक थे. इहाब हसन उत्तरआधुनिक कला की विशेषताओं की अपनी सूची में "इंटरमीडिया, रूपों का संलयन, अधिकारों का भ्रम" शामिल करते हैं. "मल्टी-मीडिया कला" के सबसे आम तरीकों में से एक वीडियो-टेप और सीआरटी (CRT) मॉनिटरों का उपयोग है, जिसे वीडियो कला की संज्ञा दी गई है. हालांकि कई कलाओं को एक कला में संयोजित करने का सिद्धांत काफी पुराना है, और समय-समय पर इसे पुनर्जीवित किया जाता रहा है, उत्तरआधुनिक अभिव्यक्ति अक्सर प्रदर्शन कला के साथ जुड़ी हुई है, जहां नाटकीय उपपाठ को हटा दिया जाता है, और जो कुछ बचता है वह कलाकार के संदिग्ध विशिष्ट वक्तव्य या उनके कार्यों का वैचारिक वक्तव्य होता है.
फ्लक्सस का नामकरण और निर्बाध रूप से इसका आयोजन लिथुआनिया में जन्मे जॉर्ज मैसिउनस (1931-1978) नामक एक अमेरिकी कलाकार ने 1962 में किया. न्यूयॉर्क शहर के न्यू स्कूल फॉर सोशल रिसर्च में जॉन केज के 1957 से 1959 के प्रायोगिक संरचना की कक्षाओं से फ्लक्सस के नामोनिशान मिलने शुरू हुए हैं. उनके छात्रों में से कई कलाकार थे जो अन्य मीडिया में काम करते थे जिन्हें संगीत की थोड़ी बहुत जानकारी या बिल्कुल जानकारी नहीं थी. केज के छात्रों में फ्लक्सस की स्थापना करने वाले सदस्य जैक्सन मैक लो, अल हैनसेन, जॉर्ज ब्रेक्ट और डिक हिगिंस शामिल थे.
फ्लक्सस ने खुद-से-करने के सौन्दर्य सिद्धांत को प्रोत्साहित किया एवं जटिलता पर सादगी को महत्व दिया. इससे पहले डाडा की तरह, फ्लक्सस में एक शक्तिशाली वाणिज्यीकरण-विरोधी धारा और एक कला-विरोधी संवेदनशीलता शामिल थी जो एक कलाकार-केन्द्रित रचनात्मक प्रथा के पक्ष में पारंपरिक बाज़ार-चालित कला विश्व की उपेक्षा करता था. फ्लक्सस कलाकार उपलब्ध सामग्रियों के साथ काम करने को प्राथमिकता देते थे, और अपनी खुद की रचना का निर्माण करते थे या अपने सहयोगियों के साथ निर्माण प्रक्रिया में सहयोग करते थे.
एंड्रियाज़ हुसेन उत्तरआधुनिकतावाद के लिए फ्लक्सस का दावा "या तो उत्तरआधुनिकतावाद के मास्टर-कोड या अंततः अप्रदर्शनीय कला आन्दोलन - मानो यह उत्तरआधुनिकतावाद की उत्तम शैली हो" के रूप में करने के प्रयासों की आलोचना करते हैं.[26] इसके बजाय वह फ्लक्सस को कला-अग्रणी परंपरा के भीतर एक प्रमुख नव-डाडावादी घटना के रूप में देखते हैं. यह कलात्मक रणनीतियों के विकास में एक प्रमुख उन्नति को प्रदर्शित करता था, हालांकि यह "1950 के दशक की प्रशासित संस्कृति" के खिलाफ एक विद्रोह की अभिव्यक्ति करता था, "जिसमें एक उदारवादी, अनुकूल आधुनिकतावाद ने शीत युद्ध के सैद्धांतिक आधार के रूप में काम किया."
कई विषयों के कलाकार 21वीं सदी में आधुनिकतावादी शैलियों में काम कर रहे हैं. अमूर्त अभिव्यंजनावाद, रंग क्षेत्र चित्रकला, गीतात्मक सारग्रहण, रैखिकीय सारग्रहण, अतिसूक्ष्मवाद, अमूर्त भ्रमवाद, प्रक्रिया कला, पॉप कला, उत्तरअतिसूक्ष्मवाद, और 20वीं सदी के अंतिम दौर के चित्रकला एवं मूर्तिकला के अन्य आधुनिकतावादी आन्दोलनों की निरंतरता 21वीं सदी के पहले दशक में कायम है[28] और उन माध्यमों में कट्टरपंथी नई दिशाओं को स्थापित करती है.
21वीं सदी के मोड़ पर, सर एंथनी कारो, लुसियन फ्रायड, साई त्वोम्ब्ली, रॉबर्ट रॉशनबर्ग, जैस्पर जॉन्स, एग्नेस मार्टिन, अल हेल्ड, एल्सवर्थ केली, हेलेन फ्रैंकनथेलर, फ्रैंक स्टेला, केनेथ नोलैंड, जुल्स ओलित्सकी, क्लेस ओल्डेनबर्ग, जिम डाइन, जेम्स रोज़ेन्किस्ट, एलेक्स कैट्ज़, फिलिप पर्लस्टीन जैसे सुप्रतिष्ठित कलाकारों और ब्राइस मार्डेन, चक क्लोज़, सैम गिलियम, आइज़क विट्किन, शॉन स्कली, जोसेफ नेच्वाटल, एलिज़ाबेथ मुरे, लैरी पूंस, रिचर्ड सेर्रा, वॉल्टर डार्बी बनार्ड, लैरी ज़ोक्स, रॉनी लैंडफील्ड, रोनाल्ड डेविस, डैन क्रिस्टेंसन, जोएल शैपिरो, टॉम ऑटरनेस, जोआन स्नाइडर, रॉस ब्लेक्नर, आर्ची रैंड, सुज़ैन क्राइल जैसे युवा कलाकारों ने महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली चित्रकलाओं और मूर्तियों का निर्माण करना जारी रखा.
हालांकि, 1980 के दशक के आरम्भ तक कला एवं वास्तुकला में उत्तरआधुनिक आन्दोलन ने विभिन्न वैचारिक एवं इंटरमीडिया स्वरूपों के माध्यम से अपनी स्थिति को मजबूत करना शुरू कर दिया. संगीत और साहित्य में उत्तरआधुनिकतावाद ने इससे भी पहले, कुछ लोगों के अनुसार 1950 के दशक तक, अपनी पकड़ मजबूत करना शुरू कर दिया था. जबकि उत्तरआधुनिकतावाद आधुनिकतावाद के अंत के बाद से लागू होता है, कई सिद्धांतवादियों और विद्वानों का तर्क है कि उत्तर आधुनिकतावाद 21वीं सदी में भी कायम है.
कई आधुनिकतावादियों का मानना था कि परंपरा का त्याग करके वे मौलिक रूप से कला निर्माण के नए तरीकों का अविष्कार कर सकते थे. अर्नोल्ड शोएनबर्ग ने परंपरागत तानवाले सद्भाव, संगीत की रचनाओं का निर्माण करने की पदानुक्रमित प्रणाली को त्याग दिया जिसने कम से कम डेढ़ दशक तक संगीत निर्माण का पथप्रदर्शन किया था. उनका मानना था कि उन्होंने बारह-स्वर पंक्तियों के उपयोग के आधार पर संगीत रचना के एक सम्पूर्ण नए तरीके का अविष्कार कर लिया था. अमूर्त कलाकारों, जो अपने आपको प्रभाववादी कहते हैं, के साथ-साथ पॉल सिज़ेन और एडवर्ड मंच ने इस धारणा के साथ शुरुआत की कि रंग एवं आकृति, न कि प्राकृतिक विश्व का चित्रण, ने कला की आवश्यक विशेषताओं का निर्माण किया. वैसिली कैंडिंस्की, पीट मोंड्रियन, और काज़िमिर मालेविच सभी शुद्ध रंग की व्यवस्था के रूप में कला को फिर से परिभाषित करने में विश्वास करते थे. फोटोग्राफी ने आधुनिकतावाद के इस पहलू को बहुत ज्यादा प्रभावित किया, जिसने दृश्य कला के अधिकांश प्रतिनिधित्यवादी कृत्यों को गतकालिक बना दिया था. हालांकि, ये कलाकार इस बात पर भी विश्वास करते थे कि भौतिक वस्तुओं के चित्रण का त्याग करके उन्होंने कला को विकास के एक भौतिकवादी चरण से एक आध्यात्मवादी चरण में स्थानांतरित करने में मदद किया था.
अन्य आधुनिकतावादियों, विशेष रूप से जो डिज़ाइन में अंतर्भुक्त थे, के विचार अधिक व्यावहारिक थे. आधुनिकतावादी वास्तुकारों और डिज़ाइनरों का मानना था कि नई प्रौद्योगिकी ने इमारतों की पुरानी शैलियों को गतकालिक बना दिया. ले कोर्बिज़ियर की सोच थी कि इमारतों को "निवास करने के मशीनों" के रूप में, कारों के अनुरूप, कार्य करना चाहिए, जिसे उन्होंने यात्रा के मशीनों के रूप में देखा था. जिस तरह कारों ने घोड़ों की जगह ले ली थी, ठीक उसी तरह आधुनिकतावादी डिज़ाइन को प्राचीन मिस्र या मध्य युग से चली आ रही पुराणी शैलियों और संरचनाओं को त्याग देना चाहिए. कुछ मामलों में रूप ने कार्यों का अधिक्रमण किया. इस मशीन सौन्दर्य सिद्धांत का अनुसरण करते हुए आधुनिकतावादी डिज़ाइनरों ने आम तौर पर डिज़ाइन में सजावटी रूपंकानों का त्याग कर दिया और प्रयुक्त सामग्रियों और शुद्ध रैखिकीय रूपों पर जोर देना पसंद किया. न्यूयॉर्क (1956-1958) में लुडविग मिएस वैन डेर रोहे की सीग्राम बिल्डिंग जैसे गगनचुम्बी इमारत आद्यप्ररूपीय आधुनिकतावादी इमारत बन गए. मकानों और फर्नीचर के आधुनिकतावादी डिज़ाइन ने भी आम तौर पर रूप की सादगी एवं स्पष्टता, मुक्त-योजना आतंरिक भाग, और अव्यवस्था के अभाव पर जोर दिया. आधुनिकतावाद ने 19वीं सदी के सार्वजनिक एवं निजी सम्बन्ध को उलट दिया: 19वीं सदी में, सार्वजनिक इमारतें विभिन्न तकनीकी कारणों से क्षैतिज रूप से फैले हुए होते थे, और निजी इमारतें बढ़ते सीमित भूमि पर अधिक निजी स्थान को समायोजित करने के लिए लम्बवत रूप पर जोर देते थे. इसके विपरीत, 20वीं सदी में, सार्वजनिक इमारत लम्बवत उन्मुखी बन गए और निजी इमारत क्षितिज रूप से स्थापित हुए. आज भी समकालीन वास्तुकला की मुख्यधारा के भीतर आधुनिकतावादी डिज़ाइन के कई पहलू कायम हैं, यद्यपि इसके पिछले स्वमताभिमान ने सजावट, ऐतिहासिक उद्धरण, उअर स्थानिक नाटक के एक अधिक रसिक उपयोग का तरीका प्रदान किया है.
अन्य कला में इस तरह के व्यावहारिक विचार कम महत्वपूर्ण थे. साहित्य और दृश्य कला में कुछ आधुनिकतावादियों ने मुख्य रूप से अपनी कला को और अधिक उज्जवल बनाने के लिए या उनकी खुद के पूर्वाग्रहों पर प्रश्न उठाने की परेशानी लेने के लिए दर्शकों को मजबूर करने के लिए उम्मीदों की उपेक्षा करना चाहते थे. आधुनिकता का यह पहलू अक्सर उपभोक्ता संस्कृति की एक प्रतिक्रिया लगती है जिसका विकास 19वीं सदी के अंत में यूरोप एवं उत्तर अमेरिका में हुआ था. जबकि अधिकांश निर्माता उन उत्पादों का निर्माण करने का प्रयास करते हैं जिसका वरीयताओं और प्रतिकूल प्रभावों के आकर्षण के जरिए विपणन किया जाएगा, उच्च आधुनिकतावादियों ने पारंपरिक सोच को कमजोर बनाने के लिए इस तरह के उपभोक्तावादी दृष्टिकोणों को त्याग दिया. कला समीक्षक क्लेमेंट ग्रीनबर्ग ने अपने अवंत-गर्दे एंड कित्श नामक निबंध में आधुनिकतावाद के इस सिद्धांत की व्याख्या की.[31] ग्रीनबर्ग ने उपभोक्ता संस्कृति के उत्पादों पर "कित्श" का लेबल लगा दिया क्योंकि उनके डिज़ाइन का लक्ष्य बस अधिकतम आकर्षण प्राप्त करना था और साथ में किसी भी मुश्किल सुविधा को हटा दिया गया. इस तरह ग्रीनबर्ग के अनुसार आधुनिकतावाद ने वाणिज्यिक लोकप्रिय संगीत, हॉलीवुड, और विज्ञापन के रूप में आधुनिक उपभोक्ता संस्कृति के ऐसे उदाहरणों के विकास के खिलाफ एक प्रतिक्रिया की स्थापना की. ग्रीनबर्ग ने इसे पूंजीवाद की क्रन्तिकारी अस्वीकृति से जोड़ दिया.
कुछ आधुनिकतावादियों ने अपने आपको एक क्रन्तिकारी संस्कृति के हिस्से के रूप में देखा जिसमें राजनीतिक क्रांति शामिल थी. अन्य लोगों ने पारंपरिक राजनीति के साथ-साथ कलात्मक सम्मेलनों का त्याग किया, उनका विश्वास था कि राजनीतिक संरचनाओं के परिवर्तन की तुलना में राजनीतिक चेतना की एक क्रांति का बहुत अधिक महत्व था. कई आधुनिकतावादियों ने अपने आपको अराजनीतिक रूप में देखा. अन्य, जैसे - टी. एस. ईलियट, ने एक रूढ़िवादी स्थिति से विशाल लोकप्रिय संस्कृति का परित्याग कर दिया. कुछ लोगों[31] का यह भी तर्क है कि साहित्य एवं कला में आधुनिकतावाद ने एक उत्कृष्टवर्गीय संस्कृति का पोषण करने के लिए काम किया जिसने जनसंख्या के बहुमत को अपवर्जित किया.
फ्रैंज़ मार्क, जानवरों का भाग्य, 1913, ऑयल ऑन कैनवास.1937 में नाज़ी जर्मनी के म्यूनिख में एन्टार्टेट कुंस्ट की प्रदर्शनी में प्रदर्शित किया गया. इसकी परंपरा की अस्वीकृति आधुनिक आन्दोलन की सबसे विवादास्पद पहलू थी और है. आदिमवाद, कट्टरपंथ, प्रयोग, और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर आधुनिकतावाद का जोर पारंपरिक उम्मीदों की उपेक्षा करता है. कई कला रूपों में इसका तात्पर्य अक्सर आधुनिकतावादी संगीत में अत्यधिक असंगति एवं अतानता के उपयोग या अतियथार्थवाद में रूपंकानों के शक्तिशाली एवं तकलीफदेह संयोजनों के रूप में अजीब और मनमौजी प्रभावों के साथ दर्शकों को चौंका देना और पृथक कर देना था. साहित्य में इसमें अक्सर उपन्यासों में स्पष्ट कथानकों या चरित्रांकन का त्याग, या स्पष्ट व्याख्या की उपेक्षा करने वाले काव्य की रचना शामिल होती थी.
स्टालिन के उदय के बाद, सोवियत साम्यवादी सरकार ने कथित उत्कृष्टवर्गवाद के आधार पर आधुनिकतावाद का त्याग कर दिया, हालांकि इसने पहले भविष्यवाद एवं निर्माणवाद का समर्थन किया था. जर्मनी की नाज़ी सरकार आधुनिकतावाद को आत्मकामी एवं अतर्कसंगत के साथ-साथ "यहूदी" एवं "हब्शी" समझती थी (सामिवाद-विरोधी देखें). नाज़ियों ने डिजनरेट आर्ट शीर्षक वाली एक प्रदर्शनी में मानसिक रूप से बीमार कलाकारों की रचनाओं के साथ-साथ आधुनिकतावादी चित्रकलाओं का भी प्रदर्शन किया. "रीतिवाद" के आरोप के परिणामस्वरूप किसी के करियर का अंत हो सकता था, या इसकी बदतर हालत हो सकती थी. इसी वजह से उत्तर-युद्ध पीढ़ी के कई आधुनिकतावादियों ने महसूस किया कि वे सर्वाधिकारवाद के खिलाफ सबसे महत्वपूर्ण अवरोध, "कोयले की खान के मुखबिर", थे जिसका किसी सरकार या अपेक्षित अधिकारी वाले किसी अन्य समूह द्वारा किया गया दमन एक चेतावनी का प्रतिनिधित्व करता था कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर खतरा मंडरा रहा था. लुइस ए. सास ने अपने सहभाजी वियोगी वर्णनों, असली छवियों, और बेतरतीबी का उल्लेख करते हुए एक थोड़े कम फासीवादी तरीके से पागलपन, विशेष रूप से विखंडितमनस्कता, और आधुनिकतावाद की तुलना की.
वास्तव में, आधुनिकतावाद के समर्थक अक्सर खुद उपभोक्तावाद का त्याग करते थे, इस तथ्य के बावजूद, आधुनिकतावाद ने मुख्य रूप से उपभोक्ता/पूंजीवादी समाजों को समृद्ध किया. बहरहाल, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, विशेष रूप से 1960 के दशक के दौरान, उच्च आधुनिकतावाद का उपभोक्ता संस्कृति में विलय होने लगा. ब्रिटेन में, द हू (The Who) और द किंक्स (The Kinks) जैसे प्रतिनिधि संगीत समूहों का अनुसरण करते हुए एक युवा उप-संस्कृति का उद्भव हुआ जो खुद को "आधुनिकतावादी" (जिसे आम तौर पर संक्षेप में मॉड) कहते थे. बॉब डायलन, सर्ज गेंसबर्ग और द रोलिंग स्टोंस की तरह की हस्तियों ने जेम्स जॉयस, सैमुएल बेकेट, जेम्स थर्बर, टी. एस. ईलियट, गिलौम अपोलिनेयर, एलेन गिन्सबर्ग, और अन्य से व्युत्पन्न साहित्यिक उपकरणों को ग्रहण करते हुए लोकप्रिय संगीत परम्पराओं को आधुनिकतावादी छंद के साथ जोड़ दिया. द बीटल्स ने कई एल्बमों पर विभिन्न आधुनिकतावादी संगीत प्रभावों की रचना करते हुए इसी तरह की पंक्तियों को विकसित किया, जबकि फ्रैंक जैपा, सिड बैरेट और कैप्टन बीफहार्ट जैसे संगीतकार इससे भी अधिक प्रायोगिक सिद्ध हुए. आधुनिकतावादी उपकरण लोकप्रिय सिनेमा, और बाद में संगीत वीडियो में भी दिखाई देने लगे. आधुनिकतावादी डिज़ाइन भी लोकप्रिय संस्कृति की मुख्यधारा में प्रवेश करने लगे, जब सरलीकृत और शैलिपूर्ण रूप लोकप्रिय हुए, जो अक्सर किसी अंतरिक्ष युग के उच्च-तकनीक वाले भविष्य के स्वप्नों से सम्बद्ध होते थे.
आधुनिकतावादी संस्कृति के उच्च संस्करणों और उपभोक्ता के इस विलय के परिणामस्वरूप "आधुनिकतावाद" के अर्थ में एक क्रन्तिकारी बदलाव आया. सबसे पहले, इसका तात्पर्य था कि परंपरा के त्याग पर आधारित एक आन्दोलन इसकी अपनी एक परंपरा बन गई थी. दूसरा, इसने यह दिखाया कि उत्कृष्टवर्गीय आधुनिकतावादी और विशाल उपभोक्तावादी संस्कृति के बीच के भेद ने अपनी परिशुद्धता को खो दिया था. कुछ लेखकों[कौन?] ने घोषणा की कि आधुनिकतावाद इतना संस्थागत हो गया था कि यह अब "उत्तर कला-अग्रणी" हो गया था जो यह संकेत देता था कि इसने एक क्रन्तिकारी आन्दोलन के रूप में अपनी शक्ति को खो दिया था. कईयों ने इस परिवर्तन की व्याख्या उस चरण की शुरुआत के रूप में की है जिसे उत्तरआधुनिकतावाद के नाम से प्रचलित हुआ. कला समीक्षक रॉबर्ट ह्यूजेस जैसे अन्य लोगों के अनुसार, उत्तरआधुनिकतावाद आधुनिकतावाद के एक विस्तार का प्रतिनिधित्व करता है.
"आधुनिक-विरोधी" या "प्रत्याधुनिक" आन्दोलन आधुनिकतावाद के निवारण या प्रतिकार के रूप में साकल्यवाद, संयोजन एवं आध्यात्मिकता पर जोर देना चाहते हैं. ऐसे आन्दोलन आधुनिकतावाद को न्यूनकारक रूप में देखते हैं, और इसलिए प्रणालीगत एवं आकस्मिक प्रभावों को देखने की अक्षमता के अधीन है. कई आधुनिकतावादी इस दृष्टिकोण को अपनाते हैं, उदाहरण के तौर पर पॉल हिंडमिथ ने रहस्यवाद की तरफ अपने अंतिम मोड़ में ऐसा किया था. The Cultural Creatives: How 50 Million People Are Changing the World (2000) में पॉल एच. रे एवं शेरी रुथ एंडरसन, ए कल्चर ऑफ़ होप में फ्रेडरिक टर्नर और प्लान बी में लेस्टर ब्राउन जैसे लेखकों ने खुद आधुनिकतावाद के बुनियादी विचार की आलोचना की है कि व्यक्तिगत रचनात्मक अभिव्यक्ति को प्रौद्योगिकी की वास्तविकताओं के अनुरूप होना चाहिए. इसके बजाय, वे तर्क देते हैं, व्यक्तिगत रचनात्मकता को रोजमर्रा के जीवन को भावनात्मक रूप से अधिक स्वीकार्य बनाना चाहिए.
कुछ क्षेत्रों में आधुनिकतावाद के प्रभाव अन्य की तुलना में अधिक शक्तिशाली और अधिक दृढ़ बने हुए हैं. दृश्य कला ने अपने अतीत से पूरी तरह सम्बन्ध तोड़ लिया है. अधिकांश प्रमुख राजधानी शहरों में उत्तर-पुनर्जागरण कला (लगभग 1400 से लगभग 1900 तक) से अलग, 'आधुनिक कला' को समर्पित संग्रहालय हैं. इसके उदाहरणों में न्यूयॉर्क का म्यूज़ियम ऑफ़ मॉडर्न आर्ट, लन्दन का टेट मॉडर्न, और पेरिस का सेंटर पोम्पिडो शामिल हैं. ये गैलरी आधुनिकतावादी और उत्तरआधुनिकतावादी चरणों के दरम्यान किसी तरह का कोई भेद नहीं करते हैं, दोनों को 'आधुनिक कला' के भीतर विकासात्मक घटनाक्रमों के रूप में देखते हैं.
आधुनिकतावाद सांस्कृतिक आंदोलनों की एक विस्तृत विविधता का एक व्यापक लेबल है. उत्तरआधुनिकतावाद अनिवार्य रूप से एक केंद्रीकृत आंदोलन है जिसने सामाजिक-रानजीतिक सिद्धांत के आधार पर खुद अपना नामकरण किया, हालांकि इस शब्द का इस्तेमाल अपना व्यापक अर्थों में 20वीं सदी से आगे की गतिविधियों को संदर्भित करने के लिए किया जाता है जो आधुनिक की जागरूकता का प्रदर्शन करते हैं और इसकी पुनर्व्याख्या करते हैं. उत्तरआधुनिक सिद्धांत इस बात पर जोर देता है कि आधुनिकतावाद को "तथ्योपरांत" की उपाधि से विभूषित करने का प्रयास बेमेल विरोधाभासों से अभिशप्त है. एक अतिसंकीर्ण अर्थ में, जो कुछ भी आधुनिकतावादी था, वह आवश्यकत रूप से उत्तरआधुनिक भी नहीं था. सामाजिक-प्रौद्योगिकीय प्रगति एवं चेतना के लाभों पर बल देने वाले आधुनिकतावाद के तत्व केवल आधुनिकतावादी ही थे.

पत्रकारिता के दो नये पड़ाव


गिरीश पंकज

युवा पत्रकार संजय द्विवेदी की फिर दो नई पुस्तकें मेरे सामने हैं। 'सुर्खियां' और 'यादें : सुरेन्द्र प्रताप सिंह'। इन पुस्तकों को देखते हुए मुझे एक बार फिर कहना पड़ रहा है कि संजय की रचनात्मकता दिनोंदिन परवान चढ़ रही है। पत्रकारिता अधिकांश युवकों का तेज छीन लेती है। पत्रकारिता की भारी व्यस्तता पत्रकार के भीतर बैठे पत्रकार को आने का मौका ही नहीं देती, लेकिन जो ऐसा कर पाते हैं, दरअसल वही सही मायने में पत्रकार हैं। पत्रकारिता केवल घटनाओं का सिलसिलेवार ब्यौरा देना भर नहीं है, वरन विशेषणात्मक दृष्टि की मांग भी करती है। इस दृष्टि से हिंदी में गिने-चुने पत्रकार ही ऐसा कर पाते हैं। संजय भी साहित्य की ओर पीठ खड़ी करके नहीं बैठे हैं वे भी पत्रकारिता में साहित्यिक आस्वादन के पक्षधर हैं। यह और बात है कि संजय ठेठ साहित्यिक विमर्श नहीं करते लेकिन उनकी दृष्टि से साहित्य ओझल भी नहीं है। वे पत्रकारिता करते हुए साहित्यिक मूल्यों का भी ख्याल रखते हैं। यही कारण है कि संजय की भाषा में साहित्यिक खिलंदड़पन दीखता है। उनके अखबारी लेखन में भाषा की अद्भुत लयकारी शैली पाठकों को बांध लेती है।

अनेक महत्वपूर्ण अखबारों के समाचार सपादक और संपादक के पद पर कार्य करने के बाद संजय द्विवेदी इन दिनों दैनिक 'हरिभूमि' रायपुर के स्थानीय संपादक हैं। समकालीन परिदृश्य पर नियमित लिखते हुए संजय ने यह साबित कर दिया है कि व्यक्ति चाहे तो व्यस्तताओं के बीच में रहते हुए भी सर्जना के लिए कुछ पल निकाल ही लेता है।

'सुर्खियां' संजय द्विवेदी की चौथी पुस्तक है। यह पुस्तक संजय के तिरासी लेखों एवं अग्रलेखों का संग्रह है। प्रकाशक ने संजय के बारे में बिल्कुल सही लिखा है कि ''संजय द्विवेदी ने कम समय में ही पत्रकारिता के क्षेत्र में एक गंभीर राजनीतिक-सामाजिक विश्लेषक के रूप में अपनी पहचान बना ली है। मीडिया विमर्श उनका प्रिय विषय है।'' और यह स्वाभाविक है। इस वक्त मीडिया हमारे सामाजिक जीवन का केन्द्र बिंदु बन गया है। समाज में घटित होने वाली घटनाओं पर मीडिया की सजग नजर रहती है। कभी साहित्य समाज का दर्पण हुआ करता था। अब मीडिया समाज का दर्पण है। यह और बात है कि इस दर्पण में समाज का चेहरा कुछ ज्यादा ही कुरूप नजर आने लगा है, जबकि समाज वैसा है नहीं। फिर भी मीडिया अपनी भूमिका में तैनात है। संजय भी अपनी सकारात्मक दृष्टि से सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं को देखते हैं और अपनी सटीक टिप्पणी करके पाठक को अपने तर्कों से सहमत कर देते हैं।

विचार विहीन पत्रकारिता बैल की तरह होती है। पत्रकारिता में गाय तत्व की प्रधानता होनी चाहिए। संजय की पत्रकारिता में गाय तत्व प्रधान है। वे विचारों के उन्नायक नजर आते हैं। 'सुर्खियां' में अपनी भूमिका में भाषाविद् एवं साहित्यकार प्रो. चित्तरंजन कर एक जगह कहते हैं कि ''संजय द्विवेदी की यह किताब वैचारिक आंदोलन का शंखनाद करने का संकल्प है, ताकि छोटी-मोटी समस्याओं के हल के लिए जनांदोलन जैसा बड़ा कदम उठाने के पहले आपसी विमर्श और व्यक्तिगत प्रयासों का सिलसिला जारी रहे, और इस तरह व्यक्ति अपनी महत्ता की मूल्यवत्ता कायम रख सके।'' पत्रकार को अपने लेखन के माध्यम से समाज को झंकृत करने की कोशिश करनी चाहिए। ऐसा ही लेखन सार्थक लेखन है जिसका पाठ हृदयंगम हो जाए और पाठक को चिंतन की दिशा मिल सके। संजय के लेखन में ऐसी क्षमता है। यही कारण है कि उनका लिखा भी सुर्खी से कम नहीं होता, फिर जहां एक साथ अनेक धमाकेदार लेख संग्रहित हो जाएं तो सुर्खियां अपने आप बन जाती हैं।

संजय द्विवेदी छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में रहते हुए पत्रकारिता कर रहे हैं। इसलिए वे माटी के ऋण को चुकाने की कोशिश भी करते हैं, लेकिन वे राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर भी कलम चलाते हैं। अब जमाना वैश्विक दृष्टि संपन्न होने का भी है। हम स्थानीय होते हुए भी अपने चिंतन और लेखन से वैश्विक बनें। 'छत्तीसगढ़ के दर्द को भी समझें' तो 'आर्थिक सुधार की रफ्तार' पर भी नजर रखें। 'सुर्खियां' में ऐसे ही लेखों के साथ संजय 'विचारधारा के भाव' को भी परखते हैं। नक्सलवाद पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुए निर्भीकता के साथ कहते हैं कि समस्याओं से निपटने के लिए 'लोकतांत्रिक रास्ता ही एक मात्र विकल्प' है। संजय 'दलित राजनीति का विस्तारवादी चेहरा' भी पढ़ने की कोशिश करते हैं और दो टूक कहते हैं कि ''छुटभैयों की बन आई। बाबा साहेब अम्बेडकर के बाद दलितों को सच्चा और स्वस्थ नेतृत्व मिला ही नहीं।'' अपने लेख में संजय यह भी साफ-साफ कह देते हैं कि दलित राजनीति से जुड़े लोगों के पास ठोस मुद्दों का अभाव है। इसीलिए ''एक बेहतर मानवीय जीवन के लिए संघर्ष के बजाय सिर्फ सत्ता उसका केन्द्रीय विचार बन गया है।''

छत्तीसगढ़ के 'चौरेंगा कांड' के बहाने संजय ने 'सवालों के ठोस उत्तर तलाशने की जरूरत' पर बल दिया है। बाहरी राज्यों से आने वाले लोगों का व्यवहार कैसा हो, न चाही जगहों में उद्योग लगाने की भी एक सीमा हो, समझदारी, सद्भाव, सामाजिक उत्तरदायित्व एवं सकारात्मक सोच को विकसित करने का संदेश देते हुए संजय कहते हैं ''उद्योगों को केवल धन कमाने की सोचने की बजाय अपने सामाजिक सरोकार भी जाहिर करने होंगे।''

संजय ने 'सुर्खियां' में हिंदी पत्रकारिता पर भी कुछ लेख समाहित किए हैं। जैसे 'हिंदी की आर्थिक पत्रकारिता : पहचान बनाने की जद्दोजहद' कैसे जिएंगे अखबार, बढ़ता प्रसार: घटता प्रसार, तंत्र से निराशा : मीडिया से बढ़ी आशा, हिंदी बाजार में मीडिया वार, टीवी चैनलों पर लगाम, बाजार की चुनौतियों से बेजार हिंदी पत्रकारिता, जो बिकेगा : वही टिकेगा, आदि लेखों में संजय समकालीन बाजार जनित प्रवृत्तियों का विशेषण करते हुए विद्रूपताओं के विस्तार और उसे नियंत्रित करने के सुझाव पेश करते हैं। जब समाज तंत्र से निराश हो जाए तो मीडिया से आशा करता है। लेकिन मीडिया खुद बाजार का हिस्सा बन जाए तो यह स्वाभाविक है कि उसका प्रभाव कम होगा। बाजार की चुनौतियों से पत्रकारिता को बेजार होने की जरूरत नहीं है। उससे जूझने की जरूरत है। अगर अखबार प्रोडक्ट बन गए और संपादक 'सीईओ' की भूमिका में आ गए तो पत्रकारिता कैसे बच पाएगी? बाजारवाद की चकाचौंध ने पत्रकारिता को दिशाहीन-सा कर दिया है, लेकिन आस्थावादी संजय कहते हैं कि ''इसके बावजूद रास्ता यही है कि हम अपने कटघरों से बाहर आकर बुनियादी सवालों से जूझें। हवा के खिलाफ खड़े होने का साहस पालें। हिंदी पत्रकारिता की ऐतिहासिक भावभूमि हमें यही प्रेरणा देती है।'' (बाजार की चुनौतियों से बेजार पत्रकारिता)।

संजय 'टीवी चैनलों पर लगाम' की बात भी करते हैं। क्योंकि अनेक मामलों में अक्सर टीवी चैनलों की निरंकुशता का घिनौना रूप ही सामने आता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मतलब यह कदापि नहीं हो सकता कि हम कपड़े उतार कर सड़कों पर दौड़ पड़ें। अब तो अति हो रही है। इसलिए अगर केन्द्र सरकार यह सोचती है टीवी चैनलों पर किसी न किसी यप में नियंत्रण जरूरी है तो गलत नहीं सोचती। संजय स्पष्ट करते हैं कि ''सेक्स, हिंसा और बच्चों के लिए जैसे घातक कार्यक्रम बताए और दिखाए जा रहे हैं, उससे अभिभावक भी खासे चिंतित हैं। हमारे घर-आंगन में इन चीजों का पहुंच जाना वास्तव में भारतीय समाज के सामने एक बड़ी चुनौती है।'' (पृष्ठ 84) प्रश् यही है कि ऐसी चिंताओं से कितने लोग सबक लेते हैं। समाज में कोई आंदोलन नहीं दिखाई देता। गोया अशीलता और हिंसा को लोगों की स्वीकृति मिलती जा रही है।

'सुर्खियां' में सामाजिक सरोकारों से जुड़े अनेक ज्वलंत मुद्दे भी संजय ने उठाए हैं। किसानों की हालत, रोजगार की समस्या, बिहार में बवाल, महिला बिल, मातृभाषा में शिक्षा, बाजार में शिक्षा, पूंजी से प्यार और पुलिसिया बर्बरता पर भी लेखक ने अपने विविध लेखों में गहरी चिंता व्यक्त की है। पुलिस की बढ़ती बर्बरता अब रोजमर्रा की बात हो गई है। लोकतंत्र में लोक पर ही डंडा चले, गोलियां चलें, यह कहां का न्याय है। संजय ने गुड़गांव में दिखी पुलिसिया बर्बरता पर अपनी तल्ख टिप्पणी करते हुए मेरे या सबके मन की बात लिखी है कि 'आज हालात यह है कि पुलिस को पैसे देकर आप कुछ भी करवा सकते हैं। पुलिस को वर्दीधारी गुंडा कहकर लांछित करने की जो परंपरा शुरू हुई है उसमें पुलिस का भी कम दोष नहीं है। लेकिन यह चेहरा बनाने के लिए बहुत हद तक पुलिस तंत्र स्वयं ही जिम्मेदार है। कानून की रक्षा के नाम पर राजनेताओं, अपराधियों और उद्योगपतियों की सेवा में लगा यह तंत्र कभी जन सम्मान का पात्र नहीं बन सकता। जरूरत इस बात की है कि हम अपनी पुलिस का चेहरा ज्यादा मानवीय और ज्यादा संवेदनशील बनाएं ताकि वह जनता की नजर में अपनी खोई प्रतिष्ठा को फिर से पा सके।' (पृष्ठ 143)

आए दिन ''सामाजिक समरसता में जहर घोलते प्रसंग'' कहीं न कहीं दिख जाते हैं। समीक्ष्य पुस्तक में संजय ने ऐसे कुछ मुद्दों पर भी गंभीर विमर्श किया है। चौरासी के दंगों के 'जख्म जो हरे हैं' उन पर भी चिंता व्यक्त की है। संजय ने माना है कि ''दंगों का देश के आर्थिक, सामाजिक विकास पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है।'' लेखक की महत्वपूर्ण पंक्तियां ये हैं कि ''ऐसे जघन्य नरसंहारों के आरोपी भी अपनी ऊंची पहुंच के सहारे बच निकलते हैं तो जनता का विश्वास आहत होगा।'' (पृष्ठ 83)

संजय ने वाजपेयी, आडवाणी, जॉर्ज, चटर्जी, ममता, मनमोहन सिंह, खुराना, बुखारी, लादेन आदि व्यक्तियों एवं उनकी राजनीतिक स्थितियों और प्रवृत्तियों पर भी ठोस विशेषण किए हैं। आडवाणी पर चार लेख हैं। आडवाणी के प्रति लेखक का एक साफ्ट कार्नर साफ दीखता है। इसमें कोई बुराई भी नहीं। वे आडवाणी की बुद्धि के कायल हैं लेकिन भाजपा के रवैये से सख्त नाराज हैं। 'भाजपा का सेकुलर चेहरा' बन सकता था लेकिन आडवाणी के विचारों से भाजपा ने पल्ला झाड़ कर एक तरह से अपना ही नुकसान किया है।

संजय के कुछ लेख बेहद मार्मिक बन पड़े हैं। मुद्दे भी ऐसे हैं कि उन पर उसी संवदेनात्मकता के साथ कलम चलाने की जरूरत है। 'गैस के बिना रसोई', 'बेटियों के लिए', महिला बिल पर शोक गीत, मातृभाषा में शिक्षा, बाजार में शिक्षा, आजादी की कीमत समझें, हादसे की ट्रेन आदि लेख इसी श्रेणी के हैं। ये लेख संवदेना को झकझोरते हैं। आत्ममंथन पर विवश करते हैं। 'भारतीयता का विस्तार' (पृष्ठ 65) में संजय ने केन्द्र सरकार के उस निर्णय की सराहना की है जिसमें सरकार ने पाक और बंगलादेश को छोड़कर भारतीय मूल के सभी नागरिकों को दोहरी नागरिकता देने का फैसला किया है। सरकार की इस सामयिक पहल से नि:संदेह भारतीयता का विस्तार होगा और भारतीय समृध्दि में निरंतर इजाफा होगा। आप्रवासी भारतीय भारत में उद्योग-धंधे शुरू करेंगे। आने-जाने का सिलसिला बनेगा। इसी बहाने हमारी भारतीयता वैश्विक बनती जाएगी। 'सुर्खियां' एक पठनीय पुस्तक है। संजय के हर लेख पर विमर्श किया जा सकता है। क्योंकि इनमें केवल सपाट बयानी नहीं है। अपना मौलिक चिंतन भी है। पत्रकारिता में मौलिक चिंतन गायब हो रहा है। 'सुर्खियां' इस कमी को पूर्ण करने में सहायक हो सकती है। कुछ लेख-अग्रलेख तो बेहद चलताऊ किस्म के हैं। वे इस संग्रह में न भी होते तो संग्रह का वजन कम न होता लेकिन कई बार सामयिकता का भी एक दबाव होता है। बावजूद इसके संजय के अधिकांश लेख पाठकों को भी गहरे सामाजिक सरोकारों से जोड़ने की क्षमता रखते हैं। क्या राजनीति, क्या पत्रकारिता, हर जगह ''विचारधारा को बाय-बाय'' कह दिया गया है लेकिन जहां कहीं भी विचार बचे हुए हैं, वहां-वहां जीवन-मूल्य बचे हुए हैं। संजय जैसे युवा पत्रकारों के लेखों में विचार तत्व की गहनता देखते हुए इस संभावना को बल मिलता है कि विचारशून्यता के इस दौर में विचारवानों की भी कमी नहीं रहेगी। इसीलिए तो संजय द्विवेदी संभावनाओं का ही नाम है। बस इस युवा पत्रकार की धार इसी तरह कायम रहे। संजय छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता कर रहे हैं। एक दशक से यहां रहते हुए संजय द्विवेदी ने यही निष्कर्ष निकाला है कि ''प्रतिबध्द पत्रकारिता की संस्कार भूमि है छत्तीसगढ़'' (पृष्ठ 167) जन्मभूमि का संस्कार और कर्मभूमि का संस्कार मिलकर जो शख्स बनता है उसे संजय द्विवेदी कहा जा सकता है। 'सुर्खियां' संजय की संस्कारित पत्रकारिता का एक नया पड़ाव है।

'यादें : सुरेन्द्र प्रताप सिंह' : संजय द्विवेदी की दूसरी पुस्तक संपादित ग्रंथ है। अपने समय के बेहद चर्चित पत्रकार सुरेन्द्र प्रताप सिंह से पत्रकारिता की दुनिया की चेतस पीढ़ी भली-भांति थी। श्री सिंह अनेक महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहे। 'रविवार' जैसे साप्ताहिक के संपादक के रूप में सुरेन्द्र प्रताप की प्रतिभा का मानो विस्फोट हुआ था। 'रविवार' ने हिंदी पत्रकारिता को एक नए तेवर प्रदान किए। उस दौर की बेहद चर्चित-प्रतिष्ठित एवं बहुप्रसारित पत्रिका 'दिनमान' के गढ़ को भेदने वाली पत्रिका 'रविवार' थी। दुर्भाग्यवश बाद में 'रविवार' का प्रकाशन बंद हो गया। बाद में 'एसपी' इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़ गए। वहां भी उन्होंने नए आयाम स्थापित किए। आज भारतीय टीवी का जो चेहरा नजर आता है उसे गढ़ने में एसपी जैसे पत्रकार की महत्वपूर्ण भूमिका थी। संजय द्विवेदी ने ऐसे महत्वपूर्ण पत्रकार की स्मृतियों को संजोने के उद्देश्य से ही एक पुस्तक तैयार कर दी - 'यादें : सुरेन्द्र प्रताप सिंह'। इस संपादित पुस्तक में अट्ठाईस लेख हैं। इन्हें पढ़कर पत्रकारिता की वर्तमान पीढ़ी यह आसानी से समझ सकती है कि वर्तमान पत्रकारिता का थका-थका, उदास-सा चेहरा क्यों नजर आता है। इसका असली कारण है एसपी जैसे तेजस्वी पत्रकारों का अनायास महाप्रयाण कर जाना। संजय की यह संपादित कृति एसपी के कृतित्व एवं व्यक्तित्व के अनेक आयामों का उद्धाटित करती है। प्रकारांतर से यह कह सकते हैं कि कहीं न कहीं संजय भी एसपी को अपना आदर्श मानते हैं। इसीलिए तो उनकी यादों को संजोने के लिए इतनी जद्दोजहद करते हैं। एक पुस्तक तैयार करते हैं। 'यादें' में संकलित लेखों से एसपी के जीवट व्यक्तित्व को समझा जा सकता है। इनमें कुछ लेख उनके साथ काम करने वालों ने लिखे हैं। उनके अंतरंग मित्रों ने भी कलम चलाई है, तो कुछ लेख 'दूरदर्शकों' के भी हैं जो एसपी के प्रभा मंडल से प्रभावित थे। लेकिन सभी आलेख मन से लिखे गए हैं। प्रभाष जोशी उन्हें 'एक चमत्कारिक अलेखक संपादक' कहते हैं तो सुधीश पचौरी उन्हें 'टीवी पर हिंदी का जागृत चेहरा' मानते थे। राजकिशोर एसपी की 'जिद जीवट की सादगी' का मार्मिक वर्णन करते हैं तो कन्हैयालाल नंदन कहते हैं कि ''वो सारे शहर के आईने साफ करता था''। उदयन शर्मा उन्हें मील का पत्थर मानते थे। श्रीकांत सिंह कहते हैं कि एसपी ने ''बौध्दिक जागरुकता से ऊंचाई पाई थी''। तो रमेश नैयर बताते हैं कि एसपी ने अंग्रेजी के आतंक से मुक्ति दिलाई थी।

संजय द्विवेदी उन्हें अप्रतिम बताते हैं तो महेन्द्र सिंह का मानना है कि वे 'नई पत्रकार-पीढ़ी के प्रेरक थे'। एसपी के भाषिक चमत्कार पर डॉ. परमात्मानाथ द्विवेदी का लेख पठनीय है। द्विवेदी जी ने बात कहने भर के लिए नहीं कह दी है। सचमुच एसपी सिंह ने भाषा को नया कलेवर दिया था। चाहे प्रिंट हो चाहे इलेक्ट्रॉनिक, दोनों जगह एसपी एक नई अंतरंग, आक्रामक एवं प्रांजल बौध्दिक भाषा लेकर आए। द्विवेदी जी ने कुछ उदाहरण तो नहीं दिए, लेकिन वे कहते हैं कि ''आज की पत्रकारिता की भाषा जिस रूप-स्वरूप में हम देखते हैं, उसके निर्माण में इस परंपरा का बहुत महत्वपूर्ण योगदान है।''

'आजतक' जैसे टीवी चैनल को लोकप्रियता के शिखर तक पहुंचाने का श्रेय एसपी सिंह को ही है। ''खबरें अभी और भी हैं, देखते रहिए आज तक'' एसपी सिंह का यह जुमला आज तक चल रहा है। मतलब यह कि एसपी ने एक परंपरा बनाई। उन्होंने अंगरेजी के बरक्स हिंदी का प्रतिष्ठित किया। एसपी समकालीन साहित्य की अनेक श्रेष्ठ कृतियों को ध्यान से पढ़ते थे। भाषा के संस्कार साहित्य से ही तो लिए जा सकते हैं। एसपी साहित्यकार नहीं थे, लेकिन जो कुछ भी वे बन पाए, उसके पीछे साहित्य की अहम भूमिका रही। अजित राय के लेख से यही बात समझ में आती है। सुरेन्द्र प्रताप सिंह पर केन्द्रित इस पुस्तक का संपादन करके संजय द्विवेदी ने सही मायने में एक ऐसे पत्रकार को सच्ची श्रध्दांजलि दी है जो अपने अंतिम दिनों में बहुत अधिक लिख नहीं पाया लेकिन वाचिक परंपरा के सहारे हिंदी को अंगरेजी के मुकाबले में खड़ा करके दिखा दिया। पुस्तक के अंत में सुरेन्द्र प्रताप सिंह से अजित राय का साक्षात्कार भी छपा है। इसमें व्यक्त विचारों से एसपी का एक और बड़ा बौध्दिक चेहरा सामने आता है। हमारा समाज बहुत जल्दी विस्मृति का शिकार हो जाता है। पत्रकारिता की नई पीढ़ी एसपी सिंह के नाम से भी बहुत परिचित नहीं है लेकिन संजय द्विवेदी द्वारा संपादित इस पुस्तक के प्रकाशन के बाद कम से कम नई पीढ़ी को तो पता चले कि उनकी बिरादरी में कैसे कैसे तेजस्वी लोग हुए। संजय द्विवेदी से अभी और उम्मीदें हैं। 'सुर्खियां' और 'यादें' तो चौथे-पांचवें पड़ाव हैं। अभी तो सफर लंबा है। दुश्वारियां भी ढेरों हैं। पत्रकारिता की तिलिस्मी दुनिया में खुद को मनुष्य बनाए रखने के लिए बड़ी साधना चाहिए। संजय में यह सब बचा हुआ है। इसलिए मुझे उम्मीद है कि उनकी और बेहतर कृतियां भी सामने आती रहेंगी।


अपनी हिन्दी में बेस्ट सेलर


प्रभात रंजन

हिन्दी साहित्य और प्रकाशन की दुनिया में लेखक और पाठक के रिश्ते को अंतिम रूप से खत्म मान लिया गया था। लेकिन फिर से किताब को पाठक से जोड़ने की कोशिशें दिख रही हैं। हिन्दी में बेस्टसेलर की खोज अनेक स्तरों पर शुरू हो गई है। हिंदी में ‘बेस्टसेलर’ की चर्चा एक बार फिर शुरू हो गई है। एक जमाना था, जब पत्रिकाओं में निरालाजी की कविताओं के नीचे चमत्कारी अंगूठी का विज्ञापन छपता था। राही मासूम रजा ‘जासूसी दुनिया’ के लिए जासूसी उपन्यास लिखा करते थे, पुस्तकों के एक ही सेट में गुलशन नंदा और रवीन्द्रनाथ टैगोर की किताबें मिलती थीं। तब ‘लोकप्रिय’ और ‘गंभीर’ साहित्य का विभाजन गहरा नहीं हुआ था। किताबें पाठकों से सीधा संवाद बनाती थीं। उन खोए हुए पाठकों की फिर से तलाश शुरू हो गई है। पहले अंग्रेजी में हुई, अब हिंदी में भी शुरू हो गई लगती है। कुछ साल पहले अंग्रेजी के एक अंतरराष्ट्रीय प्रकाशक रैंडम हाउस ने इब्ने सफी के एक उपन्यास का अंग्रेजी अनुवाद छापा। आजादी के बाद के आरंभिक दशकों में इंस्पेक्टर फरीद जैसे जासूसों के माध्यम से हत्या और डकैती की रहस्यमयी गुत्थियां सुलझाने वाले इस लेखक के ‘हाउस ऑफ फियर’ के नाम से प्रकाशित इस अनुवाद को अंग्रेजी के पाठकों ने इतना पसंद किया कि यह किताब अनेक पत्र-पत्रिकाओं की बेस्टसेलर सूची में आ गई।
मूलत: उर्दू में लिखने वाले और हिंदी में पढ़े जाने वाले इस लेखक की ओर अचानक हिंदी के प्रकाशकों का एक बार फिर ध्यान गया और जल्दी ही हार्पर कॉलिंस ने इनके उपन्यासों का उर्दू से हिंदी अनुवाद प्रकाशित किया। यह अलग बात है कि हिंदी में उनके उपन्यास इस तरह हाथोंहाथ नहीं लिए गए, लेकिन इससे इतना तो हुआ ही कि हिंदी में बेस्टसेलर की चर्चा शुरू हो गई।
इसी तरह बंगलौर के एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर ने हिंदी के जासूसी उपन्यास-लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक के उपन्यास ‘पैंसठ करोड़ की डकैती’ का अंग्रेजी अनुवाद किया। उसके प्रकाशन को भी एक बड़ी घटना की तरह देखा गया। अमेरिका की ‘टाइम’ मैगजीन में उस अनुवाद का जिक्र आया था। वहीं यह खबर भी आई थी कि हिंदी में उस उपन्यास की करीब ढाई करोड़ प्रतियां बिकी थीं। लगे हाथ यह भी बता दूं कि अपराध-कथाओं में लगभग क्लासिक का दर्जा पा चुके उपन्यास ‘वर्दी वाला गुंडा’ की अब तक करीब आठ करोड़ प्रतियां बिक चुकी हैं, जबकि हिंदी में इनके उपन्यास आज भी ‘सस्ता साहित्य’ का दर्जा रखते हैं और अधिकतर सड़क के किनारे पटरियों पर इनकी बिक्री होती है।
हालांकि यह भी अजब संयोग है कि जिन दिनों सुरेन्द्र मोहन पाठक, इब्ने सफी अंग्रेजी अनुवाद में धूम मचा रहे थे, हिंदी में उनका बाजार गिरता जा रहा था। मेरठ और दिल्ली के पास बुराड़ी की गलियों में फैले इनके प्रकाशक सिमटते जा रहे थे। तिलिस्मी-ऐयारी उपन्यासों की जमीन पर खड़ी हुई जासूसी-अपराध कथाओं की यह विधा पिटने लगी थी।
अब अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी में भी इनका नया पाठक-वर्ग तैयार हो रहा है। पेंगुइन की कमीशनिंग एडिटर वैशाली माथुर ने एक महत्वपूर्ण बात की ओर इशारा किया- ‘भारत में साठ प्रतिशत से अधिक आबादी 30 वर्ष से कम उम्र की है। एक बहुत बड़ा पाठक वर्ग बना है इस आयु-वर्ग में भी, जिसके पास खरीदने की क्षमता बढ़ी है, पढ़ने की भूख भी है, लेकिन ये पाठक मोटा-मोटा ‘हेवी’ साहित्य नहीं पढ़ना चाहते। ये सीधी-सरल भाषा में सीधी-सरल कहानियां पढ़ना चाहते हैं, कुछ आज के युवाओं के जीवन की तरह, जिसमें थोड़ी-बहुत चुनौतियां हों, चयन के अवसर हों, शानदार सफलताएं हों।
अकारण नहीं है कि चेतन भगत आज के युवाओं के ‘आइकन’ लेखक हैं। इस पाठक-वर्ग को अपने और करीब लाने के लिए ‘पेंगुइन’ ने अंग्रेजी में मेट्रो रीडर सिरीज शुरू की है। डेढ़ सौ रुपए की ये पुस्तकें महानगरों में, मेट्रो, बसों में दौड़ते-भागते युवाओं के लिए हैं।’ इस दौड़-भाग में अगर वे इन उपन्यासों को कहीं भूल भी गए तो कोई बात नहीं। फिर खरीद लेंगे, किसी मित्र से मांग लेंगे। यह नए पाठकों को साहित्य की ‘महानता’ से नहीं, उसकी ‘सामान्यता’ से जोड़ने का उद्यम है।
हिंदी में साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता लेखकों की कृतियों के साथ ही उर्दू शायरी को छापने वाले वाणी प्रकाशन के निदेशक अरुण माहेश्वरी इस विषय में कुछ अलग राय रखते हैं। उनका मानना है कि आज का पाठक चर्चित किताबों को पढ़ना चाहता है। तस्लीमा नसरीन के उपन्यास ‘लज्जा’ की पांच  लाख प्रतियां बिक चुकी हैं। नरेन्द्र कोहली के ‘महासमर’ की कीमत तीन हजार होने के बावजूद पाठक उसे खूब खरीदते हैं, वे भी बेस्टसेलर हैं। असली बात यह है कि आप पाठकों के सामने पुस्तक को प्रस्तुत किस तरह से करते हैं।
बहरहाल, अंग्रेजी के इन लोकप्रिय उपन्यासों की सबसे बड़ी खासियत उनकी कम कीमत है। इस साल हिंदी में भी इस प्रयोग की शुरुआत हो गई है। पिछले सालों में अंग्रेजी के एक उपन्यास ‘आई टू हैड ए लव स्टोरी’ ने बिक्री और सफलता के नए प्रतिमान बनाये। दो सॉफ्टवेयर इंजीनियर युगल के शादी डॉटकॉम के माध्यम से मिलने और बिछड़ने की इस कहानी की अंग्रेजी में दस लाख प्रतियां बिकीं। हाल में ही इसका हिंदी अनुवाद पेंगुइन ने छापा है। इसकी कीमत महज 99 रुपए है। ‘सस्ता साहित्य’ अब कॉरपोरेट हो रहा है। प्रकाशक को यह उम्मीद है कि साल भर में इसकी 10 हजार प्रतियां बिक जाएंगी।
अमीश त्रिपाठी के अंग्रेजी उपन्यास ‘इम्मोर्टल्स ऑफ मेलुहा’ का हिंदी अनुवाद ‘मेलुहा के मृत्युंजय’ भी बिक रहा है। यह और बात है कि वी.एस. नायपॉल के क्लासिक उपन्यास ‘ए हाउस फॉर मिस्टर बिस्वास’ का हिंदी अनुवाद भी इसी साल प्रकाशित हुआ, उसकी कोई चर्चा नहीं हुई। नाइजीरियाई लेखक चिनुआ अचेबे की महान कृति ‘थिंग्स फॉल अपार्ट’ भी अचर्चित रहा, जबकि उसका कथा-परिदृश्य भी भारतीय परिस्थितियों से मेल खाता है।
हिंदी में भी बेस्टसेलर का जो परिदृश्य बन रहा है, उसमें जासूसी-अपराध कथाओं की जमीन खिसक चुकी है। ‘फील गुड’ के इस दौर में किताबों का एक ऐसा संसार खड़ा हो रहा है, जिसमें अनुवाद के माध्यम से चेतन भगत के उपन्यास भी आ रहे हैं और स्टीव जॉब्स की जीवनी अंग्रेजी में प्रकाशित होने के महज एक महीने के अंदर हिंदी में उपलब्ध हो रही है। मणिशंकर मुखर्जी की पुस्तक ‘विवेकानंद की आत्मकथा’ के अनुवाद की चौंकाने वाली बिक्री हो रही है।
प्रसिद्ध जासूसी उपन्याकार वेद प्रकाश शर्मा का शगुन प्रकाशन प्रेमचंद की कहानियां छाप रहा है, हिटलर की जीवनी भी छाप रहा है। ‘नए’ पाठक सब खरीद-पढ़ रहे हैं। बेस्टसेलर का दायरा हिंदी में भी विस्तृत हो रहा है। यह अच्छी बात ही है कि उसका कोई ट्रेंड अभी बनता नहीं दिख रहा है, कोई एक ‘हिट’ फॉमरूला बनता नहीं दिख रहा है।
प्रकाशक भी सरकारी पुस्तकालयों के अलावा पाठकों तक सीधे पहुंचने की कोशिश करते दिखाई देते हैं। पुस्तक मेलों का आयोजन पहले से बढ़ा है, साहित्यिक आयोजनों में प्रकाशक भी पहले से अधिक जुटने लगे हैं। हाल में ही जब इंडिया हैबिटैट सेंटर ने भारतीय भाषा के पहले साहित्यिक आयोजन ‘समन्वय’ की शुरुआत की तो वहां हिंदी के कई प्रसिद्ध प्रकाशकों ने अपना स्टॉल लगाया था। हिंदी में पुस्तक बिक्री का वह नेटवर्क धीरे-धीरे क्षीण हो गया, जो लोकप्रिय साहित्य, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ जैसी पारिवारिक पत्रिकाओं के ‘गौरवशाली दिनों में था।
उसी नेटवर्क के सहारे बहुत दिनों तक वेद प्रकाश शर्मा, सुरेन्द्र मोहन पाठक जैसे लेखकों की जासूसी-अपराध कथाओं की धारा खिंचती रही। अब इन नए तरह के मेलों-आयोजनों के माध्यम से थोड़ा-बहुत ही सही, पाठकों का एक मिला-जुला वृत्त तैयार हो रहा है। इंटरनेट के माध्यम से भी किताबों की बिक्री हर साल पहले से अधिक होती जा रही है।
शायद इसी परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए हिंदी के साहित्यिक प्रकाशक वाणी प्रकाशन ने पिछले विश्व पुस्तक मेले के दौरान बेस्टसेलर पुरस्कार देने की घोषणा की थी, लेकिन वह पुरस्कार अब तक शुरू नहीं हो पाया तो उसका एक कारण यह है कि आखिर किस तरह की पुस्तकों को बेस्टसेलर माना जाए - हिंदी में मौलिक रूप से लिखी गई किताबों को या अनुवाद के माध्यम से आने वाली किताबों को। साहित्यिक-असाहित्यिक भी एक मसला हो सकता है।
मसला चाहे जो हो, कुछ हिचक भी हो सकती है। हिंदी के एक ‘बड़े’ प्रकाशक ने पिछले साल वेद प्रकाश शर्मा के उपन्यासों को छापने की योजना बनाई, फिर शायद इस हिचक के कारण योजना को टाल दिया कि कहीं इससे उनकी गंभीर साहित्यिक होने की छवि न प्रभावित हो जाए।
कुछ चिंताएं हैं, कुछ सवाल हैं, एक उभरते हुए बड़े बाजार पर नजर है, बेस्टसेलर का कोई खाका भले न खड़ा हो पाया हो, हिंदी की दुनिया में उसकी गूंज सुनाई देने लगी है। दीवारों की लिखावट तो यही बताती लगती है।