Saturday 6 July 2013

हिंदी में क्यों नहीं होते बेस्टसेलर?


अभिषेक कश्यप

हिंदी शायद संसार की इकलौती ऐसी भाषा है जिसके परजीवी मलाई-रबड़ी पर पलते हैं और श्रमजीवी आर्थिक तंगी, अभाव, वंचना और अपमान का शिकार होते हैं। यह कड़वा सच है कि हिन्दी को जिन मनीषियों ने आधुनिक दृष्टि दी, नये मुहावरों, वाक्य-विन्यासों से लैस किया, अपने कृतित्व के जरिए जिन्होंने हिंदी को जनता की जुबान बना दी, उन्हें अपमानित, प्रताडि़त और विक्षिप्त होना पड़ा। उनमें से ज्यादातर मनीषियों को ताउम्र दो वक्त की रोटी की जद्दोजहज के बीच एक कठिन जिद के बूते अपनी रचनात्मक प्रतिभा को बचाए रखना पड़ा। एक ऐसी भाषा जिसमें साँस लेते हुए रघुवीर सहाय अपमानित हुए, मुक्तिबोध अभाव, वंचना और लंबी बीमारी से ग्रस्त होकर मरे, महाकवि निराला अर्द्ध-विक्षिप्त हुए और भुवनेश्वर ने मानसिक संतुलन खोकर भीख मांगते हुए दम तोड़ा। इसके उलट जो परजीवी हुए, प्रबंधन कुशल रहे वे हिन्दी की मलाई-रबड़ी खा-खाकर अघाते रहे।
हिंदी के परजीवी बनकर भ्रष्ट नेताओं, अफसरों, चमचों और मसखरों ने ताकत और सत्ता हासिल की। विश्वविद्यालय, सरकारी अकादमियां और सार्वजनिक उपक्रमों के हिंदी विभाग तो इन परजीवियों के सबसे सुरक्षित, सबसे आरामदेह शरणगाह रहे हैं। यहां मोटी तनख्वाह के साथ सेमिनारों, गोष्ठियों, कार्यशालाओं की मौज-मस्ती और विश्व हिंदी सम्मेलनों, विदेश यात्राओं का सुख भोगते हुए ये परजीवी हिंदी के उन श्रमजीवियों को हिकारत की नजर से देखते हैं जिनके लिए हिंदी और भाषा का संस्कार ही जीवन है। ये वे लोग हैं जो हिंदी भाषा और साहित्य के लिए घर फूँक तमाशा देखने में तनिक संकोच नहीं करते। जो अपनी मेहनत की कमाई से लघु पत्रिकाएँ निकालते हैं, कहानियाँ-कविताएँ लिखकर हिन्दी ही नहीं अहिंदी भाषी प्रदेशों के वाशिंदों को भी हिंदी भाषा और साहित्य से जुडऩे के लिए प्रेरित करते हैं। देशभर में ऐसी सैकड़ों प्रतिभाएं हैं जो छोटी-मोटी नौकरियां, धंधे यहां तक कि किसी बनिये के दुकान पर हजार-पन्द्रह सौ की बेगारी खटते हुए भी तमाम अभावों के बावजूद हिंदी के लिए वह कर रही हैं, विश्वविद्यालयों के मुफ्तखोर हिंदी प्राध्यापक, सरकारी अकादमियां और सार्वजनिक उपक्रमों के हिंदी विभाग जिसकी कल्पना तक नहीं कर सकते। खासकर विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग के प्राध्यापक कहे जाने वाले मसखरे तो प्रतिभाहीन नकलचियों को ‘फंटूशलाल जी की कविताओं में स्त्री-विमर्श’ सरीखे निरर्थक विषयों पर पीएचडी की डिग्री बाँटने में ही व्यस्त हैं। और सरकार ऐसे मसखरों और नकलची शोध छात्रों को तनख्वाह-वजीफे के साथ तरह-तरह की सुविधाएँ देकर धन्य होती है।
हमारे समय के अत्यंत महत्वपूर्ण कवि-कथाकार उदय प्रकाश ने अपनी भाषा-शृंखला की लंबी कविता ‘एक भाषा हुआ करती है’ में इस हौलनाक विडंबना को कुछ इस तरह अभिव्यक्त किया है-
‘एक भाषा है जिसे बोलते वैज्ञानिक और समाजविद और तीसरे दर्जे के जोकर
और हमारे समय की सम्मानित वेश्याएँ और क्रांतिकारी सब शर्माते हैं
जिसके व्याकरण और हिज्जों की भयावह भूलें ही
कुलशील, वर्ग और नस्ल की श्रेष्ठता प्रमाणित करती हैं
बहुत अधिक बोली-लिखी, सुनी-पढ़ी जाती
गाती बजाती एक बहुत कमाऊ और बिकाऊ बड़ी भाषा
दुनिया के सबसे बदहाल और सबसे असाक्षर, सबसे गरीब और
सबसे खूंखार सबसे काहिल और सबसे थके-लुटे लोगों की भाषा
अस्सी करोड़ या नब्बे करोड़ या एक अरब भुक्खड़ों, नंगों और गरीब-लफंगों की जनसंख्या की भाषा
वह भाषा जिसे वक्त-जरूरत तस्कर, हत्यारे, नेता,
दलाल, अफसर, भंडुए, रंडियाँ और जुनूनी
नौजवान भी बोला करते हैं
वह भाषा जिसमें
लिखता हुआ हर ईमानदार कवि पागल हो जाता है
आत्मघात करती हैं प्रतिभाएँ
‘ईश्वर’ कहते ही आने लगती है जिसमें अक्सर बारूद की गंध
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एक हौलनाक विभाजक रेखा के नीचे जीनेवाले सत्तर करोड़ से ज्यादा लोगों के आंसू और पसीने और खून में लिथड़ी एक भाषा
पिछली सदी का चिथड़ा हो चुका डाकिया अभी भी जिसमें बाँटता है
सभ्यता के इतिहास की सबसे असभ्य और सबसे दर्दनाक चिट्ठियाँ
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भाषा जिसमें सिर्फ कूल्हे मटकाने और स्त्रियों को अपनी छाती हिलाने की छूट है
जिसमें दंडनीय है विज्ञान और अर्थशास्त्र और शासन-सत्ता से संबंधित विमर्श
प्रतिबंधित हैं जिसमें ज्ञान और सूचना की प्रणालियां वर्जित हैं विचार
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भाषा जिसमें उड़ते हैं वायुयानों में चापलूस
शाल ओढ़ते हैं मसखरे
चाकर टांगते हैं तमगे
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अपनी देह और आत्मा के घावों को और तो और अपने बच्चों और पत्नी तक से छुपाता
राजधानी में कोई कवि जिस भाषा के अंधकार में
दिनभर के अपमान और थोड़े से अचार के साथ
खाता है पिछले रोज की बची हुई रोटियां
और मृत्यु के बाद पारिश्रमिक भेजने वाले किसी
राष्ट्रीय अखबार या मुनाफाखोर प्रकाशक के लिए
तैयार करता है एक और नयी पांडुलिपि।’
मित्रो! इस कविता से गुजरने के बाद क्या आपको हिंदी के अज्ञात कुलशील मानस पुत्रों, हिंदी के श्रमजीवियों की असहनीय व्यथा पर दु:ख नहीं हो रहा? क्या आपको विश्वविद्यालयों, अकादमियों, सार्वजनिक उपक्रमों में मलाई काटते हिंदी के परजीवियों और अपने नितांत निजी स्वार्थों व अश्लील महत्वकांक्षाओं को पूरा करने के लिए हिंदी का इस्तेमाल करने वाले तस्करों, नेताओं, दलालों, चमचों, मसखरों और भंडुओं पर गुस्सा नहीं आ रहा?
कमलेश्वर जी की आकस्मिक मृत्यु के बाद उनके अभिन्न मित्र, यशस्वी कथाकार और ‘हंस’ के संपादक राजेन्द्र यादव ने मेरे सामने प्रस्ताव रखा कि मैं ‘हंस’ के लिए कमलेश्वर के बारे में उनकी बेटी मानू से एक साक्षात्कार लूँ। इसी इंटरव्यू के दौरान मानू ने वह किस्सा मुझे सुनाया जिसका जिक्र मैंने ऊपर किया। यह उन दिनों की बात है जब कमलेश्वर मुंबई में थे और हिंदी साहित्य की महत्वपूर्ण पत्रिका ‘सारिका’ के संपादक हुआ करते थे। मानू तब मुंबई के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में बी. ए. की छात्रा थी। वहाँ नियम था कि दाखिले का फार्म खुद अभिभावक को कॉलेज आकर लेना है। कमलेश्वर कॉलेज पहुँचे और दाखिले के फार्मवाली खिडक़ी पर कतार में अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हुए खड़े हो गये। तभी कॉलेज के हिंदी विभाग के एक प्राध्यापक की उन पर नजर पड़ी। वह कमलेश्वर जी को यह कहते हुए कतार से निकाल लाए कि फार्म हम मंगवा देते हैं।
कमलेश्वर कॉलेज से लौटे और मानू को इस बात के लिए राजी किया कि बी. ए. में वह समाजशास्त्र की बजाए हिंदी साहित्य की पढ़ाई करे। मानू ने बताया कि वहां हिंदी विभाग में तीन प्राध्यापक थे मगर शायद पिछले कई बरसों से हिंदी विभाग में दाखिला लेने कोई विद्यार्थी नहीं आया था। और संयोग देखिए, इस कमी को कोई और नहीं हिंदी के एक यशस्वी लेखक की बेटी ने पूरा किया।
मानू ने आगे बताया कि पूरे तीन साल वह कॉलेज की ‘वीवीआईपी छात्रा’ रही। पढऩेवाली वह अकेली पढ़ाने वाले तीन!
हम मोटे तौर पर आकलन करें, किसी महाविद्यालय या विश्वविद्यालय में नियमित रूप से कार्यरत तीन प्राध्यापकों के वेतन और अन्य भत्तों पर कितना खर्च आता होगा? डेढ़ लाख? दो लाख? या इससे अधिक? और यह सिर्फ उसी कॉलेज की त्रासदी नहीं। अगर जाँच की जाए तो देश भर में ऐसे सैकड़ों महाविद्यालय-विश्वविद्यालय हैं जहां हिंदी विभाग में या तो कोई विद्यार्थी नहीं या इक्का-दुक्का विद्यार्थी हैं। ये इक्का-दुक्का छात्र-छात्राएँ वे हैं जिन्हें हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य से कोई लेना-देना नहीं। कई उदाहरण मैंने ऐसे भी देखे हैं जहां किसी फिसड्डी विद्यार्थी को नंबर कम होने या दूसरी वजहों से किसी अन्य विषय में दाखिला नहीं मिल पाता और वे ‘मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी’ की तर्ज पर हिंदी विभाग की शरण में आते हैं। खैर, विद्यार्थी हो न हो, हिंदी भाषा और साहित्य का कुछ भला हों न हों, हिंदी विभाग को तो रहना ही है। सरकार को राष्ट्रभाषा हिंदी पर अरबों रुपये जो खर्च करने हैं। चौंकिए मत, यह सरकार के ‘अजब हिंदी प्रेम की गजब कहानी’ है।
विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों के साथ-साथ सार्वजनिक उपक्रमों के राजभाषा विभागों का भी यही आलम है। सितबंर महीने में ‘हिंदी पखवारा’ के 15 दिन गुजर जाने के बाद बाकी साल भर वे क्या करते हैं, यह शोध का विषय है।
कई साल पहले एक परियोजना के तहत मुझे सार्वजनिक उपक्रम के राजभाषा विभाग के एक हिंदी अधिकारी के साथ उनके कार्यालय में पूरा हफ्ता गुजारना पड़ा। 50 हजार रुपये का मासिक वेतन पानेवाले उन अधिकारी महोदय ने हफ्ते भर में सिर्फ एक छोटा-सा अनुवाद कार्य किया।
उस अनुवाद कार्य की बानगी देखिए। एक चपरासी उनके पास आया। बोला-‘डायरेक्टर साहब ‘सेलरी पेड हॉलिडे’ की हिंदी पूछ रहे हैं। इस कागज पर लिख दीजिए।’ उन्होंने थोड़ी देर सोचने के बाद लिखा- ‘सवेतन छुट्टी।’
50 हजार मासिक वेतन के हफ्ते भर का हिसाब होगा- साढ़े बारह हजार रुपए। दो शब्दों के अनुवाद की कीमत! जबकि एक पेशेवर अनुवादक को दो शब्दों के अनुवाद के लिए 20 पैसे प्रति शब्द के हिसाब से 40 पैसे और अधिकतम 5 रुपये प्रति शब्द के हिसाब से 10 रुपये मिलते हैं। 40 पैसे बनाम साढ़े बारह हजार रुपये।
मित्रो! यह 40 पैसा हिंदी के श्रमजीवियों की कीमत है और परजीवियों की कीमत 12500 रुपये। श्रम और बेईमानी के बीच का यह लंबा-चौड़ा फर्क क्या कभी कम होगा?
खैर, जो भी हो, सरकार के इस हिंदी प्रेम की नजर उतारनी चाहिए ताकि हिंदी के परजीवी ताउम्र ‘सवेतन छुट्टी’ का आनंद लेते हुए दिन-दूनी रात चौगुनी तरक्की करते रहें। आमीन!
हिंदी साहित्य के संवर्द्धन और विकास के लिए बनी संस्थाओं और अकादमियों के भाईचारा और संपर्क कौशल की मिशाल कहीं ढूंढ़े नहीं मिलेगी। इसमें भी अगर संस्था या अकादमी सरकारी हुई तो माशाअल्ला! सरकारी होने की वजह से इन संस्थाओं और अकादमियों के कुर्ताछाप रघुपतिये सचिवों-उपसचिवों की आस्था साहित्य, विचार और सृजनात्मक गतिविधियों में कम लोकतंत्र में ज्यादा होती है। और भइया, लोकतंत्र का तकाजा है कि आप भाईचारा को बढ़ावा दें और अपने संपर्क-कौशल को धार देते रहें। और इस पवित्र-पावन भाईचारावाद की वजह से अगर साहित्य जाता है तो जाए तेल लेने! अपने को क्या?
सचिव-उपसचिव के पद को सुशोभित करने वाले इन कुर्ताछाप रघुपतियों का लोकतांत्रिक भाईचारावाद मित्रों, लाभ पहुंचाने वाले परिचितों और सुंदर स्त्रियों (कंवारी हो तो क्या कहने!) से शुरू होता है। औरत हो, युवा और सुंदर हो तो इस भाईचारावाद में वह पहले नंबर पर आएगी। ‘वो कहते हैं ना, लेडिज फ्रस्ट! हो-हो-हो।’
‘अरे काहे का साहित्य और काहे की प्रतिभा! आप तो इतनी सुंदर हो कि कुछ भी लिख दो तो कविता हो जाएगी।....... फिर हम जनता के पैसों से चल रही अपनी अकादमी में आपको कविता-पाठ(?) के लिए आमंत्रित कर लेंगे। आप कवयित्री होने का गौरव भी पा जाएंगी और कविता-पाठ के बाद हम आपको मानदेय के तौर पर रुपयों वाला लिफाफा भी पकड़ाएंगे! हो-हो-हो!’
बीते ३० नवंबर को साहित्य अकादमी की वार्षिक पुस्तक प्रदर्शनी के दौरान आयोजित साहित्य-उत्सव के दूसरी गोष्ठी इसी भाईचारावाद का नमूना थी। आमंत्रित रचनाकारों में एक नवोदित कवयित्री भी थी, जिसके साहित्य में अभी दूध के दांत भी नहीं टूट्रे। उसकी कविताएं अभी इक्का-दुक्का पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं और हिंदी कविता के परिदृश्य में अभी उसकी कोई उल्लेखनीय पहचान नहीं। मगर शायद यहां इसी लोकतांत्रिक भाईचारावाद का असर था कि उसे कविता-पाठ के लिए आमंत्रित कर लिया गया। जबकि हिंदी पट्टी से रोजी-रोटी की तलाश में दिल्ली आए प्रतिभाशाली नवोदित कवियों-कथाकारों की कोई कमी नहीं, जिन्हें कविता और कहानी-पाठ के लिए आमंत्रित कर साहित्य अकादमी भी धन्य होती। इनमें से कई ऐसे भी हैं जिन्हें आर्थिक सहयोग की भी दरकार है। मगर इन पर कुर्ताछाप रघुपतियों की नजर तब पड़ती है जब वे अपना भाईचारावाद निपटा चुक होते हैं।
ऐसे में अब समय आ गया है कि जनता के पैसे से चलने वाले इन संस्थाओं और अकादमियों को लेखकों, पाठकों और श्रोताओं के प्रति जवाबदेह बनाने की मुहिम शुरू की जाए। यह भी तय होना चाहिए कि इन अकादमियों का कामकाज, इनके आयोजन पारदर्शी हों और इनके फैसलों में युवा और नवोदित लेखकों-कवियों की भागीदारी सुनिश्चित हो। वरना हम इन अकादमियों और संस्थाओं के इसी तरह के भाईचारावाद को देखने और भोगने को अभिशप्त होंगे।
अनूदित कई बेस्टसेलर पढ़े। इनमें से ज्यादातर सेल्फ-हेल्प पुस्तकें थीं, जिन्हें भोपाल के मंजूल पब्लिशिंग हाउस ने प्रकाशित किया है। पहली बार साल २००३ में मैंने नेपोलियन हिल की ‘थिंक एंड ग्रो रिच’ (हिंदी अनुवाद: सोचिए और अमीर बनिए) पढ़ी और तभी से मुझे ऐसी किताबों का चस्का लग गया। कुछ वैचारिक असहमतियों के बावजूद इनमें से ज्यादातर किताबों ने आइडिया, सहज भाषा-शैली और पाठकों को मुरीद बनाने के अपने कौशल की वजह से मुझे बार-बार अपनी ओर आकर्र्षित किया। पुस्तक प्रकाशन के क्षेत्र में अपने विलक्षण योगदान के लिए जाने जानेवाले अरविंद कुमार ने भी कुछ साल पहले अपना प्रकाशन शुरू किया है-‘अरविंद कुमार पब्लिशर्स।’ इस प्रकाशन के जरिए वे नए-नए विषयों की बेहद सुंदर, उपयोगी और पठनीय पुस्तकें किफायती दाम पर पाठकों को उपलब्ध करा रहे हैं। मगर अफसोस कि मंजूल, अरविंद कुमार पब्लिशर्स और ऐसे ऊंगलियों पर गिने जा सकने वाले चंद प्रकाशक पेशेगत विश्वसनीयता को बरकरार रखते हुए हिंदी में लीक से हटकर जो किताबें छाप रहे हैं, वह सब अंग्रेजी भाषा की बेस्टसेलर हैं। हिंदी में आकर्षक साज-सज्जा के साथ प्रकाशित इन किताबों के आवरण पर खासतौर से यह सूचना दर्ज होती है कि दुनिया भर में इस खास पुस्तक की कई लाख प्रतियां बिक चुकी हैं और यूरोप व अमेरिका के अखबारों ने इसकी प्रशंसा में ये शब्द कहे हैं। कवर पर दी गई ऐसी सूचनाएं किताब के प्रति पाठकों में उत्सूकता जगाती हैं और किताब की बिक्री का सकारात्मक माहौल तैयार करती हैं।
सवाल यह उठता है कि ऐसी किताबें हिंदी में क्यों नहीं लिखी जातीं जबकि इन किताबों का हिंदी में एक बड़ा पाठक वर्ग मौजूद है। यकीन न हो तो अंग्रेजी के बेस्ट सेलर्स के हिंदी संस्करण छापने वाले प्रकाशकों के आंकड़ों पर गौर करें। मंजूल पब्लिशिंग हाउस किसी भी पुस्तक के १० हजार से कम के संस्करण नहीं छापता। और इनमें से कई पुस्तकों के वह साल भर में कई संस्करण छाप कर बेच लेता है। कुछ साल पहले मंजूल ने जे.के. राउलिंग की हैरी पॉटर सीरीज की पुस्तक ‘हैरी पॉटर : एन आर्डर ऑफ फीनिक्स’ की हिंदी में एक लाख प्रतियां छापी जो महीने भर में बिक गई। इसके बरक्स कहानियां-कविताएं छापनेवाले हिंदी के परंपरागत प्रकाशकों के प्रकाशन के आंकड़ों पर गौर करें तो मन खिन्न हो जाएगा। हिंदी साहित्य के परंपरागत प्रकाशकों का सरकारी खरीद और पुस्तकालयों के प्रति प्रेम जगजाहिर है। और हमारे लेखकों-बुद्धिजीवियों का तो कहना ही क्या! वे तो जैसे-तैसे किताब छप जाए उसी में खुद को धन्य मानते हैं। प्रकाशक पर पेशेगत विश्वसनीयता के लिए दबाव बनाना तो दूर, ज्यादातर लेखक तो अपनी रॉयल्टी मांगने में भी संकोच करते हैं। शायद इसलिए हिंदी साहित्य का बड़ा-से-बड़ा प्रकाशक पहला संस्करण 500 प्रतियों का छापता है और अधिकांश किताबों का तो पहला संस्करण ही नहीं बिक पाता कि दूसरे की नौबत आए। खैर, मैं फिर अपने बुनियादी सवाल पर आता हूँ- हिंदी में बेस्टसेलर की परंपरा क्यों नहीं है? इसकी कई वजहें खोजी जा सकती हैं मगर एक सीधी और साफ वजह यह समझ आती है कि हमारे लेखकों के पास नए विचारों का अभाव है या फिर सृजन से ऊपर वे प्रक्रिया के महत्व पर गौर नहीं करते। शायद इसलिए श्रमसाध्य लेखन की संस्कृति विकसित नहीं हो पायी, जहां नए विचार हों और जो पाठकों को लुभाए भी। (baithak.hindyugm.com से साभार)

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