Saturday 6 July 2013

अपनी हिन्दी में बेस्ट सेलर


प्रभात रंजन

हिन्दी साहित्य और प्रकाशन की दुनिया में लेखक और पाठक के रिश्ते को अंतिम रूप से खत्म मान लिया गया था। लेकिन फिर से किताब को पाठक से जोड़ने की कोशिशें दिख रही हैं। हिन्दी में बेस्टसेलर की खोज अनेक स्तरों पर शुरू हो गई है। हिंदी में ‘बेस्टसेलर’ की चर्चा एक बार फिर शुरू हो गई है। एक जमाना था, जब पत्रिकाओं में निरालाजी की कविताओं के नीचे चमत्कारी अंगूठी का विज्ञापन छपता था। राही मासूम रजा ‘जासूसी दुनिया’ के लिए जासूसी उपन्यास लिखा करते थे, पुस्तकों के एक ही सेट में गुलशन नंदा और रवीन्द्रनाथ टैगोर की किताबें मिलती थीं। तब ‘लोकप्रिय’ और ‘गंभीर’ साहित्य का विभाजन गहरा नहीं हुआ था। किताबें पाठकों से सीधा संवाद बनाती थीं। उन खोए हुए पाठकों की फिर से तलाश शुरू हो गई है। पहले अंग्रेजी में हुई, अब हिंदी में भी शुरू हो गई लगती है। कुछ साल पहले अंग्रेजी के एक अंतरराष्ट्रीय प्रकाशक रैंडम हाउस ने इब्ने सफी के एक उपन्यास का अंग्रेजी अनुवाद छापा। आजादी के बाद के आरंभिक दशकों में इंस्पेक्टर फरीद जैसे जासूसों के माध्यम से हत्या और डकैती की रहस्यमयी गुत्थियां सुलझाने वाले इस लेखक के ‘हाउस ऑफ फियर’ के नाम से प्रकाशित इस अनुवाद को अंग्रेजी के पाठकों ने इतना पसंद किया कि यह किताब अनेक पत्र-पत्रिकाओं की बेस्टसेलर सूची में आ गई।
मूलत: उर्दू में लिखने वाले और हिंदी में पढ़े जाने वाले इस लेखक की ओर अचानक हिंदी के प्रकाशकों का एक बार फिर ध्यान गया और जल्दी ही हार्पर कॉलिंस ने इनके उपन्यासों का उर्दू से हिंदी अनुवाद प्रकाशित किया। यह अलग बात है कि हिंदी में उनके उपन्यास इस तरह हाथोंहाथ नहीं लिए गए, लेकिन इससे इतना तो हुआ ही कि हिंदी में बेस्टसेलर की चर्चा शुरू हो गई।
इसी तरह बंगलौर के एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर ने हिंदी के जासूसी उपन्यास-लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक के उपन्यास ‘पैंसठ करोड़ की डकैती’ का अंग्रेजी अनुवाद किया। उसके प्रकाशन को भी एक बड़ी घटना की तरह देखा गया। अमेरिका की ‘टाइम’ मैगजीन में उस अनुवाद का जिक्र आया था। वहीं यह खबर भी आई थी कि हिंदी में उस उपन्यास की करीब ढाई करोड़ प्रतियां बिकी थीं। लगे हाथ यह भी बता दूं कि अपराध-कथाओं में लगभग क्लासिक का दर्जा पा चुके उपन्यास ‘वर्दी वाला गुंडा’ की अब तक करीब आठ करोड़ प्रतियां बिक चुकी हैं, जबकि हिंदी में इनके उपन्यास आज भी ‘सस्ता साहित्य’ का दर्जा रखते हैं और अधिकतर सड़क के किनारे पटरियों पर इनकी बिक्री होती है।
हालांकि यह भी अजब संयोग है कि जिन दिनों सुरेन्द्र मोहन पाठक, इब्ने सफी अंग्रेजी अनुवाद में धूम मचा रहे थे, हिंदी में उनका बाजार गिरता जा रहा था। मेरठ और दिल्ली के पास बुराड़ी की गलियों में फैले इनके प्रकाशक सिमटते जा रहे थे। तिलिस्मी-ऐयारी उपन्यासों की जमीन पर खड़ी हुई जासूसी-अपराध कथाओं की यह विधा पिटने लगी थी।
अब अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी में भी इनका नया पाठक-वर्ग तैयार हो रहा है। पेंगुइन की कमीशनिंग एडिटर वैशाली माथुर ने एक महत्वपूर्ण बात की ओर इशारा किया- ‘भारत में साठ प्रतिशत से अधिक आबादी 30 वर्ष से कम उम्र की है। एक बहुत बड़ा पाठक वर्ग बना है इस आयु-वर्ग में भी, जिसके पास खरीदने की क्षमता बढ़ी है, पढ़ने की भूख भी है, लेकिन ये पाठक मोटा-मोटा ‘हेवी’ साहित्य नहीं पढ़ना चाहते। ये सीधी-सरल भाषा में सीधी-सरल कहानियां पढ़ना चाहते हैं, कुछ आज के युवाओं के जीवन की तरह, जिसमें थोड़ी-बहुत चुनौतियां हों, चयन के अवसर हों, शानदार सफलताएं हों।
अकारण नहीं है कि चेतन भगत आज के युवाओं के ‘आइकन’ लेखक हैं। इस पाठक-वर्ग को अपने और करीब लाने के लिए ‘पेंगुइन’ ने अंग्रेजी में मेट्रो रीडर सिरीज शुरू की है। डेढ़ सौ रुपए की ये पुस्तकें महानगरों में, मेट्रो, बसों में दौड़ते-भागते युवाओं के लिए हैं।’ इस दौड़-भाग में अगर वे इन उपन्यासों को कहीं भूल भी गए तो कोई बात नहीं। फिर खरीद लेंगे, किसी मित्र से मांग लेंगे। यह नए पाठकों को साहित्य की ‘महानता’ से नहीं, उसकी ‘सामान्यता’ से जोड़ने का उद्यम है।
हिंदी में साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता लेखकों की कृतियों के साथ ही उर्दू शायरी को छापने वाले वाणी प्रकाशन के निदेशक अरुण माहेश्वरी इस विषय में कुछ अलग राय रखते हैं। उनका मानना है कि आज का पाठक चर्चित किताबों को पढ़ना चाहता है। तस्लीमा नसरीन के उपन्यास ‘लज्जा’ की पांच  लाख प्रतियां बिक चुकी हैं। नरेन्द्र कोहली के ‘महासमर’ की कीमत तीन हजार होने के बावजूद पाठक उसे खूब खरीदते हैं, वे भी बेस्टसेलर हैं। असली बात यह है कि आप पाठकों के सामने पुस्तक को प्रस्तुत किस तरह से करते हैं।
बहरहाल, अंग्रेजी के इन लोकप्रिय उपन्यासों की सबसे बड़ी खासियत उनकी कम कीमत है। इस साल हिंदी में भी इस प्रयोग की शुरुआत हो गई है। पिछले सालों में अंग्रेजी के एक उपन्यास ‘आई टू हैड ए लव स्टोरी’ ने बिक्री और सफलता के नए प्रतिमान बनाये। दो सॉफ्टवेयर इंजीनियर युगल के शादी डॉटकॉम के माध्यम से मिलने और बिछड़ने की इस कहानी की अंग्रेजी में दस लाख प्रतियां बिकीं। हाल में ही इसका हिंदी अनुवाद पेंगुइन ने छापा है। इसकी कीमत महज 99 रुपए है। ‘सस्ता साहित्य’ अब कॉरपोरेट हो रहा है। प्रकाशक को यह उम्मीद है कि साल भर में इसकी 10 हजार प्रतियां बिक जाएंगी।
अमीश त्रिपाठी के अंग्रेजी उपन्यास ‘इम्मोर्टल्स ऑफ मेलुहा’ का हिंदी अनुवाद ‘मेलुहा के मृत्युंजय’ भी बिक रहा है। यह और बात है कि वी.एस. नायपॉल के क्लासिक उपन्यास ‘ए हाउस फॉर मिस्टर बिस्वास’ का हिंदी अनुवाद भी इसी साल प्रकाशित हुआ, उसकी कोई चर्चा नहीं हुई। नाइजीरियाई लेखक चिनुआ अचेबे की महान कृति ‘थिंग्स फॉल अपार्ट’ भी अचर्चित रहा, जबकि उसका कथा-परिदृश्य भी भारतीय परिस्थितियों से मेल खाता है।
हिंदी में भी बेस्टसेलर का जो परिदृश्य बन रहा है, उसमें जासूसी-अपराध कथाओं की जमीन खिसक चुकी है। ‘फील गुड’ के इस दौर में किताबों का एक ऐसा संसार खड़ा हो रहा है, जिसमें अनुवाद के माध्यम से चेतन भगत के उपन्यास भी आ रहे हैं और स्टीव जॉब्स की जीवनी अंग्रेजी में प्रकाशित होने के महज एक महीने के अंदर हिंदी में उपलब्ध हो रही है। मणिशंकर मुखर्जी की पुस्तक ‘विवेकानंद की आत्मकथा’ के अनुवाद की चौंकाने वाली बिक्री हो रही है।
प्रसिद्ध जासूसी उपन्याकार वेद प्रकाश शर्मा का शगुन प्रकाशन प्रेमचंद की कहानियां छाप रहा है, हिटलर की जीवनी भी छाप रहा है। ‘नए’ पाठक सब खरीद-पढ़ रहे हैं। बेस्टसेलर का दायरा हिंदी में भी विस्तृत हो रहा है। यह अच्छी बात ही है कि उसका कोई ट्रेंड अभी बनता नहीं दिख रहा है, कोई एक ‘हिट’ फॉमरूला बनता नहीं दिख रहा है।
प्रकाशक भी सरकारी पुस्तकालयों के अलावा पाठकों तक सीधे पहुंचने की कोशिश करते दिखाई देते हैं। पुस्तक मेलों का आयोजन पहले से बढ़ा है, साहित्यिक आयोजनों में प्रकाशक भी पहले से अधिक जुटने लगे हैं। हाल में ही जब इंडिया हैबिटैट सेंटर ने भारतीय भाषा के पहले साहित्यिक आयोजन ‘समन्वय’ की शुरुआत की तो वहां हिंदी के कई प्रसिद्ध प्रकाशकों ने अपना स्टॉल लगाया था। हिंदी में पुस्तक बिक्री का वह नेटवर्क धीरे-धीरे क्षीण हो गया, जो लोकप्रिय साहित्य, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ जैसी पारिवारिक पत्रिकाओं के ‘गौरवशाली दिनों में था।
उसी नेटवर्क के सहारे बहुत दिनों तक वेद प्रकाश शर्मा, सुरेन्द्र मोहन पाठक जैसे लेखकों की जासूसी-अपराध कथाओं की धारा खिंचती रही। अब इन नए तरह के मेलों-आयोजनों के माध्यम से थोड़ा-बहुत ही सही, पाठकों का एक मिला-जुला वृत्त तैयार हो रहा है। इंटरनेट के माध्यम से भी किताबों की बिक्री हर साल पहले से अधिक होती जा रही है।
शायद इसी परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए हिंदी के साहित्यिक प्रकाशक वाणी प्रकाशन ने पिछले विश्व पुस्तक मेले के दौरान बेस्टसेलर पुरस्कार देने की घोषणा की थी, लेकिन वह पुरस्कार अब तक शुरू नहीं हो पाया तो उसका एक कारण यह है कि आखिर किस तरह की पुस्तकों को बेस्टसेलर माना जाए - हिंदी में मौलिक रूप से लिखी गई किताबों को या अनुवाद के माध्यम से आने वाली किताबों को। साहित्यिक-असाहित्यिक भी एक मसला हो सकता है।
मसला चाहे जो हो, कुछ हिचक भी हो सकती है। हिंदी के एक ‘बड़े’ प्रकाशक ने पिछले साल वेद प्रकाश शर्मा के उपन्यासों को छापने की योजना बनाई, फिर शायद इस हिचक के कारण योजना को टाल दिया कि कहीं इससे उनकी गंभीर साहित्यिक होने की छवि न प्रभावित हो जाए।
कुछ चिंताएं हैं, कुछ सवाल हैं, एक उभरते हुए बड़े बाजार पर नजर है, बेस्टसेलर का कोई खाका भले न खड़ा हो पाया हो, हिंदी की दुनिया में उसकी गूंज सुनाई देने लगी है। दीवारों की लिखावट तो यही बताती लगती है।

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