Saturday 6 July 2013

लोक साहित्य के रंग


फ़ज़ल इमाम मल्लिक

छत्तीसगढ़ अपनी सांस्कृतिक विशेषता के लिए भी जाना-पहचाना जाता रहा है। न सिर्फ़ यह की अपनी बोलचाल में बल्कि समृद्ध विरासत, साहित्य और परंपरा की वजह से भी छत्तीसगढ़ को कई अर्थों में महत्त्वपूर्ण कह सकते हैं। कभी मध्यप्रदेश का हिस्सा रहे छत्तीसगढ़ को लेकर यह बात भी कही जाती है कि साहित्य, कला और संस्कृति को लेकर यह क्षेत्र बहुत सजग भी रहा है। दक्षिण कोशल के नाम से जाना जाने वाले इस क्षेत्र की साहित्यिक संपदा और विरासत की जितनी चर्चा होनी चाहिए थी नहीं हो पाई है। साहित्यिक परिदृश्य पर भी इस क्षेत्र की अपनी कोई बिलग पहचान नहीं बन पाई है तो इसकी वजह साहित्यिक ख़ेमेबंदी ही कही जा सकती है। साहित्यिक केंद्र नहीं बन पाने के कारण छत्तीसगढ़ साहित्य में हाशिए पर ही रहा था। यह बात दीगर है कि पिछले कुछ सालों से छत्तीसगढ़ साहित्य के नए केंद्र के तौर पर उभरा है और प्रमोद वर्मा संस्थान ने राष्ट्रीय स्तर के कई आयोजन कर इस क्षेत्र की अलग पहचान बनाई है। ज़ाहिर है कि इससे छत्तीसगढ़ के साहित्य और साहित्यकारों को एक विशाल और खुली-खुली दुनिया में सांस लेने का मौक़े मिलेंगे।

लेकिन इस दुनिया में विचरने के लिए ज़रूरी है कि हमें अपने क्षेत्र की संस्कृति, बोलचाल, कथा-कहानियां, मुहावरे-सूक्तियों को जानना-समझना भी ज़रूरी है। डॉ. दयानंद शुक्ल की पुस्तक ‘छत्तीसगढ़ी लोकसाहित्य का अध्ययन’ के ज़रिए इसे बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। इस पुस्तक का दूसरा संस्करण हाल ही में प्रकाशित हुआ है। उनकी यह किताब की ख़ूब चर्चा हुई थी और इसे छत्तीसगढ़ी लोकसाहित्य का सबसे प्रमाणिक ग्रंथ माना गया है। क़रीब साढ़े तीन सौ पन्नो में फैले इस पुस्तक में छत्तीसगढ़ के लोकसाहित्य पर विस्तार से तो चर्चा की ही गई है, लोक कहावतों और मुहावरों को लेकर भी जानकारी दी गई है।

पुस्तक को यह बात और प्रामाणिक बनाता है। इस पुस्तक में लोकसाहित्य की समीक्षा तो की ही गई है, छत्तीसगढ़ का इतिहास, छत्तीसगढ़ी भाषा, समाजिक और सांस्कृति हालात, खानपान, रहन-सहन, धार्मिक मान्यताएं और राष्ट्रीय जागृति की भी विस्तार से चर्चा की गई है। डॉ. दयानंद शुक्ल ने पुस्तक पर काफी मेहनत की है। वे जानते थे कि लोक साहित्य का जन्म कहां से होता है। उन्होंने इन बातों का खास ध्यान रखा है और यही वजह है कि किताब में लोक गाथाएं, खेल गीत, लोकगीत, पहेलियों का जिक्र बेहद सलीक़े से किया गया है और उनकी पड़ताल भी ढंग से की गई है।

पुस्तक में छत्तीसगढ़ के पुराने कवियों की प्रतिनिधि रचनाओं पर टिप्पणी भी की गई है। ज़ाहिर है कि युवा पीढ़ी को इनमें से बहुतों की जानकारी नहीं होगी। लाला जगदलपुरी, डॉ. विमल कुमार पाठक, वंशीधर पांडेय, श्यामलाल चतुर्वेदी, डॉ. देवीप्रसाद वर्मा, शिवशंकर शुक्ल और दानेश्वर वर्मा सरीखे कवियों की कविताओं पर उन्होंने बेहतर ढंग से चर्चा की है। इन कवियों को जानना-समझना दरअसल अपनी परंपरा और विरासत को भी जानना-समझना है। आज जब साहित्य का संसार झीजता जा रहा है और अपनी विरासत और परंपरा को जानने की ललक ख़त्म होती जा रही तो दयानंद शुक्ल की यह पुस्तक हमें अपने इतिहास से भी जोड़ती है और विरासत की याद भी दिलाती है। प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान ने इसे फिर से प्रकाशित कर बड़ा काम किया है। इसके लिए यक़ीनन विश्वरंजन और जयप्रकाश मानस को बधाई दी जानी चाहिए, क्योंकि साहित्य की ख़ेमेबंदियों के बीच इस तरह की किताबों को प्रकाशित करने का साहस न तो बड़ा प्रकाशक जुटा पाता है और न ही कोई संस्था।

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