Saturday 6 July 2013

कथाकार और पत्रकार हरीशचंद्र बर्णवाल की किताबें


हरीश चंद्र बर्णवाल  का कहानी संग्रह ‘सच कहता हूँ’ वाणी प्रकाशन से से प्रकाशित हुआ है । ‘टेलीविज़न की भाषा’ किताब हिन्दी की बेस्टसेलर में शुमार है। उनका मानना है कि मीडिया में रहते हुए किसी दूसरे काम के लिए समय निकाल पाना बेहद मुश्किल है। इसमें कोई दो मत नहीं कि मीडिया खासकर टेलीविजन मीडिया में वक्त की सबसे ज्यादा किलल्त रहती है, क्योंकि न सिर्फ आपको खबरों से अपडेट रहना पड़ता है, बल्कि न्यूज चैनलों को भी लगातार देखते रहना जरूरी है। बाकी वक्त में आपको कई अखबार भी पढ़ने पड़ते हैं। लेकिन कहते हैं न कि जहां चाह वहीं राह। अगर आपके अंदर जुनून हो तो रास्ते अपने आप बनने लगते हैं। वक्त को छीनना पड़ता है, चुराना पड़ता है। हां, इसमें ऑफिस के वक्त से तो समझौता हो नहीं सकता, तो आप समझ लीजिए कि अपने पारिवारिक जिंदगी को मैंने इन किताबों को समर्पित कर दिया। एक सच बात तो ये है कि मैं अपनी दूसरी किताब “टेलीविजन की भाषा” में इतना उलझा रहा कि अपनी पत्नी औऱ तीन साल के बच्चे को चार महीने में चार घंटे का भी वक्त सही से नहीं दे पाया। यही हाल अपनी कहानी की किताब “सच कहता हूं” के लिए भी है। हालांकि मैं आपको अपनी लेखनी के बारे में ईमानदारी से बताऊं तो मैंने कभी भी किसी किताब को लिखने के लिए नहीं लिखा। बल्कि वक्त के साथ ये किताब अपने आप लिखाती चली गईं। मसलन टेलीविजन की भाषा किताब के बारे में बताऊं तो जब से मैंने न्यूज चैनल ज्वाइन किया, तब से भाषा को लेकर लगातार डायरी लिखता चला गया। जो कुछ सीखता रहता, वो अपनी डायरी में नोट कर लेता। कई साल के बाद जब डायरी पर नजर पड़ी तो वो किताब की शक्ल में नजर आई। हालांकि बाद में प्रोफेसर और दूसरे प्रोफेशनल लोगों की राय पर काफी रिसर्च वर्क भी करना पड़ा। ताकि ये किताब टेक्स्ट बुक की शक्ल में सामने आ पाए। यही हाल दूसरी किताबों का भी है, सालों तक जो कुछ लिखता रहा, वही चीजें किताब बन गईं।
मेरे कहानी संग्रह में एक बात जरूर मिलेगी। चाहे कहानियां हों या फिर लघुकथाएं हर किसी में समाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दे जरूर मिलेंगे। मेरी कहानियों में फेंटेसी नहीं मिलेगी। कल्पना का सहारा जरूर लिया है, लेकिन कहानियां काल्पनिक दुनिया की नहीं हैं। बल्कि पढ़ते समय ये जरूर लगेगा कि ये कहानियां अपनी जिंदगी के आसपास की हैं। मेरी पहली कहानी है “यही मुंबई है” – मैं 1995 में पहली बार दिल्ली आया था। एक छोटे शहर से इतने बड़े शहर तक आना मेरे लिए एक बड़ी बात थी। मैं बहुत उत्साहित था, मैं दिल्ली को बहुत अच्छे से महसूस करना चाह रहा था, जब दिल्ली पहुंचा तो मेरा उत्साह चरम पर था। इसी दौरान मेरी नजर एक अंधे बच्चे पर पड़ी, मुझे ऐसा लगा कि वो भी मेरी तरह पहली बार दिल्ली आया है। फिर मेरा ध्यान इस बात पर गया कि आखिर वो क्या महसूस करता होगा। वो कैसे दिल्ली को समझता होगा। ऐसी क्या बात होगी कि वो एक छोटे शहर और दिल्ली जैसे शहर में फर्क महसूस कर पाता होगा। इसके बाद मैंने अंधे बच्चों की जिंदगी को समझना शुरू किया। दिल्ली यूनिवर्सिटी के नॉर्थ कैंपस के पास बने अंधे बच्चों के स्कूल के करीब मैंने इन बच्चों की जिंदगी और हाव भाव को पकड़ना शुरू किया। करीब 8 सालों की मेहनत के बाद जब कहानी लिखने के लिए मैं तैयार हुआ उस समय मैं मुंबई में स्टार न्यूज में नौकरी कर रहा था तो मैंने “यही मुंबई है” कहानी लिखी। इसी तरह से अगर में अपनी कहानी “तैंतीस करोड़ लुटेरे देवता” की बात करूं तो मैं एक बार जम्मू के रघुनाथ मंदिर गया था। हिंदू धर्म की मान्यता के मुताबिक यही वो मंदिर है जहां एक साथ तैंतीस करोड़ देवी-देवता रहते हैं। मैं जब ये मंदिर घूमने के लिए गया तो यहां बहुत ही बुरा अनुभव हुआ। पंडितों का बर्ताव इतना बुरा लगा कि पूछिए मत। इस तरह से पैसे झीटने में लगे थे कि मुझे सारे देवता ही लुटेरे नजर आने लगे।
मेरा मानना है कि किसी भी कहानी को लिखने के लिए कोई खास उद्देश्य तो होगा ही। सवाल ये है कि आखिर कोई भी इंसान किसी भी हाल में क्यों अपने दिल की बात सामने रखना चाहेगा। आखिर कुछ तो विजन होगा। बस यहीं से सारे सवालों के जवाब मिल जाएंगे। पाठक तो बहुत कुछ चाहता है, लेकिन उसके हिसाब से लिखने लगें तो नई चीजें सामने कैसे आएंगी...  यही नहीं अगर सर्वे कर लें तो हो सकता है कि पाठक रोचकता की जगह अश्लीलता पसंद करने लगें, तो क्या कहानियों में अश्लीलता परोसने लगेंगे। अगर इसे टीवी न्यूज में टीआरपी से जोड़ दें तो असलियत समझ में आएगी। मेरा तो यही मानना है कि मैं कतई लोगों की रूचि के हिसाब से नहीं लिखना चाहता। लेकिन इसका मतलब ये भी नहीं कि मेरी कहानियों में रोचकता नहीं है या फिर रस का अभाव है। बल्कि अगर मेरी कहानियों को पढ़ें तो न सिर्फ रोचकता का अनुभव होगा, बल्कि उत्सुकता भी जगेगी। दरअसल ये सब कुछ लिखने के तरीके पर भी निर्भर करता है कि किसी भी मुद्दे पर कल्पना का कितना और कैसे सहारा लेते हैं।
उनकी कहानियों की किताब में प्रकाशित कई बेहतरीन कहानियां उस समय की हैं जब टीवी न्यूज से नहीं जुडा था। इसका मतलब है कि उस समय भी ऐसे नजरिए मेरे जहन में थे, जो सामान्य नहीं थे। हां ये बात सच है कि मीडिया में रहने से सामाजिक मुद्दे को देखने का एक अलग नजरिया मिला, लेकिन किसी भी प्रोफेशन और उम्र में देखना का विशिष्ट नजरिया हो सकता है। मेरी कई कहानियां बच्चों को ध्यान में रखकर लिखी गई हैं। इसके अलावा महिलाओं को फोकस करके भी कई कहानियां लिखी हैं.... इन सबको लिखने के लिए एक खास नजरिए की जरूरत पड़ती है। मीडिया में रहने के हिसाब से जो नजरिया डेवलप हुआ है, उसे अगर देखना हो आप मेरी लघुकथाओं को पढ़ सकते हैं, जो खास तौर पर टेलीविजन न्यूज की जिंदगी से जुड़ी है। इसमें आपको टेलीविजन पत्रकारों की संवेदनहीनता, खत्म होती इंसानियत, यथार्थवाद के नाम परोसी जाने वाली चीजें और टीआरपी को लेकर मजाक बनती खबरें विस्तारपूर्वक समझ सकते हैं। इन कहानियों को पढ़ने के बाद टेलीविजन न्यूज की जिंदगी को बहुत ही आसानी से समझ सकते हैं। मेरी इस किताब के विमोचन के दौरान मशहूर लेखिका मेत्रैयी पुष्पा ने एक बात कही थी कि “जिंदगी को देखने का एक खास नजरिया हो सकता है... ये हरीश की कहानियों से सीखने को मिला... इनकी कहानियों में रंग को ही अलग तरीके से परिभाषित कर दिया गया है... अंधे बच्चे हों या बलात्कार को लेकर एक बच्चे का नजरिया... इसे लेकर हरीश ने एक नया तरीका इजाद किया है, इन कहानियों से हम सबको भी बहुत कुछ सीखने को मिला है” कुल मिलाकर मैं ये कहना चाहता हूं कि किसी भी घटना या शख्सियत को देखने का एक खास नजरिया हो सकता है। इन कहानियों में टीवी न्यूज में रहने का फायदा तो मिला है... लेकिन पूरा उसका असर नहीं है।
मुझे अपनी दो कहानियां यही मुंबई है और चौथा कंधा बेहद पसंद है। एक बार में अपने घर आसनसोल से मुंबई का सफर कर रहा था। तभी बीच रास्ते में एक गांव के पास (नाम याद नहीं है) मेरी ट्रेन काफी देर तक रुकी रही। कुछ देर बाद पास के गांव से लोग जमा होने लगे। हलचल बढ़ती देख मैं नीचे उतरा तो पता चला कि ट्रेन से कटकर एक गाय की मौत हो चुकी है। इसी वजह से गांववाले हंगामा काट रहे हैं। इसके बाद 2-3 घंटे तक ट्रेन रुकी रही औऱ फिर काफी कुछ कागजी कार्रवाई होने के बाद ट्रेन वहां से चली। इस दौरान में लोगों की मानसिकता का पढ़ने की कोशिश कर रहा था। संयोगवश उसी ट्रेन से कटकर दो शख्स की मौत हो गई। इसके बाद भी ट्रेन कुछ मिनटों के लिए घटनास्थल पर रुकी औऱ फिर चल पड़ी। इस दौरान जो लोगों की मानसिकता थी... दोनों का मैंने बहुत अच्छे से अध्ययन किया और जो कुछ वहां पर पाया, उसने मेरे दिलो दिमाग को कचोटकर रख दिया था। इसी के बाद मैंने “चौथा कंधा” कहानी लिखी। कहानी का सार ये है कि इंसान की कीमत गाय से कम है। ये भी दिखाने की कोशिश की कि कैसे इंसानियत मरती जा रही है। इस कहानी को लेकर मशहूर आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने बहुत ही अच्छी समीक्षा की है। “चौथा कंधा” कहानी में मीडिया की किसी भी भूमिका की कोई चर्चा नहीं की गई है।
“यही मुंबई है” कहानी में मुंबई की जिंदगी के बारे में विस्तारपूर्वक चर्चा की गई है। मुंबई की छोटी सी छोटी बातों को भी विस्तार से समझाने की कोशिश की है। लेकिन इसका थीम सिर्फ और सिर्फ अंधे बच्चों की मानसिकता को समझना है। अंधे बच्चों की जिंदगी को, उसकी मानसिकता को, उसके अहसास को सामने लाना है। “यही मुंबई है” कहानी में अंधे बच्चों के जरिये मैंने मुंबई की महानगरीय त्रासदी को भी सामने लाने की कोशिश की है। लेकिन इस कहानी की खूबसूरती अंधे बच्चों के बालपन को पकड़ना है। इस कहानी के पीछे कम से कम 8 सालों की मेहनत छिपी है... इसके अलावा मैंने अंधे बच्चों के बीच में जाकर काफी कुछ रिसर्च का काम भी किया है। इसलिए ये कहानी बहुत ही अच्छी लगेगी। कहानी को लेकर मशहूर लेखक राजेंद्र यादव ने काफी अच्छी टिप्पणी की है, उन्होंने कहा कि कहानी को पढ़ते समय किसी पिक्चर के चलने का अहसास होता है, घटनाएं सामने घटित होती हुई नजर आती हैं।
“काश मेरे साथ भी बलात्कार होता”, कहानी संग्रह में मीडिया पर आधारित कई लघुकथाएं शामिल हैं। मसलन “कब मरेंगे पोप”, “आखिरी चेहरा”, “तीन गलती”। इन कहानियों में टेलीविजन न्यूज चैनलों की जिंदगी और उससे जुड़े पहलुओं को कहानी के माध्यम से समेटने की कोशिश की है। इस कहानी का मीडिया से कोई लेना देना नहीं है। बल्कि ये मेरी जिंदगी की शुरुआती कहानियों में से एक है। उस समय मेरा मीडिया से कोई लेना देना भी नहीं था। ये कहानी भावनाओं से जुड़ी हुई कहानी है। ये कहानी बलात्कार को देखने का एक नया नजरिया है। ये मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि जिस समय मैंने ये कहानी लिखी, उस समय मैं ग्रेजुएशन ही कर रहा था। उस दौरान बाल बलात्कार की कई घटनाएं अखबारों में पढ़ने को मिलती थीं। उन घटनाओं को पढ़ने के बाद मेरे मन में वितृष्णा पैदा हो जाती थी। मैं बार-बार इस सोच में पड़ जाता था कि आखिर ऐसी घटनाएं समाज में कैसे घट जाती हैं। आखिर कोई इंसान इतना बड़ा हैवान कैसे हो सकता है कि वो बच्चों के साथ दुराचार करने लगे। लेकिन सवाल ये है कि सोच से दुनिया नहीं बदलती। यही घटनाएं जब दिल में तूफान का रूप धर लेती हैं तो मैं कहानी लिखने को विवश हो जाता हूं। समझ लीजिए इसी के बाद मैंने कहानी लिखने का फैसला किया... एक बार जब कलम थाम ली तो फिर कहानी खत्म होकर ही रुकी। इसके बाद तो सुधार की गुंजाइश ही बचती हैं... “काश मेरे साथ भी बलात्कार होता” – कहानी के बारे में मैं इतना ही कह सकता हूं कि ये बलात्कार को देखने का ऐसा नजरिया है जिसे पढ़ने के बाद बलात्कार जैसी घटना से नफरत पैदा होने लगेगी।

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