Wednesday 28 February 2018

मुंह पर पचारा पोते भांग में टुन्न सुदामा चाचा

जब भी होली के दिन आते हैं, नानी की यादें आंखें नम कर देती हैं। नानी मां के कच्चे मकान के सामने जन-मानुस जैसे बूढ़े बरगद और नीम-जामुन के तितर-बितर पेड़। पिछवाड़े बंसवारी की बगल में प्रायः बबूल के फूल ओढ़े छोटा-सा घूरा। आसपास की जमीन पर हरे-हरे गमछे की तरह गहरी जड़ों वाले दूब के चकत्ते। घूरता हूं उस वक्त की मटमैली चादर पर। हल्के झोकों से खेलते रहने वाले तृण-पतवार और गन्ना पेराई के दिनों वाले खोई के बिछौने अपनी बांहों में भर लेते हैं मुझे। प्राण रो उठते हैं। इस तरह घुल-मिल जाता है मन उनमें, कि जैसे कोई अबोध शिशु अपनी झीनी-झीनी दंतुलियां दिखाते हुए आंखों में आंखें डालकर डूब जाए उन अविरल क्षणों में। .... और पूछे कि हे जन-मानुसों, लोकजीवन के विकीपीडिया सी वह मेरी नानी मां अभी जिंदा तो नहीं! मेरे बाबा से मुझे आखिरी एक और मुलाकात करा दोगे क्या, जिन्होंने उंगलियां पकड़ कर चलना सिखाया था मुझे। मेरे मन, मेरे विवेक पर अमिट छाप सतर गयी थी जिनकी।
मेरे ननिहाल टिसौरा से पांच-छह किलो मीटर दक्षिण में भैंसही नदी के पार पड़ता था, मेरे पिता का गांव बभनवली। वह होली का दिन था। भांग छानकर मस्त गांव के बड़े-बुजुर्ग बसंत पंचमी से ही देर-देर रात तक समूह में होली गायन में डूब जाया करते थे। होली के दिन वह उल्लास अथाह हो जाता था। मेरे पिता ढोलक-झाल की गमक पर होली-चैता गाने में मशहूर थे। उस दिन भी गाना-बजाना चल रहा था। पूरे गांव पर रंग बरस रहे थे। थाप गूंज रहे थे चारो ओर। हर कोई बेसुध, बौराया सा। कोई रंग, कोई कीचड़, कोई धूल सना बदरंग चेहरा। उसी गहमागहमी, उछल-कूद में मस्तमौला मेरे रिश्ते के सुदामा चाचा बगल के गांव कम्हरिया से दोपहर को अचानक आ टपके। वह अपने घुमंतूपन के लिए चर्चित थे। शाम को जाते-जाते मुझसे पूछने लगे - 'चलोगो अपनी नानी से मिलने! मैं टिसौरा जा रहा हूं।' इतना सुनते ही मैं जोर-जोर से रोने लगा। नानी की याद ने अंदर तक ऐंठ दिया। तुरंत उनके साथ साइकिल से जाने को तैयार हो गए। मैंने अपनी छोटी बहन आशा से पूछा- तुम भी चलोगी मेरी नानी के घर? उसने मना कर दिया और चुपचाप लौट गई। मैं सुदामा चाचा के साथ साइकिल से टिसौरा चला गया।
इधर, होली की रंग-तरंग थमते ही मेरी ढूंढ मची। पिता जी के साथ ही घर-गांव के लोग कुंआ, ताल, पोखरे तक देख-घूम आए, मेरा कहीं पता नहीं चला। घर में कोहराम मच गया। पिता जी हलवाहे मोदी के साथ आधी रात बाद टिसौरा पहुंचे। उस समय सुदामा चाचा दरवाजे पर चारपाई डालकर खर्राटे भर रहे थे। खटर-पटर पर नींद उचटते ही पिता जी को देखा तो कूदकर पिछवाड़े की ओर भाग गए। उन्हें समझते देर नहीं लगी थी कि मुझे ही खोजते हुए पिता जी उतनी रात गए आ धमके थे। अगली सुबह रोज की तरह मैं सोकर उठा तो दालान की चौखट पर जा बैठा था। नानी मां आकर बुदबुदाते हुए दुखी मन से मेरी पीठ सहलाने लगीं - 'अरे मेरे लाल, जरा देखें तो पीठ पर घाव तो नहीं लगा है, उसने कसाई की तरह पीठा तुझे।' फिर नानी मां ने बताया कि तुम्हारा बाप रात में मोदी हलवाहे के साथ आया था। जगाकर तुझे बैल की तरह पीटने लगा। इसी तरह तेरी मां तुझे पीटती थी। मैंने उसे बहुत डांटा। तब छोड़ कर गया। वह सुदामा को भी ढूंढ रहा था। वह तो कूद कर अंधेरे में पिछवाड़े जा छिपा था। फिर काफी देर तक वह मेरी पीठ और सर सहलाती रही थीं। मुझे जरा भी याद नहीं रहा था कि रात में मेरी जमकर थुराई हो चुकी थी। मुंह पर पचारा पोते भांग में टुन्न सुदामा चाचा तड़के ही डर के मारे चुपचाप साइकिल से अपने गांव लौट गए थे।       

Tuesday 27 February 2018

जाने कहां खो गई प्रसाद जी की वह पांडुलिपि

कभी-कभी कोई-कोई पश्चाताप जीवन भर पीछा करता रहता है। एक ऐसा ही वाकया मेरे भी अतीत का हिस्सा रहा है। दरअसल, एक मित्र 'पिंक' को सराहते हुए मुझे भी सिनेमाहाल खींच ले गए। लौटते समय 'वह वाकया' घुमड़ने लगा। साहित्य और सिनेमा पर दिमाग दौड़ते-दौड़ते पहुंच गया जयशंकर प्रसाद एवं मुंशी प्रेमचंद से जुड़े एक पांडुलिपि प्रकरण पर। उन दिनो मैं 'आज' अखबार आगरा में कार्यरत था। वहां के कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी पीठ में एक प्रोफेसर थे त्रिवेदीजी। उनके आकस्मिक देहावसान के बाद उनके चार बच्चों के सामने रोजी-रोटी का संकट आ गया। सबसे बड़ी बेटी थी। मृत्यु के बाद नेपाल में कार्यरत रहे एक प्रोफेसर की निगाह त्रिवेदीजी के अथाह संग्रहालय पर जा टिकी। वह त्रिवेदीजी की बेटी से संग्रहालय की समस्त पुस्तकें, पांडुलिपियां आदि खरीदना चाहते थे। संग्रहालय में दुर्लभ पांडुलिपियां थीं।
एक व्यक्ति त्रिवेदीजी के बेटे को नौकरी लगवाने के लिए आज अखबार के कार्यालय ले आया। उसे प्रशिक्षित करने के लिए मेरे हवाले कर दिया गया। उसने एक दिन बताया कि उसकी बहन पापा की सारी किताबें बेचने वाली है। फिर पूरा वाकया बताया। अगले दिन मैं उसके घर गया। उस घरेलू संग्रहालय में एक दुर्लभ पांडुलिपि मिली। त्रिवेदीजी की बेटी ने बताया कि पापा को इसे कवि जयशंकर प्रसाद ने टाइप करवाकर छपवाने के लिए दिया था। आग्रहकर वह पांडुलिपि मैं इस उद्देश्य से ले आया कि अगर कहीं नेपाल वाले प्रोफेसर इसे ले गये तो इस दुर्लभ सामग्री का जाने क्या हाल हो। मैंने वह पांडुलिपि आगरा विश्वविद्यालय के एक मित्र प्रोफेसर को देखने के लिए दी। उन्होंने उसे कुलपति को दिखाने के बहाने लापता कर दिया।
लंबे समय तक लौटाने का आग्रह करता, पर मिली नहीं। अब तो वह प्रोफेसर भी इस दुनिया में नहीं रहे। उस पांडुलिपि में हिंदी के अनेकशः शीर्ष साहित्यकारों (प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, निरालाजी, नंददुलारे वाजपेयी, पंत आदि) के जयशंकर प्रसाद से हुए पत्राचार की मूल प्रतियां थीं। उसी में एक लंबा पत्र मुंशी प्रेमचंद का था, जो उन्होंने बंबई (मुंबई) की फिल्मी दुनिया से लौटने के बाद लिखा था। काश, वह पांडुलिपि प्रकाशित होकर हिंदी पाठकों को उपलब्ध हो पाती। वह दुख आज तक टीसता है।

Sunday 25 February 2018

चकई कs चकधुम, मकई कs लावा...

जीवन में कभी कोई ऐसा भी वाकया गुजरता है, भुलाए न भूले। वह 1984 की एक शाम थी। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के सामने एक चाय की दुकान पर तनावग्रस्त बैठा था। चिंता में घिरा सोचते-सोचते गुस्सा आ गया। तुरंत थैले से कापी निकाली और काशी विद्यापीठ, वाराणसी के हिंदी विभाग के रीडर एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोकप्रिय कवि डॉ. श्याम तिवारी (अब स्वर्गीय) के नाम लंबा पत्र लिख डाला। दरअसल, कुछ ही घंटे पहले एक नवविवाहित मित्र ने यह कहकर मुझे कहीं और ठिकाना ढूंढ लेने को कहा था कि उनकी पत्नी ऐसा चाहती हैं। उस वक्त मेरी जेब में चार आने थे। जाऊं तो कहां जाऊं। बड़ी तेज भूख लगी थी। सोचने लगा, चार आने में चाय पीने से भूख कम होगी या चना खाने से। खुद पर कोफ्त। चना लिया। चबाते हुए तिवारी जी को कुछ इस तरह चिट्ठी लिखने लगा- 'निराला को कक्षाओं में पढ़ाना, मंचों पर बखानना बड़ा आसान होता होगा, निराला की तरह एक दिन भी जीना बहुत मुश्किल है, ऐसा मैं निराला के शहर में इस शाम महसूस रहा। ....' पत्र पूरा करने के बाद अनायास दो पंक्तियां मन से निकलीं -

'जब थके आदमी को ढोता हूं, 
सोचता हूं, उदास होता हूं, 
वक्त थोड़ा-सा गुदगुदाता है, 
खूब हंसता हूं, खूब रोता हूं।...'

फिर तो भूख के मारे बरबस फूट पड़े शब्द जाने किधर-किधर ले जाने लगे। उस शाम के कई दशक बाद। उस वक्त मैं वाराणसी अमर उजाला में था। रात की नौकरी। गर्मी की दोपहर मुंह ढंके गहरी नींद में था। तभी किसी ने मेरे चेहरे से गमछा खींच दिया। उनका चेहरा भी गमछे से ढंका था। कोई और नहीं, वह डॉ. श्याम तिवारी थे। दरअसल, उस सुंदरपुर मोहल्ले के जिस मकान में मैं रहता था, उसके मालिक बाल-साहित्यकार थे। उनसे ही तिवारी जी को मेरे बारे में पता चला था। मेरे चेहरे से गमछा खींचने के बाद उन्होंने मुझे मीठी झिड़की दी। चपत मारी। पहचानते ही मैं अगले पल चारपाई से उछल कर खड़ा हो गया। उन्हें आदर से बैठाया। घड़े से ठंडा पानी पिलाया।
वह डाट पिलाते हुए बोले- 'बनारस में तुम्हे किराए के मकान में रहने की क्या जरूरत थी?'
वह एक वक्त में मुझे पुत्रवत स्नेह करते थे। अस्सी के उस अपने मंदिराकार मकान में प्रायः साथ ले जाते, ढुंडा (मेवा मिश्रित सत्तू का लड्डू) और छाछ का नाश्ता, फिर भोजन कराते। और शाम होते ही साथ लेकर मेरे लिए नौकरी की तलाश में अखबारों के दफ्तरों के चक्कर लगाने निकल पड़ते। उनकी लाख कोशिश अकारथ गई। और एक दिन शहर छोड़ना पड़ा।
उस दोपहर भी कड़ी धूप के बावजूद वह मुझे अपने साथ घर घसीट ले गए थे। वहीं छाछ-ढुंडे का नाश्ता, बीच में इलाहाबाद वाली चिट्ठी पर चुहल। आज भी उनकी यादें आंख गीली कर जाती हैं। डॉ. श्याम तिवारी ध्वन्यात्मक कविताएं जब मंचों से सुनाते थे- श्रोता एक-एक पंक्ति में ताल देने लगते थे.... 'चकई कs चकधुम, मकई कs लावा...'

पत्र-कार, मालिक का तलवा और चमचों की पंचाट

घुड़की भी एक कला है। इसके कई रूप हैं। रोब-रुतबे का प्रदर्शन घुड़की है। मैंने ऐसे घुड़कीबाज नामवरों को मीडिया की दुनिया में बहुत करीब से देखा-भोगा है। अखबार या न्यूज चैनल के सिरहाने बैठे हैं। अपने नखरों के मारे हुए ऐसे कई नामवरों को शब्द तो दुत्कार-खदेड़ देते हैं। फिर वे घुड़की, रुतबे, नाज-नखरें से काम चलाते हैं। साहब को खबरें लिखने नहीं आता तो क्या, घुड़की है न। काम चल जाता हैं। लिखने-पढ़ने से क्या वास्ता। पत्र-कार हैं, पत्र का तमगा है, कार है, चमचों की पंचाट है, नौकर-चाकर हैं और गुदगुदाने के लिए मालिक के तलवे हैं...बस नौकरी चल निकलती है।

Friday 23 February 2018

आजकल तो सबसे ज्यादा कविता नहीं, चुटकले पढ़े जा रहे - नरेश सक्सेना

प्रतिष्ठित कवि नरेश सक्सेना कहते हैं- कविता के कम या अधिक पढ़े जाने के प्रश्न का जवाब हां या नहीं में नहीं दिया जा सकता क्योंकि हां और ना, दोनों जवाब सही हैं। इस पर लंबी बहस है, फिर कभी बात होगी। ध्यान देने की बातें और हैं। कविता, गीत जो है, सोचिए, छंद में कविता कौन लिखता है और कौन पढ़ता है, कौन लेखक है, कितने उसके पढ़ने वाले हैं? जब से कविता छंद से बाहर आ गई है, जितनी साहित्यिक पत्रिकाएं हैं, उनमें ज्यादातर में गीत न कहीं छपता है, न पढ़ी जाती हैं। सरिता, कादंबिनी आदि को छोड़कर, बहुत कम जगहें हैं, जहां ऐसी कविताएं छपती हैं। वैसे ऐसी पत्रिकाएं रह भी नहीं गई हैं, जो गीत-वीत छापती रही हैं। अब सोचिए कि जब गीत छपता नहीं तो पढ़ा कैसे जाए! मंच के एक कवि अपनी एक कविता चालीस साल से पढ़ रहे हैं, पढ़ते-पढ़ते बूढ़े हो चले, उस तरह के गीत अब छपते नहीं हैं। आज लिखे जाएं तो छापे नहीं जाते। छंदमुक्त कविताएं भी पढ़ी जाती हैं। अच्छी कविताएं कम संख्या में लिखी जाती हैं, उसके पाठक वही हैं, जो लिखते हैं, जो लेखक हैं। मुख्यतः ऐसी कविताओं के नॉन राइटर पाठक कम हैं, गिने-चुने। छंदमुक्त कविताएं भी ज्यादातर ठीक नहीं होतीं, इसलिए भी पाठक कम रह गए हैं। वह जमाना और था, जब मेरे गीत रंगीन पृष्ठों पर छपते थे, पूरे-पूरे पेज पर। जहां तक अच्छी कविता का प्रश्न है, अब छंद के बाहर ही अच्छी कविताएं लिखी जा रही हैं, फिर भी पूरा साहित्य मंगलेश डबराल या राजेश जोशी का खंगाल लेंगे तो दस-बीस ही अच्छी कविताएं पढ़ने को मिलेंगी। पढ़ी फिर भी कविता इसलिए ज्यादा जाती है कि वह फटाक से पढ़ ली जाती है। बाकी साहित्य की अपेक्षा कविता जल्दी पढ़ ली जाती है। यह आसान है। आसानी से पढ़ ली जाती है। कहानीकार भी कविता पढ़ लेता है, लेकिन हर कवि उतनी आसानी से कहानी पढ़ने के लिए स्वयं को सहजतः तैयार नहीं कर पाता है। जहां तक कविता के अच्छा या खराब होने की बात है, कविता होती है या नहीं होती है। वह आसान नहीं होती है- 'शेर अच्छा-बुरा नहीं होता, या तो होता है या नहीं होता।' ग़ज़लों में आजकल रिपिटीशन बहुत हो रहा है। नई बात कम होती है। छंद में वे ही कवि पढ़े जा रहे हैं, जो जैसे नीरज आदि, उनकी किताबें छपती भी हैं, बिकती भी है, बाकी किसकी छपती हैं, किसकी बिकती हैं! आजकल ज्यादादर कविता की किताबें अपने पैसे से छपवाई जा रही हैं। आजकल तो सबसे ज्यादा चुटकला पढ़ा जाता है, उसके बाद कविता का नंबर आता है।

वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूड़ी कहते हैं - जो कुछ लिखा जा रहा है, क्या वो सच है, जो कुछ पढ़ा जा रहा है क्या वो सच है? सच और झूठ की भीड़ में जाएंगे तो पता चलेगा कि सारे झूठ एक न एक दिन सच होना चाहते हैं। पहले भी जिन्हें हम काल्पनिक झूठ समझते थे, वे आज के यथार्थ बने हुए हैं। उसमें सहायक तत्व स्वयं मनुष्य है और विज्ञान है। इसलिए सबसे ज्यादा पढ़ा जाना और सबसे कम पढ़ा जाना महत्वपूर्ण नहीं होता, मेरी समझ से सबसे महत्वपूर्ण है किसी का पढ़ा जाना। आज जितनी चीजें सबसे ज्यादा पढ़ी जा रही हैं, क्या वही सफल मान ली जाएं। सवाल सफलता और असफलता का भी नहीं है, लेकिन उपयोगिता और उपादेयता का तो है। पहले भी कविता बहुत ज्यादा नहीं पढ़ी जाती रही है, और आज भी कविता बहुत ज्यादा नहीं पढ़ी जा रही है तो भी यह आश्चर्य होता है कि कविता खराब ही सही, इतनी ज्यादा क्यों लिखी जा रही है? कोई भी रचनात्मक विधा अगर अपने रचनाकारों को कम या ज्यादा मात्रा में पैदा करती है तो यह उस विधा का दोष या कमजोरी नहीं, बल्कि यह रचनाकार की अपनी सुविधा और अपने रुझान पर निर्भर करता है। स्वाद का भी कोई मानदंड नहीं बनाया जा सकता है, तो फिर साहित्य के रसास्वादन का मानदंड कैसे बनाया जाए। पढ़ने वालों की गिनती से साहित्य ऊंचा नहीं हो जाता है, न लिखने वालों की बढ़ी हुई तादाद से। हो सकता है कि कम ही बहुत ज्यादा लगने लगे। और ये भी संभव है कि बहुत ज्यादा कम दिखने लगे। जितनी भी जटिल प्रक्रिया और व्यापक अनुभव वाली चीजें होती हैं, उन्हें प्राप्त करने के लिए भी एक जटिल और व्यापक अनुभव चाहिए। जिस पाठक का जैसा स्वभाव, जैसी तितीक्षा होगी, उसे अपने स्वाद के अनुसार रचनात्मक संसार में जाने का अवसर मिलेगा। यह अलग बात है कि कितने कवि हैं, जो कविता जैसी कविता नहीं लिख रहे हैं बल्कि कुछ अलग ढंग की कविताएं लिख रहे हैं, और कितने लोग हैं, जो इस खूबी को जानते पहचानते और खोजते हैं। कविता कोई महामारी नहीं है, जिसकी चपेट में सब लोग आ जाएं।

Thursday 22 February 2018

नागार्जुन का गुस्सा और त्रिलोचन का ठहाका

घर का नाम 'वैद्यनाथ मिश्र', साहित्यक नाम 'नागार्जुन', मैथिली उपनाम 'यात्री', प्रचलित पूरा नाम 'बाबा नागार्जुन'। रचना के मिजाज में सबसे अलग, अलख निरंजन। बाबा के साथ बीता एक वाकया याद आता है। 1980 के दशक में बाबा से मुलाकात हुई थी जयपुर में। जैसे बाबा, वैसी अनोखी मुलाकात। उस दिन देशभर के प्रगतिशील कवि-साहित्यकार जमा थे गुलाबी नगरी में। अमृत राय, त्रिलोचन, भीष्म साहनी, अब्दुल बिस्मिल्लाह, शिवमूर्ति आदि-आदि। बाबा से मुलाकात की बात बाद में, पहले एक प्रसंगेतर आख्यान।
महापंडित राहुल सांकृत्यायन में मेरी छात्र जीवन से जिज्ञासा रही। इसकी भी एक खास वजह। मेरे गृह-जनपद आजमगढ़ में राहुलजी का गांव कनैला हमारे गांव से सात-आठ किलो मीटर दूर। अगल-बगल के गांवों में रिश्तेदारियां, प्रायः आना-जाना। संयोग वश मैं जिस हरिहरनाथ इंटर कॉलेज, शेरपुर का छात्र रहा, क्लास टीचर पारसनाथ पांडेय राहुलजी के ही गृहग्राम कनैला के। वह क्लास में अक्सर राहुलजी पर तरह-तरह के प्रिय-अप्रिय वृत्तांत सुनाया करते। वह बातें फिर कभी। ....तो जयपुर यात्रा के उन दिनो मैं राहुल सांकृत्यायन पर लिखी एक ऐसी किताब पढ़ रहा था, जिसका संपादन उनकी धर्मपत्नी कमला सांकृत्यायन ने किया था। उस पुस्तक से पहली बार राहुलजी के संबंध में उनके जीवन की तमाम अज्ञात जानकारियां मिली थीं। उस पुस्तक से ही ज्ञात हुआ था कि कमला सांकृत्यायन मसूरी के हैप्पी वैली (उत्तराखंड) इलाके में रहती हैं। बाबा नागार्जुन वहां कभी-कभार जाया-आया करते।
उस दिन जयपुर में जैसे ही मुझे पता चला कि बाबा नागार्जुन भी यहां आए हुए हैं, कमला सांकृत्यायन के बारे में बाबा से और भी जानकारियां प्राप्त कर लेने की मेरी जिज्ञासा बेकाबू हो ली। उस दिन कवि-साहित्यकारों में मुझे कवि त्रिलोचन बड़े सहज लगे, सो किसी बात के बहाने मैं उनके निकट हो लिया। संयोग से हम जहां ठहरे थे, वहीं अगल-बगल के कमरों में त्रिलोचनजी और बाबा नागार्जुन भी रुके हुए थे। दबी जुबान मैंने अपनी बाल सुलभ जिज्ञासा त्रिलोचनजी से साझा कर ली। सुनते ही पहले तो उनके चेहरे पर मैंने अजीब रंग उभरते देखे, जैसे आंखें अचानक चौकन्नी हो उठीं हों। फिर उन्होंने कुछ पल मुझे गौर से देखा, बोले- 'हां-हां, बाबा से बोलो, वह तुम्हें सब बता देंगे। अगर कमलाजी से मिलना चाहते हो तो मिलवा भी देंगे।' उस वक्त उनके मन का आशय मैं भला कैसे पढ़ पाता। असल में त्रिलोचनजी आनंद लेने की मुद्रा में आ गए थे। मुझे बाबा से मिलने के लिए उकसाते समय उन्होंने मान लिया था कि इसकी कोई न कोई मजेदार प्रतिक्रिया जरूर होगी। मुझे बाबा के पास भेजकर वह बगल के कमरे में अन्य लेखकों के बीच जा बैठे। कानाफूसी होने लगी लेकिन उनके कान मेरी तरफ सधे हुए।
ठीक उसी समय बाबा तेजी से हमारे बगल के अपने कमरे से बाहर निकले। मैंने उन्हें रोकते हुए तपाक से पूछा - 'बाबा मुझे कमला सांकृत्यायन के बारे में आप से कुछ बात करनी है।' सुनते ही बाबा ऐसे चिग्घाड़ उठे कि मेरे कमरे से जोर का ठहाका गूंजा। दरअसल, त्रिलोचनजी तब तक इस बारे में अंदर कमरे में बैठे अन्य लेखकों को सब कुछ बता चुके थे और प्रतिक्रिया होने की प्रतीक्षा कर रहे थे। उनका उकसावा ठीक निशाने पर बैठा था। मेरी बात सुनते ही बाबा ने तिलमिलाते हुए कहा- 'मैं क्या जानूं कमला-समला को.... चले आते हैं पता नहीं कहां-कहां से, न जाने कैसी-कैसी बातें करते हुए।' एक बात और। उस वक्त बाबा बॉथरूम जा रहे थे। मुझे नहीं मालूम था कि वह पेटझरी (लूज मोशन) से पीड़ित थे। उन्हें तेजी से बॉथरूम जाते वक्त रोककर मैंने उन्हें क्षुब्ध कर दिया था, सो उससे भी वह तिलमिला उठे थे। 
बाबा की फटकार पाकर मैं जैसे ही अंदर अपने कमरे में पहुंचा, वहां ठाट जमाए सभी लेखक महामनाओं की निगाहें मेरे ऊपर आ जमीं। त्रिलोचनजी ने बड़े स्नेह से (ठकुर सुहाती अंदाज में) मेरा माथा सहलाते हुए पूछा- 'क्या हो गया बेटा, बाबा नाराज हो गए क्या?' मेरे कंठ से कोई आवाज ही न फूटे। चुप। मेरी आंख भर आई थी। गला रुंध सा गया। अब बाबा के गुस्से और लेखकों के ठहाके का मर्म बताते हैं। उन दिनो बाबा सचमुच कमला सांकृत्यायन से नाखुश चल रहे थे। उन्हीं लेखक 'गुरुओं' में से एक ने बताया था कि कुछ माह पहले ही की बात है। बाबा कमलाजी के ठिकाने पर हैप्पी वैली, मसूरी गए थे। कमला जी ने उन्हें फटकार कर दोबारा वहां आने से मना कर दिया था। जिस वक्त मैंने बाबा से पूछा, एक तो पहले से कमलाजी से नाखुशी, दूसरे पेटझरी की पीड़ा से उनका मिजाज बेकाबू हो उठा था। वैसे भी वह स्वभाव से तुनक मिजाजी थे। इस पर मैं जब बाद में त्रिलोचनजी से बात करनी चाही, वह मुसकरा कर चुप रह गए थे। अब आइए, अकाल पर बाबा नागार्जुन की एक सबसे चर्चित कविता पढ़ते हैं -
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास।
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास।
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त,
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।
दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद,
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद।
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद,
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।                 
साहित्य में बाबा कालजयी रचनाओं के शीर्ष कवि रहे हैं। निराला और कबीर की तरह। उनके शब्द आज भी जन-गण-मन में लोकप्रिय हैं। वह संस्कृत के विद्वान तो थे ही, मैथिली, पालि, प्राकृत, बांग्ला, सिंहली, तिब्बती आदि अनेकानेक भाषाओं के भी ज्ञाता थे। साहित्य की लगभग सभी विधाओं में उनकी लेखनी आजीवन कुलाचें भरती रही। राहुल, निराला, त्रिलोचन की तरह उन्होंने भी जीवन में कत्तई बड़े से बड़े सरकारी प्रलोभनों से परहेज किया। उनके भी अंतिम दिन अन्य ईमानदार साहित्यकारों की तरह बड़े अभाव में बीते। उनके काव्य में अब तक की पूरी भारतीय काव्य परंपरा जीवंत रूप में उपस्थित है। वह नवगीत, छायावाद से छंदमुक्त कविताओं के तरह-तरह के रचनात्मक दौर के सबसे सक्रिय साक्षी रहे। और बाबा की एक कविता 'मंत्र' -
ॐ शब्द ही ब्रह्म है,
ॐ शब्द और शब्द और शब्द और शब्द
ॐ प्रणव, ॐ नाद, ॐ मुद्राएं
ॐ वक्तव्य, ॐ उदगार, ॐ घोषणाएं
ॐ भाषण...ॐ प्रवचन...
ॐ हुंकार, ॐ फटकार, ॐ शीत्कार
ॐ फुसफुस, ॐ फुत्कार, ॐ चित्कार
ॐ आस्फालन, ॐ इंगित, ॐ इशारे
ॐ नारे और नारे और नारे और नारे
ॐ सब कुछ, सब कुछ, सब कुछ
ॐ कुछ नहीं, कुछ नहीं, कुछ नहीं
ॐ पत्थर पर की दूब, खरगोश के सींग
ॐ नमक-तेल-हल्दी-जीरा-हींग
ॐ मूस की लेड़ी, कनेर के पात
ॐ डायन की चीख, औघड़ की अटपट बात
ॐ कोयला-इस्पात-पेट्रोल
ॐ हमी हम ठोस, बाकी सब फूटे ढोल
ॐ इदमन्नं, इमा आप:, इदमाज्यं, इदं हवि
ॐ यजमान, ॐ पुरोहित, ॐ राजा, ॐ कवि:
ॐ क्रांति: क्रांति: क्रांति: सर्वग्वं क्रांति:
ॐ शांति: शांति: शांति: सर्वग्वं शांति:
ॐ भ्रांति भ्रांति भ्रांति सर्वग्वं भ्रांति:
ॐ बचाओ बचाओ बचाओ बचाओ
ॐ हटाओ हटाओ हटाओ हटाओ
ॐ घेराओ घेराओ घेराओ घेराओ
ॐ निभाओ निभाओ निभाओ निभाओ
ॐ दलों में एक दल अपना दल, ओं
ॐ अंगीकरण, शुद्धीकरण, राष्ट्रीकरण
ॐ मुष्टीकरण, तुष्टीकरण, पुष्टीकरण
ॐ एतराज, आक्षेप, अनुशासन
ॐ गद्दी पर आजन्म वज्रासन
ॐ ट्रिब्युनल ॐ आश्वासन
ॐ गुटनिरपेक्ष सत्तासापेक्ष जोड़तोड़
ॐ छल-छंद, ॐ मिथ्या, ॐ होड़महोड़
ॐ बकवास, ॐ उद्घाटन
ॐ मारण-मोहन-उच्चाटन
ॐ काली काली काली महाकाली महाकाली
ॐ मार मार मार, वार न जाए खाली
ॐ अपनी खुशहाली
ॐ दुश्मनों की पामाली
ॐ मार, मार, मार, मार, मार, मार, मार
ॐ अपोजिशन के मुंड बनें तेरे गले का हार
ॐ ऐं हीं वली हूं आङू
ॐ हम चबाएंगे तिलक और गांधी की टांग
ॐ बूढ़े की आंख, छोकरी का काजल
ॐ तुलसीदल, बिल्वपत्र, चंदन, रोली, अक्षत, गंगाजल
ॐ शेर के दांत, भालू के नाखून, मर्कट का फोता
ॐ हमेशा हमेशा हमेशा करेगा राज मेरा पोता
ॐ छू: छू: फू: फू: फट फिट फुट
ॐ शत्रुओं की छाती पर लोहा कुट
ॐ भैरो, भैरो, भैरो, ॐ बजरंगबली
ॐ बंदूक का टोटा, पिस्तौल की नली
ॐ डालर, ॐ रूबल, ॐ पाउंड
ॐ साउंड, ॐ साउंड, ॐ साउंड
ओम् ओम् ओम्
ओम धरती धरती धरती,
व्योम व्योम व्योम.....

घुमंतू कबीलों वाले कवि आनंद परमानंद

वाराणसी के बुजुर्ग कवि आनंद परमानंद ऐसे रचनाकार हैं, जिन पर त्रिलोचन ने भी कविता लिखी। जाने कितने तरह के बोझ मन पर लादे-फादे हुए। अंदर क्या-कुछ घट रहा होता है, जो चुप्पियों से शब्दभर भी फूट नहीं पाता है। जैसे सड़क की भीड़ के बीच कोई अनहद एकांतिकता। भीतर आग, बाहर शब्दों से तप्त झरने फूटते हुए। कभी घंटों स्वयं में गुम, कभी अचानक धारा प्रवाह, राजनीति से साहित्य तक, डॉ.लोहिया से डॉ. शंभुनाथ सिंह तक, गीत-ग़ज़ल से नवगीत तक, अंतहीन, प्रसंगेतर-प्रसंगेतर। साथ का हरएक चुप्पी साधे, विमुग्ध श्रोताभर जैसे।
परमानंद की प्रकांडता का एक आश्चर्यजनक पक्ष है, उनमें संचित जीवंत अथाह स्मृतियां।

शब्द के जोखिम उठाता हूं, तो गीतों के लिए।
दर्द से रिश्ते निभाता हूं, तो गीतों के लिए। 
गूंगी पीड़ा को नया शब्दार्थ देने के लिए,
भीड़ में भी छटपटाता हूं, तो गीतों के लिए।  
सोचकर खेतों में ये प्रतिबद्धताएं रोपकर,
नये सम्बोधन उगाता हूं, तो गीतों के लिए। 
माथ पर उंगली धरे सच्चाइयों के द्वार की,
सांकलें जब खटखटाता हूं, तो गीतों के लिए।
जिनके चेहरों पर हंसी फिर लौटकर आयी नहीं,
उनकी खातिर बौखलाता हूं, तो गीतों के लिए। 
ओढ़कर कुहरे पड़ी चुपचाप ठंडी रात में,
पत्तियों सा खड़खड़ाता हूं, तो गीतों के लिए। 
मिल गया मौसम सड़क पर जब असभ्यों की तरह,
वक्त को कुछ बड़बड़ाता हूं, तो गीतों के लिए। 

जब तक साथ, सोचते रहिए कि ये आदमी है या कोई मास्टर कम्यूटर। भला किसी एक आदमी को इतनी बातें अक्षरशः कैसे याद रह सकती हैं, जबकि उम्र अस्सी के पार, स्मृतिभ्रंश की आशंकाओं से भरी रहती है। दरअसल, आनंद परमानंद दुष्यंत परंपरा के सशक्त ग़ज़लकार हैं। एक जमाने में इनकी ग़ज़लें प्रायः मंचों पर अपना प्रभाव स्थापित करती रही हैं। वह आदमी की तरह जिंदगी काटते हैं। आज तो यह आशंका जन्म लेने लगी है कि सही आदमी सड़क पर भी रह पाएगा अथवा नहीं। आखिर वह जाए भी तो कहां जाए। उनकी ग़ज़लें पढ़कर इस बात पर प्रसन्नता होती है कि कम से कम उन्होंने नकली और बनावटी बातें तो नहीं कही हैं।

कड़ी चिल्लाहटें क्यूं हैं इसी तस्वीर के पीछे।
मरा सच है कहीं फिर क्या उसी प्राचीर के पीछे। 
यहां तो बेगुनाहों ने तड़प कर जिंदगी दी है,
खड़ा इतिहास है रोता हुआ जंजीर के पीछे।
बहुत बेआबरू संवेदनाएं जब हुई होंगी,
बड़ी हलचल मची होगी नयन के नीर के पीछे।
कठिन संघर्ष में संभावनाएं जन्म लेती हैं,
इसी उम्मीद में वह है खड़ा शहतीर के पीछे। 
समय की झनझनाहट सुन, बराबर काम करते चल,
न लट्टू की तरह नाचा करो तकदीर के पीछे।
कलम जो जिंदगी देगी, कहीं फिर मिल नहीं सकती,
अरे मन अब कभी मत भागना जागीर के पीछे। 
सरल अभिव्यंजनाएं गीत में बिल्कुल जरीरी हैं,
इसी से भागते हैं लोग ग़ालिब, मीर के पीछे।

आनंद परमानंद की ग़ज़लों के विषय भूख, गरीबी, बेरोजगारी, दलित, मजदूर, आदिवासी और किसान हैं। दहेज, लड़कियां, नारी, दंगे-फसाद जैसी समस्याएं हैं। इस कवि में, जिसे, चिंतनशील फ्रिक्रोपन कहते हैं, ग़ज़लों में अंत्यानुप्रास की नवीनता प्रशंसनीय है, जहां हिंदी भाषा की सामर्थ्य और कहन की शिष्टता-शालीनता दिखाई पड़ती है। जिंदगी की हद कहां तक है, जानते हुए, तनी रीढ़ से ललकारते आठ दशक पार कर गए ठाट के कद वाले इस कवि के शब्दों की लपट किसी भी कमजोर त्वचा वाले शब्द-बटोही को झुलसा सकती है।

खेलते होंगे उधर जाकर कहीं बच्चे मेरे। 
वो खुला मैदान तट पर है, जिधर बच्चे मेरे। 
भूख में लौटा हूं, पैदल रास्ते में रोककर,
मांगते हैं सेव, केले, ये मटर बच्चे मेरे। 
साइकिल, छाता, गलीचे भी बनाना सीख लो,
काम देते हैं गरीबी में हुनर बच्चे मेरे। 
भूख, बीमारी, उपेक्षा, कर्ज, महंगाई, दहेज,
सोच ही पाता नहीं, जाऊं किधर बच्चे मेरे।
जंतुओं के दांत-पंजों में जहर होता मगर
आदमी की आंख में बनता जहर बच्चे मेरे।
जो मिले, खा-पी के सोजा, मत किसी का नाम ले
कौन लेता है यहां, किसकी खबर बच्चे मेरे। 
संस्कृतियां जब लड़ीं, सदियों की आंखें रो पड़ीं,
खंडहर होते गए, कितने शहर बच्चे मेरे। 
यह बनारस है, यहां तुम पान बनकर मत जियो,
सब तमोली हैं, तुम्हे देंगे कतर बच्चे मेरे। 
तुम मेरे हीरे हो, मोती हो, मेरी पहचान हो,
मेरे सब कुछ, मेरे दिल, मेरे जिगर बच्चे मेरे। 
गालियां ग़ालिब, निराला खूब सहते थे यहां,
यह कमीनों का बहुत अच्छा शहर बच्चे मेरे। 

मन से तरल इतने कि गोष्ठियों से मंचों तक कुछ उसी तरह शब्दों के साथ-साथ आंखों से बूंदें अनायास छलकती रहती हैं, जैसेकि कभी कवि अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध कक्षा में अपने छात्रों को पढ़ाते हुए भावुक हो जाया करते थे। बुढ़ौती के कठिन-कठोर ठीये पर आज भी स्वभाव में बच्चों-सी हंसी-ठिठोली भरे अंदाज के आनंद परमानंद कहते हैं कि-

गरीबों के घरों तक जायेगा ये कारवां अपना। 
बदलते मंजरों तक जायेगा ये कारवां अपना। 
विचारों की मछलियां छटपटाकर मर नहीं जायें,
उबलते सागरों तक जायेगा ये कारवां अपना। 
तरक्की के तराजू पर नहीं तौले गये अब तक,
दबाये आखरों तक जायेगा ये कारवां अपना। 
जहां सदियों से डेरे डालकर रहती समस्याएं,
वो छानी-छप्परों तक जायेगा ये कारवां अपना। 
जिन्हें हैं दुरदुराती वक्त की लाचारियां अक्सर
उन्हीं आहत स्वरों तक जायेगा ये कारवां अपना। 
जो ढरकी से लिखा करते नया इतिहास परिश्रम का
सभी उन बुनकरों तक जायेगा ये कारवां अपना। 
बताओ कब रुकेगा आबरू की आंख का पानी
तुम्हारे उत्तरों तक जाएगा ये कारवां मेरा। 

आनंद परमानंद की कविता ही नहीं, इतिहास और पुरातत्व में भी गहरी अभिरुचि है। 'सड़क पर ज़िन्दगी' उनका चर्चित ग़ज़ल संग्रह है। जब भी उनकी रगों पर उंगलियां रखिए, दर्द से तिलमिलाते हुए भी सन्नध शिकारी की तरह दुश्मन-लक्ष्य पर झपट पड़ते हैं, व्यवस्था की एक-एक बखिया उधेड़ते हुए स्वतंत्रता संग्राम के इतने दशक बाद भी देश के आम आदमी का दुख और आक्रोश उनके शब्दों में धधकने लगता है-

ये बंधन तोड़कर बाहर निकलने की तो कोशिश कर।
सड़क पर जिंदगी है यार, चलने की तो कोशिश कर।
हवा में मत उड़ो छतरी गलतफहमी की तुम ताने,
कलेजा है तो धरती पर उतरने की तो कोशिश कर। 
जहां दहशतभरी खामोशियों में लोग रहते हैं,
तू उस माहौल को थोड़ बदलने की तो कोशिश कर। 
हकीकत पर जहां पर्दे पड़े हों, सब उठा डालो,
ये परिवर्तन जरूरी है, तू करने की तो कोशिश कर। 
जलाकर मार डालेगी तुम्हे चिंता अकेले में,
कभी तू भीड़ से होकर गुजरने की तो कोशिश कर। 
कठिन संघर्ष हो तो चुप्पियां मारी नहीं जातीं,
नयी उत्तेजना से बात कहने की तो कोशिश कर। 
खुला आतंक पहले जन्म लेता है विचारों में,
परिंदे भी संभलते हैं, संभलने की तो कोशिश कर। 
जरूरत है मुहब्बत-प्यार की, सद्भावनाओं की,
मिलेगा किस तरह, इसको समझने की तो कोशिश कर। 

वाराणसी के ग्राम धानापुर (परियरा), राजा तालाब में 01 मई सन 1939 को पुरुषोत्तम सिंह के घर जनमे आनंद परमानंद आज भी गीत, ग़ज़लों के अपने रंग-ढंग के अनूठे कवि हैं। मिजाज में फक्कड़ी, बोल में विचारों के प्रति जितने कत्तई अडिग, कोमल भावों में मन-प्राण के उतने ही शहदीले। बेटियां उनके शब्दों में मुखर होती हैं, कई अध्यायों वाले घर-परिवारों के महाकाव्य की तरह, जिसमें अनुभवों की सघन पीड़ा भी है और वात्सल्य का अदभुत सामंजस्य भी-

फटे पुराने कपड़ों में यह मादल-डफली वाली लड़की।
जंगल से पैदल आयी है, पतली-दुबली-काली लड़की।
बड़े-बड़ों की बेटी होती, पढ़ती-लिखती, हंसती-गाती,
फोन बजाती, कार चलाती, लेती हाथ रुमाली लड़की। 
गा-गाकर ही मांग रही है, फिर भी गाली सुन जाती है,
लो, प्रधान के घर से लौटी लिये कटोरी खाली लड़की। 
ईर्ष्या-द्वेष कलुषता से है परिचय नहीं वंशगत इसका,
नीची आंखें बोल रही हैं, कितनी भोली-भाली लड़की। 
इसका तो अध्यात्म भूख है, इसका सब चिंतन है रोटी,
गली-गली, मंदिर-मस्जिद हैं, दाता-ब्रह्म निराली लड़की। 
मानवता के आदि दुर्ग पर लगा सभ्यता का जो ताला,
संसद को भी पता नहीं है, किस ताले की ताली लड़की।
दुर्योधन से बेईमान-युग के प्रति गुस्सा भरकर मन में,
भीम तुम्हीं से रक्त मांगती होगी यह पंचाली लड़की।

Tuesday 20 February 2018

महाप्राण जितने फटेहाल, उतने दानवीर

महाप्राण निराला मस्तमौला, यायावर तो थे ही, फकीरी में भी दानबहादुरी ऐसी कि जेब का आखिरी आना-पाई तक मुफलिसों को लुटा आते थे। नया रजाई-गद्दा रेलवे स्टेशन के भिखारियों को दान कर खुद थरथर जाड़ में फटी रजाई तानकर सो जाते थे। जीवन की ऐसी विसंगतियां-उलटबासियां शायद ही किसी अन्य महान कवि-साहित्यकार की सुनने-पढ़ने को मिलें, जैसी की महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के बारे में। सुख-दुख की ऐसी कई अनकही-अलिखित-अपठित गाथाएं उनके जीवन से जुड़ी हैं। वह मस्तमौला, यायावर तो थे ही, लाख फटेहाली में भी जेब का आखिरी आना-पाई तक दान कर देते थे। उत्तर प्रदेश के शीर्ष शिक्षाधिकारी रहे साहित्यकार श्रीनारायण चतुर्वेदी के ठिकाने पर वह अक्सर लखनऊ पहुंच जाया करते थे। और वहां कब तक रहेंगे, कब अचानक कहीं और चले जाएंगे, कोई तय नहीं होता था। श्रीनारायण चुतर्वेदी के साथ निरालाजी के कई प्रसंग जुड़े हैं। लोग चतुर्वेदीजी को सम्मान से 'भैयाजी' कहकर संबोधित करते थे। वह कवि-साहित्यकारों को मंच दिलाने से लेकर उनकी रचनाओं के प्रकाशन, आतिथ्य, निजी आर्थिक जरूरतें पूरी कराने तक में हर वक्त तत्पर रहते थे।
जाड़े का दिन था। कवि-सम्मेलन खत्म होने के बाद एक बार भैयाजी बनारसी, श्यामनारायण पांडेय, चोंच बनारसी समेत चार-पांच कवि सुबह-सुबह चतुर्वेदीजी के आवास पर पहुंचे और सीढ़ी से सीधे पहली मंजिल के उनके कमरे में पहुंचते ही अंचंभित होते हुए एक स्वर में चतुर्वेदीजी से पूछा - 'भैयाजी नीचे के खाली कमरे में फर्श पर फटी रजाई ओढ़े कौन सो रहा है? सिर तो रजाई में लिपटा है और पायताने की फटी रजाई से दोनों पांव झांक रहे हैं।' चतुर्वेदीजी ने ठहाका लगाते हुए कहा - 'अरे और कौन होगा! वही महापुरुष हैं।... निरालाजी। ... क्या करें जो भी रजाई-बिछौना देता हूं, रेलवे स्टेशन के भिखारियों को बांट आते हैं। अभी लंदन से लौटकर दो महंगी रजाइयां लाया था। उनमें एक उनके लिए खरीदी थी, दे दिया। पिछले दिनो पहले एक रजाई और गद्दा दान कर आए। दूसरी अपनी दी, तो उसे भी बांट आए। फटी रजाई घर में पड़ी थी। दे दिया कि लो, ओढ़ो। रोज-रोज इतनी रजाइयां कहां से लाऊं कि वो दान करते फिरें, मैं इंतजाम करता रहूं।'
इसके बाद छत की रेलिंग पर पहुंचकर मुस्कराते हुए चतुर्वेदी जी ने मनोविनोद के लिए इतने जोर से नीचे किसी व्यक्ति को कवियों के नाश्ते के लिए जलेबी लाने को कहा, ताकि आवाज निरालाजी के भी कानों तक पहुंच जाए। जलेबी आ गई। निरालाजी को किसी ने नाश्ते के लिए बुलाया नहीं। गुस्से में फटी रजाई ओढ़े वह स्वयं धड़धड़ाते कमरे से बाहर निकले और मुंह उठाकर चीखे - 'मुझे नहीं खानी आपकी जलेबी।' और तेजी से जलेबी खाने रेलवे स्टेशन निकल गए। इसके बाद ऊपर जोर का ठहाका गूंजा। लौटे तो वह फटी रजाई भी दान कर आए थे। 
निरालाजी चाहे कितने भी गुस्से में हों, चतुर्वेदीजी की कदापि, कभी तनिक अवज्ञा नहीं करते थे। एक बार क्या हुआ कि, कवि-सम्मेलन में संचालक ने सरस्वती वंदना (वर दे वीणा वादिनी..) के लिए निरालाजी का नाम माइक से पुकारा। वह मंच की बजाए, गुस्से से लाल-पीले श्रोताओं के बीच जा बैठे थे। मंच पर हारमोनियम भी रखा था। पहले से तय था, सरस्वती वंदना का सस्वर पाठ निरालाजी को ही करना है, लेकिन उन्हें बताया नहीं गया था। निरालाजी बैठे-बैठे जोर से चीखे- 'मैं नहीं करूंगा सरस्वती वंदना।' इसके बाद एक-एक कर मंचासीन दो-तीन महाकवियों ने उनसे अनुनय-विनय किया। निरालाजी टस-से-मस नहीं। मंच पर श्रीनारायण चतुर्वेदी भी थे। उन्होंने संचालक से कहा - 'मंच पर आएंगे कैसे नहीं, अभी लो, देखो, उन्हें कैसे बुलाता हूं मैं।' वह निरालाजी को मनाने की कला जानते थे। उन्होंने माइक से घोषणा की - 'निरालाजी आज कविता पाठ नहीं करेंगे। उनकी तबीयत ठीक नहीं है।' तत्क्षण निरालाजी चीखे और उठ खड़े हुए - 'आपको कैसे मालूम, मेरी तबीयत खराब है! सुनाऊंगा। जरूर सुनाऊंगा।' और फिर तो हारमोनियम पर देर तक उनके स्वर गूंजते रहे।

Monday 19 February 2018

'हल्दीघाटी' की रिकार्डिंग पर वाह-वाह

वह सब बड़ा धुंधला-धुंधला सा रह गया है स्मृतियों में। ओझल होता हुआ। प्रसिद्ध कवि रामावतार त्यागी की एक पंक्ति अक्सर मन पर तैरने लगती है- 'जिंदगी तू ही बता तेरा इरादा क्या है,...।' मौत बुलाई नहीं जाती, आ जाती है, बिना पूछताछ, अपना वक्त देखकर। रामावतार त्यागी जितने लोकप्रिय कवि, उतने ही बेहतर इंसान भी थे। आज वह हमारे बीच नहीं हैं लेकिन जब भी वह याद आते हैं, मुंबई का एक खुशहाल दिन दिल में खिल उठता है। लगभग तीस साल पहले 'हल्दीघाटी' के रचनाकार पं.श्याम नारायण पांडेय के साथ मुंबई जाना हुआ था। चौपाटी पर कवि सम्मेलन के अगले दिन 'हल्दीघाटी' की कविताओं की रिकार्डिंग होनी थी। उस समय मोबाइल का जमाना नहीं था, सो रामावतार त्यागी का दूत बार-बार पांडेयजी से सम्पर्क साधने आ टपकता कि चलिए, रिकार्डिंग का समय हो रहा है।
इससे पांडेयजी को बड़ी झुझलाहट होती। इसकी एक और वजह थी। उन दिनो मंचों पर छाई रहीं कवयित्री माया गोविंद पांडेयजी को उनके सुमित्र हरिवंश राय बच्चन से मिलवाने ले जाना चाहती थीं। उस वक्त दिनो उनके पुत्र अमिताभ बच्चन 'कुली' के फिल्मांकन में घायल होने के बाद 'प्रतीक्षा' में स्वास्थ्य लाभ कर रहे थे। माया गोविंद के साथ उनके दामाद भी थे, जो बच्चन जी से मिलने के बहाने अमिताभ बच्चन से मिलना चाहते थे। पांडेयजी बार-बार मुझसे पूछते कि क्या करें। मेरा विचार था कि पहले रिकार्डिंग हो जाए, फिर समय बचता है तो बच्चनजी से मिलने चलें क्योंकि रामावतार त्यागी उन दिनो साहित्यिक विरासत के तौर पर देश के प्रमुख कवि-साहित्यकारों के शब्द उनकी जुबानी रिकार्ड करा रहे थे।
भीतर से मन तो मेरा भी था कि बच्चन जी से मुलाकात हो जाए, क्योंकि पांडेयजी से उनकी अंतरंग मित्रता के दिनो की अनेकशः कहानियां सुन रखी थीं किंतु तब तक मुलाकात नहीं हुई थी। इस बीच बच्चन जी के फोन आते रहे कि 'पांडेय कब पहुंचोगे, मैं तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं!' अंततः पांडेयजी पहले बच्चन जी से मिलने पहुंचे, साथ में माया गोविंद और उनके दामाद सहित हम तीनो भी। उस मुलाकात की बात विस्तार से और कभी। उस दिन इतना अप्रिय जरूर हुआ कि अमिताभ मिले नहीं। ज्योंही हम 'प्रतीक्षा' के मुख्य द्वार में प्रविष्ट हुए, परिसर के मंदिर से निकलकर अमिताभ सीधे अपने विश्राम कक्ष में चले गए। फिर लाख मिन्नत पर भी मिलने नहीं निकले।
वहां से हम पहुंचे रामावतार त्यागी के साथ रिकार्डिंग रूम। श्याम नारायण पांडेय 'हल्दीघाटी' का कविता पाठ करते रहे, और हम तीनो को साथ में वाह-वाह करने के लिए बैठा लिया गया। उन दिनो रामावतार त्यागी सांस की बीमारी से परेशान थे। बमुश्किल रिकार्डिंग करा सके लेकिन उस वाकये जैसे वक्त से एक सीख मिली कि उन दिनो बंबई जैसी चमक-दमक की दुनिया में भी साहित्य को लेकर वहां के चुनिंदा कवि-साहित्यकारों में कितना अनुराग और तल्लनीनता थी। 'हल्दीघाटी' का वह रिकार्ड कविता-पाठ तो कभी सुनने को नहीं मिला और रामावतार त्यागी भी नहीं रहे लेकिन कविता के प्रति उनकी लगन और मेहनत आज भी प्रेरणा देती रहती है। काश, वह रिकार्डिंग सुनने को कहीं से मिल जाती-

'रण बीच चौकड़ी, भर भरकर,
चेतक बन गया निराला था,
राणा प्रताप के घोड़े से,
पड़ गया हवा का पाला था'...।     

किसी मंच पर श्याम नारायण पांडेय जब ये पंक्तियां पढ़ रहे थे (...चेतक बन गया निराला था), मंच पर मौजूद निराला जी चौंक पड़े थे- क्या कहा, 'निराला' था!

Thursday 15 February 2018

चोंच जी ने कहा - सुधारूंगा या सिधारूंगा

'सांड़', 'सूंढ़', 'चकाचक', 'झंड', 'भंड' जैसे नाना प्रकार के विकालांग नामों वाले आज तो तमाम कवि सुर्खियों में रहते हैं। आज क्या, पिछले कई दशकों से। इन ऐसों-वैसों के नाम गूंजते चले आ रहे हैं और अब तो हंसोड़ जोकर और मदारी कवि के रूप में मंचों से भांड़-भंड़ैती करते रहते हैं, कथित कविता की हर लाइन पर श्रोताओं से तालियों की भीख मांगते रहते हैं, लेकिन स्वस्थ हास्य का भी एक ऐसा जमाना गुजरा है, जिस पर हिंदी साहित्य को गर्व है। हमारे वैसे ही पुरखों में एक थे हास्यकवि कांतानाथ पांडेय 'चोंच'। आज भी 'चोंच बनारसी' के नाम से उन्हें बड़े आदर के साथ याद किया जाता है। वह अत्यंत प्रतिभा संपन्न 'आशु कवि' भी थे। 'आशु कवि' यानी किसी भी परिवेश पर, किसी भी विषय पर तुरंत कविता लिख देने में निपुण। हमारे उस जमाने के पुरखा कवि सिर्फ अच्छी कविताएं ही नहीं लिखते थे, वह अपनी जीवनचर्या से भी समाज को सीख देते थे।
कवि चोंच बनारसी के साथ घटा एक अत्यंत दुखद वाकया उसका एक जीवंत साक्ष्य है। जब उन्होंने वाराणसी के हरिश्चंद्र डिग्री कॉलेज में प्रिंसिपल का पद संभाला तो उस वक्त परिसर का माहौल काफी खराब था। कोई भी समझदार अभिभावक उस कॉलेज में अपने बच्चे को पढ़ने नहीं देना चाहता था। चार्ज संभालते ही चोंचजी ने शपथ ली कि वह कॉलेज का बिगड़ा माहौल या तो सुधारेंगे, या वहां से सिधारेंगे यानी चले जाएंगे। सबसे पहला काम उन्होंने यह किया कि कॉलेज में अराजक छात्रों का एडमिशन तुरंत सख्ती से रोक दिया। इससे पूरे बनारस में हड़कंप सा मच गया। चूंकि उन दिनों काशी नगरी कवियों, साहित्यकारों का गढ़ हुआ करती थी, चोंचजी के सख्त फरमान से यह चर्चा पूरे पूर्वांचल के कवि-लेखकों के बीच भी फैल गयी। चोंचजी के दुस्साहस पर तरह-तरह की बातें होने लगीं।
कॉलेज में एक छात्र ऐसा भी था, जो बार-बार फेल होने के बावजूद गुंडई के बल पर वर्षों से वहां जमा हुआ था। किसी की हिम्मत नहीं थी कि कोई उसे कॉलेज से निकाल दे, उसे परिसर में न आने दे। जब चोंचजी का नोटिस सार्वजनिक हुआ तो वह अगले ही दिन चैंबर में बड़े ताव से आ धमका। पांव पटकते हुए उन पर खूब गुर्राया। आपे से बाहर हुआ। जान लेने की धमकी तक दे गया। लेकिन चोंचजी ने भी उसी की भाषा में उसे समझाते हुए किसी भी कीमत पर उसे प्रवेश न देने की ठान ली। इससे परिसर का माहौल काफी तनावपूर्ण हो गया। उस अराजक छात्र के जब साम-दाम-दंड-भेद, सारे जतन विफल हो गए, एक दिन उसने कॉलेज से रिक्शे पर घर लौटते समय चोंचजी पर पीछे से खूनी वार कर दिया। चाकू उनकी रीढ़ की हड्डी में लगा। घटना के बाद वह तो भाग गया, चोंच जी गंभीर रूप से घायल हो गए। उसी रिक्शे से उन्हें तुरंत अस्पताल पहुंचाया गया।
इस घटना के बाद काशी के कवि-लेखकों में रोष फैल गया। जैसे पूरा बौद्धिक वर्ग विरोध में मुखर हो उठा। हर तरफ से प्रशासन की फजीहत होने लगी। पुलिस हमलावर का पता लगाने में जुट गई। उसी दौरान पुलिस की टीम बार-बार चोंच जी के ठिकाने पर भी पूछताछ के लिए पहुंचने लगी। पुलिस चाहती थी कि हमलावर के खिलाफ पीड़ित (चोंचजी) की ओर से नामजद रिपोर्ट दर्ज करायी जाये। चोंचजी किसी भी कीमत पर छात्र का नाम बताने को तैयार नहीं ते। उनका कहना था कि गुनाह उस छात्र का नहीं, कॉलेज के माहौल का है, जिसे समय से ठीक करने का प्रयास नहीं किया गया। इसके लिए वे अभिभावक भी जिम्मेदार हैं, जिनके बच्चे कॉलेज के इतने खराब माहौल में भी अब तक पढ़ने के लिए भेजे जाते रहे हैं। आखिरकार, उस घटना के छह महीने बाद घायल चोंचजी की मौत हो गई। अंत तक उन्होंने हमलावर का नाम अपनी जुबान पर नहीं आने दिया तो नहीं ही आने दिया। चोंचजी सिधार जरूर गए लेकिन उसके बाद कॉलेज का माहौल सुधर गया।
आजकल के शिक्षकों अथवा कवि-सम्मेलनी जोकरों, मदारियों से समाज अथवा परिसरों के बिगड़ते माहौल में उस तरह की कुर्बानियों की उम्मीद करना नासमझी होगी। मंच के हंसोड़ों को तो पैसा बटोरने से फुर्सत नहीं है। जरूरत तो आज भी है चोंचजी जैसे कवि-लेखकों, शिक्षकों की, हमारे सामने हर पल। लेकिन अब वैसा साहस कहां। उसमें हम कहां हैं, कैसे हैं, किस भूमिका में हैं, बात गौरतलब लगती है। साहित्यिक सन्नाटे में आज सबसे बड़े गुनहगार वे लगते हैं, जो नई पीढ़ी को सही राह दिखाने में लापता हैं। यही वजह है कि पिछले दो दशकों में कविता की एक भी ऐसी किताब नहीं आयी है, जिसके बारे में आम पाठकों के मुंह से कुछ सुनाई पड़े। ऐसों-वैसों के बारे में खिन्नमना तीक्ष्णता से इतना भर कहा जा सकता है कि वे सिर्फ.... 'परस्परम् प्रशंसति, अहो रूपम्, अहो ध्वनिः।'

कवि-मित्र का पुत्र मोस्ट वांटेड !

मेरे एक साहित्यिक मित्र थे। वीर रस की कविताएं लिखते थे। पेशे से टीचर थे। अभी हैं लेकिन अब न कवि हैं, न मित्र हैं, न टीचर हैं। जो हैं, सो हैं। बड़ी सांसत में हैं।
मित्रता के दिनो में उन्हे जब रत्ननुमा-पुत्र की प्राप्ति हुई तो उनका पूरा गांव उल्लास में शामिल हो गया था। दूर-दूर से नाते-रिश्ते के लोग जुटे। खूब बधाइयां मिलीं। तब आजकल की तरह गिफ्टबाजी नहीं होती थी। पहुंचना, स्नेहालाप, मित्रालाप ही पर्याप्त रहता था। पेशे के चक्कर में अपना गांव-पुर, कस्बा-शहर छूटा तो उस जन्मोत्सव के दशकों बाद दोबारा उनसे मुलाकात संभव न हो सकी।
वह मुझसे उम्र में काफी बड़े थे। बड़े पूजा-पाठ, मन्नतों के बाद वह इकलौता पुत्र पैदा हुआ था। पिता की ही तरह हृष्ट-पुष्ट। अपने शिक्षक पिता की साइकिल पर आगे बैठ कर रोजाना मैंने उसे बड़ा होकर स्कूल जाते देखा था। मुद्दत बाद अपने गांव-पुर पहुंचा तो पुराने दोस्तों-मित्रों के संबंध में हाल-चाल लेने लगा। जिनसे अब तक इक्का-दुक्का निभती रही थी, उन्हीं में एक मित्र ने उस सत्तर-अस्सी के दशक वाले साहित्यिक मित्र का दर्दनाक वाकया भी कह सुनाया, आह-उह करते हुए कि अरे उन महोदय की वीर-कविताई की तो ऐसी-तैसी हो चुकी है।
संक्षिप्ततः पूर्व साहित्यिक मित्र का ताजा एक दशक का जिंदगीनामा कुछ इस तरह है। पूर्व कविमित्र का इकलौता बेटा बड़ा होकर मोस्ट वांटेड हो गया। पुलिस की टॉप टेन लिस्ट में पहले नंबर पर। पूरा इलाका कांपने लगा। थानेदार को गोली से उड़ा दिया। ठेके पर मर्डर करने लगा। गिरफ्तार होकर जेल गया तो एक डिप्टी जेलर को ठिकाने लगा दिया। इस तरह वह जिले का सबसे बड़ा गुंडा बन गया। वीररस के कवि का वीर पुत्र।
उस दिन मित्र ने बताया कि अब तो बेचारे कविजी फिरौती के पैसे ठिकाने लगाते हैं। वीरपुत्र नेता बन गया है। जेल से ही नेतागीरी करता है। वीरकवि की बहू विधानसभा चुनाव लड़ने वाली है। एक माफिया उसे टिकट दिलाने वाला है। शायद ही कभी कोई अचंभे में रो पड़ा हो। उस दिन मैं पूर्व कविमित्र की व्यथा-कथा सुन कर अचंभे से रो पड़ा था।
कितनी अच्छी कविताएं लिखते थे वह। एक देशविख्यात महाकवि के सबसे प्रिय शिष्यों में गिने जाते रहे हैं। अब अपने पुत्र की माफिया-राजनीतिक यश-प्रतिष्ठा से काफी आह्लादित रहते हैं। दूर-दूर तक नयी पीढ़ी के लोग जानते हैं कि वो फलाने सिंह के पिता हैं।
जिले के साहित्यकारों को अब कोई आंख नहीं दिखा सकता है। उनके पास सब-कुछ है, बस कविता नहीं है।