Thursday 22 February 2018

घुमंतू कबीलों वाले कवि आनंद परमानंद

वाराणसी के बुजुर्ग कवि आनंद परमानंद ऐसे रचनाकार हैं, जिन पर त्रिलोचन ने भी कविता लिखी। जाने कितने तरह के बोझ मन पर लादे-फादे हुए। अंदर क्या-कुछ घट रहा होता है, जो चुप्पियों से शब्दभर भी फूट नहीं पाता है। जैसे सड़क की भीड़ के बीच कोई अनहद एकांतिकता। भीतर आग, बाहर शब्दों से तप्त झरने फूटते हुए। कभी घंटों स्वयं में गुम, कभी अचानक धारा प्रवाह, राजनीति से साहित्य तक, डॉ.लोहिया से डॉ. शंभुनाथ सिंह तक, गीत-ग़ज़ल से नवगीत तक, अंतहीन, प्रसंगेतर-प्रसंगेतर। साथ का हरएक चुप्पी साधे, विमुग्ध श्रोताभर जैसे।
परमानंद की प्रकांडता का एक आश्चर्यजनक पक्ष है, उनमें संचित जीवंत अथाह स्मृतियां।

शब्द के जोखिम उठाता हूं, तो गीतों के लिए।
दर्द से रिश्ते निभाता हूं, तो गीतों के लिए। 
गूंगी पीड़ा को नया शब्दार्थ देने के लिए,
भीड़ में भी छटपटाता हूं, तो गीतों के लिए।  
सोचकर खेतों में ये प्रतिबद्धताएं रोपकर,
नये सम्बोधन उगाता हूं, तो गीतों के लिए। 
माथ पर उंगली धरे सच्चाइयों के द्वार की,
सांकलें जब खटखटाता हूं, तो गीतों के लिए।
जिनके चेहरों पर हंसी फिर लौटकर आयी नहीं,
उनकी खातिर बौखलाता हूं, तो गीतों के लिए। 
ओढ़कर कुहरे पड़ी चुपचाप ठंडी रात में,
पत्तियों सा खड़खड़ाता हूं, तो गीतों के लिए। 
मिल गया मौसम सड़क पर जब असभ्यों की तरह,
वक्त को कुछ बड़बड़ाता हूं, तो गीतों के लिए। 

जब तक साथ, सोचते रहिए कि ये आदमी है या कोई मास्टर कम्यूटर। भला किसी एक आदमी को इतनी बातें अक्षरशः कैसे याद रह सकती हैं, जबकि उम्र अस्सी के पार, स्मृतिभ्रंश की आशंकाओं से भरी रहती है। दरअसल, आनंद परमानंद दुष्यंत परंपरा के सशक्त ग़ज़लकार हैं। एक जमाने में इनकी ग़ज़लें प्रायः मंचों पर अपना प्रभाव स्थापित करती रही हैं। वह आदमी की तरह जिंदगी काटते हैं। आज तो यह आशंका जन्म लेने लगी है कि सही आदमी सड़क पर भी रह पाएगा अथवा नहीं। आखिर वह जाए भी तो कहां जाए। उनकी ग़ज़लें पढ़कर इस बात पर प्रसन्नता होती है कि कम से कम उन्होंने नकली और बनावटी बातें तो नहीं कही हैं।

कड़ी चिल्लाहटें क्यूं हैं इसी तस्वीर के पीछे।
मरा सच है कहीं फिर क्या उसी प्राचीर के पीछे। 
यहां तो बेगुनाहों ने तड़प कर जिंदगी दी है,
खड़ा इतिहास है रोता हुआ जंजीर के पीछे।
बहुत बेआबरू संवेदनाएं जब हुई होंगी,
बड़ी हलचल मची होगी नयन के नीर के पीछे।
कठिन संघर्ष में संभावनाएं जन्म लेती हैं,
इसी उम्मीद में वह है खड़ा शहतीर के पीछे। 
समय की झनझनाहट सुन, बराबर काम करते चल,
न लट्टू की तरह नाचा करो तकदीर के पीछे।
कलम जो जिंदगी देगी, कहीं फिर मिल नहीं सकती,
अरे मन अब कभी मत भागना जागीर के पीछे। 
सरल अभिव्यंजनाएं गीत में बिल्कुल जरीरी हैं,
इसी से भागते हैं लोग ग़ालिब, मीर के पीछे।

आनंद परमानंद की ग़ज़लों के विषय भूख, गरीबी, बेरोजगारी, दलित, मजदूर, आदिवासी और किसान हैं। दहेज, लड़कियां, नारी, दंगे-फसाद जैसी समस्याएं हैं। इस कवि में, जिसे, चिंतनशील फ्रिक्रोपन कहते हैं, ग़ज़लों में अंत्यानुप्रास की नवीनता प्रशंसनीय है, जहां हिंदी भाषा की सामर्थ्य और कहन की शिष्टता-शालीनता दिखाई पड़ती है। जिंदगी की हद कहां तक है, जानते हुए, तनी रीढ़ से ललकारते आठ दशक पार कर गए ठाट के कद वाले इस कवि के शब्दों की लपट किसी भी कमजोर त्वचा वाले शब्द-बटोही को झुलसा सकती है।

खेलते होंगे उधर जाकर कहीं बच्चे मेरे। 
वो खुला मैदान तट पर है, जिधर बच्चे मेरे। 
भूख में लौटा हूं, पैदल रास्ते में रोककर,
मांगते हैं सेव, केले, ये मटर बच्चे मेरे। 
साइकिल, छाता, गलीचे भी बनाना सीख लो,
काम देते हैं गरीबी में हुनर बच्चे मेरे। 
भूख, बीमारी, उपेक्षा, कर्ज, महंगाई, दहेज,
सोच ही पाता नहीं, जाऊं किधर बच्चे मेरे।
जंतुओं के दांत-पंजों में जहर होता मगर
आदमी की आंख में बनता जहर बच्चे मेरे।
जो मिले, खा-पी के सोजा, मत किसी का नाम ले
कौन लेता है यहां, किसकी खबर बच्चे मेरे। 
संस्कृतियां जब लड़ीं, सदियों की आंखें रो पड़ीं,
खंडहर होते गए, कितने शहर बच्चे मेरे। 
यह बनारस है, यहां तुम पान बनकर मत जियो,
सब तमोली हैं, तुम्हे देंगे कतर बच्चे मेरे। 
तुम मेरे हीरे हो, मोती हो, मेरी पहचान हो,
मेरे सब कुछ, मेरे दिल, मेरे जिगर बच्चे मेरे। 
गालियां ग़ालिब, निराला खूब सहते थे यहां,
यह कमीनों का बहुत अच्छा शहर बच्चे मेरे। 

मन से तरल इतने कि गोष्ठियों से मंचों तक कुछ उसी तरह शब्दों के साथ-साथ आंखों से बूंदें अनायास छलकती रहती हैं, जैसेकि कभी कवि अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध कक्षा में अपने छात्रों को पढ़ाते हुए भावुक हो जाया करते थे। बुढ़ौती के कठिन-कठोर ठीये पर आज भी स्वभाव में बच्चों-सी हंसी-ठिठोली भरे अंदाज के आनंद परमानंद कहते हैं कि-

गरीबों के घरों तक जायेगा ये कारवां अपना। 
बदलते मंजरों तक जायेगा ये कारवां अपना। 
विचारों की मछलियां छटपटाकर मर नहीं जायें,
उबलते सागरों तक जायेगा ये कारवां अपना। 
तरक्की के तराजू पर नहीं तौले गये अब तक,
दबाये आखरों तक जायेगा ये कारवां अपना। 
जहां सदियों से डेरे डालकर रहती समस्याएं,
वो छानी-छप्परों तक जायेगा ये कारवां अपना। 
जिन्हें हैं दुरदुराती वक्त की लाचारियां अक्सर
उन्हीं आहत स्वरों तक जायेगा ये कारवां अपना। 
जो ढरकी से लिखा करते नया इतिहास परिश्रम का
सभी उन बुनकरों तक जायेगा ये कारवां अपना। 
बताओ कब रुकेगा आबरू की आंख का पानी
तुम्हारे उत्तरों तक जाएगा ये कारवां मेरा। 

आनंद परमानंद की कविता ही नहीं, इतिहास और पुरातत्व में भी गहरी अभिरुचि है। 'सड़क पर ज़िन्दगी' उनका चर्चित ग़ज़ल संग्रह है। जब भी उनकी रगों पर उंगलियां रखिए, दर्द से तिलमिलाते हुए भी सन्नध शिकारी की तरह दुश्मन-लक्ष्य पर झपट पड़ते हैं, व्यवस्था की एक-एक बखिया उधेड़ते हुए स्वतंत्रता संग्राम के इतने दशक बाद भी देश के आम आदमी का दुख और आक्रोश उनके शब्दों में धधकने लगता है-

ये बंधन तोड़कर बाहर निकलने की तो कोशिश कर।
सड़क पर जिंदगी है यार, चलने की तो कोशिश कर।
हवा में मत उड़ो छतरी गलतफहमी की तुम ताने,
कलेजा है तो धरती पर उतरने की तो कोशिश कर। 
जहां दहशतभरी खामोशियों में लोग रहते हैं,
तू उस माहौल को थोड़ बदलने की तो कोशिश कर। 
हकीकत पर जहां पर्दे पड़े हों, सब उठा डालो,
ये परिवर्तन जरूरी है, तू करने की तो कोशिश कर। 
जलाकर मार डालेगी तुम्हे चिंता अकेले में,
कभी तू भीड़ से होकर गुजरने की तो कोशिश कर। 
कठिन संघर्ष हो तो चुप्पियां मारी नहीं जातीं,
नयी उत्तेजना से बात कहने की तो कोशिश कर। 
खुला आतंक पहले जन्म लेता है विचारों में,
परिंदे भी संभलते हैं, संभलने की तो कोशिश कर। 
जरूरत है मुहब्बत-प्यार की, सद्भावनाओं की,
मिलेगा किस तरह, इसको समझने की तो कोशिश कर। 

वाराणसी के ग्राम धानापुर (परियरा), राजा तालाब में 01 मई सन 1939 को पुरुषोत्तम सिंह के घर जनमे आनंद परमानंद आज भी गीत, ग़ज़लों के अपने रंग-ढंग के अनूठे कवि हैं। मिजाज में फक्कड़ी, बोल में विचारों के प्रति जितने कत्तई अडिग, कोमल भावों में मन-प्राण के उतने ही शहदीले। बेटियां उनके शब्दों में मुखर होती हैं, कई अध्यायों वाले घर-परिवारों के महाकाव्य की तरह, जिसमें अनुभवों की सघन पीड़ा भी है और वात्सल्य का अदभुत सामंजस्य भी-

फटे पुराने कपड़ों में यह मादल-डफली वाली लड़की।
जंगल से पैदल आयी है, पतली-दुबली-काली लड़की।
बड़े-बड़ों की बेटी होती, पढ़ती-लिखती, हंसती-गाती,
फोन बजाती, कार चलाती, लेती हाथ रुमाली लड़की। 
गा-गाकर ही मांग रही है, फिर भी गाली सुन जाती है,
लो, प्रधान के घर से लौटी लिये कटोरी खाली लड़की। 
ईर्ष्या-द्वेष कलुषता से है परिचय नहीं वंशगत इसका,
नीची आंखें बोल रही हैं, कितनी भोली-भाली लड़की। 
इसका तो अध्यात्म भूख है, इसका सब चिंतन है रोटी,
गली-गली, मंदिर-मस्जिद हैं, दाता-ब्रह्म निराली लड़की। 
मानवता के आदि दुर्ग पर लगा सभ्यता का जो ताला,
संसद को भी पता नहीं है, किस ताले की ताली लड़की।
दुर्योधन से बेईमान-युग के प्रति गुस्सा भरकर मन में,
भीम तुम्हीं से रक्त मांगती होगी यह पंचाली लड़की।

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