Sunday 21 September 2014

साहिर लुधियानवी

ये ऊँचे ऊँचे मकानों की ड्योढियों के तले
हर एक गाम पे भूखे भिकारियों की सदा
हर एक घर में ये इफ़्लास और भूख का शोर
हर एक सिम्त ये इन्सानियत की आह-ओ-बुका
ये कारख़ानों में लोहे का शोर-ओ-गुल जिसमें
है दफ़्न लाखों ग़रीबों की रूह का नग़्मा
ये शाहराहों पे रंगीन साडि़यों की झलक
ये झोंपड़ियों में ग़रीबों की बेकफ़न लाशें
ये माल रोड पे कारों की रेल पेल का शोर
ये पटरियों पे ग़रीबों के ज़र्दरू बच्चे
गली गली में ये बिकते हुए जवाँ चेहरे
हसीन आँखों में अफ़्सुर्दगी सी छाई हुई
ये जंग और ये मेरे वतन के शोख़ जवाँ
खरीदी जाती हैं उठती जवानियाँ जिनकी
ये बात बात पे कानूनो जाब्ते की गिरफ़्त
ये जिल्‍लतें ये ग़ुलामी ये दौर-ए-मजबूरी
ये ग़म बहुत हैं मेरी ज़िंदगी मिटाने को
उदास रह के मेरे दिल को और रंज न दो