Monday 30 September 2013

आज है मजरूह सुल्तानपुरी का दिन


सन 1919 में आज ही के दिन एक अक्तूबर को उर्दू शायर मजरूह सुल्तानपुरी का जन्म हुआ था. 1950 और 1960 के दशकों में मजरूह का हिन्दी फिल्मों के संगीत पर गहरा प्रभाव रहा. मजरूह सुल्तानपुरी आजमगढ़ के निजामाबाद में पैदा हुए जहां उनके पिता पुलिस में काम करते थे. वह नहीं चाहते थे कि उनके बेटे को अंग्रेजी में तालीम दी जाए इसलिए उन्हें मदरसा भेजा गया जहां उन्होंने अरबी और फारसी सीखी. उसके बाद मजरूह लखनऊ के तकमील उत तिब यूनानी कॉलेज में दाखिल हुए और हकीम के तौर पर पैसे कमाने की कोशिश करने लगे. इसी दौरान सुल्तानपुर में उन्होंने एक मुशायरे में अपनी गजल पेश की. उनकी यह गजल इतनी मशहूर हुई की उन्होंने अपनी हकीम की दुकान बंद कर केवल गजल लिखने का फैसला किया. यादों की बारात, तीसरी मंजिल, हम किसी से कम नहीं, कयामत से कयामत तक और जो जीता वही सिकंदर जैसे फिल्मों में गीतों के बोल मजरूह ने ही दिए. मजरूह को वैसे तो हिन्दी फिल्मों में गीत लिखने के लिए जाना जाता हैं लेकिन उनकी कविताएं भी बहुत मशहूर हुईं. मजरूह की मौत साल 2000 में मुंबई में हुई. मजरूह सुल्तानपुरी की शायरी और फिल्मी नग्मों में जमीन से गहराई तक जुड़े उनके सरोकारों की छाप मिलती है। इसके अलावा, उन्होंने इश्क के तरानों को भी अपनी लेखनी से नए आयाम दिए हैं। मैं अकेला ही चला था जानिबे-मंजिल मगर, लोग आते गए और कारवां बनता गया।.......बचा लिया मुझे तूफां की मौज ने वर्ना, किनारे बाले सफीना मेरा डुबो देते (सफीना - नाव)। ...........रहते थे कभी जिनके दिल में, हम जान से भी प्यारों की तरह, बैठे हैं उन्हीं के कूंचे में हम, आज गुनहगारों की तरह।...........दुनिया करे सवाल तो हम क्या जवाब दें, तुमको ना हो ख्याल तो हम क्या जवाब दें ...जफा के नाम पर तुम क्यों संभलकर बैठ गए, तुम्हारी बात नहीं, बात है जमाने की। (जफा : जुल्म)। ...पहले सौ बार इधर और उधर देखा है, तब कहीं डर के तुम्हें एक नार देखा है।....क्या ग़लत है जो मैं दीवाना हुआ, सच कहना......मेरे महबूब को तुम ने भी अगर देखा है, ये आग और नहीं दिल की आग है नादां। .......चिराग हो के न हो, जल बुझेंगे परवाने, शमा भी, उजाला भी मैं ही अपनी महफिल का, मैं ही अपनी मंजिल का राहबर भी, राही भी। ......मिली जब उनसे नार, बस रहा था एक जहां, हटी निगाह तो चारों तरफ थे वीराने, तकदीर का शिकवा बेमानी, जीना ही तुझे मंजूर नहीं।

अमेरिका में शटडाउन का ऐलान, सभी सरकारी दफ्तर बंद


सरकारी खर्च विधेयक पर अमेरिकी कांग्रेस मे सहमति नहीं बन पाने के कारण ह्वाइट हाउस ने सभी गैर जरूरी सरकारी एजेंसियों को बंद करने का आदेश दे दिया है। तकरीबन 10 लाख सरकारी र्कमचारियो को बिना वेतन छुट्टी पर भेजा जा सकता है। 17 साल में यह पहला मौका है जब अमेरिकी अर्थव्यवस्था में ऐसी स्थिति पैदा हुई है। राष्ट्रपति बराक ओबामा द्वारा लाये जा रहे स्वास्थ्य रक्षा कानून का विरोध कर रहे रिपब्लिकन पार्टी के नेता सरकारी व्यय विधेयक को पारित करने पर राजी नहीं हुए जिससे जारी वित्त वर्ष की बाकी अवधि के लिए बजट की व्यवस्था की जानी है। स्वास्थ्य रक्षा कानून को अमेरिका में ओबामा रक्षा कानून भी कहा जा रहा है। इससे अर्थव्यवस्था पर भारी बोझ पड़ेगा। रिपब्लिकन पार्टी की मांग है कि अगर सरकार सरकारी खर्च विधेयक पारित कराना चाहती है तो वह स्वास्थ्य रक्षा कानून वापस ले। सरकारी खर्च विधेयक पारित नहीं होने के कारण जारी वित्त वर्ष में सरकारी खर्च के लिए बजट की कमी हो गई है। लेकिन ओबामा और उनकी डेमोक्रटिक पार्टी इस बात पर अड़ी है कि वे किसी भी सूरत मे स्वास्थ्य रक्षा विधेयक से समझौता नहीं करेंगे। बजट पर गतिरोध लंबा खिंचने से 17 साल बाद एक बार फिर से अमेरिका को शटडाउन का सामना करना पड़ा है। अमेरिका की सत्ताधारी पार्टी डेमोक्रेट्स और विपक्षी दल रिपब्लिकन संघीय बजट पर सहमति नहीं बनी, जिसके बाद ये फैसला लेना पड़ा। अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा और विपक्षी रिपब्लिकन पार्टी चालू वित्त वर्ष के बचे हुए छह महीनों के लिए वित्तीय प्रबंधन पर कोई फैसला नहीं ले पाए। 17 साल बाद वित्त की कमी के कारण अमेरिकी सरकार को फिर शटडाउन करना पड़ा है। संघीय एजेंसियों और कार्यक्रमों के लिए पैसे की कमी होने पर एंटीडेफिशिएंसी एक्ट के मुताबिक संघीय एजेंसियों को अपना कामकाज रोकना पड़ता है। प्रशासन बजट न होने के कारण कर्मचारियों की छुट्टी कर देता है। इस दौरान उन्हें वेतन भी नहीं दिया जाता है। दरअसल, अमेरिका में ओबामा प्रशासन को संघीय बजट के लिए विपक्षी रिपब्लिकन पार्टी से जूझना पड़ रहा है। इस शटडाउन का असर कई जरूरी सेवाओं पर असर पड़ने के साथ अर्थव्यवस्था पर भी असर पड़ेगा। इससे पहले 1995 में अमेरिकी प्रशासन को शटडाउन का सामना करना पड़ा था, जिससे अमेरिकी अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहुंचा था। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि शटडाउन का अमेरिकी अर्थव्यस्था पर काफी बुरा असर पड़ सकता है। अमरीकी संसद के ऊपरी सदन यानी सीनेट ने बजट बिल को नकारते हुए इसे निचले सदन यानी प्रतिनिधि सभा को वापिस भेजा है। राष्ट्रपति बराक ओबामा का हेल्थकेयर क़ानून जिसे ओबामाकेयर कहा गया है, इस राजनैतिक अड़चन की मुख्य वजह है। प्रतिनिधि सभा में रिपब्लिकन सदस्यों और सीनेट में उनके सहयोगियों ने मांग करते हुए कहा कि इस कानून को वापस लिया जाए या इस पर होने वाले खर्च के लिए पैसा ना दिए जाएं तभी वो सरकारी ख़र्च के लिए बिल पारित करेंगे।

Friday 27 September 2013

संगीता ने 13 साल में लिखी किताब


संगीता पी. मेनन मल्हान ने 'टीओआई' पर एक किताब लिखी है. यह प्रोजेक्ट 13 वर्षों बाद पूरा हुआ. किताब को हार्पर कालिंस ने प्रकाशित किया है. Book Description...........‘Commercially, Samir Jain was the best thing that could have happened to The Times of India. But he destroyed an institution and made it a great big factory’  -- RITISH NANDY..The newspaper industry in India was once organized around unstated but  fairly rigid regulations. Until the 1980s, when Bennett, Coleman and  Company Limited, owners of The Times of India, The Economic Times and other publications, rewrote the rules – whether they were about pricing, advertorials or editorial freedom. Over the next two decades, the Indian newspaper industry found itself utterly transformed. In 1985, The Times of India had three editions with a circulation of a little over 5.6 lakh. By March 2012, it had become the largest selling English daily in the country, with fourteen editions and a circulation of over 45 lakh. As it grew, the newspaper ended up reinventing the rules of reportage, editorial policies  and marketing initiatives for the entire industry. Yet, very little is known  about how the Times Group changed the dynamics of the Indian media business. Sangita Malhan, a former journalist with The Times of India, set out to remedy this. She began by interviewing the journalists and  corporate honchos who had played crucial roles in the transformation of  the paper. What she has unearthed is a fascinating story of clashing egos,  changing visions and corporate makeovers. A must-read for industry  insiders as well as all those who are interested in the way news is produced and consumed in India. THE TOI STORY.......How a Newspaper Changed the  Rules of the Game. SANGITA P. MENON MALHAN HarperCollins Publishers India..For my parents and siblings  And for Teji, Avii and Kanwaldeep, who walked with me on this journey.  CONTENTS PROLOGUE........THINK OF NEWS MEDIA in India and the image that comes to mind is of aggressive, racy, out-of-breath, near-paroxysmal anchors sharing screen space with scrolls, images, graphics and ads, coaxing news angles out of diligent correspondents – all this, done slickly, tirelessly, in real time, through all our waking hours. The media1 scene appears as a grand frenzy; almost shambolic. A flurry of images, ideas, updates – and the familiar in-studio panellists – mingle in a relentless churn, in the battle for the TRP. At the last count, more than 800 private satellite television channels2 including 300 news channels3 across several languages were vying for viewer attention. The consumer is spoilt for choice when we also consider the print media that is on offer. While newspapers and magazines in the print form are in rapid decline in the West, they are more than holding their own in India. They may be less obstreperous than their television counterparts, but are not any less competitive. As of 31 March 2012, the total number of registered publications in India was 86,754, with the combined circulation of newspapers standing at 373,839,764.4 Their numbers, as well as circulation, have been growing handsomely over the years. The rate of growth of the combined publications over the previous year (2010-11) has been 5.51 per cent. And 4,545 new publications were registered in 2011-12.5 This media phenomenon in India is only a little over a decade old. Prior to that, the media was much smaller, more confined and far less competitive. Media players now are always at pains to make themselves distinct from their competitors (though to a lay viewer, they often end up looking alike). In contrast, newspapers in the 1980s and earlier, while having their individual and distinct personalities, had a lot in common in the way they looked at their business and the unstated rules around which they organized themselves. It may be said that Bennett, Coleman and Company Limited (BCCL), which owns The Times of India and The Economic Times, among others, was the first to break the rules. That set the stage for a seminal change in the Indian newspaper industry in the 1980s and ’90s. To be sure, several protagonists played a part in that transformation. But this one media group remained at the centre of it all. The BCCL story is probably one of the biggest corporate growth stories of that decade. Strangely, it has never received the attention it deserved. All the interconnections of that change have never been brought out. It is ironic that a newspaper group that regularly chronicles the rise and fall of business empires – and all that happens in between – should remain relatively obscure from public attention. Some of this has to do with the philosophy of the group as also the obsessively low profile of its vice chairman, Samir Jain. He is rarely, if ever, featured in his own publications. The photographers of the group are under instructions not to click his pictures for use in the papers. As for other publications and channels, his interactions are so few, with so many years between them, that opportunities to know his story through the popular media are practically non-existent. The group’s growth has not just been about its own numbers. It has profoundly impacted the media industry in India. If the media today is market-driven and profit-obsessed, the media before the 1980s was resolutely profit-averse. The market was rarely the media’s priority and it almost seemed to draw satisfaction from the fact that commerce did not govern its decisions. The transformation from an inward-looking and market-agnostic media, to the media as we consume it today, was led by BCCL. The media began breaking away from a sequacious past sometime in the mid-1980s. Until then, for decades, it saw itself in the role of a ‘watchdog of democracy’ contributing to ‘building the nation’. It had been at the forefront of India’s freedom movement. Although more than three decades had elapsed since then, and much had changed even within the media, its self-image was still tethered to its days of glory. The break that BCCL triggered was built around the idea that the media was also a business like any other. Like any business, it had to identify who its customers were, how its products and services would bring value to them and how much the business would make in return. As in any other business, it would have to compete with other companies, create its own value proposition and safeguard its bottom line. In many ways, this set the stage for what came thereafter in the media industry. With the advent of satellite television in the early 1990s and then the proliferation of news channels, the media has effectively gone to the other end of the spectrum in terms of following the dictates of the market. The BCCL’s transformation, though resented and controversial at that time, now seems far more measured in comparison. The BCCL story is also largely hidden from public view because one part of it had to do with the ‘truculent’  treatment of journalists in the group’s publications. The company chose to get rid of those who did not understand, or agree with, its new line; they were unceremoniously removed. The controversies surrounding the exit of journalists from The Times Group were analysed at some length in the past. They hit the headlines because fellow media persons took up the issue with great vigour, even as they, more or less, ignored the other aspects of the transformation of the group. The media in the 1980s was, of course, much smaller, far less competitive and a lot less to play for. Yet the moves were audacious for that time. Take, for example, changing the look, feel and content of The Economic Times, pricing it at a premium and then abruptly bringing down the price one-day-a-week to rake in the volumes – all this made for scintillating stuff. The group’s diligent but clever move to create a web of advertising rates for editions across the country also created new rules for the industry. Its move to cut the price of The Times of India and expand reach had a cascading effect on the industry. After some initial hesitation, many formerly sententious rivals followed suit. This meant that households in Delhi, for instance, could buy two newspapers for the same monthly bill. This, combined with certain other factors, led to an explosive growth in readership. To carry all this through, it was important that the organization worked as one integrated whole, focused on the overall objectives. That was not easy. Newspapers consciously separate the news side of the organization from the advertising and marketing functions. This is to maintain objectivity and ensure that news is not influenced by those advertising in it. While the same applied to BCCL, the separation had been taken too far. Each function operated as an island. The predominant position was with the lead writers. Many of its editors were erudite, well known among the intellectual middle class and respected in the corridors of power. Over time, however, this perhaps made them averse to change. They had strong, sometimes limiting, views on what was appropriate for a newspaper. There was resistance, though less publicized, on the marketing and advertising side as well. People had to shed years of inertia and wake up to the new experiments being undertaken. There was upheaval there as well, with some in the old guard yielding to a new crop of professional marketing and brand managers recruited from other sectors. All this action unfolded in the context of major changes in the media landscape, as also in the Indian economy. The latter half of the 1980s was an interesting time for the print media in India, which witnesed a magazine boom. There was also growth and expansion of newspapers, as some of the now prominent names entered the fray during that time. The electronic media was essentially Doordarshan. Although government-controlled, it had opened itself up to commerce. It was smartening up, having gone colour in 1982. More importantly, it was steadily expanding its reach across the country and owing to its captive position, governments saw it as a potent weapon to shape and strengthen perceptions. The Indian economy was taking its first wobbly steps towards liberalization. The new paradigm of openness and less government control had started to become visible. It would acquire momentum and clarity post-1991. But even in the mid-1980s, a new middle class was emerging in the metropolitan cities and large towns. In hindsight, it appears that the transformation in the BCCL was timed to coincide with these mega developments. Some insiders claim these were a conscious response to the context as it unfolded. Others argue that they were foreseen. Yet others claim that to a large extent these changes were defined and shaped by the experts at BCCL. What cannot be refuted is that the group experienced scorching growth in turnover, profits, reach and mindshare during the decade starting the mid-1980s. In 1985, it had a turnover of Rs 73.5 crore and a net profit of Rs 1.2 crore. The Times of India had three editions with a circulation of a little over 5.6 lakhs. By 2001, turnover had grown to Rs 1,214 crore. Net profit was at Rs 205.9 crore. On 5 June 2005, The Sunday Times carried an advertisement which declared, ‘Shakespeare sulks. Byron blinks. And Wordsworth wails…as The Times of India becomes the largest selling English newspaper in the world’ with 2,438,115 copies. There was further growth. As of March 2012, The Times of India is the largest circulated multi-edition daily in English in the country, with fourteen editions and a circulation of 4,575,895.6 The Economic Times is the second largest-selling business daily in the world, after the Wall Street Journal. The group publishes thirteen editions of newspapers and several magazines from eleven publishing and twenty-six printing centres and dominates the country’s English-language newspaper arena, which has more than 11,000 newspapers. All in all, the group has fifty editions across forty cities. The group’s financials too have come a long way. In the financial year that ended on 31 March 2011, the company earned profit before tax of Rs 1,489.2 crore on a total income of Rs 4,749.3 crore. Along with its newspapers, the group forges ahead with its two news channels, Times Now and ET Now, an entertainment, film and lifestyle channel (Zoom), a movies channel (Movies Now) and a radio network (Radio Mirchi). It also has OOH (out of home) advertising and event management ventures; and its investments span various other sectors such as music, films and real estate, among others. Much has happened in terms of the group entering new areas of business, catching up on the news television business, buying and selling new brands and putting a lot of focus on the web and Internet media. But it is reasonable to argue that the seeds for this prolific growth were sown in the early 1980s.....ABOUT THE AUTHOR...........Sangita P Menon Malhan is an Indian writer born in 1967, who began her journey by training to be a pilot but shifted careers in her mid-twenties and became a journalist in New Delhi. She has worked with The Statesman, Delhi Mid-Day and  The Times of India. In 2008, she veered towards writing fiction. Her first book, a collection of short stories for children, Rastapherain’s Tales, was published in 2010. ``The Time Has Come,’’ one of her short stories, was selected for 2011 New Asian Writing Short Story Anthology. She also has to her credit a collection of poems in Urdu, Nusrat-e-Gham. The TOI story has been in the works for 13 years, in fact as she told us, she almost gave up writing the book and then picked up the threads again to finally see it happen. She is fond of languages and teaches French. She lives in New Delhi.

Monday 23 September 2013

फ़ेसबुक की पहली महिला इंजीनियर रुचि सांघवी


 सौतिक बिस्वास

रुचि सांघवी जब कैलिफ़ोर्निया में वर्ष 2005 में फ़ेसबुक के दफ़्तर में नौकरी का इंटरव्यू देने पहुँचीं तो बाहर लगे कार्ड पर लिखा हुआ था, "इंजीनियरों की ज़रूरत है." ये नई शुरू हुई कंपनी पॉओलो ऑल्टो में एक चीनी रेस्तराँ के ऊपर से काम कर रही थी. जगह कोई ख़ास बड़ी नहीं थी और इंजीनियरों से भरी हुई थी. काले सोफ़े, लैंप और दीवारों पर चित्रकारी तथा फ़िल्मों के पोस्टर चिपके हुए. कार्नेगी मेलन विश्वविद्यालय से कंप्यूटर साइंस की इंजीनियर रुचि ने उसी साल की शुरुआत में वॉल स्ट्रीट पर एक बैंक की नौकरी सिर्फ़ तीन हफ़्तों बाद ही छोड़ दी थी. वह कहती हैं, "मैं अचानक घबरा गई थी. दरअसल मैं ऐसी जगह काम करना चाहती थी जहाँ मुझे अपनी क्षमताओं का सही इस्तेमाल करने का मौक़ा मिलता." वह इसके बाद कैलिफ़ोर्निया पहुँचीं, जहाँ उन्होंने ऑरैकल में इंटरव्यू दिया और काम शुरू किया. तभी उन्हें एक दोस्त ने फ़ेसबुक के बारे में बताया. रुचि बताती हैं, "मुझे उनके (फ़ेसबुक के) बारे में ज़्यादा पता नहीं था. मुझे ये भी नहीं पता था कि वे अब कैलिफ़ोर्निया से काम कर रहे हैं. मुझे लगा था कि वे अब भी बोस्टन में हार्वर्ड से ही काम कर रहे हैं." वे मुझे ये सब बातें सैनफ़्रांसिस्को में ड्रॉपबॉक्स कंपनी के अपने दफ़्तर में बैठकर बता रही थीं. 31 साल की रुचि अब ड्रॉपबॉक्स में ऑपरेशंस की वाइस प्रेसिडेंट हैं. इस कंपनी के दफ़्तर में कर्मचारी, गलियारों से स्केट्स पहनकर या पैर से धक्का देकर चलने वाले छोटे दोपहिया साधन से आते-जाते हैं. इसी बीच में कुछ लोग अपने काम से ब्रेक लेकर पूल खेल रहे हैं या वीडियो गेम्स में लगे हैं. लोगों को इन व्यस्त पलों में कुछ आराम देने के लिए बेहतरीन संगीत का भी एक कमरा है. ख़ैर, फ़िलहाल हम रुचि से ये बात कर रहे थे कि उन्हें फ़ेसबुक में नौकरी कैसे मिली और वह कैसे वहाँ की पहली महिला इंजीनियर बनीं. रुचि कहती हैं, "मैंने जब फ़ेसबुक में काम शुरू किया तो वहाँ सिर्फ़ 20 ही लोग थे. मैंने उसे हज़ार कर्मचारियों तक बढ़ते देखा और ये भी देखा कि फ़ेसबुक का इस्तेमाल करने वाले भी कैसे 50 लाख से बढ़कर एक अरब हो गए. मैंने देखा कि कैसे सिर्फ़ कॉलेज के छात्र-छात्राओं को जोड़ने का काम करने वाली एक सर्विस पूरी दुनिया में फैल गई." वह बताती हैं, "काफ़ी अफ़रा-तफ़री भरा समय था वो, मगर साथ ही बेहद ख़ूबसूरत अनुभव भी. मैंने सब कुछ वहीं सीखा." फ़ेसबुक में आपको जो न्यूज़ फ़ीड दिखती है, उसे बनाने वाली टीम का हिस्सा थीं रुचि. तो आख़िर फ़ेसबुक की पहली महिला इंजीनियर होने का अनुभव कैसा था, मैंने उनसे पूछा? रुचि कहती हैं कि उन्हें अपने संस्थानों में अल्पसंख्यक होने की आदत थी, क्योंकि उनके इंजीनियरिंग स्कूल में भी 150 लोगों की क्लास में सिर्फ़ पाँच ही लड़कियां थीं. फ़ेसबुक के अपने अनुभव के बारे में वह कहती हैं, "आपको ये सुनिश्चित करना होता था कि आपकी बात सुनी जाएगी, आपको सवाल पूछने होते थे. कई बार लोग आपसे कहेंगे कि आपने बहुत ही बेवकूफ़ी की बात की है तो आपको फिर से काम शुरू करना होगा. मगर कुल मिलाकर ये मेरिट के आधार पर तय होता था कि कौन आगे जाएगा, कौन नहीं. वहाँ सीखने के लिए बहुत ही अच्छा माहौल था." फ़ेसबुक में ही उनकी मुलाक़ात उनके भावी पति से भी हुई. रुचि जहाँ फ़ेसबुक में पहली महिला इंजीनियर थीं तो उनके पति वहाँ पहले भारतीय इंजीनियर थे. फ़ेसबुक के संस्थापकों में से एक और मुख्य कार्यकारी मार्क ज़करबर्ग के बारे में जब मैंने पूछा तो उन्होंने कुछ सोच-विचार के बाद कहा कि उन्हें ज़करबर्ग के बारे में बात करना ज़्यादा पसंद नहीं है. लेकिन फिर उन्होंने बात की. उन्होंने बताया कि कैसे फ़ेसबुक ने जब न्यूज़ फ़ीड शुरू किया तो उसके ख़िलाफ़ यूज़र्स में ग़ुस्सा भड़का और उसे ख़त्म करने की माँग ने ज़ोर पकड़ लिया था. रुचि के अनुसार, "जब न्यूज़ फ़ीड आया तो लगभग एक करोड़ लोग फ़ेसबुक का इस्तेमाल करते थे. मार्क इसकी घोषणा करने के लिए एक संवाददाता सम्मेलन में थे और लाखों लोगों ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया." पिछले ही साल रुचि ने उस घटना के बारे में ब्यौरा दिया भी था, "उस समय मुझे फ़ेसबुक से नफ़रत है या रुचि इसके लिए दोषी है जैसे ग्रुप बन गए थे. लोग हमारे दफ़्तर के बाहर कैंप लगाकर जमा हो गए थे और विरोध कर रहे थे. मगर फिर हमें लगा कि हमारे विरोध करने वाले और इसे नापसंद करने वाले लोग दरअसल फ़ेसबुक के न्यूज़ फ़ीड के ज़रिए ही अपनी बात और ज़्यादा लोगों तक पहुँचा पा रहे थे." रुचि बताती हैं कि उस समय मार्क ज़करबर्ग अपने फ़ैसले पर अडिग रहे. वह कहती हैं, "किसी और कंपनी में देखें तो अगर आपके 10 फ़ीसदी इस्तेमाल करने वाले लोग किसी उत्पाद का बहिष्कार कर दें तो निश्चित रूप से आप या तो फ़ैसला बदल देंगे या उस बारे में कुछ करेंगे. लेकिन मार्क अपनी सोच और न्यूज़ फ़ीड के भविष्य को लेकर अड़े हुए थे." रुचि ने जब साल 2010 में फ़ेसबुक छोड़ी तो कंपनी में डेढ़ हज़ार से ज़्यादा कर्मचारी थे और उसे इस्तेमाल करने वालों की तादाद 50 करोड़ तक पहुँच चुकी थी. उस समय रुचि अपनी कंपनी शुरू करना चाहती थीं इसलिए उन्होंने फ़ेसबुक को अलविदा कहा. पुणे शहर में बड़ी हुई इस लड़की ने पारिवारिक कारोबार सँभालने का सपना देखा था. उनके पिता दूसरी पीढ़ी के व्यापारी हैं और एक कंपनी चलाते हैं. उनके दादा का स्टेनलेस स्टील का बिज़नेस था. रुचि कहती हैं कि भारत में कुछ करना अगर आसान होता तो वह ज़रूर करतीं. वे कहती हैं, "हम एक उद्यमी परिवार के लोग हैं." लेकिन अब वह अमरीका में थीं और कंप्यूटर साइंस पढ़ने और फ़ेसबुक में काम करने के बाद उनके लिए दुनिया के दरवाज़े खुल गए. इसलिए उन्हें पति के साथ साल 2010 में अपनी कंपनी कोव स्थापित की. वहाँ इंजीनियरों की एक टीम की मदद से उन्होंने समुदायों और नेटवर्कों के लिए सॉफ़्टवेयर बनाए. अमरीका में आव्रजन के नियमों में ढिलाई के लिए लॉबिइंग कर रहीं रुचि बताती हैं, "एक कर्मचारी से उद्यमी बनने की राह जटिल थी और मेरे जैसे बाहर से आए व्यक्ति के लिए मुश्किल भी. मैंने जब कोव शुरू की तो मैंने आव्रजन से जुड़े तीन वकीलों से बात की और उन्होंने मेरी कंपनी को एक लंबी सूची पकड़ा दी. उस सूची के आधार पर काम करके ही मैं किसी बाहर के व्यक्ति को अपने यहाँ काम पर रख सकती थी." दो साल बाद फ़रवरी 2012 में कोव को ड्रॉपबॉक्स ने ख़रीद लिया. ड्रॉपबॉक्स में इंटरनेट के ज़रिए फ़ाइलें शेयर की जा सकती हैं. छह साल पुरानी कंपनी ड्रॉपबॉक्स के लगभग साढ़े सत्रह करोड़ यूज़र्स हैं और रुचि की भूमिका वहाँ काफ़ी अलग है. उन्होंने वहाँ लोगों को नौकरी देने से लेकर मार्केटिंग और कम्युनिकेशन तक पर काम किया है. मैंने पूछा कि क्या वे भारत में भी कुछ करने की योजना रखती हैं? इस पर रुचि ने बताया, "अगर वहाँ कुछ करना आसान होता तो मैं ज़रूर करना चाहूँगी. भारत में कुछ नया और रोचक करना मुश्किल है. वहाँ काफ़ी मसले और परेशानियाँ आ जाती हैं. ऑफ़िस में कई बार तो अच्छा इंटरनेट कनेक्शन भी नहीं मिलता." उन्होंने कहा, "ये अमरीका के इस सिलिकन वैली जैसा आसान नहीं है, जहाँ अगर आपके पास कुछ नया करने की कोई योजना हो तो आप सिर्फ़ अपनी कड़ी मेहनत से वो सपना साकार कर सकें. लेकिन भारत में जो लोग कुछ नया कर रहे हैं मैं उनकी तारीफ़ करती हूँ. इसके लिए काफ़ी प्रतिबद्ध होना पड़ता है." हँसते हुए वह बोलीं, "मुझे लगता है कि अमरीका में मैंने ये सब काफ़ी आसानी से कर लिया है." इसके बाद वे अगली मीटिंग के लिए अपने स्केट्स पर बढ़ गईं. (बीबीसी से साभार)

Thursday 19 September 2013

एक सेमीनार दलित राजनीति के आस पास



 शेष नारायण सिंह

ओस्लो विश्वविद्यालय में फोकस इंडिया  के तहत आयोजित ‘ भारत में जाति ‘ विषय पर आयोजित सेमीनार सितम्बर के दूसरे हफ्ते में संपन्न हो गया. एकेडमिक आयोजन था . ज़ाहिर है इससे उम्मीद की जानी चाहिए कि यह भविष्य की राजनीति के लिए मैटर उपलब्ध कराएगा . लेकिन सेमीनार का स्तर ऐसा नहीं था जिस से ऐसी कोई उम्मीद की जा सके. कहने को सेमीनार जाति पर आयोजित किया गया था लेकिन सारी बात मूल रूप से दलित राजनीति के आस पास ही मंडराती रही. जो दूसरा अजूबा था वह यह कि कुल १० पर्चे पढ़े गए जिसमें से  ६ पर्चे बंगाल के दलितों के इतिहास  भूगोल पर  आधारित थे.  २ उत्तर प्रदेश की दलित राजनीति की बात कर रहे थे , एक पर्चा जे एन यू के दलित छात्रों की राजनीति पर केंद्रित था और एक परचा ऐसा था जिसको अखिल भारतीय रंग दिया जा सकता है . डॉ अम्बेडकर को दलित राजनीति के सिम्बल के रूप में  स्थापित होने की प्रक्रिया का  विश्लेषण किया गया था ,यह पर्चा नार्वे के बर्गेन विश्वविद्यालय के प्रो.दाग एरिक बर्ग था और प्रो. बर्ग की वार्ता से साफ़ नज़र आया कि उन्होने अपने विषय की गंभीरता के साथ न्याय किया  है . इस सेमीनार का पहला पर्चा न्यूजीलैंड के विक्टोरिया विश्वविद्यालय के डॉ शेखर बंद्योपाध्याय ने प्रस्तुत किया. देश के बँटवारे के साथ साथ बंगाल की राजनीति में अनुसूचित जातियों की राजनीति और उससे जुडी समस्याओं का विषद विवेचन किया गया . उन्होंने अपनी तर्कपद्धति से साफ़ कर दिया कि यह धारणा गलत  है कि बंगाल में वर्ग की अवधारणा इतनी ज़बरदस्त जड़ें जमा चुकी है कि  जाति पार अब राजनीतिक और बौद्धिक विमर्श होना बेमतलब हो गया है . उन्होने २००४ के मिड डे मील विवाद के हवाले से बताया कि कई जिलों में ऊंची जाति के लोगों ने अपने बच्चों को वह खाना खाने से रोक दिया था जिसे दलित जातियों के लोगों ने पकाया था.  उन्होंने यह साबित करने की कोशिश की कि देश के विभाजन के बाद अनुसूचित जातियों के संगठित आंदोलन पर ब्रेक लग गयी थी और इसीलिये यह मिथ पैदा किया जा सका कि बंगाल में जाति का कोई मतलब नहीं होता . अविभाजित बंगाल में संगठित दलित आंदोलन में दो वर्गों की प्रमुखता थी . नामशूद्र और राजबंशी नाम से दलितों की पहचान होती थी . नामशूद्रों का इलाका पाकिस्तान में चला गया और जब वे १९५० के बाद भारत आने लगे तो उनके नेताओं का ध्यान मुख्य रूप से उनके पुनर्वास पर केंद्रित हो गया और जाति का सवाल दूसरे नंबर पर चला गया . वे पश्चिम बंगाल में शरणार्थी के रूप में पहचाने जाने लगे . उनको फिर से बसाने की समस्या मूल हो गयी , बाकी बातें बहुत पीछे छूट गयीं .जब उनकी आबादी ही तितर बितर हो गयी तो संगठित होने की बात बहुत दूर की कौड़ी हो गयी .  शेखर बंद्योपाध्याय के पर्चे में दलितों  और मुसलमानों के जिस सहयोग को पूर्वी बंगाल की राजनीति का आधार माना जाता था ,उसके तहस नहस होने की बात को भी समझाने की कोशिश की गई है . उनका निषकर्ष यह है कि आज भी दलितों की जाति आधारित पहचान का मुद्दा जिंदा है और तृणमूल कांग्रेस ने दलितों के मूल नेता , पी आर ठाकुर के एक बेटे को साथ लेकर चुनावी राजनीतिक सफलता हासिल की है . सेमीनार का दूसरा पर्चा एमहर्स्ट कालेज के द्वैपायन सेन का था. उन्होंने पश्चिम बंगाल की राजनीति से जाति के सवाल के गायब होने की बौद्धिक व्याख्या करने की कोशिश की और दावा किया कि  विभाजन पूर्व बंगाल की दलित राजनीति का बड़े नेता जोगेन्द्र नाथ मंडल की राजनीतिक महत्वाकांक्षा के हवाले से पश्चिम बंगाल में दलित राजनीति के विभिन्न आयामों की पड़ताल की गयी है लेकिन उनका दुर्भाग्य था कि उनके ठीक पहले  प्रो. शेखर बंद्योपाध्याय का  विद्वत्तापूर्ण पर्चा पढ़ा जा चुका था .इसलिए उनके पूरे भाषण  के दौरान ऐसा लगता रहा कि डॉ द्वैपायन सेन या तो पहले पर्चे की बातों को दोहरा रहे हैं और या तो पूरी तरह से रास्ता भटक गए हैं . दलित जातियों की राजनीति को बैकबर्नर  पर रखने के लिए उन्होने कभी कांग्रेस तो कभी कम्युनिस्टों को ज़िम्मेदार ठहराते हुए निर्धारित  बीस मिनट का समय पार कर लिया . यही उनके पर्चे की सबसे बड़ी उपलब्धि नज़र आयी . नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की राजनीति में दलितों की भूमिका पर केंद्रित लिथुआनिया के एक विश्वविद्यालय की विद्वान  क्रिस्टीना गार्लाइते ने पर्चा पढ़ा . उन्होने  जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पहचान की राजनीति के विभिन्न स्वरूपों की  चर्चा की .कुछ समय  तक  यूनिवर्सिटी के अंदर चली दलित राजनीति की गतिविधियों का बहुत ही अच्छा वर्णन क्रिस्टीना ने प्रस्तुत किया . जे एन यू के दलित प्राध्यापकों की राजनीति की परतों का भी बिलकुल सटीक विश्लेषण किया और यह भी लगभग साबित कर दिया कि कैम्पस में मौजूद दलित छात्र तो बहुत कम समय के लिए आते हैं लेकिन यहाँ जमे हुए प्राध्यापक उनको अपनी मुकामी राजनीति को चमकाने के लिए कैसे इस्तेमाल करते हैं . बिना नाम लिए हुए उन्होंने राष्ट्रीय राजनीतिक दलों , कांग्रेस , बीजेपी, बी एस पी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, सी पी आई ( एम एल ) के जे एन यू कैम्पस में मौजूद एजेंटों की भी अच्छी तरह से निशानदेही की .हालांकि क्रिस्टीना ने अपने पर्चे में यह बातें शिष्टाचार की सीमा में रहकर ही की थीं लेकिन जब श्रोताओं में मौजूद जे एन यू की कुछ पूर्व छात्राओं ने बात को आगे  बढ़ाया  तो कई परतें  खुल गयीं . साम्प्रदायिक राजनीति करने वालों की जो पोल जे एन यू की बीफ एंड पोर्क फेस्टिवल ने खोली थी वह भी एक बार सेमीनार के कक्ष में जिंदा  हो उठा और यह भी सामने आ गया कि किस तरह से कोर्ट के दखल के बाद ही  इस फेस्टिवल को रोका जा सका था.उस्मानिया विश्वविद्यालय में हुए उपद्रव का भी ज़िक्र हुआ और दलित राजनीतिक अस्मिता की एक अहम पहचान के रूप में किस तरह से इस कार्यक्रम को जे एन यू कैम्पस में पहचाना  गया .इस फेस्टिवल ने किस तरह से विभिन्न राजनीतिक पार्टियों से वफादारी रखने वाले लोगों को  एक्स्पोज़ किया ,यह भी चर्चा के दौरान  सामने आया . अमरीका के विश्वविख्यात शोध केन्द्र एम आई टी से आये अक्षय मंगला ने सर्वशिक्षा अभियान को उत्तर प्रदेश में शिक्षा और  जाति की राजनीति से जोड़ने की कोशिश की और लगा कि उन्होने अपने पर्चे को बिना  तैयारी के ही पेश कर दिया है . उन्होंने सर्वशिक्षा अभियान जैसे केन्द्र सरकार के आयोजन  को इस तरह से पेश किया जैसे वह उत्तर प्रदेश सरकार का ही कार्यक्रम हो . एक बार भी उन्होंने इस बात का ज़िक्र नहीं किया कि यह  केन्द्र सरकार की योजना है . सर्व शिक्षा अभियान बहुत बड़े पैमाने पर हेराफेरी का कार्यक्रम भी है इसका भी ज़िक्र नहीं हुआ.  उन्होंने सहारनपुर जिले के एक गाँव और उसके आस पास के कुछ गाँवों के आंकड़ों के सहारे कुछ साबित करने की कोशिश की लेकिन अंत तक समझ में  नहीं आया कि  बहुत बड़े पैमाने पर सामान्यीकरण करने की उनको क्या जरूरत  थी .  उन्होने दावा  किया कि शिक्षा के क्षेत्र में जो नौकरशाही सक्रिय है उसमें  ब्राह्मणों का एकाधिकार है . इस नौकरशाही में  उन्होने ग्राम प्रधान से लेकर शिक्षामंत्री तक को शामिल बताया .  जब उनसे पूछा गया कि  पंचायत चुनावों में और सरकारी नौकरियों में जो ५० प्रतिशत का रिज़र्वेशन है उसके बाद भी ब्राह्मणों का एकाधिकार कैसे बना हुआ है , तो वे बात को टालने की कोशिश करते नज़र आए. हालांकि इसके पहले ही उनकी बुनियादी अवधारणा  चकनाचूर हो चुकी थी. यह बात उनको भी मालूम है कि इतने जागरूक श्रोता वर्ग के बीच कोई असंगत बात कहकर पार पाना कितना मुश्किल होता है . वे  यह भी नहीं स्पष्ट कर पाए कि केवल सहारनपुर के एक  उदाहरण से वे पूरे उतर प्रदेश के बारे में कोई भी बात इतने अधिकारपूर्वक कैसे कह  सकते हैं , अगला पर्चा नार्वेजियन  इंस्टीट्यूट आफ इंटरनैशनल अफेयर्स की  डॉ. फ्रांसेस्का येंसीनियस का था. उनके पर्चे का टापिक था, ‘ अनुसूचित जाति के नेताओं के  बारे में धारणा, : उत्तर प्रदेश से सर्वे साक्ष्य ‘ . कानपुर देहात के जिले के रसूलाबाद और औरैया जिले के औरैया विधानसभा क्षेत्रों के कुछ आंकड़ों के आधार पर उन्होने अपनी बात समझाने की कोशिश की .. दोनों क्षेत्र बिलकुल आसपास हैं और पूरे उत्तर प्रदेश के अनुसूचित जातियों के नेताओं के बारे में  आम आदमी की राय को समझने के लिए एक ही इलाके के दो विधानसभा क्षेत्रों  को क्यों चुना गया यह बात श्रोताओं  में मौजूद बहुत लोगों की समझ में नहीं आयी. दोनों विधानसभा क्षेत्रों  के बीच की दूरी करीब ५० किलोमीटर से भी कम है .  सर्वे के लिए सैम्पल चुनने में इस पर्चे में भी वही विसंगति थी जो सर्वशिक्षा अभियान वाले पर्चे में केवल सहारनपुर को चुनकर की गयी थी. उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य के बारे में कोई भी अनुमान निकालने के पहले यह देखना ज़रूरी होता है उसके पूर्वी , मध्य और पश्चिमी भाग की राजनीतिक भौगोलिक हालात बिलकुल अलग अलग हैं. पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया , गोरखपुर आदि जिलों , मध्य उत्तर प्रदेश के कानपुर इटावा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर ,मेरठ जिलों की राजनीतिक सामाजिक सच्चाई कई बार एक द्दूसरे के बिलकुल खिलाफ होती है . लेकिन जब उन्होंने बताया कि कानपुर के किसी कालेज के एक प्रोफ़ेसर साहेब ने उनके लिए  आंकड़ों का संकलन करवाया था ,तब बात समझ में आ गयी कि अपनी सुविधा के हिसाब से अपने आसपास के इलाकों का सर्वे करवा कर इन प्रोफ़ेसर  साहेब ने काम निपटा दिया था. फ्रान्सेसका की शोध पद्धति और आंकड़ों की तुलना का तरीका बहुत ही अच्छा था लेकिन उत्तर प्रदेश की राजनीतिक सच्चाई से वाकिफ कोई भी व्यक्ति बता देगा कि दलित राजनेताओं के बारे में उन्होंने जो भी निष्कर्ष निकाले , वे किसी भी हालात में विश्वसनीय नहीं हैं . सेमीनार को बंगाल और उत्तर प्रदेश से कुछ हद तक बाहर ले जाने का काम बर्गेन विश्वविद्यालय के डॉ दाग एरिक बर्ग ने किया  . उन्होंने  दलितों की  पहचान के रूप में डॉ अम्बेडकर की आवधारणा पर चर्चा की  .हालांकि उनका भी फोकस उत्तर प्रदेश ही था लेकिन डॉ आम्बेडकर के व्यक्तित्व के अखिल भारतीय स्वरूप के कारण उनके चर्चा का दायरा बढ़ गया. पर्चे में डॉ बर्ग ने तर्क दिया कि दलितों के सामाजिक राजनीतिक बदलाव में डॉ अम्बेडकर की अन्य भूमिकाओं के अलावा कानून को प्रभावित कर सकने वाली भूमिका कितनी महत्वपूर्ण है.  इसके बाद फिर बंगाल हावी हो गया . बाद के चारों पर्चे बंगाल में दलितों के इतिहास भूगोल से संबंधित थे . मृतशिल्पियों  के बारे में ओस्लो विश्वविद्यालय की  मौमिता सेन का परचा बहुत सारी सूचनाओं से भरा हुआ था. कृष्णानगर और कुमारटोली के के कुम्हारों के  काम में हुए बदलाव को उन्होंने बहुत ही कुशलता से स्पष्ट किया . इन क्षेत्रों के कुम्भकारों ने दैवी प्रतिमा से शुरू करके महान विभूतियों की मूर्तियां बनाने के लिए जो यात्रा की है , मौमिता ने उसको राजनीतिक संदर्भों के हवाले से समझाने की सफलता पूर्वक कोशिश की. उन्होंने इस विषय पर कला इतिहासकार ,गीता कपूर की किताब का भी हवाला लिया और यह साबित करने की कोशिश की कि किसी खास किस्म के फोटो के सहारे इन मृतशिल्पियों ने कैसे बहुत सारे नेताओं की मूर्तिनुमा पहचान को स्थापित किया है . कैसे पूरी दुनिया में लगभग एक ही तरह के गांधी,  टैगोर और सुभाष बोस देखे जा सकते हैं . बहुत ही  दिलचस्प विषय  को बहुत ही रुचि पूर्वक प्रस्तुत करने के लिए मौमिता के प्रस्तुतीकरण को सबने पसंद किया लेकिन संचालक महोदय ने  बार बार इशारा करके वार्ता को बीस मिनट में खतम करने के लिए लगातार दबाव बनाए रखा . कोलकाता के सेंट जेवियर्स कालेज की शरबनी बंद्योपाध्याय ने बंगाल में  दलित राजनीतिक अधिकारों की राजनीतिक व्याख्या करने की  कोशिश की . उनकी खोज का दायरा भी ख़ासा बड़ा था और उन्होंने बहुत ही कुशलतापूर्वक अपने विषय का निर्वाह किया . १९वीं और २०वीं शताब्दी के उपलब्ध दस्तावेजों के सहारे उन्होने साबित करने की कोशिश की कि उस दौर में बंगाल में जाति एक प्रमुख संस्था हुआ करती थी लेकिन आज़ादी के बाद जाति हाइबरनेशन में चली गयी लगती है .उन्होंने १९२२ में बंगीय जन संघ के गठन को  केन्द्र बनाकर अपने तर्क को अकादमिक शक्ल देने का प्रयास किया . १९२३ में भारत सेवाश्रम संघ का गठन भी एक  महत्वपूर्ण घटना है  जिसे दलित राजनीति पर एक प्रतिक्रिया के रूप में देखा जा सकता है . इस बीच कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हो गया .कम्युनिस्ट पार्टी कुछ दलित संगठनों के करीब तो आयी लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी मूल रूप से अपनी भद्रलोक पहचान से बाहर नहीं आ सकी .इस पर्चे में कम्युनिस्ट पार्टी की किसान सभा और भारत सेवाश्रम संघ के के हवाले से दलित राजनीति को मिलने वाली भद्रलोक की प्रतिक्रिया  को समझने की कोशिश की गयी . यह पर्चा विद्वत्ता से परिपूर्ण था और पिछले दो वर्षों में दलितों की राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होकर शरबनी ने बहुत ही वास्तविक धरातल पर बात  को समझाया . श्रोताओं  ने इसे बहुत पसंद किया . इसके बाद हैम्पशायर कालेज की उदिति सेन ने नामशूद्रों के हवाले  से पश्चिम बंगाल में शरणार्थियों के गवर्नेंस के बारे में के परचा प्रस्तुत किया . बंगाल की दलित राजनीति पर उन्होंने अपनी बात कहने की कोशिश की लेकिन बात फीकी इसलिए पड गयी  कि नामशूद्रों और राजबंशियो के बारे में सेमीनार के पहले ही सत्र में डॉ शेखर बंद्योपाध्याय का गंभीर परचा पढ़ा जा चुका था . इसके अलावा उदिति सेन  ने कुछ तथ्यों को  उलट दिया था. उदाहरण के लिए उन्होने कह दिया कि जोगेन मंडल को सरकार ने  अंडमान भेजा था जबकि अंडमान पी आर ठाकुर गए थे  .  यह बात सुबह के सत्र में शेखर बंद्योपाध्याय के पर्चे में आ भी चुकी थी. बाद में उनको यह बताया भी गया तो उन्होंने यह कहकर अपनी रक्षा करने की कोशिश की उन्होंने तो सुनी सुनायी बात को पर्चे में लिख दिया था . उम्मीद की जानी चाहिए कि बाद में वे तथ्यों को ठीक कर लेगीं. अंतिम पर्चा मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फार द स्टडी आफ रिलीजस एंड एथनिक डाइवरसिटी के उदय चंद्रा का था . उन्होंने औपनिवेशिक बंगाल में कोल आदिवासियों के कुली बनने की प्रक्रिया का ऐतिहासिक विश्लेषण किया . दिलचस्प जानकारी से भरपूर उनका पर्चा दलित राजनीति के शोधार्थियों के लिए इतिहास के संदर्भ बिंदु के रूप में उपयोगी साबित होगा.

Monday 16 September 2013

फेसबुक फोटो से पहले जरा सावधान


सोशल नेटवर्किंग साइट या इंटरनेट पर तस्वीरें अपलोड करना बहुत मुश्किल नहीं. एक फोटो छांटी और अपलोड कर दी. लेकिन तस्वीर अपने साथ यूजर और उसकी तकनीक से जुड़ी 50 से भी ज्यादा जानकारियां ऑटोमैटिक अपलोड कर देती है. जर्मनी में फ्राउनहोफर इंस्टीट्यूट के आईटी सिक्योरिटी विशेषज्ञों के मुताबिक सोशल नेटवर्किंग साइट पर कोई भी फोटो डालने से पहले उसका मेटाडाटा हटा दिया जाना चाहिए. कुछ सॉफ्टवेयर तस्वीर से जुड़ी कई जानकारियां बता देते हैं. खास सॉफ्टवेयरों में फोटो डालने पर उसके मेटाडाटा से पता चल जाता है कि तस्वीर कब खींची गई, कौन सा कैमरा इस्तेमाल किया गया, कौन से एडिटिंग टूल से इसे निखारा गया. इंस्टीट्यूट के मुताबिक मेटाडाटा का इस्तेमाल हैकर कर सकते हैं. संस्थान की सिक्योर इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी शाखा ने शोध के बाद यह दावा किया है. तस्वीरों के मेटाडाटा के जरिए हैकर यूजर के कंप्यूटर के बारे में काफी जानकारी हासिल कर सकते हैं. मेटाडाटा के जरिए उन तमाम वेबसाइटों पर जाना संभव है, जहां एक सी तस्वीर लगी हुई है. यहां तक कि वो पासवर्ड का अंदाजा भी लगा सकते हैं. इंस्टीट्यूट के मुताबिक मेटाडाटा को कुछ एडिटिंग सॉफ्टवेयरों से हटाया जा सकता है. विशेषज्ञ बताते हैं कि सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर हैकरों के ऐसे अटैक ऑटोमैटिक होते हैं. यूजर्स को अक्सर अनजान शख्स से मैसेज के साथ फ्रेंड रिक्वेस्ट भी आती हैं. एक्सपर्टों के मुताबिक मेटाडाटा के जरिए ही हैकर वो जानकारी हासिल कर पाते हैं, जो सामान्य तौर पर आपके दोस्तों तक ही सीमित रहती है. एक्सपर्टों की सलाह है कि तस्वीरों में मेटाडाटा का इस्तेमाल वही करें, जो तस्वीर को कॉपीराइट करना चाहते हों. फोटोग्राफी के शौकीन भी इसका इस्तेमाल कर सकते हैं. (http://www.dw.de/ से साभार)

यूरोप की सबसे उग्र सुधारवादी नन सिस्टर टेरेसा फॉर्केड्स


स्पेन की एक नन यूरोप की सबसे प्रभावशाली वामपंथी बुद्धिजीवी मानी जा रही हैं। बैंकों के राष्ट्रीयकरण का समर्थन हो या स्पेन के कैटेलोनिया क्षेत्र की आज़ादी के लिए आंदोलन, सिस्टर टेरेसा फॉर्केड्स सबसे आगे खड़ी दिखती हैं। उनसे मिलने के लिए सेंट बेनेट मठ तक पहुंचने के लिए आप को मोंतसेरात के पवित्र पहाड़ तक एक हैरान कर देने वाली ड्राइव कर के पहुंचना होता है। लेकिन सिस्टर टेरेसा फॉर्केड्स तक पहुंचना इस रास्ते से ज़्य़ादा मुश्किल है। उनसे मिलने और आशीर्वाद लेने वालों की संख्या इतनी ज़्यादा है कि उनके सहायक को किए गए ई-मेल हमेशा इस ऑटोमैटिक जवाब के साथ वापस आ जाते हैं कि इनबॉक्स भरा हुआ है। लगता है कि सिस्टर टेरेसा एक बार में कम से कम दो जगहों पर होती हैं। उनकी उजली आंखें हैं, वो आत्मविश्वास से भरी हुई हैं और ख़ुशमिज़ाज हैं। इस स्पेनिश नन की बढ़िया अंग्रेज़ी इस शांत जगह में कुछ बाहर की ही लगती है। उन्होंने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में बिताए कुछ सालों के दौरान अंग्रेज़ी पर अधिकार हासिल कर लिया था। उनके जैसा कोई नेता नहीं है. हमेशा उनके सिर पर नन वाला कपड़ा होता है, उनका कहना है कि वो जो भी करती हैं वो गहरे ईसाई मूल्यों और आस्था की वजह से है। इसके बावजूद वो चर्च और चर्च का संचालन करने वालों की आलोचना करती रही हैं। उनके आंदोलन, प्रॉसेस कॉन्स्टिट्यूएंट, से इस साल 50 हज़ार लोग जु़ड़े हैं और ज़्यादातर लोग ईश्वर को न मानने वाले वामपंथी हैं। वो किसी पद पर काबिज़ नहीं होना चाहती और न ही राजनीतिक दल बनाना चाहती हैं लेकिन इसमें शक नहीं कि वो एक राजनीतिक व्यक्तित्व हैं जिनका मकसद अंतर्राष्ट्रीय पूंजीवाद की धज्जियां उड़ाना और स्पेन का नक्शा बदलना है। उन्होंने अर्थशास्त्री अर्काडी ऑलिवर्स के साथ एक 10 सूत्री कार्यक्रम तैयार किया है, जो कुछ इस तरह है: • सभी बैंकों का राष्ट्रीयकरण और आर्थिक सट्टेबाज़ी पर लगाम लगाना • नौकरियों में कटौती बंद करना, उचित तन्ख़्वाह और पेंशन, काम के कम घंटे और घर पर रहने वाले बुज़ुर्गों को भुगतान • वास्तविक "सहभागितापूर्ण लोकतंत्र" और भ्रष्टाचार रोकने के लिए कदम • सबके लिए घर और कुर्की का खात्मा • सरकारी खर्चों में कटौती वापस लेना और सभी सार्वजनिक सेवाओं का राष्ट्रीयकरण • व्यक्ति का उसके शरीर पर अधिकार का समर्थन , जिसमें महिलाओं के गर्भपात का फ़ैसला लेना भी शामिल है। (बीबीसी से साभार मैट वेल्स की रिपोर्ट)

Sunday 15 September 2013

साहित्यकार बोरीस लिखेंगे इतिहास


आज के मशहूर रूसी लेखक बोरीस अकूनिन ने यह फैसला किया है कि वह अब “रूस का इतिहास” लिखने में जुटेंगे| सितंबर के शुरू में मास्को में हुए 26वें अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेले में उन्होंने यह ऐलान किया है| अकूनिन एक सफल लेखक होने के साथ-साथ साहित्यविद और जापानी भाषा से अनुवादक के नाते भी प्रसिद्द हैं| वह कहते हैं कि “यह अब मेरा सबसे बड़ा काम होगा जिसमें मैं अगले लगभग दस साल तक व्यस्त रहूंगा| ये ऐतिहासिक साहित्य के आठ खंड होंगे| इनमें सारा वर्णन कालानुक्रम के अनुसार होगा| मुझे ऐसा साहित्य बिलकुल अच्छा नहीं लगता जिसमें लेखक वर्तमान से अतीत में और फिर अतीत से वर्तमान में छलांगे लगाता रहता है| मेरे “इतिहास” में सब कुछ क्रमिक होगा, काल-क्रम के अनुसार होगा| मुझे खुद भी इन सारी बातों को समझ पाने में बहुत दिलचस्पी है कि कैसे रूस के निस्सीम विस्तार में “इतिहास की नदी” बहती रही है|... वैसे बड़ा दुस्साहसी फैसला है यह| रूस में अब तक केवल एक ही साहित्यकार ने मातृभूमि का इतिहास लिखा है – करमज़िन ने| उनके अलावा कोई भी साहित्यकार आम लोगों की इतिहास में रुचि नहीं जगा पाया है| अब मैं यह ज़ुर्रत करना चाहता हूं|...” इतिहास के आठ खण्डों में से प्रत्येक के समानांतर एक खंड और प्रकाशित हुआ करेगा जिसमें उसी काल से जुड़ी ऐतिहासिक उपन्यासिकाएं होंगी| इस कल्पित गाथा के नायक एक ऐसे रूसी कुल के सदस्य होंगे जो रूसी राज्य की स्थापना के पहले दिन से यहां रह रहे हैं| “एक हज़ार वर्ष से कुछ अधिक के काल के दौरान इस कुल की अलग-अलग पीढ़ियों के जीवन का इनमें वर्णन होगा| ऐसी उपन्यासिकाएं 20 या 30 होंगी,”लेखक ने इंगित किया| इसके अलावा “रूसी राज्य का इतिहास” पुस्तकमाला भी निकाली जाएगी| इसके संकलनकर्ता भी बोरीस अकूनिन ही होंगे| उनके “इतिहास” का जो खंड प्रकाशित होगा उसी के काल से संबंधित दस्तावेज़ी और साहित्यिक पुस्तकें इस पुस्तकमाला के अंतर्गत भी छपेंगी| पहले पुस्तक-द्वय के प्रकाशन की तिथि निश्चित है: 15 नवंबर 2013| इसके ऐतिहासिक खंड का नाम होगा: “यूरोप का अंश” और इसमें रूस के उद्गम से लेकर मंगोल आक्रमण तक के काल का विवरण होगा, जबकि तीन उपन्यासिकाएं “आग्नेय तर्जनी” शीर्षक से छपेंगी|

Friday 13 September 2013

प्यार एक बुर्जुआ स्थिति


 ज्यां-पाल सार्त्र

ज्यां-पाल सार्त्र अस्तित्ववाद के पहले विचारकों में से माने जाते हैं । वह बीसवीं सदी में फ्रान्स के सर्वप्रधान दार्शनिक कहे जा सकते हैं । कई बार उन्हें अस्तित्ववाद के जन्मदाता के रूप में भी देखा जाता है। अपनी पुस्तक "ल नौसी" में सार्त्र एक ऐसे अध्यापक की कथा सुनाते हैं जिसे ये इलहाम होता है कि उसका पर्यावरण जिससे उसे इतना लगाव है वो बस किंचित निर्जीव और तत्वहीन वस्तुओं से निर्मित है किन्तु उन निर्जीव वस्तुओं से ही उसकी तमाम भावनाएँ जन्म ले चुकी थीं। सार्त्र का निधन अप्रैल १५, १९८० को पेरिस में हआ। ज्यां पाल सार्त्र समय के हाथ आया हुआ विडम्बनाओं का ऐसा गोलक थे जो घटनाओं के दबाव में खुलता और बंद होता रहा। इसी प्रक्रिया में उनका दर्शन अर्थ प्राप्त करता है। उनकी व्यक्तिवादी, स्वतन्त्र, स्वनियन्ता स्थितियों को वक्त के हाथों पूरी तरह खारिज होना था। मानव की अपने प्रति एक अनैतिक अनास्था अन्ततः एक घोर नैतिक युद्ध में परिणित होनी थी। उन का जीवन अभिशप्त स्थितियों के घेरों को तोड़ कर एक सक्रिय सामाजिक जुझारू बौद्धिक के रूप में सामने आया। उद्देश्यहीनता, अर्थहीनता और निरन्तर मृत्युबोध की स्थितियाँ कब समय की क्रूरता और अन्यायों से लड़ते लड़ते छिन्न-भिन्न हो गईं, सार्त्र को स्वयं इस का अहसास तब हुआ जब उन्हें दूसरे विश्वयुद्ध में नाज़ियों ने बन्दी बना लिया। कुछ हो सकने की प्रतीक्षारत रिक्तता में बैठ रहने का अस्तित्वादी दर्शन उस समय की विस्तृत, विशाल लेकिन क्रूर ऐतिहासिक घटनाओं की पृष्ठभूमि में प्रमाणित से अधिक खंडित ही हुआ। सार्त्र बहुत कम स्थितियों में अपना चुनाव स्वयं कर पाने की परिस्थिति में रहे। 3 वर्ष की आयु में उन की दायीं आँख की रोशनी लगभग जाती रही थी। 18 महीने की आयु में उन के पिता का देहान्त हो गया। वे बारह वर्ष के थे जब उन की माँ ने दूसरी शादी कर ली। ये ऐसी परिस्थितियाँ थीं जिन के वे नियन्ता नहीं हो सकते थे। दो विश्वयुद्ध हुए। दूसरे विश्वयुद्ध में उनकी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता छिन गई। इस के एक दम बाद 1950 में कोरिया का युद्ध हुआ। फ्रांस और वियतनाम के बीच उपनिवेशिकता के विरुद्ध घोर संघर्ष हुआ। फिर फ्रांस के विरुद्ध अल्जीरिया का स्वतन्त्रता संघर्ष चला जिस में सार्त्र की अहम्‌भूमिका रही। वियतनाम पर अमरीका का साम्राज्यवादी आक्रमण हुआ। सार्त्र अमरीका के विरुद्ध एक अन्तर्राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष रहे। रूस में स्टालिन के अधिनायकवाद ने कम्यूनिस्ट पार्टी की प्रतिष्ठा को आघात पहुँचाया। हंगरी और चेकास्लोवालिया में रूस का सैनिक हस्तक्षेप सार्त्र को पूरी तरह निराश कर गया और वे कम्यूनिस्ट पार्टी से विमुख हो गये। समय की इन महानियन्ता घटनाओं ने व्यक्ति के स्वनियन्ता होने के बोध को जहां खंडित किया वहां व्यक्ति की पारस्परिक स्वतन्त्रता के सिद्धान्त को बहुत पुष्ट भी किया। इस समस्त समय में विज्ञान और दर्शन एक दयनीयता के शिकार हुए लेकिन सार्त्र इस संत्रास की दयनीयता से उभर कर मानव जाति के एक राजनीतिक भविष्य में विश्वास करने लगे। सार्त्र के अस्तित्ववादी दर्शन का प्रभाव उनके जीवन काल में ही झीना पड़ गया था। उन्होंने व्यक्ति की स्वतन्त्रता और उसकी नियन्ता स्थिति के साथ सामाजिक ज़िम्मेवारी का समावेश करके अस्तित्ववाद को मार्क्सवाद की स एक अंतर्धार के रूप में देखने की ईमानदार कोशिश की थी। इसके फलस्वरूप वह सिरोन कीर्कगार्द के मौलिक सिद्धांतों से दूर जा पड़े। कीर्कगार्द वस्तुतः अपनी प्रेरणाओं में पूर्णतः अनीश्वरवादी नहीं थे। उनका विश्वास था कि ईश्वर मनुष्य से बहुत दूर है और उसे एक गहन विश्वास से ही महसूस किया जा सकता है। व्यक्ति की दैनिक वास्तिवक स्थितियों में अनिर्षित विश्वास का बहुत परोक्ष आधार ही हो सकता है फिर भी आधार की स्वीकृति थी ही। लेकिन सार्त्र ईश्वर की सत्ता को बिल्कुल स्वीकार नहीं करते थे। ईश्वर का अस्तित्व मानव-मात्र के लिए पहले से ही बहुत कुछ निश्चित कर देता है। और इंसान की स्वतंत्रता तथा अपने प्रयत्नों द्वारा अपना निर्माता होने की स्थिति को खंडित करता है। इससे एक विचार-स्थिति और आगे जाकर सार्त्र ने अकेले व्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता के अर्थ को भी संशोधित किया। वे सामूहिक स्वतंत्रता के पक्ष में रख कर ही व्यक्ति की स्वतंत्रता को देखने लगे थे। महज़ एक अस्तित्ववादी, दार्शनिक, उपन्यासकार, नाटककार या अन्य विधाओं के लेखक के रूप में ही नहीं, हमें सार्त्र के राजनीतिक दर्शन और सामाजिक कर्मशीलता को भी बराबर ध्यान में रखकर ही उनके समग्र व्यक्तित्व का जायज़ा लेना होगा। सार्त्र के अंतिम दस या कुछ अधिक वर्ष उनकी आंतरिकता के बाह्यीकरण का इतिहास हैं। अंतिम वर्षो में उनका बिगड़ता हुआ स्वास्थ्य उन्हें काफी सीमित करता था। इसलिए उन्होंने अलग-अलग माध्यमों द्वारा अपने चिंतन को अंकित किया। रेडियो, टेपरिकार्डिंग, भाषणों और विस्तृत साक्षात्कारों और अपने कुछ अंतरंग मित्रों के साथ डायलाग के द्वारा वे सामाजिक मुद्दों से बड़े सक्रिय रूप में जुड़े रहे। ये माध्यम उनकी लिखित वैचारिक निधि से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। उनके सारे अंतर्विरोध इन माध्यमों में खुलकर सामने आते हैं। जो बातें लेखन में अनकही, अधूरी या अस्पष्ट रह जाती हैं, उनकी बातचीत के लम्बे सत्रों में इस तरह प्रकट होती हैं जैसे एक मासूम व्यक्ति कई तरह से अपनी बात समझाने की कोशिश करता है। लेकिन फिर भी जैसे सब कुछ अपूर्ण ही रह जाता है। कहने-सुनने वाले असंतुष्ट ही रह जाते हैं। इस अपूर्णता और असंतुष्टि का चित्र जब एक महान दार्शनिक का अपने अंतिम वर्षों में उभरता है तो लगता है कि वे पूरी तरह समाजवादी होकर भी अपने गहनतम अलक्षित अंतस में मूलतः अस्तित्ववादी ही बने रहे। अपनी अपूर्णताओं की रिक्तता को विचारों से नहीं भरा जा सकता। वास्तविकताओं और दर्शन को परस्पर स्थानांतरित नहीं किया जा सकता। यह गहन एकांत व्यक्तिवादिता उन्हें उद्वेलित करती ही रहती थी। अपने उद्देश्य निर्धारित करने में और उन्हें पूरा करने में जिस अस्तित्ववादी स्वतंत्रता की आवश्यकता होती है वह मिल जाने पर भी उद्देश्यों की पूर्ति अकेले इंसान की स्वतन्त्रता से नहीं हो सकती, इस बात का अहसास जितना गहरा होता गया, उतनी ही निराशा उन्हें इसके विपरीत और अपने पक्ष में खड़े दर्शन को कार्यान्वित करने वाली कम्यूनिस्ट पार्टी से हुई और वे दोनों विचार-पद्धतियों के बीच समन्वय का रास्ता ढूंढते रहे। 1960-80 के बीच विश्वस्तर पर सार्त्र की अपनी लेखकीय और सामाजिक मान्यताओं के स्तर पर बहुत कुछ महत्वपूर्ण घटा। फ्रांस और अल्जीरिया के बीच संघर्ष अपनी निर्णायक स्थिति में था। अल्जीरिया के लिए यह अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई थी और फ्रांस के लिए अपना साम्राज्य बनाए रखने का संघर्ष था। सार्त्र ने अपनी सरकार का घोर विरोध किया। अल्जीरिया के युवकों का साथ दिया, फ्रांस में भी एक जनआंदोलन अल्जीरिया के पक्ष में उभरा जिसके प्रणेताओं में सार्त्र रहे। कुछ राष्ट्रवादी फ्रांसीसी युवकों ने दो बार सार्त्र के निवास पर बम फेंके, उन्हें रास्ते से हटा देने के लिए। उधर अमेरिका में सिविल लिबर्टीज़ का आंदोलन मार्टिन लूथर किंग चला रहे थे। छोटे छोटे और बड़े जनसमूहों को साथ लेकर। सार्त्र की पुस्तक Critique में जिन छोटे बड़े समूहों ने मिलकर सत्ताधारियों के लगातार विरोध की बात की थी, इन अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं ने उस सिद्धांत की एक क्रियात्मक पूर्ति ही की। ये लड़ाईयाँ एक ही स्थिति में निर्णायक न होकर अपना प्रभाव समूचे समाज की मानसिकता बदलने में रखती हैं। इसके विपरीत एक छोटे से समयांश पर फैली हुई हिंसात्मक क्रांति उसी समय यदि सफ़ल हो भी जाए, तो क्या मानसिकता को लंबे समय तक बदल सकती है? स्वतन्त्र मानव समूहों के अलग-अलग समयों और स्थानों पर चलने वाले आंदोलनों और विरोधों को सार्त्र पारंपरिक मार्क्सवादी विशाल जनसमूहों के उभार और छोटे से समय में सब कुछ बदलने वाली निर्णायक स्थितियों के विरोध में खड़ा देखते थे। अमेरिका उन्हीं दिनों बड़े पैमाने पर वियतनाम पर अपनी घोर साम्राज्यवादी क्रूरता थोपने में लगा हुआ था। सार्त्र ने इसका भी ज़ोरदार विरोध किया। इंग्लैण्ड के महान दार्शनिक बरट्रेंड रसल द्वारा वियतनाम युद्ध की जाँच समिति जब गठित की गई तो सार्त्र को उस समिति का अध्यक्ष बनने को कहा गया। उस समिति ने अमेरिका को मासूम जनसमूहों पर अत्याचार करने और दूसरे देश पर अपना आधिपत्य थोपने के अपराध का स्पष्ट शब्दों में दोषी ठहराया और साम्राज्यवाद की भर्त्सना की। इस जांच समिति की दूसरी बैठक फ्रांस में करने का प्रस्ताव रखा गया, लेकिन 'दिगाल' की सरकार ने इसकी अनुमति नहीं दी। इसी दशक में रूस ने चैकोस्लोवाकिया के सुधार आंदोलन को बुरी तरह कुचला। सभी को रूस की कम्यूनिस्ट पार्टी से बहुत निराशा हुई। 1968 में पेरिस में प्रमुख रूप से युवकों के जनआंदोलन को 'दिगाल' की सरकार ने अपने छोटे-छोटे उद्देश्यों की पूर्ति में असफ़ल कर दिया। उसका कारण काफ़ी हद तक यही रहा कि फ्रांस की शक्तिशाली कम्यूनिस्ट पार्टी ने उन युवकों को बिल्कुल समर्थन नहीं दिया। वह सत्ता में आने की या शासन पलट देने की लड़ाई नहीं थी जिसके लिए कोई बड़ी क्रांति दरकार थी। फिर भी पार्टी की चुप्पी ने सार्त्र को बहुत निराश किया। उधर क्यूबा में फिदैल कास्त्रो की ज्वलन्त क्रांतिकारिता ने सबको आशान्वित किया था। सार्त्र फ़िदैल से क्यूबा जाकर मिले भी थे। लेकिन रूस के प्रभाव में आकर उस क्रांति का स्वरूप एक दमनकारी राज्य में बदल गया। सार्त्र ने उसका विरोध किया जिसके लिए फ़िदैल ने खुले तौर पर सार्त्र की निंदा की थी। समाजवाद और स्वतन्त्रता के सिद्धांतों में विश्वास करने वाले छोटे-छोटे जनसमूहों से सार्त्र का मित्रतापूर्ण सम्बन्ध स्थापित हो गया। ये समूह अपने आपको माओज़ (Maos) कहलाते थे। ये वामपन्थी थे, लेकिन कम्यूनिस्ट पार्टी से इनका कोई सम्बन्ध नहीं था। इन्होंने एक पत्र La Cause Du Peuple नाम से प्रकाशित करना शुरू किया। इस प्रकाशन का कोई मालिक नहीं था। इस में सरकार की नीतियों के विरुद्ध कोई भी आम आदमी लिख सकता था। एक तरह के उग्रवादी कर्मियों द्वारा ही यह पत्र गलियों, चौराहों पर बेचा जाता था। सरकार के आदमी प्रेस में जाकर इसकी प्रतियाँ ज़ब्त कर लेते थे। दो सम्पादकों को गिरफ्तार भी कर लिया गया। सबने कहा कि सार्त्र को स्वयं सम्पादक के रूप में इसे शहर की गलियों में बेचना चाहिए। मई एक, 1970 को सार्त्र अपने वामपंथी साथियों के साथ चौराहों पर यह पत्र बेचते रहे। उनकी शक्ति और ख्याति को देखकर उन्हें तो गिरफ़्तार नहीं किया गया, लेकिन दूसरे विक्रेताओं को पकड़ कर उन पर मुकद्दमा चलाया गया। जून, 1970 में सार्त्र ने प्रमुख वामपन्थी संगठनों के साथ मिल कर Secours-Rouge की स्थापना की। इस संस्था का घोषणापत्र सार्त्र ने लिखा जिस में कहा गया था कि सरकारी नीतियों से प्रताड़ित व्यक्तियों और उनके परिवारों की मदद के लिए संस्था काम करेगी, उनकी नैतिक आर्थिक सहायता करेगी। उन के संघर्ष में उनका साथ देगी। हज़ारों की संख्या में फ्रांस के लोग इस संस्था के सदस्य बने। अपने लेखन में भी सार्त्र ने अपने समय में फैले हुए राजनैतिक, औपनिवेशिक और साम्राज्यवादी अन्याय के खिलाफ़ आवाज़ उठाई। तीसरी दुनिया में राजनैतिक आज़ादी आने पर भी तरह-तरह की साम्राज्यवादी ताकतें उन्हें उपनिवेश बनाए रखना चाहती थीं। फ्रांज़ फ़ैनन की The Wretched of the World पुस्तक का पूर्वकथन सार्त्र ने उन दिनों लिखा जब अल्जीरिया अपनी स्वतन्त्रता संघर्ष के अंतिम चरण में था। साम्राज्यवादी ताकतें किस तरह अपने उपनिवेशों का शोषण करती हैं और उन्हें राजनैतिक आज़ादी देने के बाद भी किसी न किसी तरह उनकी औपनिवेशिक स्थिति बनाए रखना चाहती हैं, इस बात का चित्रण एक साहसिक दस्तावेज़ है। फ़ैनन अल्जीरिया की अंतरिम सरकार के अधिकारी थे। इन्हीं दिनों कांगो के नेता पैट्रिक लुमुम्बा के प्रसिद्ध भाषणों की पुस्तक का प्राक्कथन भी सार्त्र ने लिखा। इसमें स्पष्ट रूप से उन्होंने कहा कि यूरोप दुनिया का केंद्र कभी नहीं बन सकता। उसका साम्राज्यवादी सपना कभी पूरा नहीं हो सकता। लुमुम्बा की हत्या के पीछे कुछ बाहर की पूंजीवादी ताकतें थीं और कुछ कांगो के ही बुर्जुवा कोयला खानों के मालिक थे। सिर्फ़ लेखन ही नहीं, सार्त्र अपने व्यक्तिगत दैनिक जीवन में भी सिर्फ़ गुम्बद में बैठकर सोचने वाले बौद्धिक नहीं रह गए थे। कैफ़े में बैठे हुए, चुरूट पीते हुए, दूसरे बौद्धिकों के धुएं को अपने धुएं से गहराते हुए आत्मलिप्त सार्त्र नहीं रह गए थे। रातों को शराब और दिन में Corydrane, Metamethane खाने वाले सार्त्र अब अपने अंतिम दिनों में एक आम मज़दूर कार्यकर्ता के साथ, जुलूस निकालने वाले जनसमूहों के साथ, विद्रोही विद्यार्थियों की टोली के साथ, शहर की गलियों, चौराहों पर उन्हीं में से एक बन कर, कभी इन के अगुआ बन कर, उन्हें भाषण देते हुए, कभी कुछ भी न होकर एक आम आदमी की तरह उन में शामिल होकर अपने समय की जीवन्त शक्ति बन गए थे। Being and Nothingness की एकान्तिक स्वतन्त्र यात्रा, उद्देश्यहीन, अन्ततः कुछ न हो सकने का अपने ही अनिश्चयों का फैलाव अब एक निश्चित रूप से अस्तित्ववादी और समाजवादी चिन्तन के आधार का कार्यान्वित उदाहरण बन गया था। इस अन्तर की प्रामाणिकता के लिए उन के आरंभिक दिनों में लिखे हुए उपन्यास Nausea के मुख्यपात्र रौक्वैन्टिन की मनस्थिति का एक चित्र काफ़ी है। यह उपन्यास सार्त्र की अस्तित्ववादी कृति Being and Nothingness के दर्शन का ही कथात्मक अंकन है। अपनी आत्कथात्मक अभिव्यक्ति Word में सार्त्र ने कहा था, तीस वर्ष की उम्र में मैंने अपनी पूर्ण लेखन शक्ति के साथ Nausea में कहा था, विश्वास करो, मैंने पूरी ईमानदारी के साथ कहा था कि हम सब का जीवन एक कड़वाहट है, एक अनाधिकार चेष्टा है जीने की। मैंने अपने-आप को ही उस अनाधिकृत स्थिति से मुक्त करने के लिए ऐसा लिखा था। मैं स्वयं ही रौक्वैन्टिन (Nausea का मुख्यः पात्र) था। मैंने बिना किसी अनिश्चय के अपने ही जीवन की बुनावट व्यक्त करने की कोशिश की थी। उपन्यास में रौक्वैन्टिन कहता है - इस ज़िंदगी का तानाबाना हास्यास्पद नाटिका है। ये सब लोग जो यहां बैठे खा-पी रहे हैं, देखने में गंभीर लग रहे हैं - इन सब की अपनी-अपनी कठिनाईयां हैं जो इन्हें अपने अस्तित्व का अहसास नहीं होने देतीं। इन में से एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो स्वयं को किसी और के लिए अत्यावश्यक समझता हो, यह समझता हो कि उसका होना किसी और के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।... वास्तव में ऐसा कुछ भी नहीं है, कुछ भी नहीं। जीवित रहने का कोई भी कारण नहीं है। हम एक दूसरे के अस्तित्व को सीमित कर रहे हैं। यही वह अर्थहीनता है जो चारों तरफ फैली हुई है। इस अर्थहीनता में मैं आज़ाद हूँ, अकेला हूँ - लेकिन आज़ाद हूँ। और यही वह सार्त्र हैं जिन्होंने 1964 में एक साक्षात्कार में कहा था, एक मरते हुए बच्चे के बराबर रखकर देखने से Nausea का कोई अर्थ नहीं रह जाता। इस तरह की आंतरिकता का बाह्यीकरण सार्त्र के अंतिम वर्षों में हर जगह उनके कार्यों और मान्यताओं में देखने को मिलता है। उसी दृष्टि से सार्त्र ने 1965 में कहा था - कि मेरे लिए व्यक्तिवाद बाह्य वास्तविकताओं का ही अन्तरीकरण है। करीब करीब यही उनका आधारभूत विश्वास बना रहा कि एक ही व्यक्तित्व में वैश्विक वास्तविकताएं समाहित हैं और यही तथ्य व्यक्ति के संसार में उत्तरदायित्व पूर्ण ढंग से जीने का तर्क भी है। इसी तर्क को सार्त्र ने हमेशा प्रयोग किया, और वे हमेशा शुद्ध व्यक्तिवादियों की अवांछनीयता से बचते रहे जो पाश्चात्य दर्शन पद्धतियों में भरी पड़ी हैं। उन्होंने अपने इस Singular Universal वाले तर्क को केवल कवच के रूप में इस्तेमाल नहीं किया। वरना The Critique of Dialectical Reason से आगे का विकास एक लगातार बहती हुई विचार प्रक्रिया के रूप में देखना आसान नहीं होता। उनका कोई भी विचार अपनी पूर्णता प्राप्त करने के पश्चात एक बिंदु पर आकर समाप्त नहीं हो जाता। उसके आगे हमेशा कुछ और संभावनायें, एक खुलापन बचा रहता है। इसीलिए विचार अपनी अन्तरिम स्थिति में ही रहते हैं। सभी दर्शनों के Absolutism के सार्त्र विरोधी थे। एक Open Endedness जीवन का मूलभूत सिद्धांत है। जिस तरह कोई भी क्षण निश्चित नहीं है, सिर्फ़ उस का अहसास निश्चित है, उस की संभावना निश्चित है। विकास एक गतिमान और अस्थायी स्थिति है चाहे वह विचारों की हो या स्थितियों की। यही कारण था कि पार्टी की कट्टरपंथी प्रणालियों से मोहभंग होने पर भी सार्त्र समाजवाद में विश्वास रखते रहे। लेकिन उसके साथ ही मार्क्सवाद के आगे भी कुछ संभावनाएं हैं, इस के आधारभूत उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए और उपाय भी इस में जोड़े जा सकते है, ऐसा विश्वास उन्हें हमेशा रहा। 70 वर्ष की आयु में Michel Contac के साथ एक लंबे साक्षात्कार में (जून 23-जुलाई 7,1975) जब सार्त्र से पूछा गया कि आप अब मार्क्सवादी दर्शन में विश्वास रखते हैं लेकिन आपको तो लोग अस्तित्वादी दार्शनिक के रूप में ही जानते हैं। अगर आप को दोनों में से एक लेबल चुनना पड़े तो कौन सा लेबल आप अपने लिए चुनेंगे? आप अपने को मार्क्सवादी कहलाना पसंद करेंगे या अस्तित्वादी? सार्त्र का उत्तर था कि वे अस्तित्वादी कहलाना पंसद करेंगे। क्योंकि उसमें विकास की स्थिति मौजूद है। अपने समाजवादी दृष्टिकोण और व्यक्ति की स्वतंत्रता को एक प्रकार से नैतिक आधार पर समन्वित करते हुए सार्त्र Benny Levy द्वारा पूछे गए प्रश्न का उत्तर देते हैं। Levy का प्रश्न था कि स्वतन्त्रता को आप किस प्रकार सामाजिक उद्देश्य के लिए प्रयोग करेंगे? जिन लोगों के पास शक्ति है, वे स्वतन्त्र होकर दूसरों पर उसे थोपते हैं। इन दोनों तरह की स्वतंत्रताओं को आप किस तरह अलग करेंगे? इस का उत्तर देते हुए सार्त्र ने कहा था कि वे सब लोग जो समाजवाद चाहते हैं, चाहे वे इस बात को कहें या न कहें, एक स्वतन्त्रता की स्थिति की खोज में हैं। और जिस क्रांतिकारी व्यक्ति की बात हम करते हैं, वह ऐसे ही समाज/व्यवस्था की कल्पना करता है जहां स्वतन्त्रता भविष्य की एक सच्ची वास्तविकता होगी। समाजवाद और स्वतंत्रता उन के चिंतन के केन्द्र में रहे। Flaubert के जीवन पर लिखे गए अपने अंतिम महाख्यान Family Idiot के विषय में वे कहते हैं कि वह एक समाजवादी कृति है। अपनी मृत्यु से एक वर्ष पहले अपनी उम्र भर की साथी सिमोन द बोआ के साथ 'डायलाग' में सार्त्र लगभग घोषणा करते हैं - बीस वर्ष की उम्र में मेरे कोई राजनैतिक विचार नहीं थे, यह कहना भी अपने आप में एक राजनैतिक मुद्‌दा है। अब मेरा अंत हो रहा है - सोशलिस्ट-कम्यूनिस्ट के रूप में और मैं मानवमात्र के लिए एक राजनैतिक भविष्य की अपेक्षा रखता हूँ। सिमोन को शायद ज़रूर याद आया होगा 1939 का वह सार्त्र जिसने अपनी तीन डायरियां - सिमोन को मिलिट्री बेस से भेजी थीं। एक Nothingness के बारे में, दूसरी Violence पर और तीसरी Bad Faith पर जो तीनों मिलकर Being and Nothingness का आधार बनी थीं। विश्व के जिस राजनैतिक भविष्य की बात अपने अंतिम दिनों में सार्त्र सोचते रहे, उसके कई आयाम थे। तीसरी दुनिया का अस्तित्ववाद, नवउपनिवेशवाद, समाजवाद और उस के अन्तर्गत व्यक्ति की स्वतन्त्रता और मध्यपूर्व में नई राजनैतिक इकाईयों का उदय ऐसे ही महत्वपूर्ण मुद्दे थे। अरब-इसराइली संघर्ष को सार्त्र काफी गंभीर रूप से लेते थे। 1979 में उन्होंने अपने पत्र Les Modernes के तत्वाधान में बौद्धिकों की एक बैठक पेरिस में बुलाई। इस में अमेरिका से एडवर्ड सईद भी आमंत्रित थे। यह सिर्फ़ बौद्धिकों का सम्मेलन था। इस के पास कोई निर्णायक राजनैतिक शक्ति नहीं थी, केवल लोकमत बनाना ही इस का उद्देश्य था। लेकिन अपने बुरे स्वास्थ्य के कारण सार्त्र अपने साथी विक्टर पर अधिक आश्रित हो गए थे। इसलिए इस सम्मेलन का स्वरूप किसी भी प्रकार व्यवस्थित या संतोषजनक नहीं हुआ। एडवर्ड सईद नाराज़ होकर पेरिस से अमेरिका लौटे। इन बातों का ब्यौरा देते हुए सिमोन विक्टर को दोषी मानती हैं जिन्होंने उन दिनों सार्त्र की मानसिकता को हड़प रखा था। विचार-स्थापना के लिए हो या हितों की रक्षा के लिए, शक्तिप्रयोग को सार्त्र इतिहास विरोधी हथकंडा मानते थे। शक्तिप्रयोग मानव विकास की अवधारणा में अन्तरिम (Interim) रूप से भी नहीं आता, अस्थाई उद्देश्यों की पूर्ति के लिए भी उसे मान्यता नहीं दी जा सकती, सार्त्र ऐसा मान कर अपने उत्तरदायित्व का लेखा-जोखा करते रहे। जनवरी 1980 में इसी शक्ति प्रयोग का विरोध उन्होंने किया जब Andrei (आन्द्र) सख़ारोव को गृहबंदी बनाया गया। उन्होंने मास्को-ओलम्पिक्स के बायकाट का समर्थन भी किया। उन के प्रयासों में अन्तर्विरोध उन्हें एक ऐसी मानवीय ऊँचाई पर स्थापित करते हैं जो राजनैतिक सामयिक मुदों और अस्थाई उद्देश्यों से उन्हें बहुत ऊपर बना रहने देती है। सिर्फ़ एक पक्ष का विचारक उन्हें आसानी से खारिज करके आगे बढ़ सकता है, लेकिन ऐतिहासिक समग्रता उन के दायें-बायें खड़ी दिखाई देती है। जब नाज़ियों ने फ्राँस पर कब्ज़ा कर रखा था तो सार्त्र ड्राफ्ट होकर सैनिक बन गए थे, उसके बाद वे फ्रांसीसी लेखकों के साथ मिलकर युद्ध के विरोध में सक्रिय थे। इस युद्ध ने उनका अकादमिक और सैद्धांतिक स्तर पर जीने वाले बौद्धिक का स्वरूप बदल दिया था। वे खुली सड़कों पर सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में अपने आप को देखने लगे थे। यह परिवर्तन अनुशासित या नियंत्रित नहीं था। यह बाह्यीकरण एक स्वतःस्फूर्त विरोध स्थिति थी जो सिर्फ़ इसी बिंदु पर आकर ठहर नहीं गई। एक सोशेलिस्ट दृष्टि की पहली स्वीकृति और विश्वस्तता यहीं से शुरू हुई जो अंत तक बनी रही। सार्त्र के लिए मार्क्सवाद एक 'वाद' के रूप में या संपूर्ण जीवन-पद्धति के रूप में कम प्रासंगिक रहा। लेकिन मनुष्य के सामूहिक विघटन के विरोध में एक संयत सामूहिक कार्यविधि के चिन्तन स्वरूप वे हमेशा के लिए इस विचार से जुड़ गये थे। मनुष्य की एकल स्वतंत्रता और नियन्ता होने की अभिशप्त स्थिति से यह कितनी भिन्न स्थिति है, इसका जायज़ा लेने के लिए सार्त्र के उपन्यास Age of Reason के एक पात्र का आर्तनाद काफ़ी है, वह स्वतंत्र था, हर बात के लिए स्वतंत्र, एक जानवर की तरह व्यवहार करने के लिए स्वतंत्र, या किसी मशीन की तरह.......। वह जो कुछ भी चाहे कर सकता था, किसी को उसे कुछ भी सुझाने का अधिकार नहीं था। वह एक राक्षसी मौन में अकेला है, किसी कारणवश नहीं। किसी भी संभावित उद्देश्य के बिना वह अपने निर्णय लेने के लिए अभिशप्त है अबाध रूप में स्वतंत्र होने के लिए अभिशप्त। विडंबना इतनी सघन और वास्तविक हो सकती है, इसकी प्रमाणिकता उस विकास में लक्षित होती है, जो हम सार्त्र की अपनी कृतियों और जीवन में देखते हैं। अपने अंतिम दिनों में उन्होंने बहुत कुछ बोल कर व्यक्त किया। 72 वर्ष तक आते-आते उनकी दूसरी आँख भी हेमरेज से खराब हो गई थी। वह बिल्कुल पढ़ नहीं सकते थे, सिमोन उन्हें किताबें पढ़ कर सुनाती थी। 70 वर्ष की आयु में जो सार्त्र हमारे सामने आते हैं, उससे एक लोमहर्षक एहसास उभरता है। उनकी पूरी जीवित मरणासन्नता में जो कुछ हम देखते-सुनते हैं, वह जिंदगी के तमाम ऊसरों बंजरों, पर्वतों, जंगलों, नदियों से होते हुए मनुष्य के उच्छवासों, प्रेरणाओं, वासनाओं, प्रणयस्थितियों, अनगिनत धूप-छांह, उजालों-अंधेरों के बीच से गुजरते हुए अपने शारीरिक अंत में विलय होने की सौम्य और निर्विकार स्थितियाँ हैं। ऐसी स्थितियाँ जिनसे सांझा करने के बाद हम सार्त्र से प्यार कर उठते हैं। हालांकि प्यार सार्त्र के लिए एक बुर्जुआ स्थिति थी जिसमें एक व्यक्ति अपने-आप को दूसरे पर सिर्फ़ थोपता है। उनके इन अंतिम वार्तालापों, परिवर्तनों और शारीरिक स्थितियों तक आने से पहले उन की बौद्धिक यात्रा चरमस्थल The Critique of Dialectical Reason को देखना ज़रूरी है जो उन्होंने काफ़ी हद तक मार्क्सवाद के प्रतिदर्शन के रूप में लिखा। The Critique of Dialectical Reason के भाग दो में उनकी निराशा-स्वीकृति दर्ज़ है कि बीसवीं सदी की घटनाओं की विभीषिका के उपरांत यदि भविष्य के प्रति आशावान होना संभव न भी हो, कम से कम इन प्रक्रियाओं को समझने का प्रयत्न तो किया ही जा सकता है। मानव जाति का विनाश किसी प्राकृतिक दुर्घटना से भी हो सकता है और परमाणु बम से भी। मनुष्य अगर अपनी नियन्ता स्थिति तक पहुँच कर प्राकृतिक दुर्घटनाओं को नियंत्रित कर पाने में सफल हो भी जाए, फिर भी भिन्न-भिन्न संहारक शक्तियों के प्रयोग की स्थितियों पर नियंत्रण की संभावना अभी न है, और न ही अभी उसकी कल्पना की जा सकती है। इस कारण अस्तित्व किसी उद्देश्य की कल्पना मात्र को ही हास्यास्पद बना देता है। क्रमों में घटती हुई स्थितियों का जोड़ एक लंबी स्थिति की परिकल्पना नहीं करता। प्रत्येक क्षण अपने आप में एक निश्चित और सामायिक स्थिति है। इन्हें जोड़ कर देखना किसी घटना का प्रतिफलन नहीं हो सकता। स्थितियों का क्रमिक संघर्ष एक इतिहास के रूप में नज़र आता है। पर, वास्तविकता यही है कि वे अर्न्तविरोधों की अलग-अलग कड़ियां है। उन्हें जोड़ कर देखने से एक कथा नहीं बुनी जा सकती, न ही उनके घटने के मूल कारणों को पकड़ा जा सकता है। The Critique of Dialectical Reason भाग दो, में सार्त्र कहते हैं यदि प्रकृति का कोई तार्किक सिद्धांत हो तब भी इन स्थितियों में कोई परिवर्तन नहीं होगा। दूसरी ओर, इसमें भी संदेह नहीं कि विज्ञान और तकनीकी क्षेत्र का विकास इस सीमा तक हो सकता है कि वे प्रकृति की संहारक घटनाओं को कुछ समय के लिए टाल कर रख सकें। यह भी संभव हो सकता है कि मानव नक्षत्रीय महाकाश के पार जाकर भी अपने अस्तित्व को हमेशा बचाये रखने के उपाय ढूँढ निकाले। लेकिन इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि प्रकृति की संहारक घटनाओं को ऐसी उपलब्धियां प्राप्त होने तक रोका जा सके। इस का कोई प्रमाण हो भी नहीं सकता क्योंकि हम दो भिन्न प्रकार के घटना-क्रमों का सामना कर रहे हैं। इसी तरह सार्त्र का विश्वास था कि मानवमात्र के क्रियाकलापों का जोड़ मिला कर कुछ सांझे तत्व नहीं निकाले जा सकते जो सभी मनुष्यों पर लागू हों। मानव स्वभाव को एक परिभाषा के अर्न्तगत रखकर उनका सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता। Critique के Volume 1 में सार्त्र कहते हैं मित्रता का अर्थ या कार्यकारी स्वरूप Socrates के ज़माने में वही नहीं था जो हमारे ज़माने में है। इस अन्तरीकरण के आधार पर मानव-प्रकृति के सिद्धांत को पूरी तरह खारिज किया जा सकता है। केवल आदान-प्रदान और परस्परता का सम्बंध ही उजागर होता है जिसे हम वैश्विक व्यक्तिकरण कह सकते है, और वही सारे मानव-संबंधों का आधार बनता है। इस तरह के एकल व्यक्तित्ववादी, प्रकृति और मानव अस्तित्व में क्रमों की क्षणिक निश्चितता, असम्बद्धता और अपूर्णता की एक सैद्धांतिकी निर्मित करने वाले दार्शनिक अपने अनुभवों, क्रियात्मक अनिवार्यताओं और घटनाओं की तर्क-सम्बद्धता में एक अस्तित्ववादी संयोग ढूँढते ढूँढते समाजवादी सामूहिकता तक पहुँचते हैं। लेकिन उन सामूहिक प्रयासों की परिणिति को वे फिर भी व्यक्ति की स्वतंत्रता में ही समान्वित होते हुए देखते हैं। अपने बिल्कुल अंतिम वर्षों में सार्त्र की सिमोन के साथ हुई एक लम्बी बातचीत सिमोन की पुस्तक Adieux में सम्मिलित है। एक वर्ष युद्धबंदी रहने के बाद के अनुभवों की बात करते हुए सार्त्र कहते हैं कि वे सत्ता के शांतिपूर्ण ढंग से विरोध करने की उपयोगिता और शक्ति को जेल से आने के बाद ही समझने लगे। अपनी इच्छा के विरुद्ध थोपे गए कानूनों और सरकारी आज्ञायों की वे अवज्ञा करते थे और इस में ही अपनी स्वायत्ता देखने लगे थे। 1940 से नवम्बर 1942 तक फ्रांस का दक्षिणी भाग नाज़ियों का गुलाम नहीं था। उस स्वतंत्र प्रदेश में दूसरी तरफ के लोगों को जाने की अनुमति नहीं थी। लेकिन सार्त्र अपने साथियों के साथ गैरकानूनी ढंग से वहां जाते थे। पहिले वे सत्ताधारियों को सिर्फ़ नफ़रत करते थे, उनका विरोध नहीं। लेकिन अब इस विरोध में ही वे अपनी स्वतन्त्रता देखते थे। नाज़ियों के फ्रांस से बाहर चले जाने पर ही वे अपने उपन्यासों को अर्थ प्राप्त करते हुए देखते थे। सिमोन को वे बताते हैं, जब मैं Being and Nothingness पर काम कर रहा था, तो मानता था कि व्यक्ति मृत्यु के निकट ले जाने वाले भीषण क्षणों में भी अपनी स्वतन्त्रता बनाए रख सकता है। पर अब मेरी मान्यता बदल गई है। Devil and the Good Lord का ज़िक्र करते हुए वे पादरी हैनरिक की नियति की चर्चा करते हैं। उस पादरी की धार्मिक मान्यता केवल उसके चर्च के भीतर ही सुरक्षित और स्वतंत्र थी। बाहर के लोगों से भी पादरी के सम्बन्ध थे जो उसके चर्च में विश्वास नहीं करते थे। जब भी वह उन से मिलता था, तो एक विरोध की स्थिति पैदा होती थी। ये सारी स्थितियाँ उसके भीतर के विरोध की स्थितियाँ भी थीं, सिर्फ़ बाहर की ही नहीं। वह अपनी सामाजिक स्थापनाओं में स्वतन्त्र नहीं था। अपनी 71 वर्ष की आयु में सार्त्र बड़े रोचक ढंग से सिमोन को वह किस्सा बताते हैं जब अचानक उन्हें बोध हुआ कि 'ईश्वर नहीं है।' अपनी पुस्तक The Words में सार्त्र ने बताया है कि जब वह बारह वर्ष के थे तो वह अपने पास माचिस की डिब्बियां रखा करते थे और छोटी-छोटी आग लगा दिया करते थे। तब उनका ईश्वर के साथ एक पड़ोसी जैसा सम्बन्ध था। उन्हें आभास होता था जैसे वह उन्हें आग लगाते हुए देख रहा है। लेकिन एक दिन वह अपने अपार्टमेण्ट में सुबह स्कूल जाने के लिए निकले और उन तीन ब्राज़ीलियन लड़कियों की प्रतीक्षा करने लगे जो उनके साथ स्कूल जाती थीं और अभी तक तैयार होकर बाहर नहीं आई थीं - तो उन्हें अचानक जैसे एक अन्तर्नाद हुआ कि ईश्वर तो है ही नहीं। ईश्वर होता ही नहीं। उस क्षण के बाद वे हमेशा के लिए निश्चिन्त हो गए कि ईश्वर नहीं है, फिर कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। यह घटना वही 'तूर पर जलवा' जैसी लगती है, अविश्वसनीय भी, ईश्वरीय भी - जो अनीश्वरता को उस किशोर मन में स्थापित कर गई। सार्त्र के दर्शन को देखते हुए यह कहानी बेतुकी लगती है। लेकिन यह भी सही है कि बड़े-बड़े परिवर्तनों की झलक कई चमकीले क्षणों में आकस्मिक रूप से ही मिल जाती है, तर्क उसे चाहे जितना ही खारिज करे। Roland Barthes का कहना था कि सार्त्र को इक्कीसवीं सदी में दोबारा खोजा जाएगा। सार्त्र से इस विषय में जब Contac ने पूछा कि उनकी कौन सी कृतियां वे चाहते हैं कि भविष्य में लोग पढ़ें, तो सार्त्र ने Sations, Saint Genet, The Critique of Dialectical Reason और Good Lord का ज़िक्र किया। Nausea को वे अपनी सर्वोत्तम साहित्यिक कृति मानते थे। कई लोगों ने कहा कि वे 21 वीं सदी के मार्क्स के रूप में जाने जायेंगे। इस के उत्तर में सार्त्र कहते थे कि वे सिर्फ़ यही उम्मीद करते हैं कि आने वाले लोग उन्हें पढ़ें, उनके काम से परिचित रहें, इससे अधिक कुछ नहीं। एक व्यक्तिगत स्वतंत्रता सुरक्षित रखने वाले समाजवादी के रूप में वे स्वयं को देखते हैं। एक शून्य अराजकता और शक्तिविरोध का अन्तर जानना ज़रूरी है। बहुत से अजाने पक्ष हैं सार्त्र के जीवन के। वे अपने एकान्त क्षणों में घंटों संगीत सुना करते थे। बेथावन, शापिन, शूमन के अलावा वे शोनवर्ग और वेबर्न को भी पसंद करते थे। सिमोन जब अपने-आप में व्यस्त होती थी तो सार्त्र कई बार सिर्फ़ संगीत सुनते थे। सार्त्र के दादा, दादी और माँ बहुत अच्छे संगीतकार थे। उन्हीं से सार्त्र ने भी संगीत सीखा। कभी कभी पियानो पर बैठकर कुछ धुनें वे खुद भी बनाया करते थे। वे शराब भी बहुत पीते थे। अपने अंतिम दिनों तक अपनी नारी मित्रों के साथ बैठकर देर रात तक पीते रहते थे। सिमोन और आर्लेट (Arlette) को उनकी बोतलें छिपा कर रखनी पड़ती थीं। बेशुमार स्त्रियों से उनकी मित्रता या सतही सम्बन्ध रहे। लेकिन किसी भी तरह वे अपने भावनात्मक क्षणों को इन सम्बन्धों से नहीं भरना चाहते थे। सिर्फ़ सिमोन ही 1929 के बाद से उनके मन और काम की साथी रही। उन्हें हमेशा लगता था कि उन के पास काम ज़्यादा है और वक्त कम। मानसिक उत्तेजना बढ़ाने वाली नशे की गोलियां खाकर उन्होंने अपनी प्रख्यात कृति (The Critique of Dialectical Reason - 1960) लिखी थी। कई दफ़ा वे कोरीड्रेन की बीस-बीस गोलियां दिन भर में प्रयोग कर लेते थे। अपने काम के बारे में वे सन्तुष्टि के साथ स्वीकारते हैं कि जो उन्हें कहना था, वे कह चुके, उन्हें कोई आश्चर्य या पछतावा नहीं है। अपने पत्र Les Temps Moderens के लिए वे बिल्कुल अन्तिम दिन तक काम करते रहे। सार्त्र की अन्तिम स्थिति का चित्रण सिमोन ने मार्मिक ढंग से किया है। बुधवार, मार्च 19,1980 की शाम उन्होंने बड़ी अच्छी तरह गुज़ारी। लेकिन रात को ही उनका सांस उखड़ गया। उन्हें ब्रोसाई के हस्पताल ले जाया गया। उसके बाद वे घर वापिस नहीं आ सके। उन्हें यूरीमिया हो गया था क्योंकि उनके गुर्दे काम करना बन्द हो गये थे।शरीर के और हिस्से भी शिथिल पड़ते गये। सिमोन और Arlette (उनकी मुँह बोली बेटी आर्लेट) बारी-बारी उनके पास बने रहते थे। मृत्यु से दो दिन पहिले सिमोन ने बहुत निराशा में डाक्टर की छाती से लग कर रोते हुए कहा वायदा करो, सार्त्र को पता नहीं लगने दोगे कि वे मर रहे हैं। उन्हें मानसिक यातना से बचा कर रखोगे और उन्हें कोई दर्द नहीं होने दोगे। मृत्यु से एक दिन पहिले सार्त्र ने सिमोन का हाथ थाम कर कहा 'मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ Castor'। वे सिमोन को Castor कह कर बुलाया करते थे। अपने होठों से इशारा कर के उन्होंने सिमोन को चूमा। 15 अप्रैल रात को नौ बजे आर्लेट का सिमोन को फोन आया कि सार्त्र नहीं रहे। अगली सुबह सिमोन सार्त्र के मृत शरीर के साथ चादर हटा कर कुछ देर को लेटी रही। सार्त्र की इच्छा थी कि उन का दाह संस्कार किया जाए। परन्तु उनके शरीर को पहले मोन्टपारनेस में दफ़नाया गया। कुछ दिन बाद उनके शरीर को कब्र से निकाल कर दाह संस्कार के लिए ले जाया गया। पचास हज़ार से अधिक व्यक्ति उनकी शव यात्रा में शामिल थे। एक दार्शनिक, उपन्यासकार, नाटककार और एक सामाजिक सक्रिय कर्मी का अन्त उस नाटक के अन्त की तरह था जिस का हर दृश्य एक रोचक अपेक्षा के साथ खुलता था। रूसो, कान्त, हीगेल और मार्क्स की अगली कड़ी थे सार्त्र या मार्क्सवाद के विशाल भवन का ही एक छोटा सा कक्ष या सिर्फ़ शुद्ध अस्तित्ववादी जिन्होंने घटनाओं की आंधियों का सामना करने के लिए समाजवादी कवच पहन लिया था। इस बात का फैसला वक्त के हाथ में है।