Monday 2 March 2015

साहित्यिक इतिहास के दो 'नामवर' अध्याय

अध्याय-1 प्रसंग-अप्रसंग : नामवर सिंह के जीवन के कुछ अनुद्धाटित तथ्य

      समय समय पर हिन्दी जगत ने नामवर सिंह की साहित्यक और जीवन यात्रा के अनेक पड़ाव देखे हैं । कभी आश्चर्य के साथ, कभी कौतुक, कभी अविश्वास, कभी सम्मान, कभी उपेक्षा और कभी तो उपहास के साथ भी, लगभग उसी तरह, जिस तरह राजेन्द्र यादव के अन्तिम दिनों में लोग देखने लगे थे। वस्तुत: प्रत्येक व्यक्ति एक जीवन वृत्त पूरा करता है । यह वृत्त अपनी परिधि के अन्दर बहुत कुछ विरोधाभासी और गहरी निजताओं को छुपाए रखता है । विकलांग श्रद्धाओं का दौर बीतने के बाद, कालान्तर में समय उसके जीवन और भूमिका को इतिहास की शक्ल में बहुत मजबूत जमीन पर खड़ा करता है । इसके लिये उस व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन के केवल कुछ बिन्दु या कि पड़ाव ही उसे समझने और जानने का मुख्य स्रोत बनते हैं । यह पत्र नामवर जी के जीवन में यही काम करता है । इसका महत्व, उपयोगिता और प्रासंगिकता इसलिये बहुत अधिक है कि यह एक ऐसा प्रमाणिक दस्तावेज है जो नामवर जी के बनने की प्रक्रिया के विशेष कालखंड को अकाटय रूप में सामने लाता है ।
      1960का नामवर सिंह से जुड़ा यह गोपनीय सरकारी पत्र व्यवहार हमें 'नेशनल आर्काइव' से प्राप्त हुआ है। यह पत्र व्यवहार नामवर जी के शुरूआती जीवन की एक पूरी छवि देता है। उनकी वैचारिकता, कम्युनिस्ट पार्टी के प्रति प्रतिबध्दता और सक्रियता का प्रमाण भी है। सागर विश्वविद्यालय में नामवर जी की हिंदी के असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति तथा आगे उसे स्थायी करने के प्रति तत्कालीन वाइस चांसलर डी.पी. मिश्रा का पत्र बेहद ध्यान से पढ़े जाने की मांग करता है। इसी तरह सीआईडी रिपोर्ट भी । ये दोनों दस्तावेज नामवर जी के एक प्रतिबध्द, समर्पित, सक्रिय कम्युनिस्ट होने का प्रमाण हैं और इसका भी, कि कांग्रेसी सरकार, विशेष रूप से डी.पी. मिश्रा, किस तरह कम्युनिस्टों के प्रति सोचते और व्यवहार करते थे। पाठकों के लिये यह जानना रोचक होगा कि डी.पी. मिश्रा पुराने कांग्रेसी थे और सरदार पटेल के विश्वस्ततम व्यक्तियों में थे । गांधी की हत्या के बाद पटेल ने गुरु गोलवलकर को कैद करके डी.पी. मिश्रा (तब मुख्यमंत्री) के ही सुर्पुद किया था । भारतीय राजनीति के इतिहास पर डी.पी. मिश्रा की दो अत्यन्त चर्चित और विवादास्पद पुस्तकें 'लिविंग एन ईरा' और 'द नेहरू ईपौक' प्रकाशित हैं । ये पुस्तकें कांग्रेस पार्टी तथा व्यक्तियों की कुछ आन्तरिक सच्चाइयों को उद्धाटित करती हैं ।
यहाँ यह देखना अत्यंत रोचक,  प्रासंगिक और आवश्यक है, कि हमारे समय में हिंदी का एक विराट व्यक्तित्व क्या आज भी, जबकि वह एक लंबी साहित्यिक और जीवन यात्रा पूरी कर चुका है, एक कम्युनिस्ट के रूप में उतना ही समर्पित, प्रतिबध्द और सक्रिय है? यह भी, कि लंबे समय तक 'प्रलेस' के अध्यक्ष रहते हुए क्या नामवर जी ने अपनी भूमिका का इसी तरह निर्वाह किया है? यदि  नहीं, तो विचलन या कि फिसलन के बिंदु कहां थे, क्यों थे और कब पैदा हुए थे? यदि हाँ, तो फिर आज उनसे जुड़े बहुत से ऐसे प्रश्नों के क्या उत्तर हैं जो उन्हे सत्ता अथवा अन्य किसी शक्ति केन्द्र से सीधे जोड़ते हैं । उनकी वर्तमान साहित्यिक गतिविधियां, दृष्टि और लेखन की सक्रियता क्या उतनी ही धारदार, ओजपूर्ण और प्रतिबध्द है, जैसी कि इन पत्रों में दिखायी देती है । जो भी है, ये पत्र नामवर जी को समझने के लिए तथा उन अनेक शोध छात्रों और अध्यापकों  के लिए, जो नामवर जी पर काम कर रहे हैं, अमूल्य दस्तावेज की तरह हैं। निश्चित ही एक ओर, यदि नामवर जी से जुड़े, विशेष रूप में उनके सागर विश्वविद्यालय के इस कार्यकाल से जुड़े बहुत से धुंधलके छटते हैं, बहुत से प्रश्नों के उत्तर मिलते हैं, तो दूसरी ओर इससे बहुत से नए प्रश्न पैदा भी होते हैं। ध्यान से पढ़ने पर इन पत्रों से कुछ अन्तर्ध्वनियां भी निकलती हैं । सब कुछ पाठकों के समक्ष है।
     हमे यह पत्र व्यवहार उदयशंकर द्वारा प्राप्त हुआ है। इसके लिए हम उनके आभारी हैं।  पूरा पत्र व्यवहार अंग्रेजी में है । यहाँ उसका हिंदी अनुवाद दिया जा रहा है। अनुवाद जीवेश प्रभाकर ने किया है। पत्र अपने मूल रूप में हमारी वेबसाइट पर उपलब्ध है जिससे कि अनुवाद की किसी अशुद्धि को वेबसाइट के मूलपत्र से सुधारा जा सके ।
(प्रि.)
श्री एच.एस.कामथ,आईसीएस
डी.ओ. न. 2PACS60
मुख्य सचिव   भोपाल
मध्यप्रेदश शासन 5 जनवरी 1960
पौष 15, 1881
अत्यन्त गोपनीय
प्रिय पंडित मिश्रा जी,
मैं सागर विश्वविद्यालय द्वारा हाल में ही में जुलाई 1959में की गई डॉ नामवर सिंह की नियुक्ति के संबंध में आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं। इस पत्र के साथ संलग्न कुछ गोपनीय नोट हैं, जिनमें उनसे संबंधित जानकारियां हैं, जो मैं आपके संज्ञान में ला रहा हूँ,जिसके आधार पर इस विषय में विश्वविद्यालय प्रशासन संभवत: कार्यवाही कर सकता है।
भवदीय
एच.एस कामथ

 संलग्न  - एक
पंडित डी.पी. मिश्रा
उप कुलपति, सागर  विश्वविद्यालय ,
सागर
- डॉ. नामवर सिंह पर नोट -
1.    नाम (उपनाम के साथ)-नामवर सिंह
2.    पिता -नागर सिंह
3.    जन्म तिथि एवं स्थान      -लगभग 1919, ग्राम जीवनपुर जिला वाराणसी
4.    पता - 1. ग्राम - जीवनपुर, पो.आ. - आवाजपुर, जिला- वाराणसी
2. बी232, भदैनी, वाराणसी.
5.    हुलिया- गेंहुआ रंग, गोल चेहरा, सामान्य कद, पहनावा धोती कु र्ता
6.    वर्तमान पार्टी निष्ठा-कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया
7.    गतिविधियाँ:-
1956में वाराणसी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में तदर्थ व्याख्याता के पद पर कार्यरत नामवर सिंह के संबंध में यह जानकारी में आया कि वे अपने कार्यकाल के दौरान कम्युनिस्ट पार्टी की गतिविधियों में संलग्न रहते रहे हैं । इसके साथ ही वे स्टूडेंट फैडरेशन ऑफ इंडिया की बैठकों में शामिल होते रहे एवं प्रगतिशील लेखक संघ के सदस्य हैं तथा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की साहित्यिक गतिविधियों में गंभीर रुचि रखते रहे।  वे वाराणासी हिन्दू विश्वविद्यालय के स्टूडेंट फैडरेशन के कोषाध्यक्ष भी थे ।
उन्होंने 14-03-56को वाराणसी में काल मार्क्स की मृत्यु की बरसी पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी कार्यालय के कार्यक्रम में भी भाग लिया था । इस अवसर पर उन्होंने मार्क्सवाद के सिद्धान्तों का गुणगान किया । श्री विद्यासागर नौटियाल (एस.एफ.) के निवास पर बी.एच.यू. स्टुडैंट फैडरेशन के स्टडी सर्कल की निजी बैठक में उन्होंने क्रान्ति के शांतिपूर्ण तरीकों पर प्रकाश डाला, साथ ही उपस्थित श्रोताओं से चीन व रूस की प्रशंसा करते हुए, उन्हें मजबूत करने की अपील की, साथ ही सुझाव दिया कि पार्टी को पहले कांग्रेस पार्टी में प्रवेश कर कांग्रेस की राजनैतकि शक्ति को भीतर से कमजोर करना चाहिये।  02-12-56 को बी.एच.यू. स्टूडैंट फैडरेशन द्वारा आयोजित निजी बैठक की अध्यक्षता की जिसमें उन्होंने बी.एच.यू. के प्रोफेसर एवं लैक्चरर के बीच पार्टी का प्रभाव और संबंध बढ़ाने की आवश्यकता पर जोर डाला और इसकी जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेने का आश्वासन दिया । उन्होंने व्याख्याताओं से फंड एकत्र करने का वादा भी किया । उसके पूर्व सितम्बर 1956 में वे बी.एच.यू. में नवगठित स्टडी सर्कल के अध्यक्ष चुने गए थे जिसका उद्देश्य वामपंथी विचार धारा को मजबूत करना एवं उसके खोए प्रभाव को पुन: प्राप्त करना है । 4-2-1957को भदैनी, वाराणसी में कम्युनस्टि पार्टी के वार्ड ऑफिस के उद्धाटन अवसर पर स्थानीय पार्टी कार्यकर्ताओं द्वारा आयोजित कार्यक्रम मे उपस्थित लोगों को सम्बोधित किया ।
जनवरी1957में उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी के एक सक्रिय सदस्य रूस्तम सटीन को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. सम्पूर्णानंद के विरुद्ध चुनाव लड़ने हेतु 51- चंदा दिया । उन्होंने इसके पश्चात पुन: उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के विरुद्ध चुनाव याचिका दाखिल करने हेतु 40 रु. की राशि आर्थिक सहयोग के रूप में प्रदान की । फरवरी 1959 में चंदौसी ( वाराणसी) चुनाव क्षेत्र में हुए लोकसभा के उपचुनाव में, बी.एच.यू. विश्वविद्यालय प्रशासन से अनुमति लिए बगैर, वे सी.पी.आई के टिकट पर खड़े हुए मगर हार गए । इस दौरान वे छुट्टी के आवेदन के बिना काफी लम्बे समय तक कार्य से अनुपस्थित रहे जिसके कारण 26-3-59को उनकी सेवाएं समाप्त कर दी गयीं ।

(सागर में उनकी गतिविधियों पर नोट )
जुलाई 1959के अंतिम सप्ताह में वे सागर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में नियुक्त किए गए । सागर पहुँचते ही वे स्थानीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों से सम्पर्क बढ़ाते पाए गए । नियमित रूप से कम्युनिस्ट पार्टी की बैठकों में शामिल होते रहे और कार्यकर्ताओं का संगठनात्मक मुद्दों पर मार्गदर्शन करते रहे । 3 अगस्त को सागर में केरल दिवस पर समारोह में सक्रिय भाग लिया । 14 अगस्त को भारतीय कम्युन्सिट पार्टी द्वारा आहूत बैठक में सागर की कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय व महत्वपूर्ण कार्यकर्ता महेन्द्र कुमार फुसकेले से ग्रामीण क्षेत्रों में पार्टी की गतिविधियों पर चर्चा की । 2 सितम्बर को पार्टी की बैठक में भाग लिया जिसमें वर्तमान केन्द्रीय रक्षा मंत्री एवं आर्मी स्टाफ के प्रमुख के बीच तथाकथित मतभेदों  पर केन्द्रित  बहस की गई । सागर में मुंशी प्रेमचंद के पुत्र, इलाहाबाद निवासी, अमृत राय, जो बताया जाता है कि प्रगतिशील लेखक हैं और कम्युनिस्ट पार्टी के घोर समर्थक हैं, को दिए गए स्वागत भोज में शामिल हुए ।

(डी. पी. मिश्रा का पत्र)
डी. पी. मिश्रा
गोपनीय
प्रिय श्री कामथ,
मुझे आपका पत्र डी.ओ.न. डा.ओ. न. 2क्क्ष्टस्60दिनांक 5जनवरी, अभी-अभी प्राप्त हुआ । हिन्दी विभाग में सहायक प्रध्यापक के पद पर डॉ. नामवर सिंह की नियुक्ति राजनैतिक दृष्टि से खेदजनक है । उन्हें 2वर्ष के प्रोबेशन पर नियुक्ति दी गई है । क्योंकि   विश्वविद्यालय में उनका कार्य काफी संतोषजनक है, इसलिये उन्हें प्रोबेशन पीरियड खत्म होने के पहले हटाया जाना कठिन होगा । फिर भी, मैं इस विषय में क्या किया जा सकता है, देखूँगा। प्रोबेशन के पूर्ण हो जाने के पश्चात हमें उनका कार्यकाल आगे जारी रखने से मना करने के लिये भी पारम्परिक रूप से पर्याप्त कारण बताना होगा। मैं व्यक्तिगत रूप से सोचता हूँ कि एक शिक्षक को बिना कोई कारण बताए हटाया जा सकता है । हाल ही में एक शिक्षक ने, जो स्थायी नहीं था, उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की है । यदि उसकी याचिका खारिज हो जाती है, जैसी मैं अपेक्षा करता हूँ, तो ऐसे मामलों में अपने अनुसार निर्णय लेने में मेरी स्थिति मजबूत होगी ।
      अक्टूबर के दूसरे सप्ताह में, जब दशहरा, दीवाली अवकाश के लिये विश्वविद्यालय में छुट्टियाँ हुयी थीं, तब उनकी अवांछित गतिविधियाँ मेरी जानकारी में आई थीं । मैंने डॉ. नामवर सिंह की गतिविधियों के बारे में बनारस में रहने वाले अपने मित्र से बात की थी, जो डॉ. नामवर सिंह के इंटरव्यू के लिये गठित चयन समिति के सदस्य थे । मुझे लगता है मेरे मित्र ने डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी से बात की थी जो कि खुद एक विशेषज्ञ के रूप में चयन समिति में शामिल थे । उन्होंने, जब वे छुट्टियों में बनारस गए थे, संभवत: डॉ. नामवर सिंह की निंदा की होगी। वे नवम्बर के पहले सप्ताह में वापस आए और तब से मैंने उनके विरूद्ध कोई आपात्तिजनक गतिविधियों के बारे में नहीं सुना है । क्या आप मुझे कृपया अक्टूबर के बाद उनके द्वारा किसी भी अवांछित गतिविधियों में भागीदारी के सम्बन्ध में अवगत करायेंगे ?
      मैं यहाँ यह जोड़ने की कोई जरूरत नहीं समझता कि मैं बौद्धिक एवं राजनैतिक, दोनों ही तरह से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सख्त खिलाफ हूं। मैं इस नियुक्ति पर बेहद खेद व्यक्त करता हूँ और जल्द से जल्द उनसे छुटाकारा पाने हेतु अपनी ओर से भरसक प्रयास करूँगा ।
भवदीय (डी. पी. मिश्रा)                                        ('अकार' से साभार)


अध्याय-2 परिमल की वह गोष्ठी और नागार्जुन का संग-साथ / भारत यायावर

24 अगस्त, 1952 को नामवर प्रयाग पहुँचे. रविवार था. शंभुनाथ मिश्र के घर ‘परिमल’ की गोष्ठी हो रही थी. अध्यक्षता डॉ॰ रघुवंश कर रहे थे. सबसे पहले सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने पिछली बैठक का विवरण पढ़ा. फिर धर्मवीर भारती के नए उपन्यास ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ पर चर्चा शुरू हुई. विजयदेव नारायण साही ने सबसे पहले इस उपन्यास की मौखिक समीक्षा शुरू की. उन्होंने इस उपन्यास के निष्कर्षवादी कहानीपन के व्यंग्य तथा मासिक कथा-चक्र, अनध्याय आदि बातों पर स्टाइनबेक का असर ही नहीं, नकल बताया. उन्होंने यह भी कहा कि इस नकल में स्टाइनबेक की तरह यथार्थ की पकड़ और पात्रों के प्रति सहानुभूति और सामूहिक शक्ति का अभाव है. डॉ॰ हरदेव बाहरी ने कहा कि लेखक ने टेकनीक पहले चुनी और कथा बाद में ली. नामवर ने इस उपन्यास पर पाँच बातें बताईं –
1.समालोचकों के प्रति अत्यधिक सतर्क रहने के कारण उपन्यासकार भारती ने उपन्यास के पात्रों के स्वाभाविक जीवन और गतिविधि को कुंठित कर दिया है.
2.यह उपन्यास नहीं कथाख्यान है, घटनाएँ घटित होती नहीं दिखाई जातीं, बल्कि सूचित की जाती है.
3.इसमें अनेक प्रकार की शैलियों को समेटने की चेष्टा की गई है और कैशोर्य कथ्य उसका भार सम्भालने में लचक गया है.
4.यथार्थ और स्वप्न में विरोध ही नहीं, असंबद्धता भी है. काश ! लेखक का स्वप्न माणिक मुल्ला का स्वप्न बनकर आता.
5.पूरा उपन्यास एक बहुत बड़े उपन्यास के कथामुख हैं.
नामवर की टिप्पणी के बाद नर्मदेश्वर चतुर्वेदी, इलाचन्द्र जोशी, सुरतदास, ओंकारनाथ श्रीवास्तव, जितेन्द्र, अजित कुमार ने इस उपन्यास पर अपनी-अपनी बातें रखीं. साही ने पुनः पूर्व में दिये गये अपने वक्तव्य को विस्तृत रूप में प्रस्तुत कर स्पष्ट किया. अंत में, धर्मवीर भारती ने अत्यंत ही विनम्रता से सभी की बातों को स्वीकार किया और नामवर की रचनात्मक आलोचना के लिए कृतज्ञता प्रकट की. भारती की बातों से नामवर को लगा कि वे उनके विचारों को जानने के लिए पहले से बहुत आकुल थे.
‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ पर विचार-विमर्श समाप्त होने के बाद गिरिधर के ‘अग्निमा’ काव्य-पुस्तक पर चर्चा प्रारम्भ हुई. धर्मवीर भारती ने इस पुस्तक का परिचय देते हुए कहा कि यह वर्तमान प्रगति की सड़क के किनारे का उपेक्षित फूल है. डॉ॰ बाहरी ने उसके श्मशान प्रेम पर प्रहार किया और भाषा सम्बन्धी 84 दोष दिखाए. नामवर ने कहा कि उपन्यास की आलोचना करने के बाद कविता की आलोचना करने के लिए दृष्टिकोण और ढंग बदलना आवश्यक है. यह वर्तमान प्रगति की सड़क के किनारे का फूल नहीं बल्कि हमारे ही कल के गाए हुए गीतों की गूँज है - यानी वह आज से दस वर्ष पहले के हिन्दी गीतिकाव्य का अंग है - वह गीतिकाव्य जो छायावादी गीतों तथा उर्दू गजलों के समन्वय से बच्चन के रूप में प्रकट हो रहा था. यह उस युग की समूची काव्य-क्रिया का प्रतिनिधि नहीं बल्कि उसके एक तार-गति का प्रतिनिधि है. अतः इसमें सबकुछ खोजना अनुचित है. वैयक्तिता इसका गुण भी है और दोष भी. गुण इस मायने में कि उससे तन्मयता अथच् मार्मिकता आयी है. किन्तु दोष इसलिए है कि श्दमहंजपअम बंचंइपसपजलश् (आत्म-निषेध की योग्यता) का अभाव है. इससे प्रतीकों और उपमाओं में बहु-जीवन की छवियाँ न आ सकीं. इसकी गीतिमयता में एकस्वरता है.
विजयदेव नारायण साही ने नामवर के विचारों में अंतर्विरोध बताया और ‘निगेटिव कैपेबिलिटी’ की नामवर की अवधारणा का खण्डन किया. धर्मवीर भारती ने बीच में बोलने का समय माँगकर साही को उत्तर दिया और नामवर के मंतव्य को स्पष्ट करते हुए कहा कि ‘आत्मनिषेध’ का अर्थ ‘स्वानुभूति निषेध’ नहीं है. नामवर को भारती की सूझ और पकड़ पर खुशी हुई. साही ने भारती के क्षेपक के बाद नामवर की टिप्पणी पर फतवा देने का आरोप लगाया, जिसे डा॰ रघुवंश ने गलत बताया और इसके लिए साही को कड़ाई से रोका भी. सुबह आठ बजे से प्रारम्भ हुई यह गोष्ठी दोपहर को जलपान के साथ समाप्त हुई.
गोष्ठी के उपरांत नर्मदेश्वर चतुर्वेदी नामवर को अपने घर ले गए. उन्होंने एक ही थाल में नामवर के साथ भोजन किया. ब्राह्मण होते हुए चतुर्वेदी जी ने ऐसा कदम उठाया था कि एक ही थाल में दोनों ने अपने साथ नामवर को खिलाया - यह उनके लिए एक अनोखा अनुभव था.
फिर वे वहाँ से शमशेर बहादुर सिंह के निवास पर पहुँचे. वहीं नागार्जुन से भेंट हुई. नागार्जुन का जीवंत व्यक्तित्व और अनोखा अंदाज नामवर को मोहित कर गया. उन्होंने गपशप करते हुए कुछ मजेदार क्षण बिताए फिर दोनों बातें करते हुए उपेन्द्रनाथ अश्क के घर गए. अश्क ने अपने नाटकों का एक सेट आलोचना लिखने के लिए भेंट किया. वहाँ से लौटने के बाद शमशेर को साथ लेकर सुमित्रानंदन पंत के यहाँ गए. उन्हें मधुमेह की बीमारी हो गई थी. वे शमशेर के द्वारा बताए गए ‘विजयसाल’ की लकड़ी का पानी पी रहे थे और जिससे उनके स्वास्थ्य में सुधार था. रात को वे प्रयाग से काशी लौट गए. उन्होंने 26 अगस्त की नागार्जुन के सम्मान में अपने छात्रावास में एक गोष्ठी रखा था, जिसमें आने के लिए नागार्जुन को निमंत्रित किया.
इस तरह का तब का साहित्यिक वातावरण था. लोग जमकर एक-दूसरे की आलोचना करते थे, लेकिन व्यक्तिगत तौर पर एक-दूसरे से सद्भाव रखते थे. साही और नामवर में तीखी नोक-झोंक चलती थी, किन्तु वे एक-दूसरे के ज्यादा अंतरंग थे. यही वह समय था, जब वे नागार्जुन के स्नेह-सानिध्य में भी आ रहे थे.
26 अगस्त को नागार्जुन इलाहाबाद से बनारस पधारे. दोपहर का समय था. नामवर कालेज से लौटकर अपने कमरे में विश्राम कर रहे थे कि नागार्जुन उनके पास आये. नामवर उनके सामान को अतिथिशाला में रख आए और बाबा को भोजन करवाया. उन्होंने दही मँगवाया पर बाबा ने दही खाने से मना कर दिया. बाबा भोज्य सामग्री के प्रयोग पर संयम बरतते थे. नामवर को अचानक यह लोकोक्ति याद आई - ‘सावन साग न भादो दही’. उन्होंने बाबा की डायरी लेकर उनकी ‘दुखहरण मास्टर शीर्षक कविता पढ़ी. इस कविता को पढ़कर उसके तीखे एवं मार्मिक व्यंग्य पर मुग्ध हुए. भाषा क्या सीधी-सादी है !
घुन-खाए शहतीरों पर की, बाराखड़ी विधाता बाँचे
फटी भीत है, छत चूती है, आले पर बिसतुइया नाचे
बरसाकर बेबस बच्चों पर मिनट-मिनट में पाँच तमाचे
दुखरन मास्टर गढ़ते हैं किसी तरह आदम के साँचें
अरे, अभी उस रोज वहाँ पर सरे-आम जक्शन-बाज़ार में
शिक्षा-मन्त्री स्वयं पधारे चम-चम करती सजी कार में
ताने थे बन्दूक सिपाही, खड़ी रही जीपें कतार में
चटा गये धीरज का इमरित, सुना गये बातें उधार में
चार कोस से दौड़े आये जब मन्त्री की सुनी अबाई
लड़कों ने बेले बरसाये, मास्टर ने माला पहनाई
संगठनों की घनी छाँव में हिली माल, मूरत मुसकाई
तम्बू में घुस गये मिनिस्टर, मास्टर पर कुछ दया न आई
“अन्दर जाकर तम्बू में ही चलो चलें दुख-दर्द सुनाएँ
नहीं, अकेला मैं ही जाऊँ, कहीं भीड़ में वह घबराएँ
बचपन के परिचित ठहरे, हम क्यों न चार बात कर आएँ
मौका पाकर विद्यालय की बुरी दशा पर ध्यान दिलाएँ !“
सुनकर बात गुरुजी की फिर ‘‘हाँ, हाँ’’ बोले लड़के सारे
“हम जब तक सुसता भी लेंगे आगे बढ़कर कुआँ किनारे !
हाथ हिलाकर मास्टर बोला, ‘‘जाओ बच्चों, जाओं प्यारे
चने चबाकर पानी पीना, सूख रहे हैं हलक तुम्हारे’’
खिचड़ी बाल, साँवली सूरत दुखरन प्राइमरी मास्टर
लपके-लपके बढ़े आ रहे मैदानी हाते के भीतर
जहाँ तम्बुओं की कतार थी जिसमें पैठे रहे मिनिस्टर
चारों ओर मिलिटरी, जिसके लोहे का टोपा था सिर पर
पके बाँस का पक्का घेरा, हरे बाँस की कच्ची फाटक
पतला बाँस बीस गज ऊँचा गड़ा हुआ था पूरी धड़ तक
फर-फर-फर फहराने वाला तिनरंगा था जिसका मस्तक
दुखरन मास्टर लगे देखने कांगरेस की शान एकटक
फटक घर पहुँचे तो देखा, डटे हुए थे दो नेपाली
हाथों में संगीन सँभाले, लटक रही थी निजी भुजाली
“कहाँ जायेगा ?“ वे गुर्राये, आँखों में उतराई लाली
दुखरन का दिल दुखी हुआ, सुन सूखा तू-तू सूखी गाली
मास्टर बोले, “यों मत कहना, पढ़ा-लिखा हूँ, मैं हूँ शिक्षक
तुम भी हो जनता के सेवक, मैं भी हूँ जनता का सेवक !“
फिर तो वेध कियाकर बोले ‘‘भागभाग, जा मत कर बकबक
हम फौजी हैं, नहीं समझता क्या होता है सिच्चक-सेवक“
कुछ दिन बीते मास्टर ने यह कड़ा विरोध-पत्र लिख डाला:
“ताम-झाम थे प्रजातन्त्र के, लटका था सामन्ती ताला
मन्त्री जी, इतनी जल्दी क्या आजादी का पिटा दिवाला
अजी आपको उस दिन मैंने नाहक ही पहनाई माला“
और लिखा “उस रोज आपसे भीख माँगने नहीं गया था
आप नये थे, नया ठाठ था, लेकिन मैं तो नहीं नया था
भूल गये क्या अजी आपका छोटा भाई फेल हुआ था
और आपने मुझे जेल से मर्मस्पर्शी पत्र लिखा था.
‘प्रभुता पाई काहि मद नाहीं’ तुलसी बाबा भले कह गये
जिसमें वाजिद अली बह गया उसी बाढ़ में आप बह गये
आप बने शिक्षा-मन्त्री तो देहातों के स्कूल ढह गये
हम तो करते रहे पढ़उनी, जेल न जाके यहीं रह गये
और आपका तो क्या कहना, मुँह से बहै आरत की धारा
आदर्शों की धुआँधार में अकुलाता शिक्षक बेचारा
अजी आपको लगता होगा सुखमय यह भूमण्डल सारा’’
लिखा अन्त में ‘‘ध्यान दीजिए, बहुत दिनों से मिला न वेतन
किससे कहूँ, दिखायी पड़ते कहीं नहीं अब वे नेता-गण
पिछली दफे किया था हमने पटने में जा-जा के अनसन
स्वयं अर्थ-मन्त्री जी निकले, वह दे गये हमें आश्वासन
और क्या लिखूँ, इन देहाती स्कूलों पर भी दया कीजिए
दीन-हीन छात्रों-गुरुओं की कुछ भी तो सुध आप लीजिए
हटे मिटे यह निपट जहालत, प्रभु ग्रामीणों पर पसीजिए
कई फण्ड हैं उनमें से अब हमको वाजिब एड दीजिए“
बाबा अपनी डायरी में मसूरी में राहुल सांकृत्यायन के घर, महादेव साहा के साथ रहते हुए जो संस्मरण लिखा था, उसे भी पढ़वाया.
शाम नागार्जुन के सम्मान में गोष्ठी किया गया. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने गोष्ठी की अध्यक्षता की. नामवर ने नागार्जुन की कविताओं पर व्याख्यान दिया, फिर नागार्जुन ने अपनी कविताएँ नाटकीय अंदाज में पढ़ीं - बादल को घिरते देखा है, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, दुखहरण मास्टर, नयी दिल्ली, रामराज्य तथा कुछ मैथिली कविताएँ. अंत में आचार्य द्विवेदी ने नागार्जुन पर बड़े ही रोचक एवं व्यंग्यपूर्ण अंदाज में अध्यक्षीय व्याख्यान दिया.
रात में नामवर ने नागार्जुन के उपन्यास ‘रतिनाथ की चाची’ पढ़ना शुरू किया और सुबह उसे पूरा किया. फिर वे नाश्ता करने के बाद नागार्जुन के साथ आचार्य द्विवेदी के घर की ओर चले. रास्ते में नागार्जुन ने ‘रतिनाथ की चाची’ पर नामवर की प्रतिक्रिया जाननी चाही. जब नामवर ने इस उपन्यास की खरी आलोचना की, तब बाबा प्रसन्न हुए. द्विवेदीजी के घर पर जाकर उनसे मिले. फिर एक होटल में नागार्जुन को भोजन करवाकर अलईपुर स्टेशन पर उन्हें गाड़ी पर बिठा कर उदय प्रताप कॉलेज चले गए.
नागार्जुन से नामवर का यह संसंर्ग, साहचर्य लगातार बना रहा. अगले वर्ष यानी 1953 के 16 अप्रैल को नागार्जुन उनके छात्रावास के कमरे में आ गए. नामवर ने खेल-खेल में नागार्जुन से कई प्रश्न किए और उन्होंने इनके सधे हुए संक्षिप्त उत्तर दिए, जिन्हें उन्होंने अपनी डायरी में अंकित कर लिया. ये सभी बाबा की आत्म-स्वीकृतियाँ थीं -
नामवर के प्रश्न नागार्जुन के उत्तर
वांछित गुण ? : निराडम्बरता
वांछित गुण, पुरुष में ? : श्रमशीलता
वांछित गुण, स्त्री में ? : समवेदना
चारित्रिक विशेषता ? : भदेसपन
सुख की परिकल्पना ? : समझदारी
दुख की परिकल्पना ? : नासमझी
सबसे क्षम्य दुष्कर्म ? : हत्या
सबसे अक्षम्य ? : झूठ
नापसंद ? : दार्शनिकता
मनपसंद पेशा ? : लेखन
प्रिय कवि ? : कालिदास, रवीन्द्रनाथ निराला
प्रिय गद्य लेखक ? : बाणभट्ट और बालमुकुन्द गुप्त
प्रिय महानायक ? : कर्ण
प्रिय महानायिका ? : द्रौपदी
प्रिय फूल ? : नीलकमल
प्रिय रंग ? : हरा
प्रिय नाम ? : सरला और अमल
प्रिय भोजन ? : मछली
प्रिय सूक्ति ? : सत्य श्रमाभ्या सकलार्थ सिद्धि
प्रिय आदर्श वाक्य ? : क्रिया केवलमुत्तरमू
नामवर के सवैये और त्रिलोचन के सॉनेट
1952 ई0 में नामवर सिंह ने कई सवैये लिखे जिन्हें सुनकर इलाहाबाद की एक गोष्ठी में नेमिनन्द्र जैन ने कहा था - प्रयोग तो आपने किया है, कौन कह सकता है कि सवैया का भविष्य नहीं है. यह वह दौर था, जब त्रिलोचन रोला छंद में सॉनेट लिख रहे थे और नामवर सवैये. वे एक दूसरे को प्रायः अपनी कविताएँ सुनाते. त्रिलोचन का सॉनेट का रोग तब नामवर को भी लगा और उन्होंने भी कई सॉनेट लिखे. उसी समय केदारनाथ सिंह ने भी कुछ सॉनेट लिखे. त्रिलोचन के वे सॉनेट बाद में कई कविता-संग्रहों में संकलित हुए.
1950 ई॰ में त्रिलोचन ने तृतीय श्रेणी में बी॰ए॰ की परीक्षा पास की और पास करने पर बहुत खुश हुए. उन्होेंने अंग्रेजी से एम॰ ए॰ करने का संकल्प लिया. नामवर ने उन्हें बार-बार समझाया कि अंग्रेजी न लें, दिक्कत होगी. हिन्दी लेने से आसानी से परीक्षा पास कर जायेंगे. किन्तु उन्होंनें अपनी जिद पर अंग्रेजी ली. 1951 ई॰ में उन्होंने पूर्वाद्व पास कर लिया. किन्तु उन्हें अब भी अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए बहुत मेहनत करना पडता था. बेहद अभावग्रस्त रहते थे. दूसरी तरफ रोज कविताएँ लिखना. कोर्स की किताबें कम पढ़ पाते थे. इसी समय एक बार वे इलाहाबाद गये और शमशेर के साथ ठहरे. उक्त प्रकरण शमशेर के शब्दों में, “कोर्स की किताबों का ढेर तो ज्यूं-का-ज्यूं पडा रहता, हाँ सॉनेटों, रूबाइयों और गजलों का ढेर वह बिना-रुके लगाते जा रहे थे. गजलों और रूबाइयों का एक संग्रह ‘गुलाब और बुलबुल’ तो छपकर बाजार में देखते-देखते गायब भी हो गया. उन्हीं दिनों वह इलाहाबाद में मेरे यहाँ आकर ठहरे तो मैनें उन्हें आड़े हाथों लिया ! बताया, कैसे वह अपनी अकेडमिक असफलता और हीन-भावना पर भारी दबीच पर्दा डालने और खुद अपने को बरगलाने के लिए ही ताबड़-तोड़ सॉनेट और गजलों का अम्बार लगा रहे है. मैंने कहा कि अपनी इस अद्भुत प्रतिभा को जरा और गम्भीरता से लो. इसी रौ में जाने क्या-क्या बकता चला गया. ... कोई दो तीन घंटे तक वह बिचारे दम-बखुद बैठे सुनते रहे. कुछ दिनों बाद नामवर आये. बोले- शमशेर भाई ! आपने क्या गजब किया ! यह तो कहिये कि मैंने त्रिलोचन जी को रोका कि वह आवेग में आकर अपनी कविताओं, सॉनेट और गजलों को नष्ट न कर दें. आपने जाने क्या-क्या उनको सुना दिया. मैं यह सुनकर सन्न रह गया. मुझे क्या मालूम कि मेरी मासूम-सी खुदाई-फौजदारी बैठे-बिठाये कितना बड़ा अनर्थ और आधुनिक हिन्दी साहित्य की कितनी बड़ी हानि करने जा रही थी. दोस्ती का मतलब एक बेतकल्लुफी है, माना ! मगर ऐसी भी बेतकल्लुफी क्या कि विश्लेषण इतना निर्मम और कठोर हो जाए कि एक दोस्त की सारी रचनाओं को ही सिरे से खत्म कर दें ! और कैसी रचनाएँ ! जिनका चयन आज सर-आँखों से लगाने के काबिल है. यह नामवर सिंह का ही बहुत बड़ा एहसान है जो उन्होंने उसकी रक्षा कर ली और मुझे आइन्दा के लिए बहुत सही आगाह किया. तबसे उनकी बात मैंने गिरह बाँधी.“ उसी लेख में शमशेर ने लिखा है कि त्रिलोचन की प्रतिभा और उनके विशिष्ट स्वस्थ प्रगतिशील काव्य की ओर ध्यान दिलानेवालों मे शिवदान सिंह चौहान और नामवर सिंह पहले आलोचक हैं.
उस समय नामवर सिंह की कविताओं की विशिष्टता की ओर भी कई साहित्यकारों का ध्यान गया था. शमशेर को उनकी कविताएँ विशुद्ध इमेजिस्ट लगीं. शमशेर ने लिखा - “धीरे-धीरे क्या, जल्द ही, नामवर के युवा कवि को उसके व्यस्कतर होते मार्क्सिस्ट आलोचक ने दबा दिया.“ लेकिन यह बात क्या सही है ? नामवर आजीवन कविताएँ लिखते तो न रहे पर जीते रहे. कविता में जीना, कविता ही ओढ़ना और बिछाना. आज भी यह क्रम जारी है. हाँ, वे अपनी कविताओं पर बात करते हुए झिझकते हैं. अपने सवैयों को प्रकाशित करवाया होता तो उन्हें वही यश मिलता जो त्रिलोचन के रोला छंद में लिखें सॉनेट को मिला.
त्रिलोचन का संग-साथ उनके ‘कवि’ को सक्रिय रखे था, किन्तु हजारीप्रसाद द्विवेदी उन्हें शोध-अनुसंधान की ओर खींच रहे थे. साहित्यिक गोष्ठियाँ एवं समारोह में बहस करना, व्याख्यान देना उनको आलोचना की ओर ले जा रहा था.
1953 ई॰ में उन्होंने द्विवेदीजी के निर्देशन में पृथ्वीराज रासो के महत्त्वपूर्ण स्थल का चयन किया और वह पुस्तक हजारीप्रसाद द्विवेदी तथा नामवर सिंह के संपादन में ‘संक्षिप्त पृथ्वीराज रासो’ शीर्षक से साहित्य भवन, प्रयाग से छपी. जिसकी भूमिका नामवर सिंह ने लिखी थी. यहीं से उनकी अपभ्रंश वाली पुस्तक भी छपी थी.
1953 में उनके मित्र विश्वभरशरण पाठक की कृपा से हिन्दी विभाग में दो पद सृजित हुए और उनकी नियुक्ति व्याख्याता-पद पर हो गयी. अब वे रिसर्च स्कॉलर नहीं रहे, इसलिए उन्हें हॉस्टल छोड़ना पड़ा. वे लगभग दो महीने सरस्वती प्रेस में जगत शंखधर के साथ रहे और मकान खोजते रहे.
उस समय सरस्वती प्रेस में सिर्फ जगत शंखधर रहते थे. प्रेमचंद के दोनों पुत्र श्रीपत राय एवं अमृत राय इलाहाबाद जा चुके थे. नामवर कुछ दिन त्रिलोचन के साथ रहे फिर जगत शंखधर के पास आ गये. सरस्वती प्रेस तब गिरजाघर चौमुहानी के पास था. उसके पहले मंजिल पर एक कमरे में वे रह रहे थे.
नामवर गाँव गये. घर में बंटवारा हो चुका था. उस समय रामजी इंटर पास कर चुके थे. उन्होंने फैसला किया कि रामजी गाँव में रहकर खेती-बाड़ी देखेंगे और प्राइवेट से बी॰ ए॰ करेंगे. काशीनाथ सिंह मैट्रिक की परीक्षा पास कर चुके थे. नामवर गाँव गये और काशीनाथ को आगे की पढ़ाई करने के लिए अपने साथ बनारस लेते आए. साथ में माँ ने तीन सेर सतुआ, नमक, प्याज, गुड़, ढेर सारा भूँजा और दर्रे की ढ़ूंढ़िया बांध कर दिया था.
उस समय नामवर की नौकरी तो लग गयी थी, किन्तु वेतन मिलना शुरू नहीं हुआ था. जो जमा-पूँजी थी, उसी से गुजर चल रहा था. कुछ समय बाद दोनों वक्त की जगह एक ही बार भोजन होता. फिर उस पर भी आफत. स्वाभिमानी इतने कि भूखे रह लेंगे लेकिन किसी से कुछ माँगेंगे नहीं. घर से जो सतुआ और चना-चबेना लाए थे, उसी से गुजर होता. कभी कुछ रकम का जुगाड़ होता तो इडली-डोसा खा लेते. लेकिन उस पर भी लानत. नामवर भूखे पेट पढ़ते रहते. भूख से जब हालत बिगड़ने लगती तब नामवर कबीराना अंदाज में काशीनाथ को आवाज देते - “पांडे, तू सतुआ, हम पानी.“ एक ही कमरा. काशीनाथ कमरे के एक कोने से सतुआ निकालते और नामवर दूसरे कोने से पानी लाते. अपने-अपने कटोरे में सतुआ घोल कर ‘सरपोटना’ शुरू कर देते. दोपहर के बाद ‘गुड़ंजल’ का पान होता. गुड़ंजल का मतलब गुड़ और जल.
जून के अंत में माँ विजय को लेकर आ गई. रामजी इन्हें बनारस पहुँचा कर लौट गए. जुलाई के प्रारम्भ में ही विश्वविद्यालय खुला और वेतन मिला. खोजते-खोजते लोलार्ककुण्ड पर रामनाथ पाण्डेय का मकान नं॰-बी॰ 2/32 किराये पर मिला. इस मकान में 9 जुलाई 1953 ई॰ से अपनी माँ, छोटे भाई काशीनाथ सिंह और बेटे विजय के साथ पहली बार बनारस में सपरिवार रहना शुरू किया. बाद में धर्मपत्नी भी गाँव से साथ रहने आ गयीं. नामवर उन्हें तब ‘देवता’ कहा करते थे. उस समय वे पहली बार गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर रहे थे. पारिवारिक जिम्मेदारियाँ बढ़ गयी थीं. दोनों छोटे भाइयों को पढ़ाना था. घर का पूरा खर्च चलाना था. और सबसे बढ़कर थी साहित्यिक पथ पर आगे बढ़ने की प्रबल आकांक्षा.
9 जुलाई, 1953 की डायरी में उन्होंने लिखा - “इनके - उनके साथ जहाँ-तहाँ कुछ दिनों के लिए शरण लेने का अंत. कहने के लिए शहर में अपना एक ठिकाना - बहुत कुछ स्थायी जैसा.
सरस्वती प्रेस, अलविदा. जगतजी (शंखधर) के साथ गुजरे वे सत्तावन दिन, अलविदा. सुबह-शाम चाय की वह वार्ता, अलविदा. सामने वाली पांडे धर्मशाला का वह आधी रात तक चलने वाला शोर, अलविदा.
नए गार्हस्थ जीवन ! तुम्हारा स्वागत.
निर्द्वन्द्व एकाकी जीवन-चर्या की समाप्ति. ‘गृह कारज नाना जंजाला’ का शुभारंभ. देखना है, इसका स्वाद कैसा है ? वो दिन गए कि कहते थे नौकर नहीं हूँ मैं.“
जिस मकान में रहने का उन्होंने चयन किया था, वह पुराने जमाने का एक टूटा-फूटा मकान था. इस मकान का पूरा हुलिया शब्द-शिल्पी काशीनाथ से सुनिए -
“किवाड़ खुलते ही तीन कदम पर पहली बैठक. मैं इसी में लिखता, पढ़ता और सोता था. कोई मिलने-जुलने आया तो मैं कमरे से बाहर. भैया यहीं लोगों से मिलते थे, बतियाते थे और लम्बी बहस करते थे. चार खाने वाले टिन के छह रैक थे किताबों से भरे हुए. कुछ भरे, कुछ लदे. दीवार में दो आलमारियाँ थीं - संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और मार्क्सवाद की ग्रंथावलियों से भरी हुई. एक चौकी थी और चार कुर्सियाँ. गाँव से अस्पताल या बाजार या स्नान के काम से बराबर आते रहते थे लोग, कभी-कभी लेखक भी आया करते थे तब मुझे रसोई में सोना पड़ता था. इसी कोठरी में मैंने हिन्दी के अधिकांश बड़े-छोटे लेखकों को देखा. ‘रेणु’ को भी पहली और अंतिम बार यहीं देखा था.
कोठरी से बाहर आने पर दाईं तरफ खड़ी सीढ़ियाँ. सीढ़ियों के नीचे नल, जहाँ बैठने और खड़ा होने की जगह थी. यही ‘स्पेस’ हमारा बाथरूम था.
पहली मंजिल की कोठरी में दीवार के एक तरफ लकड़ी के कई टाँड़ थे - किताबों, पत्रिकाओं, चिट्ठी-पत्री के बंडलों और पांडुलिपियों के लिए. इनके सिवा एक खटिया, एक डारा कपड़े टाँगने के लिए और दो टिन के बक्से. इन्हीं में एक बक्सा भैया का था जिसमें सर्टिफिकेट्स, डायरियाँ, कुछ जरूरी कागज-पत्र और कुर्ता-धोती थे. खटिया माँ के लिए थी - खाना बनाने-खिलाने के बाद उस पर बैठकर गाए, रोए या सोए.
इस कोठरी के आगे थीं खड़ी सीढ़ियाँ जो रसोई की कोठरी में जाती थीं.
भैया की कोठरी थोड़ी अलग थी - पहले मंजिल पर. सीढ़ियों के बगल में एक गलियारा जाता था दायीं तरफ बंदरों से बचाव के लिए लोहे की जालियों से घिरा हुआ. यह गलियारा उन्हीं की कोठरी में खत्म होता था. लम्बी-पतली कोठरी - 12 ग 7 फीट के करीब. इसे कमरा भी कहा जा सकता था क्योंकि इसमें दो खिड़कियाँ भी थीं. कमरे के एक सिरे पर चटाई. बीच में मेज के साथ कुर्सी और उसके बगल में दो रैक. एक रैक में वे किताबें रहतीं जिनकी उन्हें बराबर जरूरत पड़ती और दूसरे रैक में वे जिन्हें दो-चार दिन में घर या बाहर कहीं लौटना होता. मेज पर ज्यादातर कोर्स की किताबें रहती. डेस्क चटाई पर था जिसके ऊपरी खाने में लाइब्रेरी और बैंक के पासबुक थे और निचले खाने में घर-खर्च के पैसे. ताले कभी नहीं लगे डेस्क में.
वे कभी चटाई पर सो जाते, कभी अपनी चौकी पर. चाय, नाश्ता, खाना सामूहिक रूप से चटाई पर ही करते.
उनकी चौकी के चारों कोने हिन्दी-अंग्रेजी की पत्रिकाओं, नई खरीदी किताबों, सफेद कागज के जिस्तों और रोलदार पेंसिलों से घिरे रहतें. पढ़ने के समय पेंसिल, लिखने के समय कलम. चौकी पर होते तो घुटनों पर लिखते. चटाई पर होते तो डेस्क पर. मेज का इस्तेमाल क्लास नोट्स के लिए करते. जब नहीं लिखते तब गंजी और तहमत में पसीने-पसीने एक रैक से दूसरे रैक तक ऊपर-नीचे नाचते रहते.
इसी कमरे में नामवर ‘53 से:59 तक रहे. जुलाई से जुलाई तक.
यह कमरा नामवर के अध्यापक, समीक्षक और साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता का ‘लेबर-रूम’ था. इसी कमरे से विश्वविद्यालय की नौकरी शुरू की. यहीं रहने के दौरान निकाले गए.
इसी कमरे में मेरा परिचय अपने बड़े भाई से भी हुआ और नामवर से भी. इसी कमरे में उन्होंने छात्रों के लिए वे ‘क्लासनोट्स’ तैयार किए जो ‘आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियाँ’ के नाम से छपे.
इसी कमरे में दस-ग्यारह दिनों में ‘छायावाद’ लिखी.
इसी कमरे में अठारह दिनों के अन्दर ‘पृथ्वीराज रासो की भाषा’ लिखी. ‘कहानी: नई कहानी’ और ‘इतिहास और आलोचना’ के ज्यादातर लेख रात भर जागकर इसी कमरे में लिखे गए थे.
जाने यह कमरा कैसे एक बार पहुँच गया दिल्ली और दस-बारह दिनों में ‘दूसरी परम्परा की खोज’ करके गुम हो गया.
ऐसा कमरा कि कागज-कलम के साथ शाम को बैठो और सुबह उठो तो लेख हाथ में.
इतना इतमीनान और सकून, इतना चैन और फुर्सत, इतनी निश्चिंतता और एकाग्रता फिर कभी नहीं दिखी उनके जीवन में. व्यस्तता उन दिनों भी कम नहीं थी लेकिन शक्ल दूसरी थी. वह उनकी एकाग्रता का रास्ता काटने के बजाय उसके संग हो लेती थी.
मुझे कभी-कभी लगता है, वह देश के कोने-कोने में नगर-नगर, कस्बा-कस्बा, गाँव-गाँव घूमकर वही कमरा ढूँढ़ रहे हैं - वही बारिश में टपकता रिसता कमरा, ठंठ में कठुआया काँपता कमरा, ऊमस में पसीने से नहाया कमरा.
.. इति काशीनाथ उवाच..
काशीनाथ सिंह ने लोकार्ककुण्ड, मुहल्ला भदैनी, तुलसीघाट के निकट के उस मकान और उसके बारह फीट लम्बे एवं 7 फीट चौड़े कमरे का क्या शब्द-चित्र खींचा है ! पर मित्रों, यहाँ अदब से काशीनाथ जी के भावावेग से भरे इस वक्तव्य से मैं अपनी असहमति दर्ज करना चाहूँगा कि ‘आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियाँ’ क्लास-नोट्स नहीं है. उस समय की लिखी उनकी पुस्तकें भले ही कम दिनों में उसी कमरे में लिखी गई हों, किन्तु इनकी तैयारी लम्बे समय से चल रही थी. वे अचानक नहीं लिख दी गई थीं. शोध और आलोचना गहरी मशक्कत और घनघोर अध्ययनशीलता का परिणाम होती हैं, यहाँ जगह-जगह आपको दूसरे के मतों या उक्तियों को उद्धृत करने के लिए रुकना पड़ता है. जहाँ अपनी दृष्टि को विकसित करने के लिए लगातार चिंतन-मनन की प्रक्रिया से होकर गुजरना पड़ता है. यह एक ऐसी साधना होती है, जिसमें एकाग्रता चाहिए और लाभ-लोभ-माया के बंधन से छुटकारा. इसके लिए सबसे ज्यादा जरूरी होता है घर-परिवार, जिसमें रहकर ही इस ‘साधना का स्वाद’ चखा जा सकता है.
तो मित्रों, नामवर का वह घर, परिवार से भरा-पूरा घर, उन्हें व्यवस्थित कर के उनकी रचनाशीलता को परवान चढ़ा रहा था. उनकी साहित्यिक गतिशीलता या सक्रियता तब उफान पर थी.
यह वही समय था जब वे आलोचना के राजपथ पर अपने कदम बढ़ा चुके थे किन्तु उनका रचनाकार भी साथ-साथ चल रहा था. साथ ही हिन्दी साहित्य के अध्यापन में भी मन रम रहा था. लगभग दो वर्ष तो वे रिसर्च-स्कॉलर की हैसियत से पढ़ा रहे थे, किन्तु अब बाकायदा व्याख्याता-पद पर उनकी नियुक्ति हो गयी थी और हिन्दी विभाग के सक्रिय अंग बन गये थे. यह वही समय था, जब बनारस में हजारीप्रसाद द्विवेदी और नामवर सिंह के विरूद्ध अभियान चलाने की शुरुआत हुई थी. लोग तरह-तरह की बातें करते. और इन सबसे निपटने के लिए उन्होंने कमर कसना शुरू किया. 5 सितम्बर, 1953 की डायरी से उनकी उस समय की मनःस्थिति का पता चलता है:
“ ‘आनंद-समुद्र में शांतिद्वीप का अधिवासी ब्राह्मण मैं, चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र मेरे दीप थे, अनंत आकाश वितान था, शस्य-श्यामला कोमला विश्वम्भरा मेरी शय्या थी, बौद्धिक विनोद कर्म था, संतोष धन था. उस अपनी ब्राह्मण की जन्मभूमि को छोड़कर कहाँ आ गया. सौहार्द के स्थान पर कुचक्र, फूलों के प्रतिनिधि काँटे, प्रेम के स्थान में भय. ज्ञानामृत के परिवर्तन में कुमंत्रणा.’ आज कक्षा में ‘चन्द्रगुप्त’ नाटक पढ़ाते समय चाणक्य के इसी स्वगत कथन पर देर तक टिका रहा. क्या इस कथन में कहीं प्रसाद जी की अपनी पीड़ा भी है ? आज इसी पीड़ा की अनुभूति मुझे भी हो रही है. आत्मग्लानि ! घोर आत्मग्लानि ! एक ओर हिन्दी विभाग और नगर का साहित्यिक वातावरण. आरोप पर आरोप. सहज भाव से कुछ करो उसके पीछे कोई प्रयोजन ढूँढ़ लिया जाता है. कहना तो दूर जो सोचो तक नहीं वह बात भी तुम्हारे मुँह में डाल दी जाती है. सोचा था, काव्य की दुनिया में ही रहूँगा, उसी में साँस लूँगा, ओढ़ना-बिछौना सभी कुछ वही होगा, लेकिन लोग हैं कि सड़क पर घसीट लेने के लिए बेचैन. मतलब यह की अस्तित्व रक्षा के लिए कमर कसकर मैदान में उतरना ही होगा. यही सही.“
ऐसी मनःस्थिति में वे उस समय जी रहे थे. पर उनके सहारे के लिए उनके दोनों छोटे भाई रामजी और काशी थे, प्रगतिशील लेखक संघ था और कई प्यारे शिष्य थे, जिनसे नामवर मित्रवत व्यवहार करते थे और थे गुरुवर द्विवेदी. 8 अक्टूबर को उन्होंने भानुशंकर मेहता के आवास पर प्रेमचन्द-पर्व मनाने की तैयारी के लिए बैठक बुलाई थी, जिसमें बुखार लगी हुई अवस्था में गये और घर आकर खटिया पकड़ ली. बुखार 105 डिग्री तक. 10 अक्टूबर को काशी भी बीमार पड़ गये. माँ अकेले दोनों की सेवा-सुश्रुवा करती रही. तब गाँव से रामजी को बुलवाया. 13 अक्टूबर को जीयनपुर से रामजी आये तो उन्हें देखने से सब तकलीफ दूर हो गयी और बिस्तर से उठकर दीवार के सहारे-सहारे दूसरे कमरे में काशी को देखने गये.
15 अक्टूबर, 1953 की डायरी में उन्होंने लिखा: “जीवन में किसी से गाढ़ा लगाव महसूस किया तो अपने दोनों भाइयों से. पिता के प्रति शुरू में भय ही अधिक था, पीछे भय का स्थान कर्तव्य-मिश्रित श्रद्धा ने ले लिया. माँ के साथ इतना तादात्म्य था कि उसे अपने से अलग करके कभी देखा ही नहीं. पत्नी को धर्मपत्नी के रूप में स्वीकार करना पड़ा और पुत्र को उसके बाबा ने पूरी तरह अपना लिया था. इसलिए अपने आप जो कुछ भी था उसे पूरी तरह उडेलने के लिए रामजी और काशी ही थे. गाँव से शहर आते समय यदि कभी आँखों में आँसू आये, तो इन्हीं दोनों के लिए. साथी थे तो यही, मित्र थे तो यही. साथ-साथ खेलना, साथ-साथ पढ़ना, साथ-साथ खाना और साथ ही सोना भी. हमारा भ्रातृ-प्रेम पूरे गाँव के लिए एक मिसाल रहा है. इसलिए इस बीमारी के दौरान रामजी का आना हमारे लिए इतना अर्थपूर्ण था. वह कुछ करे या न करे, बस पास रहे- इतना ही काफी है. भवभूति के शब्दों में -
न किंचिदपि कुर्वाणः सौख्यैर्दुःखान्य पोहति.
तत्तस्य किमपि द्रव्यं यो हि यस्य प्रियोजनः..

('रविवार' से साभार)