Saturday 20 July 2013

छप्पूजी

जयप्रकाश त्रिपाठी

छप्पूजी आजकल काफी अन्यमनस्क हैं।

ऊबे-ऊबे से ऊल रहे हैं। ऊलजुलूल हो रहे हैं। सात साल पहले जब अपने असली नाम की ऐसी-तैसी किये थे, उपनाम धर कर कलम को मैराथन मार मारने लगे थे, एक दिन मिल गये। मिल क्या गये, भिड़ लिये क्योंकि तब तक मुझे उनका कुछ पढ़ने का सौभाग्य नहीं मिला था। दुर्भाग्य से मयस्सर भी नहीं हुआ था।

बोले- इतना छप रहा हूं, तुमने पढ़ा नहीं!
नहीं
चलो कोई बात नहीं। तो अब पढ़ लेना।
क्या?
ऐसे क्या बताऊं, पढ़ के देख लेना। अच्छा मैं तुमसे एक काम से मिलने आने वाला था, संयोग से मिल गये। ऐसा करो कि मेरा एक इंटरव्यू करा दो।
क्यों?
छोड़ो भी। तुम नहीं सुधरोगे।
क्यों?
'क्यों-क्यों' क्यों कर रहे हो। इस क्यों-क्यों का क्या जवाह दूं।
दीजिए ना। दिल खोलकर।
दिल तो है, अभी खोलना नहीं चाहता।
बंद ही रहने दीजिए, खुले-खुले दिल देख कर मैं भी आजिज आ गया हूं।
क्यों?
पता नहीं, आजकल क्यों आप जैसे बहुतों को अपना इंटरव्यू कराने की पड़ी है।
इंटरव्यू तो अच्छी बात है। इस तरह नहीं सोचना चाहिए।
हां, अच्छी बात तो है।
तो मेरा करा दो।
क्या?
इंटरव्यू।
...और घर में क्या हाल-चाल हैं?
चालू मत बनो, जो पूछ रहा हूं उसका जवाब दो
चालू!
हां, और क्या?
आए दिन शर्मा-वर्मा-विश्वकर्मा को पढ़ता रहता हूं। अपना भी छपता है लेकिन ऐसे अखबार में, जिसे कोई पढ़ता ही नहीं है। न उनको और, न मुझको ठौर।
अच्छा लिखेंगे तो अच्छे अखबार में छपेंगे भी। अब तो चैनल वाले भी खूब इंटरव्यू लेते हैं। घास-भूसा किसी का भी।
तुम कहना क्या चाहते हो?
बस ऐसे ही। और बताइए क्या चल रहा है।
क्या चल रहा है? कहां??
पता नहीं। अच्छा तो मुझे देर हो रही है। आटा पिसाने जाना है।
आटा भी पिसाते हो!
क्यों, आप रोटी नहीं खाते हैं क्या?
अब कौन इन सब झंझट में पड़े। पैकेट वाला टांग लाता हूं।
अच्छा अंग्रेजी आटा खाते हैं।
अंग्रेजी आटा!
और क्या। तो हिंदी से खूब कमाई हो रही है।
अरे कहां कमाई हो रही है। पैसा देने वाले अंग्रेज हो गये हैं।
हां, सो तो है।
तो मेरा इंटरव्यू कब करवा रहे हो?
देखते हैं। अभी तो आटा पिसाने जाना है।
उसके बाद?
सब्जीमंडी........
छप्पूजी से पिंड छूटा। बड़े करू हैं। ज्योतिष के प्रकांड विद्वान। एक चैनल पर जब से काव्यपाठ करके लौटे हैं, नींद नहीं आ रही। गोष्ठियां एक दिन में कई-कई। महानता की भी हद होती है। प्राइमरी की नौकरी करते थे। बीएसए पर कविता लिखने लगे। धो बैठे। अब उनके भाईचारे का अदना सा निमित्त होता है छाप (घेर) के छप लो। राशन की दुकान वाले सरदारजी ने नाम रखा था छप्पूजी। अखबार वाले भी गिरगिट भाव से निकल लेते हैं कन्नी मार कर।   

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