Monday 12 September 2016

14 सितंबर हिंदी दिवस : महात्मा गांधी

महात्मा गांधी के सपनों के भारत में एक सपना राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को प्रतिष्ठित करने का भी था। उन्होंने कहा था कि राष्ट्रभाषा के बिना कोई भी राष्ट्र गूँगा हो जाता है। हिन्दी को राष्ट्रीय पहचान दिलाने में एक राजनीतिक शख्सियत के रूप में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। महात्मा गांधी की मातृभाषा गुजराती थी और उन्हें अंग्रेजी भाषा का उच्चकोटि का ज्ञान था किंतु सभी भारतीय भाषाओं के प्रति उनके मन में विशिष्ट सम्मान भावना थी। प्रत्येक व्यक्ति अपनी मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करे, उसमें कार्य करे किंतु देश में सर्वाधिक बोली जाने वाली हिन्दी भाषा भी वह सीखे, यह उनकी हार्दिक इच्छा थी।
गांधी जी प्रांतीय भाषाओं के पक्षधर थे, वहां की शिक्षा का माध्यम भी प्रांतीय भाषाओं को बनाना चाहते थे। हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाने के संदर्भ में उनका दृष्टिकोण स्पष्ट था कि ‘देश के सारे लोग हिन्दी का इतना ज्ञान प्राप्त कर लें तकि देश का राजकाज उसमें चलाया जा सके और सभी भारतवासी एक सामान्य भाषा में संवाद कायम कर सकें।' वे अकेले राजनीतिक व्यक्ति थे, जिन्होंने भारत की भाषा समस्या, राष्ट्रभाषा पर इतना ध्यान दिया।
आधुनिक हिन्दी साहित्य के सुप्रसिद्ध आलोचक, निबंधकार, विचारक एवं कवि रामविलास शर्मा का यह कथन  ‘सत्य अहिंसा, स्वराज, सर्वोदय- किसी भी अन्य विषय पर आज उनके लिये उपादेय नहीं है, जितने भाषा समस्या पर। अंग्रेजी, भारतीय भाषाओं, राष्ट्रभाषा हिन्दी और हिन्दी-उर्दू की समस्या पर उन्होंने जितनी बातें कही हैं, वे बहुत ही मूल्यवान है। किसी भी राजनीतिक नेता ने इन समस्याओं पर इतनी गहराई से नहीं सोचा, किसी भी पार्टी और उसके नेताओं ने भाषा समस्या के सैद्धांतिक समाधान को नित्य प्रतिदिन की कार्रवाई में इस तरह अमलीजामा नहीं पहनाया, जैसे गांधी ने। उनकी नीति के मूल सूत्र छोड़ देने से यह समस्या दिन प्रतिदिन उलझती जा रही है।’
गांधीजी अपनी मां, मातृभूमि और मातृभाषा से अटूट स्नेह रखते थे। सन् 1906 ई. में उन्होंने अपनी एक प्रार्थना में कहा था- भारत की जनता को एक रूप होने की शक्ति और उत्कण्ठा दे। हमें त्याग, भक्ति और नम्रता की मूर्ति बना जिससे हम भारत देश को ज्यादा समझें, ज्यादा चाहें। हिन्दी एक ही है। उसका कोई हिस्सा नहीं है हिन्दी के अतिरिक्त दूसरा कुछ भी मुझे इस दुनिया में प्यारा नहीं है।
इस प्रार्थना से उनका राष्ट्र-प्रेम और राष्ट्रीय एकता के प्रति उनका अनुराग पूर्णरूपेण परिलक्षित होता है। गांधी भाषा को माता मानते थे तथा हिन्दी का सबल समर्थन करते थे। उन्होंने हिन्द स्वराज (सन् 1909 ई.) में अपनी भाषा-नीति की घोषणा इस प्रकार की थी- ‘सारे हिन्दुस्तान के लिए जो भाषा चाहिए, वह तो हिन्दी ही होना चाहिए। उसे उर्दू या नागरी लिपि में लिखने की छूट होना चाहिये। हिन्दू-मुसलमानों के संबंध ठीक रहें, इसलिए हिन्दुस्तानियों को इन दोनों लिपियों को जान लेना जरूरी है। ऐसा होने से हम आपस के व्यवहार में अंग्रेजी को निकाल सकेंगे।’
महात्मा गाँधी ने भारत आकर अपना पहला महत्वपूर्ण भाषण 6 फरवरी 1916 को बनारस में दिया था। उस दिन भारत के वायसराय लार्ड हार्डिंग वहाँ बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय का शिलान्यास करने आए थे। महामना मदनमोहन मालवीय के विशेष निमंत्रण पर महात्मा गाँधी भी इस समारोह में शामिल हुए थे। समारोह की अध्यक्षता महाराज दरभंगा कर रहे थे। मंच पर लार्डहार्डिंग के साथ श्रीमती एनी बेसेंट और मालवीयजी भी थे। समारोह में बड़ी संख्या में देश के राजा-महाराजा भी शामिल हुए थे। ये लोग देश के कोने-कोने से तीस विशेष रेलगाडि़यों से आए थे। मालवीयजी के आग्रह पर जब महात्मा गाँधी बोलने खड़े हुए हुए तो उनके अप्रत्याशित भाषण से सभी अवाक और स्तब्ध रह गए थे।
सर्वप्रथम उन्होंने समारोह की कार्रवाई एक विदेशी भाषा अँगरेजी में चलाए जाने पर आपत्ति की और दुख जताया। फिर उन्होंने काशी विश्वविद्यालय मंदिर की गलियों में व्याप्त गंदगी की आलोचना की। इसके बाद उन्होंने मंच पर और सामने विराजमान रत्नजड़ित आभूषणों से दमकते राजाओं-महाराजाओं की उपस्थिति को बेशकीमती जेवरों की भड़कीली नुमाइश बताते हुए उन्हें देश के असंख्य दरिद्रों की दारुण स्थिति का ध्यान दिलाया। उन्होंने जोड़ा कि जब तक देश का अभिजात वर्ग इन मूल्यवान आभूषणों को उतारकर उसे देशवासियों की अमानत समझते हुए पास नहीं रखेगा, तब तक भारत की मुक्ति संभव नहीं होगी। फिर उन्होंने 1916 के कांग्रेस अधिवेषन में अपना भाषण हिन्दी में दिया।
महात्मा गांधी भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम में जनसंपर्क हेतु हिन्दी को ही सर्वाधिक उपयुक्त भाषा समझते थे। इसके बाद 15 अक्टूबर 1917 को भागलपुर के कटहलबाड़ी क्षेत्र में बिहारी छात्रों का एक सम्मेलन आयोजित किया गया था। देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के निर्देश पर बिहारी छात्रों के संगठन का काम लालूचक के श्री कृष्ण मिश्र को सौंपा गया था। बिहारी छात्रों के सम्मेलन की अध्यक्षता महात्मा गांधी ने की थी। अपने संबोधन में महात्मा गांधी ने कहा था- ‘मुझे अध्यक्ष का पद देकर और हिन्दी में व्याख्यान देना और सम्मेलन का काम हिन्दी में चलाने की अनुमति देकर आप विद्यार्थियों ने मेरे प्रति अपने प्रेम का परिचय दिया है। इस सम्मेलन का काम इस प्रांत की भाषा में ही और वही राष्ट्रभाषा भी है- करने का निश्चय दूरन्देशी से किया है।’
इस सम्मेलन में सरोजनी नायडू का भाषण अंग्रेजी से हिन्दी अनुदित होकर छपा था। यह सम्मेलन आगे चलकर भारत की राजनीति, विषेषकर स्वतंत्रता संग्राम में राजनीति का कैनवास बना, जिससे घर-घर में  स्वतंत्रता संग्राम का शंखनाद करना मुमकिन हो सका। वहीं प्रसिद्ध गांधीवादी काका कालेलकर ने इस सम्मेलन के भाषण को राष्ट्रीय महत्व प्रदान कर राष्ट्रभाषा हिन्दी की बुनियाद डाली थी। बाद में इसी कटहलबाड़ी परिसर में मारबाड़ी पाठशाला की स्थापना हुई।
सन् 1917 ई. में कलकत्ता (कोलकाता) में कांग्रेस अधिवेशन के अवसर पर राष्ट्रभाषा प्रचार संबंध कांफ्रेन्स में तिलक ने अपना भाषण अंग्रेजी में दिया था। जिसे सुनने के बाद गांधीजी ने कहा था- ‘बस इसलिए मैं कहता हूं कि हिन्दी सीखनें की आवश्यकता है। मैं ऐसा कोई कारण नहीं समझता कि हम अपने देशवासियों के साथ अपनी भाषा में बात न करें। वास्तव में अपने लोगों के दिलों तक तो हम अपनी भाषा के द्वारा ही पहुंच सकते हैं।’
महात्मा गांधी किसी भाषा के विरोधी नहीं थे। अधिक से अधिक भाषाओं को सीखना वह उचित समझते थे। प्रत्येक भाषा के ज्ञान को वह महत्वपूर्ण मानते थे किंतु उन्होंने निज मातृभाषा और हिन्दी का सदैव सबल समर्थन किया। एक अवसर पर उन्होंने कहा था- ‘भारत के युवक और युवतियां अंग्रेजी और दुनिया की दूसरी भाषाएं खूब पढ़ें मगर मैं हरगिज यह नहीं चाहूंगा कि कोई भी हिन्दुस्तानी अपनी मातृभाषा को भूल जाय या उसकी उपेक्षा करे या उसे देखकर शरमाये अथवा यह महसूस करे कि अपनी मातृभाषा के जरिए वह ऊंचे से ऊंचा चिन्तन नहीं कर सकता।’
गांधीजी शिक्षा के माध्यम के लिए मातृभाषा को ही सर्वोत्तम मानते थे। उनका स्पष्ट मत था कि शिक्षा का माध्यम तो प्रत्येक दशा में मातृभाषा ही होनी चाहिए। 1918 में वाइसराय की सभा में में जब रंगरूटों की भर्ती के सिलसिले में गांधी गये तो उन्होंने हिन्दी-हिन्दूस्तानी में बोलने की इजाजत मांगी। इस घटना का उल्लेख करते हुए उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है ‘हिन्दुस्तानी में बोलने के लिये मुझे बहुतों ने धन्यवाद दिया। वे कहते थे कि वाइसराय की सभा में हिन्दुस्तानी में बोलने का यह पहला उदाहरण था। पहले उदाहरण की बात सुनकर मैं शरमाया। अपने ही देश में देश से संबध रखनेवाले काम की सभा में, देश की भाषा का बहिष्कार कितने दुख की बात है।’
उनकी इच्छा थी कि भारत के प्रत्येक प्रदेश में शिक्षा का माध्यम उस-उस प्रदेश की भाषा को होना चाहिए। उनका कथन था ‘राष्ट्र के बालक अपनी मातृभाषा में नहीं, अन्य भाषा में शिक्षा पाते हैं, वे आत्महत्या करते हैं। इससे उनका जन्मसिद्ध अधिकार छिन जाता है। विदेशी भाषा से बच्चों पर बेजा जोर पड़ता है और उनकी सारी मौलिकता नष्ट हो जाती है। इसलिए किसी विदेशी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाना मैं राष्ट्र का बड़ा दुर्भाग्य मानता हूं।’ इसके बाद गांधी जी ने कांग्रेस के अंदर प्रवेश कर उसकी कार्रवाईयों में हिन्दी को स्थान दिलाने के प्रयास शुरू किये। राष्ट्रीय नेताओं लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक से हिन्दी सीखने का आग्रह, रवीन्द्रनाथ ठाकुर से हिन्दी सीखने का आग्रह महत्वपूण है। रविन्द्रनाथ ठाकुर ने काठियावाड़ में अपना भाषण हिन्दी में दिया।
इसी प्रकार एक अन्य अवसर पर उन्होंने अपना विचार इस प्रकार प्रकट किया था ‘यदि हिन्दी अंग्रेजी का स्थान ले ले तो कम से कम मुझे तो अच्छा ही लगेगा। अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा है, लेकिन वह राष्ट्रभाषा नहीं हो सकती। अगर हिन्दुस्तान को सचमुच हमें एक राष्ट्र बनाना कोई माने या न माने राष्ट्रभाषा तो हिन्दी ही बन सकती है।’ महात्मा गांधी ने भाषा के प्रश्न को स्वराज्य से जोड़ दिया। उन्होंने कहा कि यदि स्वराज्य देश के करोड़ो भूखे, अनपढ़, दलितों के लिए होना है तो जन-सामान्य की भाषा हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा बनाना होगा।
मार्च 1918 में इंदौर में सम्पन्न हुए हिंदी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन के सभापति बनाए गये। सभापति के रूप में उन्होंने अपने भाषण में जोरदार शब्दों में कहा, जैसे अंग्रेज अपनी मादरी जबान अंग्रेजी में ही बोलते और सर्वथा उसे ही व्यवहार में लाते हें, वैसे ही मैं आपस प्रार्थना करता हूं कि आप हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा बनने का गौरव प्रदान करें। हिंदी सब समझते हैं। इसे राष्ट्रभाषा बनाकर हमें अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। इसी भाषण में उन्होंने हिंदी के क्षेत्र-विस्तार की आवश्यकता की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए कहा, साहित्य का प्रदेश भाषा की भूमि जानने पर हो निश्चित हो सकता है। यदि हिंदी भाषा की भूमि सिर्फ उत्तर प्रांत की होगी, तो साहित्य का प्रदेश संकुचित रहेगा। यदि हिंदी भाषा राष्ट्रीय भाषा होगी, तो साहित्य का विस्तार भी राष्ट्रीय होगा। जैसे भाषक वैसी भाषा। भाषा-सागर में स्नान करने के लिए पूर्व-पश्चिम, दक्षिण-उत्तर से पुनीत महात्मा आएंगे, तो सागर का महत्व स्नान करने वालों के अनुरूप होना चाहिए।
उपर्युक्त वक्तव्य से जाहिर है कि उत्तर प्रांत में हिंदी भाषा एवं साहित्य का जो उत्थान हो रहा था, उससे गांधी जी अवगत थे, लेकिन संतुष्ट नहीं, क्योंकि उनकी समझ में हिंदी का विस्तार उत्तर से दक्षिण तक, पूर्व से पश्चिम तक सबके लिए होना चाहिए। उसे एक सागर की तरह व्यापक होना चाहिए, न कि नदी की तरह संकुचित। इसी बात को बाद में उनके परम शिष्य विनोबा भावे ने इस प्रकार कहा, हिंदी को नदी नहीं, समुद्र बनना होगा। अर्थात् उत्तरी प्रांत में उभरा हिंदी नवजागरण एक उफनती नदी जैसा था, तो उसे राष्ट्रव्यापी सागर में परिणत करने का प्रयास गांधी जी के द्वारा हुआ, यह मानने में कोई अतिवाद नहीं है। इस तथ्य को ध्यान में रखने में हिंदी-भाषी प्रदेश के आधार पर हिंदी जाति की बात करना असंगत प्रतीत होता है। वस्तुतः गुजराती या बंगला या मराठी की तर्ज पर हिंदी को किसी प्रदेश विशेष की जाति की भाषा कहना, उसके कद को छोटा करना होगा।
इंदौर साहित्य-सम्मेलन के अवसर पर गांधी जी ने हिंदी के प्रचार के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य का आरंभ कराया जिसका संबंध दक्षिण भारत में हिंदी के प्रचार से था। उन्होंने अपने उसी भाषण में यह कहा कि- सबसे कष्टदायी मामला द्रविड़ भाषाओं के लिए है। वहां तो कुछ प्रयत्न भी नहीं हुआ है। हिंदी भाषा सिखाने वाले शिक्षकों को तैयार करना चाहिए। ऐसे शिक्षकों की बड़ी ही कमी है। इस कथन से स्पष्ट है कि दक्षिण भारत में हिंदी के प्रचार को लेकर तब तक कोई विशेष कार्य नहीं हुआ था। दक्षिण भारतीयों के बीच हिंदी का कैसे प्रचार हो, यह गांधी जी के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण समस्या थी।
भारतीय राजनेताओं में गांधीजी पहले व्यक्ति थे जिन्होंने द्रविड़ प्रदेश में राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करने के लिए हिंदी को विधिवत् सिखाया जाना आवश्यक समझा और उसके लिए उन्होंने ठोस योजना प्रस्तुत की, जिसके अंतर्गत पुरुषोत्तम दास टंडन, वेंकटेश नारायण तिवारी, शिव प्रसाद गुप्ता सरीखे हिंदी-सेवियों को लेकर दक्षिण भारत हिन्द प्रचार सभा का गठन किया। इंदौर साहित्य-सम्मेलन के समापन के तुरंत बाद गांधी जी ने अखबारों के लिए एक पत्र जारी किया जिसमें उन्होंने दक्षिण वालों को हिंदी सीखने के लिए उत्साहित करते हुए कहा था, यदि हमें स्वराज्य का आदर्श पूरा करना है तो हमें एक ऐसी भाषा की जरूरत पड़ेगी ही, जिसे देश की विशाल जनता आसानी से समझ और सीख सके। ऐसी भाषा तो सदा से हिंदी हो रही है। मुझे मद्रास प्रांत की जनता की देशभक्ति, आत्मत्याग और बुद्धिमत्ता पर काफी भरोसा है। मैं जानता हूं कि जो भी लोग राष्ट्र की सेवा करना चाहेंगे या अन्य प्रांतों के साथ सम्पर्क चाहेंगे, उनको त्याग करना ही पड़ेगा, यदि हिंदी सीखने को त्याग ही माना जाय।
इंदौर हिंदी सम्मेलन के अवसर पर गांधी जी द्वारा व्यक्त विचारों पर गौर करें, तो मानना पडेगा कि हिंदी के संबंध में कुछ विशिष्ट बातें पहली बार राष्ट्र के सामने आयीं। हिंदी समस्त भारतवर्ष की सम्पर्क-भाषा बने, यह भारतीय नवजागरण के कई बौद्धिकों द्वारा प्रतिपादित किया जा चुका था, लेकिन यह कैसे संभव हो सके, इस संबंध में कोई सुनिश्चित योजना उनके द्वारा नहीं प्रस्तुत की जा सकी थी। गाँधी जी ने 20 अक्टूबर 1917 ई. को गुजरात के द्वितीय शिक्षा सम्मेलन में दिए गए अपने भाषण में राष्ट्रभाषा के कुछ विशेष लक्षण बताए थे, वे निम्न हैं:
1. वह भाषा सरकारी नौकरों के लिए आसान होनी चाहिए।
2. उस भाषा के द्वारा भारत का आपसी धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक कामकाज शक्य होना चाहिए।
3. उस भाषा को भारत के ज्यादातर लोग बोलते हों।
4. वह भाषा राष्ट्र के लिए आसान होनी चहिए।
5. उस भाषा का विचार करते समय क्षणिक या अस्थायी स्थिति पर जोर न दिया जाये।
अंग्रेजी भाषा में इनमें एक भी लक्षण नहीं है। यह माने बिना काम चल नहीं सकता। हिन्दी भाषा में ये सारे लक्षण मौजूद हैं। हिन्दी भाषा मैं उसे कहता हूं जिसे उत्तर में हिन्दू और मुसलमान बोलते हैं और देवनागरी या फारसी में लिखते हैं। 20 अक्टूबर के बाद 11 नवम्बर, 1917 को बिहार के मुजफ्फरपुर शहर में भाषण करते हुए उन्होंने कहा, मैं कहता आया हूं कि राष्ट्रीय भाषा एक होनी चाहिए और वह हिंदी होनी चाहिए। हमारा कर्तव्य यह है कि हम अपना राष्ट्रीय कार्य हिंदी भाषा में करें। हमारे बीच हमें अपने कानों में हिंदी के ही शब्द सुनाई दें, अंग्रेजी के नहीं। इतना ही नहीं, हमारी धारा सभाओं में जो वाद-विवाद होता है, वह भी हिंदी में होना चाहिए। ऐसी स्थिति लाने के लिए मैं जीवन-भर प्रयत्न करूंगा।
इस दृष्टि से गांधी जी पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने हिंदी के राष्ट्रव्यापी प्रचार-प्रसार के लिए सुविचारित योजना प्रस्तुत की और हिंदी प्रचार के कार्य को मिशनरी स्वरूप प्रदान किया। धर्म के प्रचार को लेकर तो मानव-इतिहास में बहुतेरे मिशनरी, आत्मत्यागी महात्मा लोग होते आये है, लेकिन किसी भाषा के प्रचार के लिए मिशन की तरह, आत्मत्याग के रूप में काम करने का आह्वान करने वाले गांधी जी कदाचित् प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने यह आह्वान हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए किया।
13 दिसम्बर, 1920 को कलकत्ता में भाषण करते हुए गांधीजी ने कहा, यह निश्चित है कि सारे देश में जहां-कहीं देश के विभिन्न हिस्सों के लोगों की मिली-जुली सभाएं और बैठकें होंगी, उनमें अभिव्यक्ति का राष्ट्रीय माध्यम हिंदी ही होगी। 22 जनवरी, 1921 को जारी किए, अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा, जो बात मैं जोर देकर आपसे कहना चाहता हूं वह यह कि आप सबकी एक सामान्य भाषा होनी चाहिए, सभी भारतीयों की एक सामान्य भाषा होनी चाहिए, ताकि वे भारत में जिस हिस्से में भी जायें, वहां के लोगों से बातचीत कर सकें। इसके लिए आपको हिंदी को अपनाना चाहिए। 23 मार्च 1921 को विजयनगरम में राष्ट्रभाषा हिंदी के महत्व को बताते हुए उन्होंने कहा, हिंदी पढ़ना इसलिए जरूरी है कि उससे देश में भाईचारे की भावना पनपती है। हिंदी को देश की राष्ट्रभाषा बना देना चाहिए। हिंदी आम जनता की भाषा होनी चाहिए। आप चाहते हैं कि हमारा राष्ट्र एक ओर संगठित हो, इसलिए आपकी प्रान्तीयता के अभियान को छोड़ देना चाहिए। हिंदी तीन ही महीनों में सीखी जा सकती है।
हिंदी के सवाल को गांधी जी केवल भावनात्मक दृष्टि से ही महत्वपूर्ण नहीं मानते थे, अपितु उसे एक राष्ट्रीय आवश्यकता के रूप में भी देखने पर जोर देते थे। 10 नवम्बर, 1921 के ‘यंग इण्डिया’ में उन्होंने लिखा हिंदी के भावनात्मक अथवा राष्ट्रीय महत्व की बात छोड़ दें तो भी यह दिन प्रतिदिन अधिकाधिक आवश्यक मालूम होता जा रहा है कि तमाम राष्ट्रीय कार्यकर्ताओं को हिंदी सीख लेनी चाहिए और राष्ट्र की तमाम कार्यवाही हिंदी में ही की जानी चाहिए। इस प्रकार असहयोग आंदोलन के दौरान गांधी जी ने पूरे देश में हिंदी का राष्ट्रभाषा के रूप में प्रचार काफी जोरदार ढंग से किया और उसे राष्ट्रीय एकता, अखण्डता, स्वाभिमान का पर्याय-सा बना दिया।
उन्होंने अपने पुत्र देवदास गांधी को हिन्दी-प्रचार के लिए दक्षिण भारत भेजा था। दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा की स्थापना उन्हीं की परिकल्पना का परिणाम है। उन्होंने वर्धा में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की स्थापना हिन्दी के प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से ही की थी तथा जन-नेताओं को भी हिन्दी में कार्य करने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित किया था। उनकी प्रेरणा के ही परिणाम स्वरूप हिन्दीतर भाषा-भाषी प्रदेशों के स्वतंत्रता संग्राम के ने हिन्दी को सीख लिया था और उसे व्यापक जन-सम्पर्क का माध्यम बनाया था।
महात्मा गांधी ने सभी भारतीय भाषाओं का समादर और हिन्दी के प्रति सम्मान प्रकट करते हुए 17 मई 1942 तथा 9 अगस्त 1946 को कहा था कि महान प्रांतीय भाषाओं को उनके स्थान से च्युत करने की कोई बात ही नहीं है, क्योंकि राष्ट्रीय भाषा की इमारत प्रांतीय भाषाओं की नींव पर ही खड़ी की जानी है। दोनों का लक्ष्य एक-दूसरे की जगह लेना नहीं, बल्कि एक-दूसरे की कमी को पूरा करना है।
महात्मा गांधी के विचार, महान् भारतीय नेताओं की भावना और हिन्दी-भाषा-भाषी जनता की विशाल संख्या को दृष्टिगत रखते हुए पर्याप्त चिंतन-मनन के उपरांत भारतीय संविधान निर्माताओं ने हिन्दी को भारतीय संविधान में राजभाषा की प्रतिष्ठा प्रदान की थी। 16 जून, 1920 के ‘यंग इंडिया’ में उन्होंने लिखा, मुझे पक्का विश्वास है कि किसी दिन हमारे द्रविड भाई-बहन गंभीर भाव से हिंदी का अध्ययन करने लगेंगे। आज अंग्रेजी भाषा पर अधिकार प्राप्त करने के लिए वे जितनी मेहनत करते हैं, उसका आठवां हिस्सा भी हिंदी सीखने में करें, तो बाकी हिंदुस्तान जो आज उनके लिए बंद किताब की तरह है, उससे वे परिचित होंगे और हमारे साथ उनका ऐसा तादात्म्य स्थापित हो जायेगा जैसा पहले कभी न था।
हिंदी के प्रचार को लेकर गांधी जी का ध्यान देश के दक्षिणी छोर की तरफ जितना था, उतना ही पूर्वी छोर की तरफ भी था। मार्च, 1922 में गांधी जी ने असहयोग आंदोलन को जरूर स्थगित कर दिया, लेकिन राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी के प्रचार का उनका कार्य जारी रहा। 24 मार्च, 1925 को हिंदी प्रचार कार्यालय, मद्रास में बोलते हुए गांधीजी ने कहा, मेरी राय में भारत में सच्ची राष्ट्रीयता के विकास के लिए हिंदी का प्रचार एक जरूरी बात है, विशेष रूप से इसलिए कि हमें उस राष्ट्रीयता को आम जनता के अनुरूप सांचे में ढालना है। और सचमुच सच्ची राष्ट्रीयता के विकास के लिए गांधी जी जीवन-पर्यंत हिंदी के प्रचार-कार्य में लगे रहे। राष्ट्रभाषा के दायरे से मेहनतकश वर्ग बाहर न रहे, इसका भी गांधी जी ने पूरा ध्यान रखा। 21 दिसम्बर, 1933 को पैराम्बूर की मजदूर सभा में बोलते हुए गांधी जी ने कहा, साथी मजूदरों, यदि आप सारे भारत के मजदूरों के दुःख-सुख को बांटना चाहते हैं, उनके साथ तादात्म्य स्थापित करना चाहते हैं, तो आपको हिंदी सीख लेनी चाहिए, जब तक आप ऐसा नहीं करते, तब तक उत्तर और दक्षिण भारत में कोई मेल नहीं हो सकता।
जब भारत को स्वतंत्रता मिली ही थी। देश-विदेश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के पत्रकार इस महत्वपूर्ण घटना के प्रकाशन हेतु भारतीय नेताओं के वक्तव्य, संदेश आदि के लिए आ रहे थे। ऐसे माहौल में एक विदेशी पत्रकार महात्मा गांधी से मिला। उसने बापू से अपना संदेश देने को कहा। किंतु वह इस बात पर अड़ रहा था कि बापू अपना संदेश अंग्रेजी में दें। गांधीजी इसके लिए सहमत नहीं हो रहे थे। मगर पत्रकार था कि लगातार जिद कर रहा था। उसका कहना था कि संदेश भारतीयों के लिए नहीं, पूरी दुनिया के लिए है, इसलिए वह अंग्रेजी में ही बात कहें। उन दिनों बापू हिंदी का राष्ट्रभाषा के रूप में प्रचार भी कर रहे थे। थोड़ी देर तक वह शांत बने रहे, मगर अंततः पत्रकार की बात पर महात्मा गांधी ने उसे दो टूक उत्तर देते हुए कहा- दुनिया से कह दो कि गांधी अंग्रेजी नहीं जानता।
गांधी के अभियान का नतीजा यह हुआ कि उत्तर प्रदेश, बिहार और अन्य क्षेत्रों के साहित्यकार जनपदीय भाषा को भूलकर राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी के विकास में अपनी कलम चलायी। प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि ने हिन्दी को राष्ट्रीय धर्म के रूप में अपनाया। बिहार में भी आचार्य शिवपूजन सहाय, राधिकारमण सिंह, रामवृक्ष बेनीपुरी, लक्ष्मी नारायण सुधांशु, नार्गाजुन, फणीश्वरनाथ रेणु आदि ने भी अपनी क्षेत्रीय बोलियों के मोह से उपर उठकर हिन्दी के विकास में योगदान देना अपना राष्ट्रीय धर्म समझा।

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