Friday 27 March 2015

एक वैज्ञानिक को साहित्यिक पुरस्कार / डॉ बुद्धिनाथ मिश्र

इस बार विश्व-प्रसिद्ध खगोलशास्त्री और विज्ञान लेखक श्री जयंत विष्णु नारलीकर को मराठी में लेखन के लिए साहित्य अकादमी का पुरस्कार दिया गया. अकादमी पुरस्कार उनकी आत्मकथा ‘चार नगरांतले माङो विश्व’ पर मिला है.
गत नौ मार्च को घुणाक्षर न्याय से मैं दिल्ली में साहित्य अकादमी के वार्षिक पुरस्कार अर्पण समारोह में पहुंचा था. घुन जब लकड़ी खाता है, तब उससे अनायास यदि कोई अक्षर बन जाये, तो उसे विद्वत-जन घुणाक्षर न्याय मानते हैं. मैं दिल्ली से रात की ट्रेन से वड़ोदरा जानेवाला था. दरभंगा से डॉ वीणा ठाकुर का आग्रह था कि मैं शाम का समय साहित्य अकादमी के समारोह में ही बिताऊं, जो कई अर्थो में मेरे लिए लाभप्रद रहा. एक तो भारत की सभी प्रमुख भाषाओं के अधिकतर साहित्यकारों से भेंट हुई.
यह अपने में एक असंभव कार्य है. विभिन्न भाषाओं के साहित्यकारों से सामान्यत: हमारा परिचय अक्षरों के माध्यम से होता है और अक्षरों तक ही रह जाता है. व्यक्तिगत तौर पर शायद ही कभी भेंट हो पाती है. इंटरनेट या अन्य इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों ने साहित्यकारों के रूप और स्वर को आज काफी सार्वजनिक कर दिया है, मगर बच्चन जी की पीढ़ी तक तो ‘वा्मय वपु’ का ही प्राधान्य था. इस समारोह में अन्य भाषाओं के उन साहित्यकारों से मिलने का अवसर मिला, जो परिचित तो थे, मगर साक्षात्कार कभी नहीं हुआ था. साहित्य अकादमी के पुरस्कार अर्पण समारोह में यह मेरी पहली उपस्थिति थी.
इसलिए भारतीय रचनाकारों के विशाल परिवार को देख कर धैर्य बंधा कि अभी भी समाज के कुछ नहीं, बहुत-से सिरफिरे लोग हैं, जो अपने आराम के क्षणों को सृजन के हवाले कर समाज को संवेदनशील बनाये रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं. ऐसे बुजुर्ग साहित्यकारों के भी दर्शन हुए, जो चल नहीं पाते थे, मगर साहित्यिक बिरादरी से मिलने की ललक ने उन्हें पौत्र-पौत्री के कंधों का सहारा लेकर वहां आने के लिए उत्साहित किया.
साहित्य अकादमी की कुछ नीतियां मेरे गले के नीचे कभी नहीं उतरीं. जैसे, भाषा की पात्रता और व्यापकता को ध्यान में न रख कर एक ही आकार-प्रकार के डंडे से सभी भाषाओं को हांकना. मेरी समझ से साहित्य का पैमाना लोकतंत्र के पैमाने से पृथक  होना चाहिए. मतदान के लिए तो एक व्यक्ति एक वोट ठीक है, चाहे वह व्यक्ति देश का मंत्री हो या सड़क का झाड़ूदार. लेकिन इसी नजरिये से भाषा-साहित्य को आंकना घातक होगा.
साहित्य अपने में एक विमर्श है. उसमें आड़ी-तिरछी रेखाएं खींच कर राजनीति के पांसे फेंकना उचित नहीं. इस दुर्नीति से सबसे अधिक नुकसान राष्ट्रभाषा हिंदी का हुआ है. एक ओर दस राज्यों की राजभाषा और संपूर्ण देश की संपर्क भाषा हिंदी, जिसे बोलनेवाले करोड़ों में हैं और जिसमें लिखनेवाले रचनाकार भी हजारों में हैं. दूसरी ओर, वे क्षेत्रीय भाषाएं हैं, जिन्हें बोलनेवाले कुछ लाख हैं और लिखनेवाले दहाई में. दोनों को एक पलड़े पर बैठाने का नुकसान यह हुआ कि हिंदी में साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिलना लॉटरी खुलने जैसा हो गया. चूंकि लॉटरी के पीछे कोई युक्ति नहीं होती, किसी को भी मिल सकती है, इसलिए हिंदी में ऐसे साहित्यकार भी पुरस्कृत हुए, जिनके नाम की घोषणा सुन कर काव्यप्रेमियों ने दांतों तले उंगली दबा ली.
मानता हूं कि इसमें अकादमी प्रशासन का हाथ नहीं रहा, मगर उसने दिल्ली के दु:शासनों के हाथों सरस्वती के चीर-हरण के मूक दर्शक की भूमिका तो भीष्म-द्रोण की तरह निभायी ही. स्थिति यहां तक आ पहुंची थी कि अपनी ‘गोष्ठी’ के बछड़ों को दाग कर सांड़ बना दिया जाता था, ताकि वे साहित्य की फसल मुक्त भाव से चरें-खायें और स्वामी का झंडा यहां-वहां फहरायें.
दूसरी ओर, धर्मवीर भारती जैसा कालजयी रचनाकार साहित्य अकादमी के पुरस्कार के योग्य नहीं पाया गया. हिंदी के महारथी आज जिस नागाजरुन के नाम का कीर्तन करते नहीं थकते, उन्हें भी साहित्य आकादमी ने मैथिली कविता-संग्रह (पत्रहीन नग्न गाछ) पर पुरस्कार देकर जान छुड़ायी. बेसुरे लोगों की जमात ने आज तक हिंदी के किसी गीत-संग्रह को पुरस्कार के योग्य नहीं माना, जबकि शंभुनाथ सिंह, उमाकांत मालवीय, शिवबहादुर सिंह भदौरिया जैसे दिग्गज कवि इसी ‘अंधे युग’ में हुए हैं.
सवाल यह है कि हिंदी के पुरस्कारों की संख्या एक ही क्यों रखी जाये, जबकि वह दस राज्यों की प्रादेशिक भाषा है और उसके साहित्यकारों में हिंदीतरभाषियों की संख्या भी कम नहीं है. और अगर यह संभव नहीं है, तो हिंदी भाषा को इस पुरस्कार की परिधि से हटा दिया जाये, जिससे अयोग्य व्यक्तियों को पुरस्कृत करने और योग्य व्यक्तियों को उपेक्षित करने का पाप न लगे.
यह पुरस्कार साहित्य का राष्ट्रीय पुरस्कार है, इसलिए इसे राष्ट्रपति/उपराष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के हाथों दिलाना चाहिए, न कि अकादमी के अध्यक्ष द्वारा, जो सामान्यत: इन्हीं साहित्यकारों में से चुने जाते हैं. अकादमी का अध्यक्ष इस पुरस्कार-तंत्र का अंग है. उसके देने से कोई वरिष्ठ साहित्यकार कैसे सम्मानित अनुभव करेगा? इस समारोह में भी कई वरिष्ठ साहित्यकार स्वयं न आकर अपने बेटे-बेटी या मित्र के मारफत सम्मानित हुए. इस बार हिंदी की लॉटरी 78 वर्षीय कवि-लेखक श्री रमेशचंद्र शाह के नाम निकली थी. वे खुश थे कि ऋतु-परिवर्तन के कारण ही यह संभव हुआ, वरना यह कहां संभव था!
मुझे इस बात की बेहद खुशी हुई कि इस बार विश्व-प्रसिद्ध खगोलशास्त्री और विज्ञान लेखक श्री जयंत विष्णु नारलीकर को मराठी में लेखन के लिए साहित्य अकादमी का पुरस्कार दिया गया था. नारलीकर जी की प्रारंभिक से लेकर स्नातक तक की शिक्षा वाराणसी में ही बीएचयू में हुई थी. उनके पिता श्री विष्णु वासुदेव नारलीकर बीएचयू में गणित के प्रोफेसर थे और मां सुमति नारलीकर संस्कृत की विदुषी थीं. सन् 1957 में बीएससी करने के बाद वे कैम्ब्रिज चले गये.
बाद में उन्होंने अपने गुरु सर फ्रेड हॉयल के साथ मिल कर ‘अनुकोण गुरुत्वाकर्षण’ पर अनुसंधान कर नया सिद्धांत विकसित किया, जिसे विश्व के वैज्ञानिकों ने हॉयल-नारलीकर सिद्धांत नाम दिया. विज्ञान के क्षेत्र में उनकी अद्भुत उपलब्धियों के कारण 1965 में मात्र 26 वर्ष की आयु में भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण और 2004  में पद्मविभूषण अलंकरण से सम्मानित किया. इतना बड़ा वैज्ञानिक होने के बावजूद नारलीकर जी मातृभाषा मराठी में विज्ञान-कथाएं तथा अन्य साहित्य लिखते रहे, जिनका अनुवाद हिंदी में भी बेहद चर्चित हुआ.
अकादमी पुरस्कार उनकी आत्मकथा ‘चार नगरांतले माङो विश्व’ पर मिला है. सन् 1965 में जब मैं बीएचयू में दाखिल हुआ, तब वे पद्मभूषण से अलंकृत हो चुके थे, जिस पर पूरा विश्वविद्यालय ही नहीं, पूरा बनारस गर्वित हुआ था.

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