Friday 27 March 2015

मीडिया को ‘बिम्बोफिकेशन’ का खतरा

वरिष्ठ पत्रकार बरखा दत्त का कहना है कि अगर आप औरत होकर अच्छा काम करते हो तो नफरत पाने के लिए तैयार रहो। यह बहुत निराशाजनक बात है कि न्यूज़ क्षेत्र ग्लेमराइज़्ड हो रहा है क्योंकि एंकर यहां अपने बालों और मेकअप पर ही ध्यान देती हैं, न कि न्यूज़ पर। न्यूज़ क्षेत्र को ‘बिम्बोफिकेशन’ (दिमागहीन, सस्ती किस्म की नकली व सजावटी महिलाएं) का खतरा है। हम सिर्फ ग्लैमर नहीं चाहते। मैं 10 महिला सीईओ या संपादक का नाम भी नहीं गिना सकती। उनकी मां को 19 साल की उम्र में हिंदुस्तान टाइम्स में पत्रकार के रूप में नौकरी से मना कर दिया गया था। बताया गया था कि यहां औरत के लिए कोई जगह नहीं। जब उन्होंने हठ किया तो उन्हें दिल्ली में फ्लावर शो पर रिपोर्ट करने के लिए भेजा गया लेकिन उनकी मां ने हिम्मत नहीं हारी और हिंदुस्तान टाइम्स के खोजी ब्यूरो की प्रमुख बनी।
वह कहती हैं कि जब मैंने कारगिल युद्ध पर रिपोर्ट की तो कई लोगों को लगा कि इस उपलब्धि को हासिल करने वाली मैं पहली महिला हूं लेकिन वह भूमिका मेरी मां के नाम थी। 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान मां को युद्ध की रिपोर्टिंग करने से मना कर दिया गया तो उन्होंने छुट्टी ली और खुद ही युद्ध-स्थल पर पहुंच गईं। और, वहां से जब उन्होंने अपनी रिपोर्टें अखबार को भेजी तो हिंदुस्तान टाइम्स के पास उन्हें प्रकाशित करने के अलावा कोई चारा नहीं था। इस तरह के मज़बूत रोल मॉडल से आपके जीवन में फर्क पड़ता है।
कारगिल युद्ध के दौरान शुरू में उन्हें भी अनुमति देने से इनकार कर दिया गया था लेकिन अंत में काफी आग्रह के बाद अनुमति दी गई थी। सेना ने भी उन्हें ‘पुरुष डोमेन’ में प्रवेश करने से रोकने की कोशिश की कि वहां महिलाओं के लिए कोई शौचालय नहीं हैं जिससे ‘जटिलताएं’ पैदा हो सकती हैं। उनकी सहज प्रतिक्रिया थी, तब उनकी यह युद्ध है। मैं पुरुषों जैसा ही करुंगी। मैं एक औरत के रूप में कभी भी वर्णित नहीं की जाना चाहती थी। सिर्फ एक बहुत अच्छे पत्रकार के रूप में जाना जाना चाहती थी। लेकिन लिंग-भेद में चीजें इतनी मुड़-तुड़ हो गईं हैं कि आप इससे दूर नहीं भाग सकते। कारगिल युद्ध के दौरान कुछ पत्रकार, उन्हें बचाने वाले सैनिकों की एक टोली के करीब आ गए थे। सैनिक जब लड़ाई के लिए जाने लगे तब ये पता नहीं था कि वे लौटेंगे भी या नहीं। पुरुष पत्रकारों ने उनको अलविदा कहते समय आंसू बहाए थे पर उन्होंने ऐसा नहीं किया था।
मैं कैमरे के पीछे भी नहीं रोई। लिंगभेद के साथ सूक्ष्मता से हाथापाई करने का यह मेरा पहला अहसास था। उन्होंने कहा कि फिल्म उद्योग में युवा पुरुष अभिनेता को स्थापित अभिनेत्री की तुलना में बहुत ज़्यादा पैसा दिया जाता है जबकि भारतीय महिलाओं ने स्क्रीन पर अपनी लैंगिकता का अच्छा प्रदर्शन किया है। कैसे एक महिला अपनी मांग में सिंदूर डालकर तुलसी बन सकती है या सिर्फ एक आइटम गर्ल बन सकती है? भारतीय सिनेमा को खलनायिका या कुंवारी सिंड्रोम से अभी भी बाहर निकलना है। आज, फिल्म निर्देशकों में से केवल नौ प्रतिशत महिलाएं हैं और 15 प्रतिशत महिला निर्माता हैं। अगर आप एक औरत होकर अच्छा काम करती हैं तो नापसंद होने के लिए तैयार रहिए। आपको आपके द्वारा बोले गए हरेक शब्द के लिए, यहां तक कि आपके वजन के लिए भी घेरा जाएगा। कैसे इंद्रा नूयी जैसी प्रतिभाशाली महिलाओं को घर में एक पत्नी और मां की पारंपरिक भूमिका निभानी होती है। 

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