Sunday 29 March 2015

मजीठिया की सिफारिशें और मीडिया मालिकों के घृणा का पाठ-2

यहां हम यदि सिर्फ तीन मीडिया मनीषियों माखनलाल चतुर्वेदी, गणेशशंकर विद्यार्थी और बाबूराव विष्णु पराड़कर की टिप्पणियों पर ध्यान दें तो आधुनिक मीडिया में सिक्के के दूसरे पहलू पर नजर जाती है। और वह है, मीडियाकर्मियों की सुविधाजीवी लाइफ स्टाइल। बड़े-बड़े सैलरी पैकेज लेकर उनका सारा चिंतन, सारी नैतिकता मुनाफाखोर मालिकों के तंत्र की हिफाजत और अपने घर-परिवार की सुख-सुविधाओं तक सिमट कर रह गया है। उन्हें मेट्रोपॉलिटिन सिटी में गाड़ी, बंगला चाहिए पत्रकारिता के नाम पर। ये तभी संभव है, जब उनके भीतर का 'दोगला' हरकत में आ जाए। वे विचारों और शब्दों को दलाली का उपकरण बनाकर अपने और अपने मालिकों के बारे में ये भ्रम बनाए रखना चाहते हैं कि वे ही चौथा खंभा के सबसे बड़े चौकीदार हैं। और उस चौकीदारी के एवज में उन्हें भी वह सब चाहिए, जो कथित कुलीन परिवारों में देखा-भोगा जाता है।
 हमारे समय में आज माखनलाल चतुर्वेदी, गणेशशंकर विद्यार्थी और बाबूराव विष्णु पराड़कर की टिप्पणियां इसलिए बहुत ही महत्वपूर्ण हो जाती हैं कि वह सिर्फ बड़े वेतनभोगी पत्रकारों के लोभ-लालच का खुलासा ही नहीं करतीं, उस 'भय' की ओर भी हमारी दृष्टि ले जाती हैं, जिसने मीडिया प्रतिष्ठानों में आज श्रम कानूनों और मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशों जैसे मसले पर ज्यादातर पत्रकारों को बेजुबान-सा कर दिया है। वह 'भय' क्या है? वही है, छोटी चादर में लंबे पैर के सपने देखना। उनके भय में वह भूख समायी हुई है, जिसके उद्देश्यों में शब्द और मनुष्यता नहीं, सुविधाओं के हसीन सपने हैं। जब कोई अपनी औकात से बाहर जाकर अपने भीतर के ऐसे निराधार और नितांत व्यक्तिवादी सपनों में जीने लगता है, उसे ये भय हमेशा सताता रहता है कि नौकरी से निकाल दिया गया तो ये सुविधाएं उसे कैसे मयस्सर हो पाएंगी। और निरंतर, सालोसाल ऐसी मनःस्थितियों में रहते-जीते हुए वह इतना कूपमंडूक हो जाता है कि मजीठिया जैसे संघर्षों के मौके पर वह वेजबोर्ड के वेतनमान पर तो अपनी ललचायी दृष्टि टिकाए रहता है लेकिन नौकरी छूट जाने के डर से उसकी घिग्घी बंधी रहती है। दिनचर्या के स्तर पर उसका ज्यादातर समय कुछ अच्छा पढ़ने-लिखने, कुछ क्रिएटिव करने-धरने, हाशिये के लोगों, वंचितों के दुख-दर्द को जानने-समझने में बीतने की बजाए लंपट संवादों में बीतता रहता है।

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