Saturday 28 March 2015

किसी पुस्तक का प्रचार नहीं, समाजविरोधी धन-मीडिया के खिलाफ एक अभियान है

'मीडिया हूं मैं' किसी पुस्तक का प्रचार नहीं, बल्कि मीडिया के उन अमानवीय पक्षों का आद्योपांत पाठ है, जिसे आज के सूचनाप्रधान समय में जर्नलिज्म के छात्र को जानना जितना जरूरी है, नये पत्रकारों को, स्त्रियों को, रचनाकारों, कानूनविदों, अर्थशास्त्रियों, कृषि विशेज्ञों को, जनपक्षधर संगठनों को और जर्नलिज्म के टीचर्स को भी...यह पुस्तक नहीं, एक ऐसे अभियान का उपक्रम है, जो सामाजिक सरोकारों के प्रति हमे सजग करता है, उस पर चुप रहना उतना ही खतरनाक है, जितना किसी दुखियारे व्यक्ति के आंसुओं की अनदेखी कर देना.... क्योंकि जॉन पिल्जर कहता था...मुझे पत्रकारिता, प्रोपेगंडा, चुप्पी और उस चुप्पी को तोड़ने के बारे में बात करनी चाहिए। और ये किताब अपनी आत्मकथा कुछ इस तरह सुनाती है- 'चौथा स्तंभ। मीडिया हूं मैं। सदियों के आर-पार। संजय ने देखी थी महाभारत। सुना था धृतराष्ट्र ने। सुनना होगा उन्हें भी, जो कौरव हैं मेरे समय के। पांडु मेरा पक्ष है। प्रत्यक्षदर्शी हूं मैं सूचना-समग्र का। जन मीडिया। अतीत के उद्धरणों में जो थे, आदम-हौवा, नारद, हनुमान। जनसंचार के आदि संवाहक। संजय का 'महाभारत लाइव' था जैसे। अश्वत्थामा हाथी नहीं था। अरुण कमल के शब्दों से गुजरते हुए जैसेकि हमारे समय पर धृतराष्ट्र से कह रहा हो संजय- 'किस बात पर हंसूं, किस बात पर रोऊं, किस बात पर समर्थन, किस बात पर विरोध जताऊं, हे राजन! कि बच जाऊं।' मैं पराजित नहीं हुआ था स्वतंत्रता संग्राम में। 'चौथा खंभा' कहा जाता है मुझे आज। आखेटक हांफ रहे हैं। हंस रहे हैं मुझ पर। 'चौथा धंधा' हो गया हूं मैं।'  

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