Tuesday 24 March 2015

ये हैं दिल्ली की श्रेया सिंघल


वो कौन हैं, जो अभिव्यक्ति की आजादी के लिए उठ खड़ी हुईं? कौन हैं श्रेया सिंघल? वह श्रेया सिंघल हैं दिल्ली यूनिवर्सिटी में क़ानून की पढ़ाई कर रहीं एक छात्रा। उन्होंने वर्ष 2012 में सूचना प्रौद्योगिकी क़ानून के सैक्शन 66ए के ख़िलाफ़ याचिका दायर की थी। उन्हीं की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को अभिव्यक्ति की आजादी पर मंडरा रहे खतरे से सोशल मीडिया को बचाया है।
एक मीडिया प्रतिनिधि से बात करते हुए चौबीस वर्षीय श्रेया कहती हैं - ''कोर्ट ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को सुरक्षित रखा है और ये उनकी ही नहीं बल्कि इंटरनेट इस्तेमाल करने वाले हर व्यक्ति की जीत है। मैंने ये याचिका 2012 में दाख़िल की थी। महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल में गिरफ़्तारियों से मुझे झटका लगा था। मैं ख़ुद से सवाल पूछ रही थी कि ये गिरफ़्तारियों क्यों हुईं? उन लोगों ने जो पोस्ट किए थे, उनसे किसी को कोई ख़तरा तो था नहीं। पश्चिम बंगाल में तो मुख्यमंत्री के बारे में व्यंग्यात्मक कार्टून पोस्ट करने पर ही गिरफ़्तारी हो गई, जबकि पुडुचेरी में एक नेता पर टिप्पणी करने पर एक व्यापारी को गिरफ़्तार कर लिया गया। जिन वजहों से उन लोगों को गिरफ़्तार किया गया, वही वजह बताकर किसी को भी गिरफ़्तार किया जा सकता था।
''मुझे या मेरे दोस्तों को भी गिरफ़्तार किया जा सकता था। आप सोचिए कि सिर्फ़ फ़ेसबुक पर पोस्ट लाइक करने के लिए गिरफ़्तारियाँ हुई थीं। ऐसे चार मामले हुए थे जिनसे साफ़ था कि क़ानूनी प्रावधान का दुरुपयोग किया जा रहा था। मुझे लगा कि किसी को तो कुछ करना चाहिए। सिर्फ़ ये कहना काफ़ी नहीं था कि बहुत बुरा हुआ। कुछ करने की ज़रूरत थी।
''सूचना प्रौद्योगिकी क़ानून के ये प्रावधान बिलकुल अस्पष्ट है और इन्हें आधार बनाकर किसी को भी गिरफ़्तार किया जा सकता था। यदि सोशल मीडिया पर आपकी टिप्पणी से किसी को नाराज़गी या कष्ट हुआ हो तो 66ए के तहत सिर्फ़ इसीलिए तीन साल तक की जेल हो सकती थी। संविधान में अनुच्छेद 32 के तहत ये प्रावधान है कि यदि आपके मूल अधिकार का उल्लंघन किया जाता है तो भारत का कोई भी नागरिक सीधे सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर सकता है। इसलिए मैंने सीधे सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। तीन साल सुनवाई के बाद इस याचिका पर फ़ैसला आया है। ''
इस बीच भारत के जाने-माने क़ानूनविद सोली सोराबजी ने आईटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को ये कहते हुए सराहा कि ये प्रावधान अनिश्चितता से भरा था और इसका मतलब कोई भी अपने मुताबिक निकाल सकता था।

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