Tuesday 30 July 2013

अर्द्धांगिनी एक महात्मा की




वह थी 18 वर्ष की मासूम युवती और वह था 34 वर्ष का जवान मर्द, न जाने कितने नारी ह्रदयों को अब तक वशीभूत कर चुका था| युवती थी सोफिया बेर्स और पुरुष लेव तोल्स्तोय| इस दंपति के निजी जीवन की समाज में जितनी चर्चा रही उतनी रूस के सारे इतिहास में शायद और किसी दंपति की नहीं रही| इतनी अटकलें लगाई गईं, इतनी अफवाहें उड़ाई गईं उनके बारे में| उनके संबंधों के हर पहलू को, हर छोटी से छोटी बात को पूरी बारीकी से देखा, कुरेदा और उघाडा गया|

काउंट लेव तोल्स्तोय का जन्म उनकी पुश्तैनी जागीर ‘यास्नया पोल्याना’ {धौला मैदान} में 28 अगस्त 1828 को हुआ| उनके पूर्वज रूस के कई उच्च संभ्रांत वंशों के थे| उनके माता-पिता का विवाह प्रेम-विवाह नहीं था, लेकिन उनके दाम्पत्य संबंध बड़े सौहार्दपूर्ण और सुकोमल थे| इस पारिवारिक सुख की छाया में ही शिशु लेव का बचपन बीता, हालांकि मातृ-सुख से वह अल्पायु में ही वंचित हो गए थे| डेढ़ वर्ष के ही थे जब माता का देहांत हो गया| बुआओं ने उन्हें पाला-पोसा, उन्हींने बालक को पारिवारिक सुख की बातें सुनाईं| तभी लेव के मन में एक आदर्श अर्द्धांगिनी का बिम्ब बन गया था| वह अगर किसी से प्रेम करेंगे तो केवल ऐसी आदर्श नारी से, विवाह करेंगे तो ऐसी आदर्श नारी से| लेकिन जीवन में आदर्श खोज पाना कोई आसान काम नहीं, इसीलिए जवानी में कितने ही प्रेम के रिश्ते बने-टूटे|

सोफिया बेर्स का जन्म एक कुलीन परिवार में हुआ, जहां आठ संतानें थीं| बेर्स परिवार सादगी की, बल्कि यह कहना चाहिए कि गरीबी की ज़िंदगी जी रहा था| तोल्स्तोय उनके कुलपिता को जानते थे| एक बार मास्को जाने का अवसर बना तो बेर्स परिवार से भी मिलने गए| अपनी डायरी में उन्होंने इस परिवार के सादे रहन-सहन के अलावा इस बात का भी ज़िक्र किया कि उनकी बच्ची “बड़ी प्यारी है”| साल भर बाद बेर्स परिवार ‘यास्नया पोल्याना’ में ठहरा| अब चौंतीस वर्षीय लेव तोलस्तोय ने देखा कि सोफिया “प्यारी बच्ची” नहीं, अनुपम युवती है, जिसे देखकर दिल की धड़कन तेज़ हो जाती है|.. दिन ढले दोनों छज्जे पर खड़े बातें करते रहे| सोफिया तो संकोच के मारे कुछ बोल ही नहीं पा रही थी, पर लेव ने धीरे-धीरे उसका यह संकोच दूर कर दिया और फिर देर तक उसकी बातें सुनते रहे| विदा होते समय कहा: “कितनी सरल हैं आप, कितना उजला मन है आपका!”

बेर्स परिवार मास्को के पास अपनी कोठी में लौट गया| तोल्स्तोय सोफिया से विछोह अधिक दिन नहीं सह पाए| वह उनके घर चले गए| यहां संध्या समय बाल-नृत्य का आयोजन हुआ| कितनी गरिमा थी सोफिया के नृत्य में, कितनी कमनीय लग रही थी वह! तोल्स्तोय बार-बार अपने से कह रहे थे, “नहीं, यह तो अभी बच्ची ही है!” लेकिन उसकी कमनीयता मन को हरती जा रही थी, उसका नशा प्रतिपल सिर को चढता जा रहा था| कालांतर में उन्होंने ‘युद्ध और शांति’ उपन्यास में अपनी इन भावनाओं का वर्णन किया –

उस प्रसंग में, जब प्रिंस आंद्रेई बोल्कोंसकी नताशा रोस्तोवा के साथ बाल-नृत्य करता है और उस पर मोहित हो जाता है|

शीघ्र ही वह दिन भी आ गया जब तोल्स्तोय ने निश्चय किया कि जिसने उनका मन हरा है उसे अपने मन की सारी बात बता देनी चाहिए| सोफिया के नाम एक लंबा पत्र उन्होंने लिखा, जिसमें उनसे विवाह का प्रस्ताव रखा और साथ ही बारम्बार यह अनुरोध किया कि अगर उनके मन में ज़रा सा भी संदेह है, असमंजस है तो साफ़ इनकार कर दें| सोफिया पत्र लेकर अपने कमरे में चली गईं| भयानक मानसिक तनाव में बीते ये पल – लगता था यह प्रतीक्षा कभी खत्म ही नहीं होगी| आखिर सोफिया नीचे आईं, तोल्स्तोय के पास गईं और मौन हामी भर दी| तोल्स्तोय के जीवन में यह परम सुख का क्षण था| “इससे पहले कभी भी मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ था कि मैं पत्नी के साथ अपने भावी जीवन की कल्पना करूं और मन इतना शांत हो, सब कुछ इतना स्पष्ट लगे और इतना सुखद भी,” उन्होंने अपनी डायरी में लिखा| अब बस एक बात और बची थी: तोल्स्तोय का यह मानना था कि विवाह की वेदी पर पाँव धरने से पहले वर-वधू के बीच एक दूसरे से कोई भेद नहीं रहना चाहिए| मासूम सोनिया का मन तो कोरा कागज था, उसका सारा जीवन एक खुली किताब था, किंतु तोल्स्तोय के चौंतीस वर्ष न जाने कितने भेद समेटे हुए थे|

तोल्स्तोय ने अपनी सारी डायरियां, जिनमें वह सदा अपने सारे भावावेग उतारते आए थे, अपनी मंगेतर को पढ़ने को दे दीं| सोनिया (सोफिया को ही रूस में घर पर सोनिया कहते हैं) इन्हें पढकर सकते में आ गईं| मां से लंबी बातचीत के बाद वह इस सदमे से उबर पाईं| भावी दामाद की इस कारस्तानी से उन्हें भी ठेस पहुंची थी, परंतु बेटी को उन्होंने समझाया कि इस उम्र का जो भी पुरुष होगा उसका अपना अतीत तो रहा ही होगा| फर्क बस इतना है कि ज़्यादातर पुरुष अपनी भावी पत्नियों को ये सारी बातें नहीं बताते| सोनिया को अपने पर, अपने प्रेम पर पूरा विश्वास था, सो उन्होंने निश्चय किया कि वह अपने भावी पति को क्षमा कर सकती हैं| अब उधर तोल्स्तोय के मन में फिर से यह सवाल उठने लगा कि क्या उन दोनों का निर्णय सही है| ऐन विवाह वाले दिन सुबह-सुबह सोनिया से बोले: “सोच लीजिए, कहीं ऐसा तो नहीं कि आपका मन इस विवाह को न मानता हो?” बेचारी सोनिया फूट-फूटकर रो पड़ी| आंसू भरी आँखे लिए ही वह विवाह की वेदी पर पहुंची| उसी दिन शाम को नव-दम्पति ‘यास्नया पोल्याना’ चले गए| इस प्रकार उनका विवाहित जीवन आरंभ हुआ|

उन दिनों तोल्स्तोय ने अपनी डायरी में लिखा: “पारिवारिक जीवन के इस नए सुखद वातावरण में ऐसा डूबा हूं कि जीवन का अर्थ क्या है इस शाश्वत प्रश्न की ओर अब ध्यान ही नहीं जाता”| अंततः, नव-दम्पति की पहली संतान हुई – बेटा सेर्गेई| इसके साल भर बाद युवा काउंटेस ने बेटी तत्याना को जन्म दिया और उसके डेढ़ साल बाद बेटे इल्या को| फिर तो उनके दस और संतानें हुईं| तेरह बच्चों में से पांच छोटी उम्र में ही गुज़र गए| इनमें से तीन तो एक के बाद एक गुज़रे| उनके इस दुख में पति ने उनका पूरा साथ दिया, इसी की बदौलत इतना भारी सदमा भी सोनिया ने सह लिया| दाम्पत्य जीवन के पहले बीस वर्षों में लेव और सोनिया का एक दूसरे से प्रेम इतना गहरा था कि “दो जिस्म एक जान” की बात उन पर पूरी तरह लागू होती थी| वे मानो एक-दूसरे में खो गए थे| सोनिया के लिए पति का साथ क्या मायने रखता था, इसका अनुमान हम उनके पत्र की इन पंक्तियों से लगा सकते हैं: “तुम्हारे बिना मुझे बस वही अच्छा लगता है जो तुम्हें अच्छा लगता है| अक्सर मैं भ्रम में पड़ जाती हूं कि यह मुझे खुद को अच्छा लगता है या सिर्फ इसलिए पसंद है कि तुम्हें अच्छा लगता है”|

अपने बच्चों के लालन-पालन का सारा काम सोफिया खुद ही करती थीं – कोई आया कभी उनके घर में नहीं थी| खुद ही वह बच्चों के लिए कपडे सीती थीं, खुद ही उन्हें पढ़ना-लिखना सिखाती थीं, संगीत की शिक्षा देती थीं| यही नहीं, पति के लेखन-कार्य में भी पूरी मदद करती थीं| तोल्स्तोय की लिखावट को अकेली वही समझ पाती थीं – सारी पांडुलिपियों की साफ नक़ल तैयार करती थीं|

दाम्पत्य जीवन के अठारह वर्ष पूरे हो चके थे; तोल्स्तोय ने ‘आन्ना करेनिना’ उपन्यास पूरा कर लिया था – इन्हीं दिनों उनके मन पर एक आध्यात्मिक संकट घिर आया| उनका जीवन भरा-पूरा था, लेकिन मन में संतोष नहीं था; एक लेखक के नाते उनके नाम की तूती बज रही थी पर मन में इससे कहीं कोई खुशी नहीं थी| उधर सोफिया ने दाम्पत्य जीवन के ये सारे वर्ष ‘यास्नया पोल्याना’ में ही बिता दिए थे – घर-गृहस्थी और बाल-बच्चों को समेटते हुए| एक बार भी विदेश नहीं गईं, भद्र-समाज के मनोरंजन, बाल-नृत्य संध्याओं में जाना और थियेटर देखना क्या होता है – यह सब वह भूल ही गई थीं; सुंदर-सजीले परिधान, नए-नए वस्त्र और पोशाकें – इन सब का तो उन्हें कभी ख्याल तक नहीं आया| देहाती जीवन के लिए जो सुविधाजनक और आरामदेह हों – वही सीधे-सादे वस्त्र वह पहनती आई थीं| तोल्स्तोय का यह मानना था कि एक अच्छी पत्नी को “भद्र-समाज” की इस तड़क-भड़क की कतई कोई आवश्यकता नहीं है|

सोफिया ने कभी पति को निराश नहीं होने दिया, हालांकि शहर में जन्मी और पली स्त्री के लिए गांव का जीवन बेगाना और नीरस था| इस पर जब तोल्स्तोय जीवन में कोई दूसरे मूल्य ढूँढने लगे, यह खोजने लगे कि जीवन की सार्थकता किस बात में है, तो उनकी पत्नी के लिए इससे बड़ी ठेस की बात कोई नहीं हो सकती थी, क्योंकि इसका अर्थ यह था कि उन्होंने जो कुर्बानियां कीं उन सब की कद्र करना तो दूर, उन्हें अब निरर्थक और अनावश्यक मानकर त्यागा जा रहा था, मानो वह सब कोई भूल थी, भ्रम था|..

उधर तोल्स्तोय के मन को चैन नहीं था| उन्हें यही लगता था कि उनका जीवन एकदम निरर्थक है| इस अहसास से प्रायः मन की व्यथा असहनीय हो उठती थी, यहाँ तक कि लगता बस यह जीवन त्यागकर ही सदा-सदा के लिए इस व्यथा से छुटकारा मिलेगा| बड़ी मुश्किल से वह ऐसे क्षणों में अपने को संभालते| जीवन के अर्थ की खोज में वह धर्म की शरण में भी गए परंतु वहाँ भी उत्तर नहीं पा सके| तब वह स्वयं अपने दार्शनिक विचारों की रूप-रेखा बनाने लगे : “इस संसार में हर मनुष्य ईश्वर की इच्छा से जन्म लेता है| ईश्वर ने मनुष्य को ऐसे रचा है कि वह चाहे तो अपनी आत्मा को अधोगर्त में पहुंचा सकता है और चाहे तो उसे उबार सकता है| इस जीवन में मनुष्य का कर्तव्य यही है कि वह अपनी आत्मा को उबारे: आत्मा को उबारने के लिए यह ज़रूरी है कि मनुष्य ईश्वर की इच्छा के अनुसार जिए और ईश्वर की इच्छा के अनुसार जीने का अर्थ है यह है कि मनुष्य लौकिक सुखों का त्याग करे. परिश्रमी, विनम्र, सहनशील, और दयालु बने”|

घर-गृहस्थी के बोझ ने अर्द्धांगिनी के लिए एक पल ऐसा नहीं छोड़ा था जिसमें वह पति के मन में हो रहे मंथन को अनुभव कर पाती, उनके इन नए विचारों को सुन और समझ पाती| बच्चों की बात अलग थी| उनके लिए तो पिता देव-तुल्य थे| वही उनकी नई शिक्षा के पहले अनुयायी बने|

अपनी रौ में बहना तोल्स्तोय का स्वभाव ही था| बस इसी रौ में कई बार वह सहज बुद्धि की हद पार कर जाते थे| कभी कहते कि सादे जन-जीवन के लिए जिन बातों की कोई ज़रूरत नहीं है, जैसे कि संगीत और विदेशी भाषाएं, वे सब बच्चों को सिखाने की कोई ज़रूरत नहीं| कभी यह ठान लेते कि वह अपनी सारी जायदाद से इनकार कर देंगे, या फिर अपनी रचनाओं की रायल्टी पाने से इनकार की बातें करने लगते| इस पर उनकी अर्द्धांगिनी को, एक गृहिणी को ही अपनी गृहस्थी की, अपनी संतानों के रहन-सहन की रक्षा के लिए आगे आना पड़ता| पहले तो इन सवालों पर बहसें होती रहीं, फिर नौबत झगड़ों की आने लगी| पति-पत्नी एक-दूसरे से दूर होते जा रहे थे, इस बात से बेखबर कि यह दूरी उन्हें कितना कष्ट देगी|

सोफिया के अगली संतान होने ही वाली थी, जब पति-पत्नी में फिर से झगडा हो गया| तोल्स्तोय पत्नी को यह समझाने की कोशिश कर रहे थे कि वह क्यों अपने को मानवजाति के प्रति दोषी मानते हैं| पत्नी के लिए इससे बड़ी चोट और क्या हो सकती थी – मानवजाति के सामने तो अपने दोष को महसूस करते हैं, लेकिन पत्नी के प्रति दोष को कभी भी नहीं| लगता था, तोल्स्तोय परिवार में पहले जैसा अमन-चैन कभी नहीं लौटेगा| तभी उनके चार साल के बेटे अलेक्सेई की मृत्यु हो गई| पति-पत्नी पूरी तरह एक दूसरे का सहारा बने, इतने समीप आ गए कि तोल्स्तोय ने इस मृत्यु को ईश्वर का “वरदान” ही माना| “इस मृत्यु ने हम सब को प्रेम के बंधन में पहले से भी अधिक कसकर बाँध दिया है,” उन्होंने अपनी डायरी में लिखा|

सोफिया 44 वर्ष की थीं जब उन्होंने अपनी आखिरी संतान को जन्म दिया| सभी घर-परिवार वालों ने अपने संस्मरणों में लिखा कि बालक इवान बहुत ही प्यारा था, सब का मन मोह लेता था, नन्ही उम्र में ही दूसरों के मनोभावों को अच्छी तरह समझता था, बड़ा ही कोमलहृदय था| सात साल का भी नहीं हुआ था कि स्कारलेट ज्वर ने उसकी जान ले ली| मां पर तो दुख का पहाड़ टूट पड़ा| घरवालों को डर लगने लगा कि वह पागल हो जाएंगी| इस दुख से पति-पत्नी उबर नहीं पाए| ऊपर से सोफिया के मन में यह वहम बैठ गया कि उनके पति अब उन्हें नहीं चाहते| बेटे इवान की मृत्यु के बाद सोफिया ने बगावत कर दी|

उन्होंने अपने लिए नए-नए फैशन के वस्त्र खरीद लिए| अक्सर मास्को जाने लगीं – कभी कोई कंसर्ट सुनने, तो कभी थियेटर में नाटक देखने| तोल्स्तोय परिवार के मित्र, संगीतकार और पियानोवादक अलेक्सांद्र तनेयेव से संगीत के पाठ लेने लगीं| तनेयेव की संगत और उनके संगीत से उन्हें सांत्वना मिलती थी| परंतु फिर धीरे-धीरे सबको यह दिखने लगा कि वह तनेयेव पर फ़िदा हो गई हैं| वह बावन वर्ष की थीं, उनके बच्चों को यह देखकर शर्म आती थी कि मां इस तरह नौजवान औरतों के जैसे वस्त्र पहनती है और पराये मर्द की संगत में इतना समय बिताती है| तोल्स्तोय भी ईर्ष्या की आग में तड़प रहे थे, कई बार उनके मन में पत्नी से पूर्ण संबंध-विच्छेद का विचार आया और कभी तो आत्म-हत्या तक का|

एक तनेयेव ही थे, जिन्हें इस बात का कोई अहसास ही नहीं था कि उनके इर्द-गिर्द क्या हो रहा है, और यही शायद सोफिया के लिए सबसे बड़ी त्रासदी थी| तनेयेव तो यही सोचते थे कि वह दुख की घड़ी में अपनी परिचिता को कुछ आसरा दे रहे हैं|.. बरसों बाद सोफिया जब मृत्यु-शय्या पर थीं तो उन्होंने अपनी बेटी तत्याना से कहा था: “अठारह वर्ष की थी जब मेरा विवाह हुआ, और जीवन भर अकेले अपने पति से ही मैंने प्यार किया”|

परंतुतोल्स्तोय पर क्या गुज़र रही थी? वह सत्य की खोज के रास्ते पर अपने विचारों में, चिंतन-मनन में गहरे ही गहरे उतरते जा रहे थे| इस रास्ते पर वह अकेले ही थे, पत्नी से बातचीत अब बहुत कम ही होती थी| जीवन के बंधे-बंधाए ढर्रे को त्याग कर वह किसी नए रास्ते पर, जीवन के सत्य-पथ पर निकल पड़ना चाहते थे| संन्यासी जीवन उन्हें आकर्षित करने लगा था, उन्हें लगता था कि यही सच्चे आस्थावान का जीवन-पथ है| उम्र अपना असर दिखा रही थी – शरीर दुर्बल हो रहा था, बीमारियां घेरने लगी थीं| पत्नी के मन में एक और भय घर कर गया था – कहीं उन्हें ऐसी नारी के रूप में न याद किया जाए जिसने पति का साथ नहीं निभाया, लोग उनकी तुलना सुकरात की बदमिजाज बीवी से न करने लगें| हर वक्त उन्हें यही भय सताता रहता था, दूसरों से बातचीत में और अपनी डायरी में बार-बार इसी का ज़िक्र करती थीं| साथ ही सिर पर एक और अजीब धुन सवार हो गई – तोल्स्तोय अब अपनी डायरियां उनसे छिपाने लगे थे, सो सोफिया इसी कोशिश में लगी रहती थीं कि किसी तरह पति की डायरी उनके हाथ लग जाए और पति ने उनके बारे में जो कुछ भी “गलत” बातें लिखी हैं उन सब को काट दें|

अगर वह डायरी न ढूँढ पातीं, तोपति के आगे हाथ जोड़तीं, आंसू बहाते हुए अनुरोध करतीं कि उन्होंने गुस्से में आकर जो कुछ उल्टा-सीधा लिखा है वह सब काट दें|

तोल्स्तोय भली-भांति समझते थे कि भले ही अब वे दोनों एक दूसरे को बिलकुल नहीं समझ पाते तो भी उनकी पत्नी सोफिया ने उनके लिए बहुत कुछ किया है और अब भी कर रही हैं, किंतु उनके लिए यह “बहुत कुछ” अब पर्याप्त नहीं था| आखिर वह घड़ी भी आ गई जब तोल्स्तोय ने फैसला किया कि वह अब यास्नया पोल्याना में एक दिन भी और नहीं रह सकते| 27-28 अक्टूबर 1910 की रात को पति-पत्नी में आखिरी बार झगड़ा हुआ| आधी रात को सोफिया उठकर पति के कमरे में गईं – उनकी नब्ज़ देखने| पत्नी की इस “चौकीदारी” पर तोल्स्तोय गुस्से से आग बबूला हो उठे: “न दिन को, न रात को चैन है – मैं ज़रा सा हिलूं-डुलूं तो, मेरे मुंह से कोई आवाज़ निकले तो - हर गति की, हर शब्द की इसे खबर चाहिए, उस पर नियंत्रण चाहिए| फिर से कदमों की आहट आई...हौले से दरवाज़ा खुला... नहीं, मुझसे और नहीं लेटा जाता, बस आखिरी फैसला कर लिया मैंने|”

यास्नया पोल्याना छोड़कर जाते समय 82-वर्षीय तोल्स्तोय ने अपनी पत्नी के नाम पत्र छोड़ा: “यह मत सोचना कि मैं इसलिए जा रहा हूं कि तुमसे प्यार नहीं करता| मैं तुमसे प्रेम करता हूं और रोम-रोम से तुमसे सहानुभूति रखता हूं, किंतु जो मैं कर रहा हूं उसके अलावा और कुछ नहीं कर सकता|” निकटतम स्टेशन तक पहुंचकर तोल्स्तोय वहाँ से गुज़र रही पहली पैसंजर ट्रेन में बैठ गए| रास्ते में ठंड लग गई जो निमोनिये में बदल गई| अस्तापोवो नाम के एक छोटे से स्टेशन पर वह ट्रेन से उतरे| बस इसी के प्रतीक्षा कक्ष में महान लेखक ने अपने आखिरी दिन काटे| बच्चों से वह मिलना नहीं चाहते थे, पत्नी की तो बात ही दूर रही| अस्तापोवो स्टेशन से महान तोल्स्तोय के स्वास्थ्य के बारे में बुलेटिन के तार सारे रूस को जाने लगे| यास्नया पोल्याना में पत्नी सोफिया दुख के मारे बुत बनकर रह गईं – उनके पति उन्हें त्याग कर चले गए, उनका प्रेम, उनकी देख-रेख ठुकरा डाली, उनके सारे जीवन को रौंद डाला...

7 नवंबर 1910 को तोल्स्तोय इस संसार में नहीं रहे| सारा रूस उन्हें दफनाने उमड़ पड़ा था| उनकी मृत्यु के बाद सोफिया को जगत-भर्त्सना का शिकार होना पड़ा| तोल्स्तोय घर छोड़कर चले गए, ऐसे बुरे हालात में उन्होंने अंतिम दिन बिताए – इस सब के लिए उन्हें ही दोषी ठहराया जाने लगा| आज भी ऐसा करने वाले कम नहीं हैं| किंतु वे यह नहीं समझते कि कितना भारी बोझ था उनके कंधों पर – एक महात्मा की अर्द्धांगिनी होने का बोझ, तेरह बच्चों की मां का बोझ, जागीर की मालकिन का बोझ| और इस नारी ने कभी स्वयं अपनी सफाई में एक शब्द नहीं कहा|

अपने दिवंगत पति के कागज़ात समेटते हुए उन्हें एक बंद लिफाफा मिला| यह उन्हीं के नाम पति का पत्र था जो उन्होंने 1897 की गर्मियों में लिखा था| तब तोल्स्तोय ने पहली बार घर छोड़ने की बात सोची थी| उस समय उन्होंने अपना यह इरादा पूरा नहीं किया, किंतु पत्र भी नहीं फाड़ा| अब मानो परलोक से उनकी आवाज़ आ रही थी: “...हमारे जीवन के इन लंबे 35 वर्षों को मैं बड़े प्रेम से और साभार याद करता हूं, खास तौर पर पहले के दस-बीस वर्षों को, जब तुमने इतने उत्साह से और इतनी दृढता से वह सब किया जिसे तुम अपना कर्तव्य मानती थीं और वह सब करते हुए मां का परम-त्यागी स्वभाव दर्शाया| तुमने मुझे और संसार को वह सब दिया है जो तुम दे सकती थीं – अपार ममता दी है और परम आत्मत्याग किया है| इसके लिए तुम्हारी कद्र किए बिना नहीं रहा जा सकता| जो कुछ तुमने मुझे दिया है – उस सब के लिए मैं तुम्हारा आभारी हूं, सदा गदगद होकर वह सब याद करता हूं और करता रहूँगा”|

तोल्स्तोय के प्रस्थान के नौ वर्ष बाद उनकी पत्नी सोफिया भी चली गईं| उनकी बेटी तात्याना ने अपने संस्मरणों में लिखा: “अपने अंतिम क्षणों में मां बच्चों से, नाती-पोतों से घिरी थीं| उन्हें इस बात का पूरा अहसास था कि उनका अंतिम समय आ गया है| शांत मन से और दीन भाव से उन्होंने इस अंत को स्वीकार किया”|
(योगेन्द्र नागपाल)

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