Friday 26 September 2014

मोदी और मीडिया में अनबन के मायने

भारतीय मीडिया इस बात को लेकर परेशान है कि प्रधानमंत्री बहुत बातें करते हैं और अच्छी बातें करते हैं लेकिन वे मीडिया से बात नहीं करते हैं. लोकसभा चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी ने अपने आप को पत्रकारों के लिए सहज सुलभ बनाया हुआ था, ख़ासकर टीवी इंटरव्यू के लिए. लेकिन अब वे अपने पुराने तरीक़े पर लौट चुके हैं जिसके तहत वे सोशल मीडिया और भाषणों के माध्यम से ही मीडिया से रूबरू हो रहे हैं बजाए कि इंटरव्यू और प्रेस कांफ्रेंस के ज़रिए.
प्रधानमंत्री बनने के बाद फ़रीद ज़कारिया इकलौते ऐसे पत्रकार हैं जिनको मोदी ने इंटरव्यू दिया है. यह इंटरव्यू एक नरम रूख़ वाला और भारतीय नेता का दुनिया के सामने परिचय कराने वाला था. अब एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया जो कि आम तौर पर एक निष्क्रिय संगठन है और जिसपर पेशेवर संपादकों के बजाए मालिकों का नियंत्रण रहता है, ने मोदी के इस रवैए पर शिकायत दर्ज की है. इस हफ़्ते जारी एक बयान में संगठन ने कहा, "सरकार के संचालन में एक हद तक पारदर्शिता की कमी है."
संगठन ने कहा, "प्रधानमंत्री दफ़्तर में मीडिया इंटरफ़ेस की स्थापना में देरी, मंत्रियों और नौकरशाहों तक आसानी से पहुंच नहीं होना और सूचनाओं के प्रसार में कमी से यह लगता है कि सरकार अपने शुरुआती दौर में लोकतांत्रिक तरीक़े और जवाबदेही के क़ायदे के अनुरूप नहीं है."
जून में वेबसाइट scroll.in की एक रिपोर्ट ने कहा गया, "मोदी के साथ वरिष्ठ अधिकारियों की बैठक जिसमें उन्होंने अधिकारियों को मीडिया से दूर रहने का निर्देश दिया था, एक ऐसा तथ्य है जिसपर लोगों ने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया." प्रधानमंत्री ने अपने कैबिनेट के सहयोगियों को भी पत्रकारों से दूर रहने को कहा था और इसके बदले सरकार के आधिकारिक प्रवक्ताओं को उनके बदले बात करने को कहा था. "यह नई दिल्ली को गांधीनगर में तब्दील करने का पहला गंभीर प्रयास था. गांधीनगर में मोदी के तीन बार मुख्यमंत्री रहते हुए उनके मंत्रिमंडल के लोग बिना उनकी इजाज़त के मीडिया से बात नहीं करते थे. यहां तक कि गुजरात में मंत्रिमंडल की बैठक के बाद भी मंत्री मीडिया से बात नहीं करते थे जबकि दूसरे राज्यों में परंपरागत रूप से मंत्री इस बैठक के बाद मीडिया से बात करते है."
जब कभी भी मोदी ने महसूस किया कि उन्हें कुछ कहना है तब उन्होंने ट्वीट और अपने भाषणों का सहारा लिया. गिल्ड का कहना है कि यह पर्याप्त नहीं है.
संगठन का कहना है, "एक ऐसे देश में जहां इंटरनेट की पहुंच सीमित है और तकनीकी जागरूकता भी कम वहां इस तरह का एकतरफ़ा संवाद इतनी बड़ी पाठक, दर्शक और श्रोताओं की आबादी के लिए पर्याप्त नहीं है. बहस, संवाद और वाद-विवाद लोकतांत्रिक प्रक्रिया के आवश्यक तत्व हैं."
2002 दंगों के बाद मोदी का रिश्ता मीडिया के साथ बहुत हद तक विरोधात्मक हो गया था.
गुजरात में सबसे अधिक प्रसारित होने वाले अख़बार गुजरात समाचार को वे लंबे अर्से से पसंद नहीं करते आ रहे हैं. राज्य सरकार ने इस अख़बार के जवाब में गुजरात सत्य समाचार नाम का अख़बार निकाला जो सभी घरों में मुफ़्त में पहुंचाया जाता था. यह मोदी की उन उपलब्धियों का बखान करने वाला एक पैम्फ़लेट था जिन उपलब्धियों के ऊपर मोदी का मानना था कि अन्य अख़बार ध्यान नहीं देते हैं.
मोदी ने मुख्यधारा के मीडिया को इंटरनेट का सहारा लेकर दरकिनार कर दिया है. मोदी की सोशल मीडिया टीम में 2000 लोग हैं और इसका नेतृत्व हीरेन जोशी करते हैं. मोदी सोशल मीडिया प्रौपेगेंडा के मामले में चीनी सरकार के बाद शायद सबसे अधिक प्रभावशाली व्यक्ति हैं. वे मध्यमवर्गीय युवा पीढ़ी के चहेते हैं और मोदी भी उनसे अच्छे से जुड़ पाते हैं. उन्होंने चुनाव प्रचार के दौरान सभी तरह के तंत्रों का इस्तेमाल किया क्योंकि उस वक़्त उन्हें इसकी ज़रूरत थी लेकिन अब वे इस पर सोच रहे हैं. वे एक कुशल वक्ता हैं और अपने श्रोताओं तक मीडिया के बग़ैर सीधे पहुंच सकते हैं. यह उनको उन दूसरे नेताओं से अलग करता है जिन्हें मीडिया की ख़ास ज़रूरत पड़ती है. सरकार के अंदरख़ाने में क्या चल रहा है यह जानने के लिए पत्रकारों को उनके इर्द-गिर्द रहने वाले लोगों से बात करने की ज़रूरत पड़ेगी. यह आसान नहीं होगा.
(बीबीसी हिंदी से आकार पटेल का विश्लेषण साभार)

No comments:

Post a Comment