Wednesday 26 June 2013

जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिले


पाकिस्तान के अजीम और नफासत से भरे शायर अहमद फराज की एक गजल है। मुखड़ा यूं है कि ‘अब के बिछड़े हम शायद ख्वाबों में मिले, जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिले’, इस गजल को प्रसिद्ध गजल गायक मेहंदी हसन ने अपनी रेशमी, मखमली आवाज में गाकर दिल के जख्मों को आवाज दे दी है। कहते हैं कि कइयों को मेहंदी हसन की आवाज और उसमें भी अहमद फराज की गजलों को सुने बिना नींद ही नहीं आती थी। दरअसल यह गजल उस गुजिश्ता जमाने की यादगार गजल है, जब फूल खिलते थे और हाथों में किताबें होती थीं। किताबों के सफे पलटे जाते थे। यह किताबों और नोट्स बनाने का जमाना था। किताब का कोई पेज या हिस्सा अच्छा लगता तो उसमें एक फूल दबाकर रख दिया जाता था। ये सूखे फूल एक पूरी क्रमिक यादगारों का हिस्सा होते थे।
कभी नोट्स एक्सचेंज के बहाने या किताब के लेन-देन पर वह फूल वाला हिस्सा खुल जाता तो इसके मायने समझने में देर नहीं लगती थी। पर यह तब इतना आसान भी नहीं होता था। खुदा का कहर कि जब तक मोहब्बत का इजहार करना होता कि बिछुड़ने के कई बहाने बन जाते।
माशूका के निकाह की खबर मिलती या उनके अब्बू की बदली दूसरे शहर में हो जाती। रह जाते तो वे सूखे फूल, जो किताबों में एक यादगार बनकर बस जाते थे। मोहब्बत तो मोहब्बत होती है। जब तक रहती है बहुत शिद्दत से मन पर छाई रहती है फिर तो सूखे फूलों का ही सहारा होता।
उस जमाने में रंग-बिरंगे फूल बहुत होते थे। छोटा-सा घर हो या बड़ा, हरी घास का एक टुकड़ा घर के आगे होता ही था। उसके चारों ओर क्यारियों में फूल खिले होते थे। एक फूल तोड़ा और उसे सहेजकर किताब या नोट बुक में दबा दिया। जब कभी किताब या नोटबुक के नोट्स की अदला-बदली होती तो वे सूखे फूल उसी खास जगह दबे मिलते, जहां भावनाओं और अनुभूतियों का इजहार करना होता था। किताबों की या नोट्स की अदला-बदली में यह सूखे फूल मोहब्बत का पैगाम होते। इससे बढ़कर या इससे सुंदर कोई और प्यारा-सा पैगाम का माध्यम हो सकता था?
ज्यादातर मोहब्बतें नाकाम रहतीं। जब कभी मौका मिला या समय मिला तो किताबों की रैक को यूं ही खंगाला जाता। तब वह सूखे फूल एक ख्वाब की तरह नजरों से गुजर जाते। पता नहीं कितनी यादें लिए वह जमाना फिल्म की रील की तरह आंखों के सामने एक के बाद एक यादें लिए गुजरता जाता।
अब मोहब्बतें गुम हो गई हैं। एसएमएस और ईमेल का तथा इससे भी आगे बढ़कर फेसबुक का जमाना है। इन्हें जब भेजा जाता है तो इनमें दबे हुए सूखे फूलों की वह भीनी-सी महकती खुशबू नहीं होती। अब फूलों की क्यारियां भी तो नहीं दिखतीं। दूर-दूर तक रंगीनियत से भरे इठलाते-खिलते फूल कहीं दिखलाई नहीं पड़ते।
यहां तक कि वे किताबें भी कहां हैं, जिन्हें दोनों हाथों से थामकर दुपट्टे के नीचे दबाए क्लास रूम में दाखिल हुआ जाता था। आजकल नोटबुक्स के नोट्स की अदला-बदली नहीं होती कि सूखे फूल कोई पैगाम ले आएं या ले जाएं।
कोई जरूरी मसला कहना होता है तो ई-मेल से फॉरवर्ड कर दिया जाता है। अब! इस ई-मेल को कहां तक सेव करके इसमें सूखे फूलों की खुशबू सूंघेंगे?
ख्याल आ रहा है कि अहमद फराज होते तो आज किताबों की इस गैर-मौजूदगी पर क्या गजल कहते? कंप्यूटर पर ई-मेल से या मोबाइल पर भेजे एसएमएस से भेजे मुहब्बत के संदेशों में किन सूखे फूलों से उस अल्हड़ मोहब्बत की याद करते? वाकई हम बिछुड़ गए हैं। मुहब्बतें भी खो गई हैं। फूल भी तो कंप्यूटर या मोबाइल पर खिलकर सूखकर बेशुमार यादों का पिटारा खोल नहीं सकते। कहां हैं वे फूल, कहां हैं? वे किताबें कहां हैं? (myhindiforum.com से साभार)

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