Friday 31 October 2014

रामकुमार कृषक


कपड़ा-लत्ता जूता-शूता जी-भर पास नहीं
भीतर आम नहीं हो पाता, बाहर ख़ास नहीं
जिए ज़माने भर की ख़ातिर, घर को भूल गए
उर-पुर की सीता पर रीझे, खीजे झूल गए
राजतिलक ठुकराया, भाया पर वनवास नहीं
भाड़ फोड़ने निकले इकले, हुए पजलने को
मिले कमेरे हाथ/ मिले पर खाली मलने को
धँसने को धरती है उड़ने को आकाश नहीं
औरों को दुख दिया नहीं, सुख पाते भी कैसे
कल परसों क्या यों जाएंगे, आए थे जैसे
गुज़रे बरसों-बरस, गुज़रते बारह मास नहीं ।



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