Wednesday 8 April 2015

पहले मीडिया मिशन था, अब धंधा / रामानंद सिंह रोशन

बिहार के ईमानदार और जुझारू वरिष्ठ पत्रकार रामानंद सिंह रोशन कारपोरेट मीडिया के राज में ग्रामीण पत्रकारों की गुलाम-दशा देखकर हैरत में हैं। मजीठिया मामले पर तो कोई बात करते ही वह विक्षुब्ध होकर मालिकानों पर बरस पड़ते हैं। उन्हें उन पत्रकारों पर भी गुस्सा आता है, जो इतने गंभीर मामले पर खुल कर सामने आने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं। 
रामानंद सिंह एक पत्रकार संगठन के राष्ट्रीय स्तर के पदाधिकारी भी हैं लेकिन उस संगठन से भी परेशान पत्रकारों के हक और हित के लिए कोई बड़ा आंदोलन खड़ा होने की कोई उम्मीद नहीं करते हैं। इन दिनो खासकर प्रिंट मीडिया गांव-देहात के पत्रकारों का कितनी तरह से शोषण कर रहा है, उसे देखते-जानते हुए उनके लिए कुछ न कर पाने से वह अत्यंत व्यथित हैं। कहते हैं, क्या करें, कोई इन पत्रकारों के दुख-दर्द को सुनना ही नहीं चाहता है। मुझे 25 वर्ष हो गए पत्रकारिता में। सन् 1990 तक लगता था कि मीडिया का मतलब समाज और देश के प्रति सेवा और सम्मान। अब लगता है मीडिया का मतलब अपमान। अब मीडिया धंधा है। उद्योगपतियों के अखबार खबरें भी कम, विज्ञापन ज्यादा बेचने लगे हैं। नीचता की हद है। हर पर्व-त्योहार पर सौ सौ रुपए के विज्ञापन में कुछ भी बेच देते हैं। बिहार में 'हिन्दुस्तान', 'जागरण', 'प्रभात खबर' आदि अखबार पत्रकारों नियुक्ति सिर्फ सरकुलेशन और विज्ञापन देने की शर्त पर करते हैं। अस्सी प्रतिशत पत्रकारों को ब्लैकमेलिंग के लिए लगाया जा रहा है। समाचार लिखने की योग्यता जरूरी नहीं। इसीलिए अब शोभना भरतिया, सुनील गुप्त, और उषा मारटिन ही पत्रकार के रूप में जाने जाते हैं। आज सत्ता और विपक्ष से लेकर प्रैसकौंसिल तक तमाशबीन बने हुए हैं। निर्धारित मानकों पर अब प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक दोनो तरह के मीडिया के रजिस्ट्रेशन की विधिवत निष्पक्ष जांच होनी चाहिए। संवाददाताओं की नियुक्ति का मापदंड होना चाहिए।
वह लिखते हैं कि गांव (प्रखण्ड) से जिला स्तर पर अखबार कार्यालय तक सिर्फ दो से तीन मीडिया कर्मियों को छोड़ बाकी सभी पत्रकारों को सिर्फ प्रकाशित प्रति समाचार के हिसाब से मात्र 12 रुपए और प्रकाशित प्रति फोटो के हिसाब से सिर्फ 60 रुपए दिए जा रहे हैं। इसके लिए उन्हें बारह-बारह घंटे एक मजदूर से भी गई-गुजरी हालत में भागदौड़ करनी पड़ती है।
रामानंद सिंह लिखते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों के वे संघर्षशील पत्रकार धन-मीडिया हाउसों के लिए सिर्फ खबरें और फोटो ही मुहैया नहीं कराते, बल्कि उन पर सरकुलेशन की गलाकाटू मुठभेड़ का जिम्मा निभाना पड़ता है। एक-एक अखबार बढ़ाने के लिए अपनी रोजी-रोटी की दुहाई देकर उन्हें एक-एक पाठक की तलाश के साथ उनके आगे रिरियाते हुए आरजू-मिन्नत करनी पड़ती है। किसी भी कारण से (भले किसी पुराने पाठक की मौत ही क्यों न हो जाए ), एक भी प्रति कम हो जाने पर अखबार के मुख्यालयों में बैठे सफेदपोश ऐसे दाना-पानी लेकर दौड़ा लेते हैं, जैसे उस पत्रकार ने पता नहीं कितना बड़ा अपराध कर दिया हो। ये हालत किसी एक अखबार के पत्रकार की नहीं, बल्कि ज्यादातर बड़े अखबार इसी तरह गांव-देहात के पत्रकारों का खून पीकर मुस्टंड हुए जा रहे हैं।
रामानंद सिंह का कहना है कि गांव-देहात के पत्रकारों को समाचार, फोटो और सर्कुलेशन की जिम्मेदारी नहीं उठानी पड़ती है, बल्कि बारहो महीने, प्रतिदिन विज्ञापन के लिए उन्हीं लोगों के आगे हाथ पसारना पड़ता है, जिनकी घटिया करतूतें क्षेत्र में चर्चा का विषय बनी हुई होती हैं। इस तरह सीधे तौर पर अखबार अपराध-वृत्ति को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभा रहे हैं। पुलिस, माफिया, अपराधियों से तालमेल बनाए हुए ऐसे लोगों से विज्ञापन के लिए पत्रकारों को अनुनय-विनय और याचना करनी पड़ती है, जिनकी हरकतों से क्षेत्र का एक-एक आदमी आजिज आ चुका होता है। विज्ञापन मिलते ही अखबार उनका घुमा-फिराकर महिमा मंडन करने लगते हैं। ऐसा भी देखने को मिलता है कि वे माफिया और समाजविरोधी तत्व गाहे-ब-गाहे कुछ लंपट किस्म के पत्रकारों का सम्मान कर खुलेआम लोगों की नजर में और ऊंचा उठने की कोशिशें करते रहते हैं। विज्ञापन देने वालों के बारे में यदि रिपोर्टर उनकी करतूतों पर पर्दा डालने के लिए सुंदर-सुंदर शब्दों में कोई खबर न लिखे तो रिपोर्टर को वे ऐसी ऐसी गालियों से नवाजते हैं कि सुनने वाले का सिर शर्म से गड़ जाए।
साफ साफ कहा जाए तो  अखबार का सर्कुलेशन बढ़ाने और माफिया तत्वों से विज्ञापन की उगाही करने के लिए गांव-देहात के रिपोर्टरों को 'कुत्ता' बन जाना पड़ता है। छुटभैये नेता, पुलिस वाले, धूर्त किस्म के कथित समाजसेवी उनका जीना दुश्वार किए रहते हैं। और तो और इन्हीं पत्रकारों के भरोसे अखबार के मैनेजर, संपादक अपने मालिकों से मोटे-मोटे पैकेज गांठते रहते हैं और जब वही पत्रकार उनसे मिलने के लिए उनके पास जाते हैं तो जैसे उन्हें बदबू मारते आदमी जैसा उनसे सुलूक किया जाता है। संपादक और मैनेजर तो दूर की बात, दोयम दर्जे के मीडिया कर्मी और मार्केटिंग वाले कर्मचारी भी उन्हें अपनी केबिन में घुसने से मना कर देते हैं।

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