Monday 22 December 2014

अमेरिकी कवि वाल्ट ह्विटमैन / अनुवाद लाल्टू

मैं देह का कवि हूँ और मैं आत्मा का कवि हूँ,
स्वर्ग के सुख मेरे पास हैं और नर्क की पीड़ाएँ मेरे साथ हैं,
सुखों को मैं बुनता हूँ और उन्हें बढ़ाता हूँ, दुःखों कों नई भाषा में बदल देता हूँ।
 मैं उतना ही स्त्री का कवि हूँ जितना कि पुरुष का,
और मैं कहता हूँ कि स्त्री होना पुरुष होने जैसा ही गरिमामय है,
और मैं कहता हूँ कि मानव की माँ से बड़ा कुछ नहीं होता।
 मैं संवृद्धि या गौरव के गीत गाता हूँ,
बहुत हो चुका बचना बचाना,
मैं दिखलाता हूँ कि आकार महज परिवर्तन है।
 तुम क्या औरों से आगे बढ़ गए हो? राष्ट्रपति हो क्या?
यह छोटी बातें हैं, सब आते ही आते रहेंगे और गुज़र जाएँगे।
 मैं वह हूँ जो नाजुक और बढ़ती रातों के साथ चलता हूँ,
 रात के शिथिल आगोश में धरती और समंदर को मैं पुकारता हूँ।
और पास आ, ओ खुले सीने वाली रात – और पास आ
जिजीविषा बढ़ाती चुंबकीय रात!
दख्खिनी हवाओं वाली रात – थोड़े से बड़े तारों वाली रात!
अब तक जगी रात – ऐ नंगी पागल गर्मियों की रात।
 ऐ ठंडी साँसों वाली विशाल धरती, मुस्करा!
ऊँघते और पिघलते पेड़ों वाली धरती!
बीते सूर्यास्त वाली धरती - धुंध भरे पर्वत शिखरों वाली धरती!
काँच सी चमकती हल्की नीली पूर्णिमा की चाँदनी वाली धरती!
नदी के ज्वार की चमक और छाया वाली धरती!
मेरे लिए साफ चमक उठते धूमिल बादलों वाली धरती!
सुदूर को आगोश में लेने वाली धरती - खिलते सेवों की गाढ़ी सुगंध वाली
धरती!
मुस्करा कि तेरा आशिक आया है।
 ऐ अखूट दानी, तूने मुझे प्यार दिया है - इसलिए मैं भी तुझे प्यार देता हूँ!
 ओ अवाच्य अगाध प्रेम!

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