Sunday 1 March 2015

गरीबों की होली/जयप्रकाश त्रिपाठी

बिना जंग के जैसे सीने में गोली, गरीबों की होली, गरीबों की होली।
इधर से सलाखें, उधर से सलाखें, सुबकते सुबकते हुईं लाल आंखें,
सिलेंडर मिलेगा तो गुझिया बनेगी,
रखे रह गए ताख पर झोला-झोली,
गरीबों की होली, गरीबों की होली...

न हलुआ, न पूरी, मुकद्दर सननही, थके पांव दोनो, फटी-चीथ पनही,
लिये हाथ में अपने झाड़ू या तसला, सुनाये किसे जोंक-जीवन का मसला,
न कुनबा, न साथी-संघाती, न टोली,
बीना आग-राखी, बिना रंग-रोली,
गरीबों की होली, गरीबों की होली...

न मखमल का कुर्ता, न मोती, न हीरा, रटे रात-दिन बस कबीरा-कबीरा,
रहा देखता सिर्फ सपने पुराने, नहीं जान पाया मनौती के माने,
मुआ फाग बोले अमीरो की बोली,
ये दिन, कांध जैसे कहारों की डोली,
गरीबों की होली, गरीबों की होली...
('जग के सब दुखियारे रस्ते मेरे हैं' से उद्धृत)

No comments:

Post a Comment