Sunday 30 June 2013

हिन्दी-साहित्य के पिछले डेढ़ सौ वर्ष


मदनमोहन तरुण

हिन्दी भारत की सबसे बड़ी आबादी की भाषा है, जिसे बोलने वाले लोग इस विशाल देश के विभिन्न भागों में फैले हुए हैं तथा उनकी अपनी-अपनी बोलियों या उपभाषाओं की समृद्ध साहित्यिक तथा सांस्कृतिक परम्पराएं हैं। हिन्दी अपने इन विविध रूपों-नामों में कभी सिद्धों-नाथों की रहस-साधना, वीरगाथाकाल के राष्ट्राभिमानपूर्ण उद्बोधनों, संतों की क्रांतचेता वाणी, सूफियों की प्रेमगाथाओं, भक्तिकाल की मूल्यचेता एवं सर्वसम्पन्न अमर कृतियों, रीतिकाल के मांसल सौन्दर्य में रमणशील एवं उसकी भाषा के अलंकरणों में रंजित-गुंजित इस देश की मिट्टी, मौसम हरियाली, मरुस्थली, पहाड़ी, मैदानी, शीत-आतप, भीड़-एकांत, नगर-गांव, सबमें रचती-बसती हुई सदियों-सहस्राब्दियों से भारत के अपार जनगण के जीवन के दुख-दर्द, हर्षाेल्लास, जय-पराजय, स्वप्न-संकल्पों को वहन करती हुई निरन्तर चेतना की अन्तर्धारा-सी प्रवाहित रही है।
प्रसार की दृष्टि से बहुक्षेत्रीय होने के कारण हिन्दी भाषा के विकास का इतिहास ठीक वैसा ही नहीं है, जैसा भारत की अन्य एक क्षेत्रीय भाषाओं का। आज हिन्दी का जो रूप प्रचलित है, वह राजस्थानी, ब्रज, अवधी, मैथिली, भोजपुरी, मगही, बुन्देलखंडी आदि अनेक बोलियों या भाषाओं का समन्वित, निरन्तर एवं स्वाभाविक विकास है। विकास की यह प्रक्रिया आज भी जारी है और वह अपेक्षया अधिक जटिल है, क्योंकि हिन्दी बोलने वालों की संख्या का व्यापक विस्तार हुआ है तथा इसकी शब्दावली, वाक्यविन्यास अभिव्यक्ति-पद्धति पर भारत की दक्षिण, पूर्वी, पश्चिमी आदि समस्त भाषाओं का प्रभाव पड़ रहा है। जगदम्बा प्रसाद दीक्षित तथा मनोहरश्याम जोशी के उपन्यासों में इस प्रकार की भाषा के कई रूपों को देखा जा सकता है। इस दृष्टि से हिन्दीतर भाषी हिन्दी-लेखकों की भाषा का अध्ययन बहुत रोचक होगा। आज ‘न’ ‘र’ ‘स’ के विभिन्न रूपों, ह्रस्व इकारान्त शब्दों तथा संस्कृत से हटकर तदभव शब्दों की खोज की बढ़ती प्रवृत्ति में इसके भावी रूप की कल्पना की जा सकती है। 10वीं शताब्दी से अब तक अपने विधायक तत्वों की इन्हीं विशेषताओं के कारण हिन्दी कई बार देश-विदेश के विद्वानों की भ्रांति का कारण बनी है, परन्तु अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण एक ओर जहां वह अतिशय प्राचीन है, वहीं दूसरी ओर अतिशय नवीन भाषा भी।
भारतेन्दुकाल (1850-1900) तक आते-आते हिन्दी गद्य अभिव्यक्तिक्षम हो चुका था तथा कविता समय के नये दबावों को झेलती हुई अपने पुराने चोले को बदलकर नया अवतार ग्रहण करने की चेष्टा कर रही थी।
इस काल तक आते-आते मुगलसत्ता का पर्यवसान भारत की एक और पराधीनता में हो चुका था, परन्तु ब्रिटिश सत्ता बिना किसी प्रकार के रक्तपात के भारतीय अर्थतंत्र को अपने नियंत्रण में लेती हुई एवं तज्जन्य लाभार्थ स्रोतों- रेल, तार, डाक, शिक्षा प्रणाली, अंग्रेजी शिक्षण का विस्तार, ज्ञान-विज्ञान, न्याय-व्यवस्था, शासन-प्रशासन आदि को नये रूपों में ढालती हुई पूरे भारत में फैल गयी तथा इसने भारत के तन पर ही नहीं, उसकी मानसिकता एवं चिंतन प्रणाली पर भी गहरा प्रभाव डाला। इस सुनियोजित व्यवस्था ने भारतीय परम्परागत जीवनदृष्टि, मूल्य-चेतना, धर्म-संस्कृति, साहित्य, कला, सृजन की अन्य विधाओं को भीतर से आन्दोलित कर एक नूतन मध्यवर्ग का निर्माण किया, जिसकी महत्वाकांक्षाओं का रूप भिन्न था।
राजा राममोहन राय के नेतृत्व में बंगाल में एक-नूतन क्रांति का समारम्भ हो चुका था तथा वह ध्ीीरे-धीरे पुनर्जागरण आन्दोलन के रूप में पूरे भारत में फैल चुका था। रूढ़िवादी शक्तियों के विरुद्ध यह नयी शक्तियों के सक्रिय प्रसार का समय था। एक ओर भारतीय समाज जहां नये विचारों के प्रति ग्रहणशील हो रहा था, वहीं वह अपने अतीत के समृद्ध गौरवपूर्ण एवं सार्थक अध्यायों से शक्ति-संचित कर अपेक्षया एक आधुनिक शक्ति और नयी चुनौती के सामने तनकर खड़े रहने की जमीन ढूँढ़ रहा था और अपना ‘परिष्कार’ भी कर रहा था।
इन्हीं स्थितियों में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिन्दी भाषा एवं साहित्य के माध्यम से जनजीवन की नूतन अपेक्षाओं को वाणी एवं दिशा-दर्शन का व्रत लिया। 1826 में (30 जनवरी, सम्पादक युगलकिशोर सुकुल) में हिन्दी के प्रथम साप्ताहिक पत्र ‘उदंत मार्तण्ड’ का प्रकाशन हो चुका था। इस पत्र के तीसरे अंक में प्रकाशित एक पत्र में इसे- उदन्तमार्तण्डोदयकार पाश्चात्य ज्ञानोपदेशकेषु- की गुणवत्ता से संबोधित किया गया है, जो उस समय की मांग और झुकाव का प्रतीक है। उस समय तक हिन्दी भाषा का कोई स्वरूप स्थिर नहीं हो सका था, तथा उस पर क्षेत्रीय बोलियों का व्यापक प्रभाव था। इसी कड़ी में 1845 में राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द द्वारा प्रकाशित ‘बनारस अखबार’ की उर्दू-बहुल हिन्दी पर टिप्पणी करते हुए मुंशी शीतल सिंह नाम के सज्जन ने लिखा था- ‘बनारस में इक जो बनारस गजट है, इबारत सब उसकी अजब ऊटपट है। दूसरी ओर राजा लक्ष्मण सिंह शुद्ध भाषा (उर्दू-फारसी प्रभाव से मुक्त) के पक्षधर थे। ऐसी स्थिति में भारतेन्दु ने लोकजीवन में प्रचलित भाषा के साधु स्वरूप का आदर्श स्वीकार किया तथा साहित्य की विधाओं में लोक कला के विविध रूपों (लावणी, भाण, प्रहसन, मुकरी, रसिया, कजरी आदि), यहां तक की पारसी थियेटर के लोकग्राही रोचक पक्षों की स्वीकृति की ओर भी अपना द्वार खुला रखा। दूसरी ओर उन्होंने विषय की दृष्टि से नूतन मध्यवर्ग की अपेक्षाओं का सम्मान करते हुए ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में पाश्चात्य साहित्य की उपलब्धियों से भी अपनी भाषा को सम्पन्न करने का प्रयास किया। भारतेन्दु ने साहित्य को मनोरंजन की सीमाओं से बाहर निकाला तथा उसे सामाजिक दायित्वों के संवाहक के रूप में विकसित किया। अपने लेखकों को ज्ञान-विज्ञान, भूगोल-इतिहास, विधि आदि समस्त उपयोगी विषयों पर भी लिखने को प्रेरित एवं प्रोत्साहित किया। अपने ही जैसे समर्पित लेखकों की एक मंडली का गठन कर उन्होंने हिन्दी पत्रकारिता को बहुमुखी आन्दोलन का रूप दे दिया। हिन्दी भाषा और साहित्य की समृद्धि के लिए भारतेन्दु ने अनुवाद तथा मौलिक सृजन, दोनों ही को प्रोत्साहित किया। भारतेन्दु काल में खड़ीबोली को पूर्णतः कविता की भाषा बनने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हो सका, परन्तु विषय की दृष्टि से वह अपने समय की सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक तथा राष्ट्रीय सच्चाइयों का दर्पण बन सकी। इस काल की व्यंग्यात्मक कविताएं पाठकों के लिए एक नया अनुभव थीं।
भारतेन्दुकाल में कहानी तथा ललित निबन्ध का सीमांकन नहीं हो पाया था, परन्तु हिन्दी का पहला उपन्यास, लाला श्रीनिवास दास का ‘परीक्षागुरु’ (1882) इसी युग में प्रकाशित हुआ। यह अंग्रेजी उपन्यासों की पद्धति पर लिखा गया एक व्यवस्थित उपन्यास है, जिसमें पाश्चात्य वस्तुओं के संग्रह के लिए अपना सब कुछ लुटा देने वाले युवक के साथ उस युग की भी कहानी है, जो विभिन्न स्तरों पर परिवर्तन के दौर से गुजर रहा था। इस युग का अगला उल्लेखनीय उपन्यास चन्द्रकान्ता (1988) बाबू देवकीनन्दन खत्री के द्वारा लिखा गया। मूलतः यह एक प्रेमकथा है, किन्तु इसमें हिन्दी भाषा की सरलता और स्वाभाविकता तथा किस्सागोई की कला का विकास भी समन्वित है, जिसका स्वच्छतम रूप आगे चलकर प्रेमचन्द के कथासाहित्य में व्यक्त हुआ। वर्णन कौशल, तिलस्म और ऐयारी की रोचकता के कारण इस उपन्यास ने हिन्दी को एक विशाल पाठक वर्ग से जोड़ दिया। इस काल के दूसरे महत्वपूर्ण उपन्यासकार गोपालराम गहमरी हैं, जिन्होंने द्विवेदीकाल तक सौ से भी ऊपर जासूसी उपन्यास लिखे। हिन्दी में अच्छे जासूसी उपन्यास लिखने की परम्परा आगे नहीं बढ़ सकी, सम्भवतः इसलिए कि सामाजिक उपन्यास लेखन के क्षेत्र में जितनी बड़ी विभूतियां आईं और उन्हें जिस प्रकार का पाठक वर्ग मिला, वैसा ही पाठक वर्ग यह विधा निर्मित नहीं कर सकी। हिन्दी का जासूसी उपन्यास साािहत्य अनुकरणजीवी, फार्मूलाबद्ध तथा व्यावसायिक बनकर रह गया। वैज्ञानिक उपन्यासों की स्थिति भी वैसी ही रही। जो द्वितीय या तृतीय श्रेणी की प्रतिभाएं इस ओर उन्मुख हुई, उनमें ऐसे क्षेत्र, जिस में गंभीर अध्ययन की आवश्यकता होती है, साथ ही उसे सृजनात्मक सांचे में समाविष्ट करने की जो क्षमता अपेक्षित होती है, वह नहीं हो सका। हमारे सृजनात्मक लेखन क्षेत्र में वैज्ञानिक तथा तकनीकी क्षेत्र के लोगों का गंभीर अभाव है।
अन्य विधाओं में इस युग के लेखकों ने संस्कृत, अंग्रेजी तथा बंगला के नाटकों के अनुवाद के साथ-साथ मौलिक नाटक भी लिखे। भारतेन्दु की क्रांतचेता प्रतिभा से ‘भारत दुर्दशा’ तथा ‘अंधेर नगरी’ जैसे समसामयिक विषयों पर चुभती टिप्पणी करने वाले यथार्थजीवी नाटक प्रसूत हुए, जिनमें नाट्यशास्त्र के प्रावधानों से हटकर जनजीवन के उन वर्गाें को मंच प्रदान किया गया, जो इस प्रतिष्ठा से सदैव प्रवंचित थे। हिन्दी गद्य के विकास काल में प्रस्तुत ये नाटक हिन्दी भाषा की असाधारण क्षमता के अनूठे दस्तावेज हैं। इन नाटकों के पात्र हमारे विरूपित जीवनमूल्य हैं।
इस युग की साहित्यिक समृद्धि तथा जनजागरण में स्वयम् भारतेन्दु द्वारा सम्पादित कविवचन सुधा, हरिश्चन्द्र मैगजीन तथा हरिश्चन्द्र चन्द्रिका, बालकृष्ण भट्ट द्वारा सम्पादित ‘हिन्दी-प्रदीप’ तथा प्रतापनारायण मिश्र के ब्राह्मण का महत्वपूर्ण योगदान है। इनके साथ ही इस युग के अन्य लेखकों में बदरीनारायण चौधरी प्रेमघन, राधाचरण गोस्वामी, अम्बिकादत्त व्यास, काशीनाथ खत्री, राधाकृष्णदास तथा कार्तिक प्रसाद खत्री महत्वपूर्ण हैं, जिनका लेखन इस काल की सीमा के बाद भी चलता रहा।
1903 में ‘सरस्वती’ का सम्पादन भार सम्हाल कर, पुरातन-नूतन, पूर्व-पश्चिम की ज्ञान सम्पदा से सुपरिचित एवं सुदृढ़ व्यक्तित्व के धनी महावीर प्रसाद द्विवेदी ने हर प्रकार से हिन्दी साहित्य का युगान्तकारी नेतृत्व किया। द्विवेदी जी ने ‘सरस्वती’ को अपने युग की अपेक्षाओं एवं आवश्यकताओं का परिपूरक तो बना ही दिया, उन्होंने भाषा और विचार दोनों ही क्षेत्रों में इसे नयी सम्पन्नता प्रदान की। हिन्दी भाषा का मानकीकरण, हिन्दी कविता में खड़ीबोली की प्रतिष्ठा एवं उसकी वैचारिक क्षमता का अभिवर्धन, द्विवेदी युग की वह देन है, जिसके प्रति हिन्दी भाषा और साहित्य का प्रेमी उनका सदा ऋणी रहेगा।
1912 में ‘भारत-भारती’ का प्रकाशन कर इस युग के सबसे बडे़ कवि मैथिलीशरण गुप्त ने अपने समय के कवियों का यह भ्रम दूर कर दिया कि खड़ीबोली में कविता नहीं लिखी जा सकती। 1914 में अयोध्यासिंह उपाध्याय ने ‘प्रियप्रवास’ शीर्षक से हिन्दी का प्रथम प्रबन्ध काव्य प्रस्तुत किया। यह कृष्णकाव्य के प्रति कवि का नया दृष्टिकोण है। यहां राधिका अपनी परम्परागत भूमिका से अलग एक सक्रिय नूतन मानवीय भूमिका में है। भाषा की कोमलता इसकी अन्य विशेषताओं में एक है, परन्तु छंद और भाषा दोनों ही की दृष्टि से पूर्णतः संस्कृत-निर्भर यह महाकाव्य अपनी कोई परम्परा नहीं बना सका, बल्कि द्विवेदी जी के निबन्ध ‘कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता’ से प्रभावित होकर गुप्त जी ने आगे चलकर ‘साकेत’ जैसा महाकाव्य लिखा, जो भाषा, अभिव्यक्ति, मौलिक विषय-प्रतिपादन, चरित्रों के प्रति मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण- हर प्रकार से हिन्दी की नूतन क्षमताओं का प्रशंसनीय प्रकाशन था। गुप्त जी की अगली कृति ‘यशोधरा’ में भी बुद्ध की जगह यशोधरा को महत्व प्रदान किया गया था। यह स्त्री के प्रति बदलते दृष्टिकोण का बिगुलनाद था। यह नयी सम्भावनाओं की स्पष्ट आहट थी।
गुप्त जी के साथ श्रीधर पाठक और रामनरेश त्रिपाठी इस युग के दूसरे उल्लेखनीय कवियों में हैं। त्रिपाठी जी ने पौराणिक विषयों से अलग हटकर देश-दशा के चित्रण को अपना विषय बनाया। प्रकृति का स्वतंत्र, प्रतीकात्मक, मानवीकरण एवं सहज-स्वाभाविक चित्रण उनकी उन विशेषताओं में है, जिनमें छायावाद के चरणों की आहट सुनाई पड़ने लगी थी जो मुकुटधर पाण्डेय की कविताओं में तनिक और स्पष्ट हुई।
कहानी विधा के समारम्भ का श्रेय भी द्विवेदी युग को प्राप्त है। वैसे कहानी लिखने का प्रयास स्वयम् भारतेन्दु ने भी किया था, परन्तु उस समय तक कहानी और ललित निबन्ध के बीच सीमा रेखा नहीं खींची जा सकी थी। हिन्दी की पहली कहानी कौन-सी है- यह विषय विवादों से परे नहीं है, परन्तु अब सरस्वती (1900) में प्रकाशित किशोरीलाल गोस्वामी की ‘इन्दुमती’ को पहली कहानी के रूप में स्वीकार लिया गया है। प्रारंभ में कहानी के विकास की गति मन्द रही, परन्तु 1915से 18 तक यह स्वतंत्र विधा के रूप में प्रतिष्ठापित हो गयी। इस बीच राजा राधिकारमण सिंह, जयशंकर प्रसाद की कहानियां प्रकाशित हुईं, परन्तु 1915 में चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी ‘उसने कहा था’ के प्रकाशन ने हिन्दी कथा-साहित्य को अभिव्यक्ति के उच्च धरातल पर पहुंचा दिया। प्रथम विश्वयुद्ध की पृष्ठभूूमि में प्रत्यगदर्शन पद्धति पर लिखी गयी यह मार्मिक प्रेम और त्याग की अविस्मरणीय कहानी भाषा के स्वाभाविक एवं यथार्थपरक प्रयोग के लिए भी याद की जाती है। ‘उसने कहा था’ प्रभाव और कथा विन्यास की दृष्टि से आज भी हिन्दी की श्रेष्ठतम कहानियों में है। हिन्दी कहानी का उत्कर्ष सही अर्थाें में प्रेमचंद में व्यक्त हुआ जिसे उन्होंने ग्रामीण भारत का दर्पण और सामाजिक सच्चाइयों का दस्तावेज बना दिया। नमक का दरोगा, बड़े घर की बेटी और पंचपरमेश्वर तक प्रेमचंद सामाजिक आदर्शीकरण के प्रति पूर्णतः आस्थावान थे। वे बुराइयों के लिए व्यक्ति को दोषी मानकर चले थे। मूलतः आदमी की अच्छाइयों में उनकी गहरी आस्था थी, परन्तु समय क्रम में उनकी यह आस्था चूर्ण-विचूर्ण होती चली गयी। हमारी पूरी व्यवस्था में विषमता और शोषण के विधायक तत्वों की मजबूत पकड़ के सामने आदर्शाें के प्रति अटृट आस्था कमजोर आदमी की रक्षा में समर्थ नहीं थी, यहां तक कि उसके आदर्श और उसकी आस्था के तत्वों की आमूल-चूल पुनर्समीक्षा की आवश्यकता थी। ‘पूस की रात’ और ‘कफन’ तक आते-आते प्रेमचन्द की आस्थाएं चूर्ण-विचूर्ण हो चुकी थीं, परन्तु यह विकास द्विवेदी युग के पश्चात् सम्पन्न हुआ। बेचन शर्मा उग्र की कहानी चॉकालेट सच्चाइयों की स्वीकृति एवं उसकी अभिव्यक्ति के प्रति नूतन साहस के उदय का संकेत है। दृष्टि का यह निर्मम खुलापन आगे चलकर यशपाल में व्यक्त हुआ।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि भारतेन्दु युग में श्रेष्ठ गद्य-लेखन का समारम्भ हो चुका था, सृजनात्मक एवं ज्ञानात्मक क्षेत्र की समृद्धि के प्रयास भी पूरी निष्ठा के साथ किये जा चुके थे, परन्तु सही अर्थाें में इस दिशा में द्विवेदी युग का अवदान अत्यंत महत्वपूर्ण है। सम्पादन कला के आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने जहां एक ओर पूरी दृढ़ता के साथ खड़ीबोली के प्रयोग में व्याप्त व्याकरणगत अराजकता का निवारण कर, प्रयोगतः उसका मानकीकरण एवं सुस्थिरीकरण किया, साथ ही दूसरी ओर उन्होंने ‘सरस्वती’ को देश-विदेश की उल्लेखनीय गतिविधियों का संवाहक बना दिया। यही कारण है कि सरस्वती मात्र एक पत्रिका नहीं, एक पूरा युग है। रामचन्द्र शुक्ल, प्रेमचन्द, जयशंकर प्रसाद, मैथिलीशरण गुप्त, रामनरेश त्रिपाठी, माखनलाल चतुर्वेदी, काशीप्रसाद जायसवाल, माधवप्रसाद मिश्र, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, श्यामसुन्दर दास, पद्मसिंह शर्मा, सरदार पूर्णसिंह, बनारसीदास चतुर्वेदी, राजा राधिका रमण सिंह आदि ऐसे नाम हैं, जिनमें कुछ की प्रतिभा उसी युग में अपनी भास्वरता से हिन्दी को समृद्ध करती रही और कुछ ने वहां से अपनी यात्रा का आरंभ कर आगामी युगों में हिन्दी के शिखरों को आलोकित किया।
द्विवेदी काल तक कविता और गद्य की भाषा करीब-करीब एक है क्योंकि उस समय तक दोनों ही सृजनात्मक से अधिक सूचना सम्प्रेषण एवं सामाजिक तथा राष्ट्रीय उद्बोधन के माध्यम थे। उनमें वैयक्तिक भावों और संवेगों की तीव्रता को अभिव्यक्ति का अवसर नहीं मिला। उसकी कल्पना का आकाश विस्तार और विविधता दोनों ही दृष्टियों से सीमांकित एवं परिबद्ध-सा था। किन्तु इस समय तक पूरे विश्व में नयी हलचलें शुरू हो चुकी थीं। राष्ट्रों की महत्वाकांक्षाओं का विकराल रूप प्रथम विश्वयुद्ध में व्यक्त हो चुका था। युवापीढ़ी यूरोप की उपलब्धियों से परिचित हो चुकी थी। स्वच्छन्दतावाद, यथार्थवाद से लेकर अतियथार्थवाद की गतिविधियों से वह अपरिचित नहीं थी। रवीन्द्रनाथ ठाकुर अपने नये ढंग की कविताओं के लिए व्यापक ख्याति प्राप्त कर चुके थे। स्वयम् द्विवेदी युग की कुछेक कविताओं में परिवर्तन की यह कसमसाहट दिखाई पड़ चुकी थी। प्रसाद और निराला अपना लेखन कार्य आरंभ कर चुके थे। अभिव्यक्ति की एक नयी भाषा और दिशा विकसित हो रही थी। भावानुभूति की संवेगात्मक तीव्रता, वैयक्तिकता, मानवीकरण और भावानुभूति का प्रतीकीकरण एवं परोक्षधर्मिता से संबलित कविता की इस धारा को छायावाद कहा गया। छायावाद भक्तिकाल के पश्चात् हिन्दी कविता का एक महिमामंडित शिखर है जो एक साथ जयशंकर प्रसाद, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, सुमित्रानन्दन पंत तथा महादेवी वर्मा की प्रतिभा के चतुर्मुखी आलोक से भास्वर हो उठा। छायावाद विषय-प्रधान कविता नहीं है, वह जीवन जगत के प्रति नूतनता के आग्रह से भरी हुई प्रबल संवेगों की कविता है जो अपनी यात्रा का समारम्भ वैयक्तिक भावनाओं की अभिव्यक्ति से करती है किन्तु अन्ततः विश्वमानस के विस्तार में समाकार हो जाती है। निराला रचित ‘राम की शक्तिपूजा’ तथा ‘सरोजस्मृति’ दो भिन्न कविताएं हैं, किन्तु वहां ‘खोने’ के बोध की तीव्रता एवं तज्जन्य आघात-प्रतिघात की एकीभूत चरमता है, जिसमें पूरे युग की व्यथा और द्वंद्व की अभिव्यक्ति हुई है। निराला का तुलसीदास जहां एक नूतन राष्ट ª की ऊर्जा का ज्योतिर्मय साक्षात्कार है, वहीं प्रसाद की ‘कामायनी’ कथातत्व की सूक्ष्मता में अपने युग की अपार महत्वाकांक्षाओं के विस्फोट से निष्पन्न ज्ञान, इच्छा तथा कर्मगत विच्छिन्नता, पराजय बोध तथा छले जाने की तीव्रानुभूति के बीच समरसता, आस्था या श्रद्धा की खोज का आग्रह प्रस्तुत करती है, जिसके बिना मनुष्य के सुख या आनन्द की खोज का प्रयास अर्थहीन है। सुमित्रानन्दन पंत कल्पना एवं प्रकृति के कोमल-कमनीय पक्ष के कवि हैं, जिन्होंने हिन्दी कविता को नयी भाषा दी। परन्तु पंत का यात्रापथ बहुत तेजी के साथ बदलता रहा है। कल्पना की रमणीयता के साथ-साथ अध्यात्म, राजनीति और सामाजिक यथार्थ के साक्षात्कार के तीव्र बोध के बीच इनकी कविता नये-नये रूप धारण करती रही है, जिसके कारण उनका मूल्यांकन कठिन-से-कठिनतर होता चला गया है। महादेवी अपेक्षया सीमित क्षेत्र की, परन्तु बहुत ही प्रभावशाली कवियित्री हैं।
छायावाद ने अपने लिए नयी भाषा का आविष्कार किया। उसकी अभिव्यक्ति के प्रवाह की तीव्रता में छंदों के बन्धन टूट-फूट गये। छायावाद समस्त बन्धनों से उन्मुक्त मानवात्मा की ऊंची उड़ान है, जिसकी दृष्टि से पृथ्वी का अपार वैभव, उसका दुःख-दर्द कभी ओझल नहीं होता।
छायावाद के समस्त कवियों ने कविता के साथ-साथ हिन्दी गद्य की विभिन्न विधाओं को भी अपनी लेखनी से समृद्ध किया। नाटक के क्षेत्र में प्रसाद का ‘चन्द्रगुप्त’ तथा ‘धु्रवस्वामिनी’, उपन्यास के क्षेत्र में ‘कंकाल’ और उनकी कहानियों में आने वाले युगों की सम्भावनाएं, शंकाएं और चुनौतियां व्यक्त हुई हैं। निराला अपने उपन्यासों में एक नयी जमीन ढूंढ़ते दिखायी देते हैं। वे छायावादी कवियों में व्यावहारिक समालोचना के सर्वाधिक सशक्त हस्ताक्षर हैं। महादेवी का संस्मरणात्मक साहित्य सर्वहारा के प्रति अपरिमित हार्दिकता और करुणा की सघन संवेदनक्षम अभिव्यक्ति है। सुमित्रानन्दन पंत की भूमिकाओं में उनके पौर्वात्य एवं पाश्चात्य विधाओं एवं युगीन प्रवृत्तियों का गहन अध्ययन और दृष्टिपूर्ण विश्लेषण व्यक्त हुआ है। पंत अपने युग की बहुविध हलचलों के प्रति इस विधा के सबसे सजग एवं संवेदनशील लेखक हैं।
छायावाद का पर्यवसान एक तीखे यथार्थबोध में हुआ। जिस निराला ने कभी सरस्वती वन्दना करते हुए नवल कंठ, नव जलदमंद्ररव’ की प्रार्थना की थी उसे ही आगे चलकर भिक्षुक, वह तोड़ती पत्थर और कुकुरमुत्ता जैसी कविताएं लिखनी पड़ीं। निराला और प्रेमचंद का भ्रमभंग कितना समान है। एक ने ‘कफन’ और ‘गोदान’ में अपना उपसंहार किया, तो दूसरे ने भिक्षुक, वह तोड़ती पत्थर और कुकुरमुत्ता में। सुमित्रानन्दन पंत जैसे सुकुमार कल्पना के कवि को कोकिल से अग्निकण बरसाने और शीर्ण अतीत के पत्रों को द्रुत गति से झड़ जाने का आग्रह करना पड़ा।
इस समय तक साहित्य की समस्त विधाओं में आत्ममंथन की प्रक्रिया तीव्र हो चुकी थी। माक्र्सवादी विचारधारा जीवन और जगत की नयी व्याख्या और नूतन सौन्दर्यबोध के द्वारा उस दुरभिसंधि के ताने-बाने तोड़ चुकी थी, जो आदर्श, धर्म आदि अनेक बड़े-बड़े नामों की आड़ में आदमी के चारों ओर बुनी गयी थी और स्वतंत्रता तथा आत्मनिर्भरता के झांसे में उसे निरन्तर दासता की जंजीरों में जकड़ती जा रही थी। सेवासदन, निर्मला, गबन, रंगभूमि, कर्मभूमि से होते हुए गोदान तक आते-आते प्रेमचंद का आदर्शवाद चूर्ण-विचूर्ण हो चुका था। जिस प्रेमचन्द ने सदा सुनियोजित कथाविन्यास के साथ अपनी कृतियों का मंगलाकांक्षी समापन किया था- वहीं वे गोदान की कथा उसी व्यवस्था के अटूट प्रवाह के साथ नहीं लिख सके। वहां पूरी कथा टूट-टूट कर चलती है और उसमें कई अवांतर कथाएं और विचारधाराएं, जीवन प्रणालियां आती-जाती रहती हैं। गोदान में सहज किस्सागोई नहीं है, पूर्वनिश्चित निभ्र्रान्त यात्रा नहीं है, वहां कहानी कई धाराओं में उलझती-सुलझती आगे बढ़ती है, तथा अंत में वह बिना किसी आश्वासन के एक अनिर्मित, अज्ञात भविष्य में दम तोड़ देती है। गोदान की पूरी कहानी सपनों के निरन्तर मौत की कहानी है। यह दुःख और पराजबोध की आश्वासन विहीन महागाथा है। प्रेमचन्द की ‘कफन’ कहानी का अंत इससे भी भयावह है? परिश्रम की निरर्थकता का बोध, आदर्शाें से छले जाने का बोध, असहायता और भविष्यविहीनता का तीव्र बोध, वह भी नशे में लड़खड़ता हुआ।
हिन्दी उपन्यास और कहानी की अगली कड़ियां अपनी-अपनी पद्धति से इसी का विकास है, जिसने समय की सच्चाइयों को अपने-अपने दायरों में व्यक्त करने का समर्थ प्रयास किया है। गोदान (1936) के प्रकाशन के आसपास ही भगवतीचरण वर्मा का उपन्यास चित्रलेखा (1934) प्रकाशित हुआ। चित्रलेखा का विषय पाप-पुण्य की पुनव्र्याख्या है। लेखक इसकी जांच परम्परागत प्रतिमानों पर नहीं करता, वह परिस्थितियों को इसके लिए उत्तरदायी मानता है। वर्मा जी का उपन्यास चित्रलेखा पाप-पुण्य या सेक्स संबंधी अवधारणा में आने वाले परिवर्तन एवं उसकी छानबीन के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण प्रारंभिक कड़ी है। इसी के आसपास राजा राधिकारमणसिंह के उपन्यास ‘राम-रहीम’ (1936) का प्रकाशन हुआ जिसमें बेला और बिजली के माध्यम से भारतीय तथा पाश्चात्य मूल्यों के अंतर को स्पष्ट किया गया है। 1937 में जैनेन्द्र के उपन्यास त्यागपत्र का प्रकाशन हुआ तथा 1935 में सुनीता का। त्यागपत्र हिन्दी का वह प्रथम उपन्यास है, जिसमें सतीत्व और पातिव्रत्य की अवधारणा को स्त्री की ओर खड़े होकर देखा गया है, तथा उसकी दुस्सह स्थितियों को मार्मिक तथा प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया गया है। जैनेन्द्र हिन्दी के ऐसे प्रथम उपन्यासकार तथा कहानीकार हैं, जिन्होंने इस दिशा में प्रेमचन्द से अलग हट कर एक नयी दिशादृष्टि निर्मित की है, जिसका विकास आगे चलकर नयी कहानी के रूप में हुआ, यद्यपि इसका सेहरा इस प्रचार युग में दूसरों के सिर पर बांधा गया है, जो सही नहीं है। जैनेन्द्र के उपन्यासों तथा कहानियों में कथातत्व का सहारा भर लिया गया है। वे अपने सुचिंतित कथ्य के सम्प्रेषण के लिए कहानी का उपयोग करते हैं, किन्तु उनका चिंतन वायवीय नहीं- जैसा कभी-कभी कहा जाता है। जैनेन्द्र की भाषा उनके चिंतन से समाकार होकर उसके सम्पन्न होने पर नहीं, उसकी प्रक्रिया में घटित होती चलती है। यही कारण है कि वह टुकड़ा-टुकड़ा है तथा एक साथ उसमें कई दिशाओं की ध्वनियां हैं। यही जैनेन्द्र की सफलता भी है और असफलता भी। जैनेन्द्र नागर जीवन के मध्यवर्ग के लेखक हैं जो बदलती परिस्थितियों में मानसिक और दैहिक नैतिकता अथवा सेक्स के कई विरोधी आयामों का सामना कर रहा था। व्यक्ति के प्रतिपक्ष में समाज की रूढ़ियां थीं। अज्ञेय के उपन्यास शेखरः एक जीवनी (दो भाग- 1941-44) में यह पक्ष सतेज तथा पूरी आक्रामकता के साथ सामने आया, जहां समाज और व्यक्ति, प्रेम और सेक्स, वर्जना और संवेग तथा रूढ़ि और विवेक के द्वंद्वों के बीच लेखक ने पूरी निर्भीकता के साथ संबंधों की गहरी जांच पड़ताल की।
इस समय तक स्वाधीनता आन्दोलन तीव्र-से-तीव्रतर हो रहा था। भारतीय राजनीति में तेजी से नयी घटनाएं घटित हो रही थी, साथ-ही-साथ सामाजिक जीवन एवं उसके मूल्यमानों में तेजी से परिवर्तन आ रहा था। कहानी और उपन्यास के विकास की अगली कड़ियां स्वाधीनोत्तर भारत से जुड़ी हैं, परन्तु इस बीच (छायावाद और प्रगतिवाद के बीच) हरिवंशराय बच्चन अपने वैयक्तिक जीवन के अनुभवों के गीतों के साथ आए। सरल भाषा सहज एवं स्वाभाविक शैली में प्रस्तुत उनकी मांसल प्रेम की कविताओं में पाठकों को नया रस मिला। यहां महादेवी के प्रणय संसार का अज्ञात अनुपस्थित था। कोई रहस्याच्छन्नता नहीं। सब कुछ साफ और स्पष्ट। बच्चन जी की कविताओं में खड़ी बोली का सहजतम रूप व्यक्त हुआ। गीतिविधा कभी हिन्दी-साहित्य की मुख्यधारा नहीं बन सकी, परन्तु उसकी रचना होती रही तथा बदलती परिस्थितियों में अपने को उसने अगीत कहना ज्यादा युक्तिसंगत माना। नीरज, बालस्वरूप राही, शम्भूनाथसिंह, नरेन्द्र शर्मा, वीरेन्द्र मिश्र, नईम, ठाकुर प्रसाद सिंह, भारतभूषण अग्रवाल, गोपालसिंह नेपाली आदि कई समर्थ नाम हैं, जो हिन्दी साहित्य की इस विधा की समृद्धि में अपना योगदान देते रहे। छायावाद की परवर्ती धारा के कवियों में जानकीवल्लभ शास्त्री का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीयहै।
छायावाद काल में तथा उसके अवसान के पश्चात् कई समर्थ कवि अपनी कविताओं के माध्यम से जनजीवन में राष्ट्रीय भावना जाग्रत करते रहे। इस दिशा में माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा नवीन, भगवतीचरण वर्मा, सुभद्राकुमारी चौहान आदि का महत्वपूर्ण स्थान है। रामधारीसिंह दिनकर इस धारा के तेजस्वी कवि हैं, जिनमें जन-जन के भीतर की स्वातंत्र्य चेतना, पराधीनता के प्रति आक्रोश और राष्ट्र गौरव की सतेज अभिव्यक्ति हुई। दिनकर की कविता हिन्दी भाषा की तेजस्विता की नयी चमक है, जिसकी प्राणवत्ता, ओजस्विता और साधिकार अभिव्यक्ति पाठक को भीतर से जाग्रत कर देती है। दिनकर की ओजस्विता में सूक्तियों का वैभव है। कुरुक्षेत्र में कविता और गद्य की भाषा एक हो गयी है। वहां उत्तेजन चिंतन में परिणत है, वहीं उर्वशी में रूप-रस के बीच कामाध्यात्म का दर्शन प्रस्तुत किया गया है। मैथिलीशरण गुप्त तथा रामधारी सिंह दिनकर हिन्दी के उन कवियों में हैं, जिनका रचनाकाल तो सुदीर्घ था ही, उनकी स्वीकृति भी बहुत व्यापक एवं दीर्घजीवी रही।
1943 में अज्ञेय के सम्पादन में तारसप्तक का प्रकाशन हुआ। संसार अब तक एक महायुद्ध का अनुभव कर चुका था और दूसरे महायुद्ध के दौर से गुजर रहा था। यह युद्ध पिछले समस्त युद्धों से भिन्न था। इसने नगर और आबादी का ही विनाश नहीं किया था, इसने मनुष्य को अनास्था, संत्रास, पराजयबोध, अनिश्चयता, भविष्यहीनता के साथ मूल्यराहित्य का भी तीखा बोध दिया था, जिसके कारण उसका अतीत अर्थहीन तथा वर्तमान भूकम्पमान हो चुका था। इसने मनुष्य की जीवन प्रणाली को ही बदल दिया। स्वयम् भारत की सुदृढ़ आस्थाओं को भी इसने हिला दिया तथा पूर्वनिश्चित जीवन या भविष्याकांक्षा की जगह सर्वत्र प्रयोगात्मक जीवन दृष्टि विकसित हुई। कवि-चिंतक, साहित्यकार, वैज्ञानिक सभी उन खोजों में लगे जिससे भविष्य रक्षित हो। नकेन इस विकास यात्रा की एक महत्वपूर्ण कड़ी है जिसके तीन कवियों- नकिनविलोचन शर्मा, केसरी कुमार तथा नरेश ने अपने को सही अर्थाें में प्रयोगवादी घोषित किया, परन्तु यह कविता जहां से चली थी, वहां से कभी आगे नहीं बढ़ सकी। तार सप्तक के कवियों को अज्ञेय ने राहों के अन्वेषी कहा था और यह सच भी है कि इस सप्तक के सभी कवि अलग-अलग दिशाओं से आकर एकत्रित हो गये थे। इस सप्तक की सफलता उसके सम्पादक की दृष्टिपूर्ण प्रस्तुति में थी। अज्ञेय अपने समय के साहस, विरोधाभास और दृष्टिसम्पन्नता के सबसे बड़े प्रतीक कहे जा सकते हैं। अज्ञेय ने एक ओर क्लासिक परम्परा की लम्बी कविता असाध्य वीणा लिखी तथा अपने उपन्यास अपने-अपने अजनबी में उन्होंने अस्तित्ववादी दर्शन को एक नया अर्थ दिया, दूसरी ओर उनकी कविताओं में भाषा के विविध रूपों का सामंजस्य हुआ। संस्कृत गर्भित शब्दावली के साथ अज्ञेय नितांत ग्रामीण तथा काव्य-संस्कारों से विहीन शब्दों का प्रयोग कर उससे नये अर्थ उत्पन्न करते हैं। उनकी कविता दो युगों की संधिबेला में लिखी गयी है इसलिए उसमें संध्या की लाली भी है, और धीरे-धीरे चारों ओर रिसता अंधेरा भी। अज्ञेय परिवर्तन के मर्म के गहरे जानकार कवि हैं।
इस युग की कई उल्लेखनीय काव्यकृतियां अपने विषय का चुनाव पौराणिक साहित्य से करती हुई उसे युगीन चुनौतियों, विडम्बनाओं और सत्य के नये आलोक में देखती हैं। धर्मवीर भारती का अंधायुग और कनुप्रिया, नरेश मेहता का संशय की रात, दुष्यंत कुमार का एक कंठ विषपायी, कुंवर नारायण का आत्मजयी तथा श्रीकान्त वर्मा कृत मगध, वीरेन्द्रकुमार जैन का पूरा रचना संसार तथा मुक्तिबोध के ेचांद का मुंह टेढ़ा है की अधिकतम रचनाओं के विधायक तत्व वहीं से सम्बद्ध हैं। नयी कविता के कई आयाम हैं। शमशेर बहादुरसिंह रूप, सौन्दर्य और आकार को उसकी अंतरंग लय के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं। धर्मवीर भारती, गिरिजा कुमार माथुर, जगदीश गुप्त, अशोक वाजपेयी आदि रोमानी संस्कारों के कवि हैं, भवानीप्रसाद मिश्र तथा केदारनाथसिंह में आस्थापक्ष बहुत ही मजबूत है वहीं राजकमल चौधरी में युग साक्षात्कार अपनी पूरी जुगुप्सा वीभत्सता तथा तीखी नकारात्मकता में व्यक्त हुआ है। कैलाश वाजपेयी, सौमित्र मोहन, जगदीश चतुर्वेदी में आक्रोश नाटकीय क्लाइमेक्स तक है। धूमिल अपेक्षया मुखर कवि हैं। उनका आक्रोश सूक्तियों में ढलता हुआ अविस्मरणीयता प्राप्त करता है, यही विशेषता आगे चलकर दुष्यंत कुमार की गजलों में व्यक्त हुई। गजानन माधव मुक्तिबोध नयी कविता के असाधारण क्षमता सम्पन्न कवि हैं। उनके बारे में श्रीकान्त वर्मा की यह टिप्पणी बहुत सही है कि वे आत्मा के जासूस हैं। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, रघुवीर सहाय, विजयदेव नारायण साही, केदारनाथ अग्रवाल, लक्ष्मीकान्त वर्मा, विष्णु खरे, लीलाधर जगूड़ी, गिरधर राठी, त्रिलोचन, प्रयाग शुक्ल, अरुण कमल, मंगलेश डबराल आदि इस यात्रा पथ के उल्लेखनीय यात्री हैं। आज नयी कविता भी एक रूढ़ि बन चुकी है। उसमें पुनरावृत्ति बहुत है। उसमें जिन्दगी की कतरनें हैं समग्र दृष्टि वहां दुर्लभ है। उल्लेखनीयता की उसमें कमी है। इन कवियों में नागार्जुन का उल्लेख अलग से करना उचित है। इनमें नयी और पुरातन अभिव्यक्ति का समर्थतम रूप व्यक्त हुआ है। केदारनाथ अग्रवाल और नागार्जुन उन कवियों में हैं जिन्होंने अपनी संवेदना को कभी सीमित होने नहीं दिया। वे नागर जीवन की अन्य विडम्बनाओं के साथ ग्रामीण जीवन के दुःख दर्द को भी उसी गहराई से व्यक्त करते रहे।
हिन्दी कहानी को प्रेमचन्द में दिशा और उत्कर्ष दोनों ही प्राप्त हुआ। बड़े घर की बेटी, नमक का दरोगा तथा पंच परमेश्वर के जीवनादर्शाें की विजय और कर्तव्यनिष्ठा के प्रति अगाध आस्था की यात्रा की परिणति कफन जैसी भयानक गुफा में हुई, जहां से कोई लौटकर वापिस नहीं आता। देश का स्वाधीनता का संग्राम जैसे-जैसे तीव्र होता गया, आशाएं बढ़ती गयीं, सपनों पर रंग चढ़ता गया, परन्तु देश की स्वाधीनता के पूर्व ही देश खंडित हो गया। आदमी के भीतर सोया हुआ दानव जाग उठा। विस्थापन ने हजारों लाखों को मौत के घाट उतार दिया, परिवार छिन्न-भिन्न हो गये, स्त्रियों की अस्मत लूटी गई और जिन्दगी को श्मशान बना दिया गया। भारतीय रचना-संसार को जितना इन घटनाओं ने प्रभावित किया, उतना न तो महायुद्धों ने और न अस्तित्ववाद ने। जिस अहिंसा ने सत्याग्रह से, दुनिया की तत्कालीन सबसे शक्तिशाली सेना से अपनी आजादी छीनी थी, उसे ही स्वाधीनता के मात्र एक साल के भीतर ही गोलियों से छलनी-छलनी कर दिया गया। स्वाधीनता के पूर्व के भारतीय जीवन के महतादर्शाें ने स्वाधीन भारत में समय की प्रगति के साथ घुट-घुट कर जीने के दिन देखेे। हिन्दी के सफलतम स्वाधीनोत्तर उपन्यासों का विषय भी यही रहा है। फणीश्वरनाथ रेणु का मैला आंचल, यशपाल का महाकाव्यात्मक उपन्यास झूठासच, भगवतीचरण वर्मा का भूले-बिसरे चित्र, अमृतलाल नागर का बूंद और समुद्र, नरेश मेहता का यह पथ बन्धु था, भीष्म साहनी का तमस, कमलेश्वर का कितने पाकिस्तान, राही मासूम रजा का आधा गांव, मंजर एहतेशाम का सूखा बरगद आदि ऐसे उल्लेखनीय उपन्यास हैं, जिनमें इन स्थितियों के विविध पहलू गहराई से व्यक्त हुए हैं। कहानियों में मोहन राकेश की एक ठहरा हुआ चाकू, मलवे का मालिक तथा परमात्मा का कुत्ता उन भयावह दिनों की मार्मिक स्मृतियों को साकार करने वाली कहानियां हैं। हिन्दी कहानियों का संसार इतना विशाल है कि उनका उल्लेख इस छोटे से लेख में सम्भव नहीं है, परन्तु जिन कहानियों ने भारतीय जीवन के बहुआयामी परिवर्तन, मूल्य चेतना, स्त्री के घर से बाहर आने की और पुरुषों के साथ ही, समस्त क्षेत्रों में भाग लेने एवं उसके अनेक पहलुओं, घर और दफ्तर, टूटते हुए परिवार, अकेलेपन और संत्रास की अनुभूतियों को अपने में समेटा है तथा उस तीखे एहसास को वाणी दी है, उनका यहां सांकेतिक उल्लेख भर किया जा सकता है- उपेन्द्रनाथ अश्क- कांकड़ा का तेली, डाची, यशपाल- आदमी का बच्चा, भीष्म साहनी- चीफ की दावत, अमरकांत जिन्दगी और जोंक, उषा प्रियंवदा- वापसी, फणीश्वरनाथ रेणु, तीसरी कसम, लालपान की बेगम, अगिन खोर, कमलेश्वर- दिल्ली में एक मौत, राजेन्द्र यादव, लक्ष्मी जहां कैद है, शिवप्रसाद सिंह- कर्मनाशा की हार, शेखर जोशी- कोसी का घटवार, मार्कण्डेय- हंसा जाई अकेला, मन्नू भंडारी- यही सच है, धर्मवीर भारती- गुल की बन्नो, कृष्णा सोबती- यारों के यार, विष्णु प्रभाकर- धरती अब भी घूम रही है, मेहरून्निसा परवेज- उसका घर, निर्मल वर्मा- परिंदे, प्रभु जोशी पितृऋण, राजकमल चौधरी- जलता हुआ मकान, एक अनार, एक बीमार, दूधनाथसिंह रीछ आदि कहानियों में स्वाधीनोत्तर भारत के जीवन में तेजी से आने वाले अन्तर्विरोधों को वाणी मिली है। इस दिशा में क्षमतावान नये हस्ताक्षरों की कमी नहीं है, किन्तु उनके अवदान का मूल्यांकन आने वाली पीढ़ी ही कर सकेगी। महिला लेखिकाओं में ममता कालिया, जया यादवानी, सूर्यबाला, चन्द्रकान्ता, मणिका मोहिनी, मेहरूनिसा परवेज, शिवानी आदि उल्लेखनीय हैं।
आज की कहानी उस सड़ी हुई मानसिकता या परम्परा के प्रति बगावत है जो व्यक्ति के विवेक की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। अज्ञेय ने इस विषय पर ‘रोज’ जैसी प्रभावशाली कहानी लिखी थी- आज उसका विशद विस्तार हुआ है। योनि की शुचिता में बंधी हुई नारी के मूल्यांकन के प्रतिमान बदले हैं। योज्ञता एवं दक्षता उसके मूल्यांकन के ठीक वैसे ही प्रतिमान हैं जैसे पुरुषों के। शराबी और परगामी पति की आंसू बहा-बहाकर प्रतीक्षा करने वाली, मार खाने वाली, विवाह के बाद ससुराल की देहरी के भीतर पांव रखने वाली और लाश के रूप में अर्थी पर निकलने वाली औरत, अपनी सत्ता में निराकारता को सार्थक मानने वाली औरत, आज नयी भूमिका में है। लज्जा उसका आभूषण नहीं, मातृत्व उसकी चरम सफलता नहीं। नौकरी उसके नये पति की भूमिका में है। उसके चारों ओर की खिड़कियां खुली हैं, जो बन्द हैं उसके विरुद्ध उसका संघर्ष जारी है। वह गर्भाशय से मुक्ति पाना चाहती है।
उपन्यास हिन्दी साहित्य की समृद्धतम विधाओं में है जिसमें भारतीय जीवन के सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनैतिक आदि पक्षों में व्याप्त होते तनावों एवं अन्र्तसंघर्षाें को उसकी व्यापक परिधि में प्रस्तुत किया गया है। राजनीतिक उपन्यासों की चर्चा ऊपर हो चुकी है। सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक परिवेश में जीवन के बदलते मानदण्डों और परिवर्तन के रेखांकन को प्रस्तुत करने वाले उपन्यासों में राहुल सांस्कृत्यायन के प्राक् ऐतिहासिक विषयों पर लिखे उपन्यास महत्वपूर्ण हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी का- वाणभट्ट की आत्मकथा, रांगेयराघव का मुर्दाें का टीला, लक्ष्मीकान्त वर्मा का टेराकोटा, यशपाल का दिव्या, वृन्दावन लाल वर्मा का- झांसी की रानी तथा मृगनयनी, राजीव सक्सेना का पणिपुत्री सोमा, चतुरसेन शास्त्री का वयम रक्षामः, वैशाली की नगरबधू, जानकीवल्लभ शास्त्री का कालिदास, वीरेन्द्र कुमार जैन का अनुत्तर योगी, नरेन्द्र कोहली के रामायण और महाभारत से सम्बद्ध उपन्यास तथा अमृतलाल नागर का खंजन नयन, मानस के हंस आदि उल्लेखनीय कृतियां हैं।
भारत जैसा विशाल देश एक साथ कई युगों, संस्कृतियों, मान्यताओं और विचारधाराओं में जीवन व्यतीत करता है। उसका साहित्य भी उसकी इस विशेषता से वंचित नहीं। इसमें चकित होने की कोई ऐसी बात नहीं है, जब एक ओर तो कोई निठाह ग्रामीण जीवन के पिछड़ेपन को व्यक्त कर रहा हो तो दूसरी ओर उत्तर आधुनिकता की बात की जा रही हो। सच तो यह है कि यह भारतीय साहित्य की सबसे स्वाभाविक पहचान है। बून्द और समुद्र की चित्रा राजदान तथा वनकन्या और ताई उसके अलग-अलग छोर हैं। इसी प्रकार यशपाल के झूठा सच की तारा जो अनेक बलात्कारों के बावजूद विकट-से-विकट परिस्थितियों से समझौता नहीं करती हुई अपने केरीयर की ऊंचाइयों पर पहुंचती है, वहीं बंती परम्परा की देहरी पर अपना सिर पटकती-पटकती जान दे देती है, मनोहर श्याम जोशी के उत्तर आधुनिकता की सड़क से गुजरती नायिका पहुंचेली एक ही साथ माता आनन्दमयी, छिन्नमस्ता और पुंश्चली सब कुछ है, वहां नैतिकता-अनैतिकता की समस्त अबधारणाएं गड्ड-मड्ड हो गयी हैं, राजकमल चौधरी के मछली मरी हुई के नायक को काली के चित्र से कामोत्तेजना प्राप्त होती है- वहीं नागार्जुन बलचनमा, दुखमोचन, शिवप्रसाद सिंह का अलग-अलग वैतरणी, रामदास मिश्र का पानी के प्राचीर और इस दिशा का क्लैसिक आंचालिक उपन्यास मैला आंचल है, जिसमें भारतीय ग्रामीण जीवन के अनेकानेक रूप अभिव्यक्त हैं। कृष्णासोबती के जिन्दगीनामा में स्वाधीनता पूर्व का पंजाब मुखरित हो उठा है। सूरज का सातवां घोड़ा के मध्यवर्ग की टीसती व्यथा और जगदम्बा प्रसाद दीक्षित के मुर्दाघर का बिडम्बना पूर्ण संघर्ष अलग-अलग स्तरों पर घटित होता है। निर्मल वर्मा का सारा कृतित्व पाश्चात्य स्मृतिगंध से परिव्याप्त है। अकेलापन उसकी नायिका है और स्मृतियां उसका जीवन। वहीं यहां भाषा संगीत की मच्द्धम लय की तरह है- अन्तर्हित, वहीं ‘ऐ लड़की’ की मांग बहुत स्पष्ट है। वह अतीत नहीं, वर्तमान को स्वेच्छापूर्वक जीना चाहती है, जिन्दगी की एक-एक बूंद को चूस-चूस कर और छक कर पी लेना चाहती है। उपेन्द्रनाथ अश्क का गिरती दीवारें, इलाचन्द्र जोशी का जहाज पंछी, रांगेय राघव का कब तक पुकारूं, लक्ष्मीकान्त वर्मा का खाली कुर्सी की आत्मा, उदय शंकर भट्ट का सागर, लहरें और मनुष्य, मन्नू भंडारी का आपका बंटी तथा महाभोज, बलदेव वैद का उसका बचपन, उषा प्रियवंदा का रूकोगी नहीं राधिका, राही मासूम रजा का आधा गांव, मोहन राकेश का अंधेरेबन्द कमरे, देवेश ठाकुर का भ्रम भंग, बदी उज्जमा का एक चूहे की मौत, श्रीलाल शुक्ल का रागदरबारी, राजेन्द्र यादव का सारा आकाश, सुरेन्द्र वर्मा का उसे चांद चाहिए, विनोद कुमार का नौकर की कमीज, वीरेन्द्र जैन का डूब, प्रभाकर माचवे का सांचा, गिरिराज किशोर का- पहला गिरमिटिया, ममता कालिया का बेघर आदि उपन्यास भारतीय जीवन के अलग-अलग आयाम प्रस्तुत करते हैं। भारतीय जीवन आज ब्रह्माण्डीकरण की प्रक्रिया में उदार मानवतावाद के साथ-साथ अर्थवाद के उस प्रभाव से गुजर रहा है जहां हर चीज खरीद-बिक्री की दृष्टि से देखी जाती है। मूल्यचेतना ध्वस्त हो गयी है, ऐसा नहीं कहा सकता, परन्तु वह गहरे दबावों के दौर से गुजर रही है। हिन्दी का सृजन-संसार इन हलचलों से भरा है।
हिन्दी नाटक का समारम्भ जिस उत्साह के साथ भारतेन्दु युग में हुआ था, द्विवेदी युग में वह गुणवत्ता की जगह मात्र संख्या में उलझकर रह गया। आगे चलकर जयशंकर प्रसाद ने मूल्यवान नाटकों की रचना की। विषय की दृष्टि से ‘धु्रवस्वामिनी’ आज के पाठक को भी उतना ही आकर्षित करती है। धु्रवस्वामिनी का तेजस्वी व्यक्तित्व और एक रुढ़िवादी समाज में उसी के सबसे प्रतिष्ठित धर्मशास्त्री के सूत्रों के आधार पर एक विवाहिता के पुनर्विवाह की स्वीकृति, एक नये विवेक की असाधारण स्थापना थी। हिन्दी नाटक की अगली कड़ियों में लक्ष्मीनारायण मिश्र, सेठ गोविन्ददास, रामकुमार वर्मा, जगदीशचन्द्र माथुर, लक्ष्मीनारायण लाल, उपेन्द्रनाथ अश्क विष्णु प्रभाकर आदि का महत्वपूर्ण स्थान है। परवर्ती नाटककारों में धर्मवीर भारती के ‘अंधायुग’ ने पाठकों, समालोचकों, निर्देशकों को समान रूप से प्रभावित किया। अंधायुग में उच्च कोटि की कविता तथा नाटक दोनों ही का समान रूप से समावेश हुआ है। इसके कथ्य में अपने युग की गहरी पकड़ है। युद्धोपरान्त युग, जो मूल्य विभ्रांत है, तथा जिसका नेतृत्व एक अंधे के अधीन है- इस विडम्बना और नियति का पूरे नाटक में गहरा एहसास व्यंजित हुआ है। नरेश मेहता एक एक कंठ विषपायी अपने त्याग की निरर्थकता के तीखे बोध से निष्पन्न है। अगले नाटककारों में मोहन राकेश प्रमुख हैं। उनके नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ में अपनी जमीन से कटे हुए आदमी के तीखे एहसास को कालिदास के माध्यम से व्यक्त किया गया है। इसमें स्वयम् राकेश के विस्थापन की आत्मसंधानजन्य व्यथा का गहरा एहसास है। आधे-अधूरे उनके अन्य नाटकों में एक नयी तलाश का नाटक है, जिसमें जो प्राप्त है वह स्त्री की अतृप्ति का कारण है और नया उसे पुनः पुनः अधूरेपन के बोध से भर देता है। सुरेन्द्र वर्मा का नाटक ‘सूर्य की अंतिम किरण से पहली किरण तक’ इस खोज और अतृप्ति का दूसरा पहलू है। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का- बकरी, ललित सहगल का हत्या एक आकार की, ज्ञानदेव अग्निहोत्री का शुतुरमुर्ग, भीष्म साहनी का आलमगीर, नन्दकिशोर आचार्य का जिल्ले सुब्हानी, उल्लेखनीय कृतियां हैं।
हिन्दी के व्यंग्य साहित्य की एक लम्बी परम्परा है जो भारतेन्दु से आरंभ हुई। बाल मुकुन्द गुप्त ने तीखे राजनीतिक व्यंग्य लिखे, जिसका असाधारण विकास हरिशंकर परसाई में व्यक्त हुआ। परसाई ने अपनी अतुलनीय प्रतिभा से हिन्दी व्यंग्य-साहित्य को एक स्वतंत्र विधा के रूप में प्रतिष्ठापित कर दिया। इस दिशा के अन्य लेखकों में शरद जोशी का नाम उल्लेखनीय है।
हिन्दी निबंध साहित्य को समृद्ध करने वाले लेखकों में प्रतापनारायण मिश्र, सरदार पूर्णसिंह, सियारामशरण गुप्त, रामचन्द्र शुक्ल, गुलाब राय, हजारीप्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र, कुबेरनाथ राय आदि का महत्वपूर्ण स्थान है। इनके सृजनात्मक, मनोवैज्ञानिक एवं ललित निबन्धों में रूप, रस, सौन्दर्य प्रतिभा का नवोन्मेष तथा कल्पना की ऊंची उड़ान देखने को मिलती है। हिन्दी के जीवनी और यात्रावर्णन के क्षेत्र में बहुत विस्तार नहीं है, परन्तु इस दिशा में राहुल सांस्कृत्यायन, भगवतशरण उपाध्याय तथा अज्ञेय का महत्वपूर्ण स्थान है। यात्रावर्णन की नवीन कड़ियों में निर्मल वर्मा का चीड़ों पर चांदनी अपनी सृजनात्मकता तथा वैचारिक सम्पदा के कारण विशेष रूप से उल्लेखनीय है, इस कड़ी में गिरधर राठी का नये चीन में दस दिन वर्णन कौशल और उस देश के अंतरंग साक्षात्कार के कारण एक अपरिहार्य रचना है। हिन्दी की आत्मकथाओं में हरिवंश राय बच्चन की चार खंडों में प्रस्तुत जीवनी, अभिव्यक्ति की ईमानदारी एवं सादगी के कारण इस क्षेत्र में अपना विशेष स्थान रखती है तथा जीवनी साहित्य में विष्णु प्रभाकर द्वारा शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय पर प्रस्तुत आवारा मसीहा क्लैसिक रचना है। ओ नदियो, कहां भागी जाती हो, पंत से सम्बद्ध दूधनाथ सिंह का औपन्यासिक संस्मरण इस दिशा में उल्लेखनीय है।
आज हिन्दी समालोचना प्रौढ़ और समृद्ध है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्येतिहास को व्यवस्थित करते हुए सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक समालोचना को जिन शिखरों तक पहुंचा दिया, वह अब भी अछूता है। शुक्ल जी के पश्चात् हजारी प्रसाद द्विवेदी ने साहित्य के प्रभावक तत्वों में राजनीति की जगह संस्कृति को महत्व देते हुए एक नयी मानवतावादी दृष्टि से साहित्य-समीक्षा का सिद्धान्त रखा। हिन्दी समालोचना के विकास की अगली कड़ियों में रामविलास शर्मा का महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने हिन्दी साहित्य का कोई इतिहास तो नहीं लिखा, परन्तु भारतेन्दु, महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामचन्द्र शुक्ल, निराला और प्रेमचन्द पर उनकी कृतियां साहित्येतिहास का विश्वसनीय उपजीव्य प्रस्तुत करती हैं। श्री शर्मा की इन कृतियों में आधुनिक युग अपने पूरे विस्तार में साकार हो उठा है। नन्ददुलारे वाजपेयी ने छायावाद के पक्ष में अपने दृढ़ मत व्यक्त किये, नगेन्द्र ने रसवादी दर्शन के साथ इतिहास तथा व्यावहारिक समालोचना के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किया। इस दिशा को समृद्धि प्रदान करने वालों में बाबू गुलाब राय का अवदान भी महत्वपूर्ण है। हिन्दी समालोचना की अगली कड़ियों में डॉ. नामवर सिंह ने बड़ी निर्भीकता और गहराई के साथ समकालीन साहित्य का मूल्यांकन प्रस्तुत किया। श्री सिंह सदा विवादों में घेरे में रहे, परन्तु उनकी शक्ति और ऊर्जा का स्रोत भी यही है। शिवदानसिंह चौहान, लक्ष्मीसागर वाष्र्णेय, बच्चनसिंह, रामस्वरूप चतुर्वेदी, रघुवंश आदि इसकी महत्वपूर्ण कड़ियों में हैं, जिन्होंने हिन्दी समालोचना की समृद्धि में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
हिन्दी के सृजनात्मक साहित्य का इतिहास सदा से नयी चुनौतियों के प्रति खुला हुआ, जुझारू यात्रा का इतिहास रहा है। राजनैतिक स्तरों पर जितना अवरोध, विरोध और अतिरिक्त विवादोत्तेजन इस भाषा के चारों ओर निर्मित हुआ है, उतना विरोध शायद ही किसी अन्य भाषा को झेलना पड़ा हो, परन्तु इसी से हिन्दी भाषा और साहित्य के यात्री ने शक्ति और दृष्टि दोनों ही पाई है। कुल मिलाकर इसका इतिहास एक अटूट जुझारू यात्री का इतिहास है जिसे अनुभवों की विविधता ने समृद्ध किया है, जिसने गहन गहवर भी देखे हैं और अछूते आलोकमय शिखर भी।
(creative.sulekha.com से साभार)

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