Sunday 30 June 2013

'असहमति और विवाद की संस्कृति'

प्रभात रंजन

'कथादेश' के जून 2013 के अंक में प्रसिद्ध लेखिका-आलोचिका अर्चना वर्मा का लेख प्रकाशित हुआ है 'असहमति और विवाद की संस्कृति' शीर्षक से. पिछले दिनों फेसबुक पर कवि कमलेश के सी.आई.ए. के सम्बन्ध में दिए गए एक बयान के सन्दर्भ में एक महाबहस चली, इस लेख में अर्चना वर्मा ने सुविचारित ढंग से उस बहस को समझने-समझाने का प्रयास किया है. सहमति-असहमति अपनी जगह है, लेकिन मेरा मानना है कि यह लेख सजगता और उदारता से पढ़े जाने की मांग करता है, और एक गंभीर बहस की भी-


शीर्षक तो भारी भरकम चुना है, लेकिन बात हल्की-फुलकी करूँगी।
अभी पिछले दिनों अपने ईमेल मेँ एक सन्देश पाया –
"करीब एक पखवाड़े पन्द्रह दिन (18 अप्रैल 2013 से 4 मई 2013 तक) की अवधि में फेसबुक पर एक (महा)बहस चली जिसकी शुरुआत हिंदी कवि कमलेश के 'समास' पत्रिका में प्रकाशित एक साक्षात्कार में दिए गये इस बयान से हुई कि ‘मानवता को सी. आई. ए. का ऋणी होना चाहिए’ और जो रचना और विचारधारा/जीवन के अंतर्संबंधों, साहित्य और कला के शक्ति संबंधों और समीकरणों और कला एवं जीवन की सामान्य नैतिकताओं पर एक बहस में बदल गयी … यह बहस यहाँ तिथिक्रमवार प्रस्तुत है . इसे आपके सामने प्रस्तुत करने का एकमात्र उद्देश्य यह है कि इस बहस को लेकर हो सकने वाले, शायद अभी से हो रहे दुष्प्रचार के बरक्स इच्छुक पाठक मूल पाठ पढ़ सकें. यहाँ पूरी बहस क्रमवार, तिथिवार है, अविकल नहीं. जो बातें बहस को दोनों में किसी भी तरफ आगे बढ़ा रही थीं उन्हें शामिल किया गया है. इसका शीर्षक हमने विचारधारा, शक्तिकेंद्र, प्रतिमानीकरण: जीवन और लेखन (एक फेसबुक बहस) रक्खा है जो इसमें शामिल चीज़ों का ठीक अनुमान देता है. यह बहस हिंदी साहित्य के नये पब्लिक स्फीयर फेसबुक के संजीदा उपयोग का एक उदाहरण है और उसके बारे में अपरीक्षित धारणाओं का एक सशक्त प्रतिवाद भी. फेसबुक पर बहस लाईव होती है, कोई बोलता नहीं है, सब लाईव लिखते हैं.”
शुरू करने के पहले प्रमुख पात्र का परिचय दे दूँ। वैसे शायद आप जानते ही हों, लेकिन कमलेशजी लम्बी अनुपस्थिति के बाद कविता-घर मेँ वापस लौटे हैँ, इसलिये शायद युवतर पाठक उनसे अपरिचित भी हो सकते हैं। वे कवि हैं, उनके दो कवितासंग्रह 'जरत्कारु' और 'खुले में आवास' प्रकाशित हो चुके हैँ, तीसरा 'बसाव' जल्दी ही आने वाला है (अब आ गया है -सं.)। वे गहन अध्येता, और गंभीर चिन्तक तो हैं ही, राममनोहर लोहिया के अनुगमन और साझेदारी मेँ समाजवादी राजनीति मँ हिस्सा ले चुके हैं। अब के समाजवादियों से अन्दाज़ा मत लगाइये। तब के पढ़े-लिखे, मननशील, चिन्तक, स्वप्नदर्शी और अव्यावहारिक किस्म के समाजवादियों में बचे-खुचे लोगों में कमलेश जी हैं, राजनीतिक असफलता के लिये अभिशप्त, वजह भारत के लिये चुने गये नमूने की राजनीति में भारत के असफल रह जाने की अवश्‍यम्भाविता ।
सन्देश के साथ बहस भी संलग्न थी।
बहस का सम्पादन और प्रस्तुति गिरिराज किराडू और अशोक कुमार पाण्डे ने की। फ़ेसबुक या उसके जैसे अन्य मीडिया-मंचों पर बहसे जैसे विकट विचलनों का शिकार होती हैं और अक्सर अपने सर-पैर तक का पता भी नहीं देतीं उसे देखते हुए यह एक बहुत संयत और सुसम्पादित प्रस्तुति है।
पहली प्रतिक्रिया शीर्षक को देखते हुए प्रबल उत्सुकता की हुई थी। लेकिन बहस के क्रमवार-तिथिवार, लेकिन अविकल न होने की सूचना तक पहुँचते-पहुँचते उत्सुकता मेँ उतनी ही प्रबल सतर्कता भी जुड़ गयी। ऐसी बहसों की रपट का अविकल न होना ही स्वाभाविक है, अविकल होना संभव भी नहीं, लेकिन सम्पादक ने जो बातें अनर्गल या अनावश्यक मान कर दर्ज नहीं की होंगी, उनमेँ क्या सूचना या संकेत निहित रहा हो सकता होगा, अर्थ और समझ को क्या मोड़ दे सकता रहा होगा, इसको लेकर मेरे जैसे खुरपेंची पाठक का आश्‍वस्त होना असंभव है जिसकी आदत या फिर मुगालता ढूँढ़-ढूँढ़ कर उन्हीं जगहों को रेखांकित करने और कुछ खोद निकालने की है जो अक्सर औरों की नज़र से छूट जाया करती हैँ।
सम्पादक का अधिकार उसकी समझ और रुचि से संचालित होता है। मैँ खुद भी उससे बरी नहीं। असहमति और विवाद की संभावना/आशंका/ज़रूरत बनी रहती है, अनिवार्यतः। चीजों की सूचना, समझ, संशोधन, पुनर्विचार, विवेचन, विश्‍लेषण, निष्कर्ष – हर हिसाब से। उसका स्वागत भी है। उसके जरिये बात से बात निकलती है। बात बढ़ती भी है (दोनो अर्थों मेँ)।
"बहस में, एक तरफ थे अशोक कुमार पांडेय, गिरिराज किराडू, वीरेन्द्र यादव, मंगलेश डबराल और कई मित्र और दूसरी तरफ थे मुख्यतः जनसत्ता के सम्पादक ओम थानवी, कुलदीप कुमार और उनके समर्थक।"
परिचय-सन्देश के पहले वाक्य मेँ ही बहस के मुद्दे को जिस तरह से फ़्रेम किया गया है ("जिसकी शुरुआत हिंदी कवि कमलेश के 'समास' पत्रिका में प्रकाशित एक साक्षात्कार में दिए गये इस बयान से हुई") उससे मुझे लगा था कि शायद सी.आई.ए. के कारनामों और करतूतों के बारे में कोई साक्षात्कार होगा, जिसमें सी.आई.ए. को न केवल बरी किया गया होगा बल्कि उपकारी होने का सर्टिफ़िकेट भी दिया गया होगा, जिसके लिये " मानवता को सी. आई. ए. का ऋणी होना चाहिये।"
शुरुआत करने वाली मूल पोस्ट का लहजा नाटकीय है और मजेदार भी, “भंते, यह साहित्य के विश्व इतिहास में उल्लेखनीय है. वह कौन सा प्रसिद्ध लेखक है जिसने कहा है कि मानवता को सी.आई.ए.का ऋणी होना चाहिए. क्लू यह है कि कारनामा एक वरिष्ठ हिंदी लेखक का किया हुआ है .”  (आगामी यू.जी.सी. जे.आर.एफ. नेट हिंदी के प्रश्नपत्र में आने की प्रबल संभावना)"
इस पर एक टिप्पणी –"अगर नेट मैंने दी होती, तो अज्ञान का खमियाजा फेल होकर चुकाना पड़ता.”
पहेली के जवाब का अगला अता-पता –" लगता है आप समास पत्रिका नहीं पढ़ते भाई,  इस बयान का शोध सन्दर्भ वहीं है.”
और अन्ततः रहस्योद्‍घाटन – "लीजिये बता देता हूँ मैं ही: कमलेश जी. कल महाकाव्यों पर व्याख्यान देंगे बनारस में. आप लोगों का हिंदी का मास्टर होना बेकार है. अंग्रेजी का एक मास्टर भारी पड़ा सब पर.”
फिर उल्लेख के जरिये बहस में एक नये पात्र का प्रवेश हुआ। पात्र का नाम लिये बिना परिचय में कहा गया, " वाम ने जिसे सेलीब्रेट किया वह घुटनों के बल अशोक वाटिका में चरने चला गया.…हम पर बरसने वाले लोगों में से कोई रज़ा फाउन्डेशन से पौने दो लाख के रिसर्च प्रोजेक्ट के लाभार्थी प्रखर वामपंथी युवा कवि के महाकाव्यात्मक आयोजन में कमलेश जी के बुलाने के निहितार्थों, अभिधा-व्यंजना पर कुछ न बोलेगा. न जसम. न कोई और. आखिर अशोकजी के बिना किसी का काम नहीं चलता.”
नाम शायद चर्चित और परिचित होगा, लेकिन मुख्य पात्र कमलेशजी के स्थापित हो जाने के बाद आपकी यह रिपोर्टर अपने निर्धन सामान्यज्ञान की वजह से इस नेपथ्य-नाटिका के उल्लिखित अशोक-वाटिका में चरने वाले नये पात्र की पहचान में असफल रही और बनारस के "महाकाव्यात्मक आयोजन" में कमलेश जी को बुलाने के निहितार्थों, अभिधा-व्यंजना को पकड़ने में भी कामयाब नहीं हो पाई। लेकिन अशोक-वाटिका और रज़ा़ फ़ाउण्डेशन तो इतने जाहिर हैँ कि रिपोर्टर के निर्धन सामान्यज्ञान के बावजूद पहचाने ही जा रहे हैं और "आखिर अशोक जी के बिना किसी का काम नहीं चलता" के निहितार्थ भी अभिधा, लक्षणा, व्यंजना समेत पकड़ में आए बिना रह नहीं सकते।
इसी के आस-पास किसी बिन्दु पर ओम थानवी ने बहस में प्रवेश किया। या कहना चाहिये कि संवाद में प्रवेश कर उसे बहस मेँ बदल दिया। परिचय-संदेश में परिभाषित "दूसरी तरफ़" के "मुख्यतः" पुरोधा। आगे चलकर कुलदीप कुमार भी शामिल हुए, आरोप और प्रहार का अकारण शिकार बनाए जाने के बाद, या शायद उसी की वजह से। इस सुगठित, सुसम्पादित बहस को पढ़ते हुए एक तरफ़ से सुसंगठित दलबद्ध आयोजन और दूसरी तरफ़ से एकाकी योद्धा-सा परिदृश्‍य बनता है। लेकिन इस तथाकथित युद्ध के नेपथ्य में कोई और नाटक चलते रहने का सा आभास भी होता है। फ़ेसबुक के इस दायरे में पहले भी अक्सर मैने देखा है कि (शायद) एक समान विचारधारा के अनेक युवा कवि, लेखक, आलोचक, जो शायद सोशल-मीडिया-ऐक्टिविस्ट भी हैं और जो एक दल होने का आभास देते हैँ, उनके साथ ओम थानवी की छेड़-छाड़ से लेकर उग्र प्रहार और प्रति-प्रहार तक चलता रहता है। विचारधारा का नाम इसलिये नहीं ले पा रही हूँ कि उसकी इतनी सारी अनुधाराएँ, उपधाराएँ, सहधाराएँ, अतिधाराएँ हो चुकी हैँ, कुछ-कुछ तो गड़हे और पोखर भी, कि अधिक संभावना अपने अज्ञान के प्रदर्शन या फिर ग़लत हो जाने की रहती है। वे मज़ा लेते से अन्दाज़ में कोँचते-काँचते रहते हैं और हमारा यह युवा दल कुछ अतिरिक्त गंभीरता से इस छेड़-छाड़ को 'आक्रमण' का दर्जा देकर गंभीर बहस मेँ बदलता और प्राणपण से आत्मरक्षा मेँ जुटा नज़र आता है। इस गंभीरता के फेर में कभी-कभी प्रत्याक्रमण का शक्ति-नियोजन हद के पार हो जाता है, या फिर शायद युवजनोचित उत्साह का अतिशय और अबोध निष्ठुरता की अभिव्यक्ति भी बन जाता है।
इन्हें एक स्थायी किस्म के प्रतिपक्षी रिश्‍ते में बन्द देखा जा सकता है। दोनो तरफ़ से प्रतिपक्षता के अपने-अपने कारण और रूप देखे जा सकते हैं। इनका वाम को घोषित और स्थापित वामपंथी दलों की हदों से बड़ा और व्याख्या-सापेक्ष मानना, उनका अपनी काट के बाहर के वाम का भी विरोधी होना, इनका सम्पादक और गैर-वामपंथी होना, उनका अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता की कसौटी पर सम्पादन के अधिकार की हदें तय करना, इनका आँख में उँगली डाल कर दिखाए बिना न छोड़ना, उनका इस दिखाई गयी दिशा के सिवा बाकी हर दिशा मेँ देखना, इनकी "अन्धभक्ति", उनका अन्धविरोध ( जाहिर है अज्ञेय का) वगैरह-वगैरह शायद अन्य भी दो चार और।
फ़ेसबुक के लोकवृत्त से परिचित लोग जानते हैँ कि अलग अलग लोगों की मूल पोस्ट पर डाले गये बयानों पर चलने वाली टिप्पणी-शृंखला कई पोस्ट-स्थलों पर एक साथ चलती है। उनमेँ से कोई अगर आपकी मण्डली का सदस्य नहीं हैं, या अगर है भी लेकिन उसकी पोस्ट आपने उस दिन खोली नहीं है, तो इस बात की गुंजाइश रह ही जाती है कि कुछ अनदेखा रह जाय। मेरी मेल पर इस सुसम्पादित रपट में भी प्रस्तुति अलग-अलग व्यक्तियों की पोस्ट का अनुसरण करते हुए ही की गयी है, अतः उसमें अनजाने अनदेखा चाहे कुछ न रहा हो, काल-क्रम से पात्र-प्रवेश का अनुसरण कठिन है। तो आगे-पीछे का नहीं पता, लेकिन आस-पास ही किसी बिन्दु पर बहस को कमलेश की कविता की तरफ़ मोड़ने का प्रयत्न और रज़ा-फ़ाउण्डेशन और अशोक-वाजपेयी-विरोध के मुद्दे की तरफ़ इशारा साथ-साथ किया गया। बहस का सुर इसके बाद थोड़ा बदला। डैमेज-कन्ट्रोल का वक्त आ पहुँचा था, साबित करता हुआ कि वाकई "अशोक जी के बिना किसी का काम नहीं चलता।"
आक्रमण के सूत्रधार की ओर से कहा गया, "हम तो अशोक जी और उनके फाउन्डेशन का समर्थन करने के लिए भी विरोध झेल चुके हैं और अब तथाकथित विरोध करने के लिए भी. जिस चीज़ का विरोध कर रहे हैं, वह है अवसरवादिता और करियरिज्म। अवसरवाद के विरोध को रज़ा फाउन्डेशन का विरोध बना दिया गया.”
रज़ा फ़ाउण्डेशन को बरी करने की मज़बूरी के बाद अवश्‍यम्भावी था कि बहस को औचित्य का आधार देने के लिये फिर से कमलेश जी के "मानवता पर सी.आई.ए. के ऋण" वाले बयान की ओर ले आया जाय और मूल मुद्दे की तरह परिभाषित करके वहीं टिकाए रखा जाय। या शायद वही मूल मुद्दा था भी, लेकिन “समास”, अशोक वाटिका प्रसंग और रज़ा फ़ाउण्डेशन की चर्चा की वजह से हाथ से निकल गया। बीच-बीच मेँ कुछ और भी व्यवधान हुए। पूछा गया "समास के बाद से ही उनकी कविता से परिचित होने के बावजूद मैं भी पूछना चाहता हूं कि ये कमलेश कौन हैं....या शायद होते कौन हैं …. पर कमलेश प्रसंग में ही मैं पूछना ये भी चाहता हूं कि ये उदयन वाजपेयी कौन हैं....।"
दोस्तों, ये बातें अलग अलग लोगों की कही हुई हैं, लेकिन उन सबका अलग-अलग नाम लेने की ज़रूरत मुझे महसूस नहीं हो रही। कुल मिलाकर ये पूरी बहस का धारा के प्रवाह में बहता हुआ-सा मिजाज़ निरूपित करने वाली बातें हैं। औपचारिक बहस की तरह फ़्रेम किये जाने के पहले बुजुर्गों की हँसी उड़ाता, भड़ास निकालता, युवा दोस्तों का आपसी लापरवाह और अनौपचारिक वार्तालाप जो फ़ेसबुक की किसी पोस्ट के बाद टिप्पणियों मेँ चलता रहता है। आपसी, लेकिन सार्वजनिक। जैसा कहा, सर्वत्र युवजनोचित उत्साह का अतिरेक और यत्र-तत्र एक अबोध निष्ठुरता और दंभ की अभिव्यक्ति। शायद इसी बड़बोले युवासुलभ अहंकार का लक्षण है कि अपने 'होने' और अपने आपे को साबित कर चुके होने की ऐसी आश्‍वस्ति कि दूसरे के (अपनी तरह से सिद्ध, लेकिन आपको अज्ञात) वजूद को निश्‍शंक अनहुआ किया जा सके। इन प्रतिक्रयाओं को सिर्फ़ गैर-जिम्मेदार, चलताऊ टिप्पणी कह कर छोड़ देना चाहती हूँ, इनको "बयान" जैसा भारी-भरकम, जवाबदेह नाम मैँ नहीं देना चाहती।
"बयान" के नाम से प्रस्तुत की गयी कमलेश की बात इतनी अविश्‍वसनीय थी कि ठीक से हास्यास्पद या आक्रोशजनक भी नहीं थी। हक्का-बक्का छोड़ जाने वाली थी। सन्दर्भ से कटी हुई तो नहीं थी? बहस में काफ़ी दूर तक -- और देर तक -- कमलेश के उस साक्षात्कार का अता-पता नहीं था, हालाँकि उनके पूर्वोक्त तथाकथित "बयान" को बहुत से लोगों ने बहुत बार उद्धृत किया था। अब सन्दर्भ वगैरह देखने की उत्सुकता हो तो खुद 'समास' जुटाओ और अपनी तलब मिटाओ। वरना यार लोगों का काम तो बहस खड़ी करने के लिये कहीं से भी एक उद्धरण संदर्भ से काट कर रख देने से चल जाता है।
एक जगह ओम थानवी के इशारे पर सन्दर्भित पृष्ठ बहस में "इस जगह क्लिक करने पर उपलब्ध" होने की सूचना मिली। क्लिक तो हुआ, लेकिन उपलब्ध नहीँ हुआ। अशोक कुमार पाण्डे के सौजन्य से वे चार पृष्ठ मिले, लेकिन तब तक वह पूरा साक्षात्कार भी मुझे मिल चुका था जिसमें से वह ब्रह्मवाक्य "बयान" की संज्ञा के साथ उद्धृत किया गया है।
'समास' में कमलेश और उदयन वाजपेयी की बातचीत छिहत्तर पृष्ठों मेँ फैली है। शीर्षक है 'समय और साहित्य'। उदयन वाजपेयी ने खुद को लगभग अदृश्‍य रख कर पूरी बातचीत मेँ कमलेश को बोलने के लिये उकसावा देने का काम किया है, क्योंकि कमलेश का यह बोलना उनके आयुपर्यन्त भारतीय रचना, विचार और राजनीति की संस्कृति का जीवित मौखिक दस्तावेज है जिससे गुजरे बिना उसके मूल्य का अन्दाजा नहीं लगाया जा सकता।
उदयन का यह प्रश्‍न बहस को दिशा देने वाला केन्द्रीय प्रश्‍न कहा जा सकता है: “दरअसल मैँ आपसे यह पूछने की कोशिश कर रहा हूँ कि हिन्दी या भारतीय भाषा के लेखक को अपनी पारम्परिक स्मृति से सम्पृक्त होने के मार्गों को खोलने की क्या सूरतें हैं। इसके लिये अपने स्वयं कौन से रास्ते अपनाए हैं?  कई महत्त्वपूर्ण अफ़्रीकी लेखक अपनी औपनिवेशिकता से बचने के लिये अंग्रेज़ी छोड़ कर अपनी लोकभाषा में लिखने लगे। औपनिवेशिक मानस से बाहर आने का उन्होंने यह रास्ता निकाला। .."
कमलेश से यह साक्षात्कार आधुनिक भारतीय मानस की औपनिवेशिक बनावट के बरक्स भारतीय मेधा की मौलिकता के अनेक परतीय विश्‍लेषण का एक संग्रहणीय उदाहरण है। यहाँ इंगलैण्ड, यूरोप, अमेरिका की अनगिनत किताबों से छान कर पाई हुई पाश्‍चात्य मनीषा के आकलन, लोहिया के साथ राजनीति मेँ साझेदारी और भारतीय जन की जीवनपद्धति के विचारतत्त्व के रूप मेँ भारतीय मेधा के विश्‍लेषण के संयुक्त निचोड़ से निकाले गये नतीजे हैं।
संभव है कि वाम-आकलन मेँ इसे भारत-व्याकुलता के उनके प्रिय मुहावरे मेँ खतिया कर रफ़ा-दफ़ा किया जाय। बहस में कमलेश और उदयन वाजपेयी के बारे में "हैं कौन'' और "होते कौन हैं" की शब्दावली मेँ बात करने वाली आवाज़ मेँ यह भी दर्ज किया गया है -- "हमारे देश, हमारी राजनीति, हमारे समाज के बारे मेँ इतना अनर्गल मैंने कभी कुछ नहीं पढ़ा।"
अब तक के पढ़े-लिखे, जाने-सुने से अलग किसी बात को इतनी आसानी से "अनर्गल" मान लेना शायद शुरू में ही अन्त पर जा पहुँचने का, सब कुछ जान चुके होने के दंभ का पर्याय हो या फिर यह कि ऐसी भी बातें दुनिया मेँ हैं, जिनको समझने की शुरुआत ही अन्त पर जा पहुँचने के बाद होती है; इसलिये वहाँ जा पहुँचने का, सब-कुछ जान लेने का दंभ चाहे मौजूद हो, वहाँ तक वाकई जा पहुँचने में अभी देर है।
सी.आई.ए. के बारे मेँ साक्षात्कार में दर्ज कमलेश का पूरा विचारसूत्र यों है, "मुझे तो आज यह अपनी पीढ़ी का सौभाग्य ही लगता है कि हमको पश्चिम के तमाम बड़े विचारकों को पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ। मार्क्सवाद और कम्यूनिज़्म के क्लासिक ग्रन्थों को और अपने प्रचार-साहित्य को सोवियत संघ ने तो तमाम भाषाओं मेँ अनुवादित करके भारतवर्ष के हर जिले मेँ दुकानें खोल करके उपलब्ध करा दिया था। लेकिन वैकल्पिक और विरोधी विचारों को जानने का कोई साधन बहुत दिनों तक नहीं था। इनका प्रकाशन विश्‍व के निजी प्रकाशकों के  सामर्थ्य के बाहर था। शीतयुद्ध के दौरान ही यह उपलब्ध हो सका।" … यह सब शीत युद्ध के दौरान "अपने कारणों से" अमरीका और सी.आई.ए. ने उपलब्ध कराया।
लेकिन प्रकाशन भले ही सी़.आइ़.ए. का रहा हो, और अपने कारणों से रहा हो, उन किताबों और उनमेँ दिये गये प्रमाणों को झुठलाया नहीं जा सकता था। प्रकाशन मेँ सी.आइ.ए. के हाथ और दुष्प्रचार का षड्यंत्र की बात कहकर जिन्हें बहुत दिनों तक झुठलाया गया था, वह सब-कुछ सोवियत यूनियन की बीसवीं कॉन्ग्रेस में निकिता ख्रुश्‍चेव द्वारा पेश की गयी रपट से सच प्रमाणित हो चुका है। "आज कोमिन्टर्न, सोवियत यूनियन, क्रेमलिन और के.जी.बी. के 'आर्काइव्ज़' खुल चुके हैं, उससे रोज़ रोज़ सामने आ रहे दस्तावेजों से सी.आई.ए. द्वारा प्रचारित तथ्यों और प्रमाणों की पुष्टि ही नहीं हो रही है, बल्कि और ज़्यादा जानकारी सामने आ रही है।"
बहस मेँ हिस्सा लेते हुए आशुतोष कुमार इस सन्दर्भ में टिप्पणी करते हैँ,  "अपनी सोवियत विकृतियों की आलोचना की सुदृढ़ परम्परा खुद कम्युनिस्ट आंदोलन के भीतर ट्रोट्स्की से ले कर माओ और उस के बाद तक मौजूद रही है. सोवियत संघ के और दुनिया भर के स्वतंत्र मार्क्सवादी/ नव-मार्क्सवादी लेखकों ने लिखा है. सी आइ ए की सुनियोजित प्रचार सामग्री इस लिहाज से कतई भरोसे लायक नहीं हो सकती. उसके प्रति कृतज्ञता केवल वे लोग महसूस कर सकते हैं , जिन्हें कम्युनिस्ट विरोधी साहित्य की सख्त जरूरत थी…. इन पन्नों को पढ़ कर तो यही लगता है कि कमलेश जी की कृतज्ञता ज्ञान के विस्तार के कारण नहीं , बल्कि कम्युनिस्ट-विरोध के कारण है."
सुनियोजित प्रचार सामग्री तो के.जी.बी की भी थी। सी.आई.ए. ने जो प्रकाशित किया, उसमें अवश्‍य "बहुत-सा कम्यूनिस्ट विरोधी प्रचार साहित्य भी था"…"लेकिन उसमें 'सोवियत यूनियन के उच्च पदाधिकारियों और वरिष्ठ कम्यूनिस्टों के यथार्थपरक विवरण भी थे, विचारकों द्वारा मार्क्सवादी इतिहासदर्शन, सर्वहारा की तानाशाही और नौकरशाही की तरह गठित केन्द्रीकृत कम्यूनिस्ट पार्टी को सर्वाधिकार सर्वाधिकार सम्पन्न करने वाले सोवियत राज्य आदि की गम्भीर आलोचनात्मक पुस्तकें भी थीं।" सोवियत संघ मेँ कम्यूनिज़्म के विरोधी नहीं, विख्यात कम्यूनिस्ट भी प्रताड़ित किये गये और ऐसे भी मामले बहुतायत से पाये गये कि जिन्हें किसी कारण से प्रताड़ित करना किसी वजह से जरूरी समझा जाए, उन्हें कम्यूनिज़्म-विरोधी भी घोषित कर दिया गया, क्योंकि अपने से असहमत को जनशत्रु घोषित और दण्डित करने की सुविधा और अधिकार मौजूद थे।
पूछताछ से मिली सूचनाओं के अनुसार ये किताबें प्रायः किसी भारतीय प्रकाशक के साथ आर्थिक सहयोग द्वारा प्रकाशित और वितरित की जाती थीं। इनमें से एक राजकमल प्रकाशन का सहयोगी प्रगति प्रकाशन था जिसका पता तो राजकमल प्रकाशन का ही हुआ करता था, लेकिन राजकमल के सूचीपत्र मेँ उसकी किताबों का नाम नहीं होता था। यहाँ से अमरीकी सूचना विभाग द्वारा सब्सिडाइज़्ड किताबेँ छपती थीं। संस्था पर श्रीमती शीला सन्धू का अधिकार होने के बाद सोवियत सूचना विभाग की किताबें भी वहाँ से छपने लगीं। इन किताबों का नाम भी राजकमल के सूचीपत्र मेँ नहीं होता था। दरियागंज में ही एक नेशनल एकेडमी नाम का प्रकाशन था। उर्दू के शायर और आलोचक गोपाल मित्तल उसके मालिक थे। उन्होंने हिन्दी अंग्रेजी उर्दू में कई सौ किताबेँ छापी थीं। बोरिस पास्तरनाक की डॉ. ज़िवागो, सेफ़ कण्डक्ट, ऐन ऐसे इन ऑटोबायोग्राफ़ी, अब्राम टर्ट्ज़ की द ट्रायल, बिगिन्स दूदिन्त्सेव की नॉट बाइ ब्रेड अलोन, सोलझेनित्सिन की वन डे इन द लाइफ़ ऑफ़ ईवान डेनिसोविच, द फ़र्स्ट सर्किल, द कैंसरवार्ड और गुलाग आर्किपेलेगो इत्यादि।
अमरीकी सब्सिडी ने किताबोँ को सर्वसुलभ बनाकर एक बौद्धिक पर्युत्सुकता का वातावरण भी तैयार किया था। रेमों आरो की ओपियम आफ़ द इण्टेलेक्चुअल्स, द फ़िलासफ़ी ऑफ़ हिस्ट्री, मेन करेण्ट्स ऑफ़ सोशियॉलॉजिकल थॉट, येस्लॉव मिलोश की द कैप्टिव माइण्ड, डैनियल बेल की द एण्ड ऑफ़ आइडियॉलॉजी, द कमिंग ऑफ़ पोस्ट इण्डस्ट्रियल सोसायटी, पैट्रिक मोयनिहन की द पॉलिटिक्स ऑफ़ गारण्टीड इन्कम, इर्विंग क्रिस्टल की मेमॉयर्स ऑफ़ ए कन्ज़र्वेटिव जैसी अनेक गंभीर  वैचारिक किताबें सामान्य जेब वाले पाठकों तक पहुँचीं।
बीसवीं शताब्दी के महान रूसी कवियों –अन्ना अख़्मातोवा, ओसिप मान्देलश्ताम] मारीना त्स्वेतायेवा, निकोलाई बोलोत्स्की की कविताएँ और गद्य-रचनाएँ,  मिखाइल बुल्गाकोव, यूरी ओलेशा, आइज़क बाबेल जैसे कथाकारों की रचनाएँ तीस-चालीस साल तक रूस में नहीं छापी गयीं क्योंकि क्रान्ति के बाद सारी प्रकाशन संस्थाओं का राष्ट्रीयकरण और पुनर्गठन हुआ था। फिर, पुस्तकों का प्रकाशन सेंसर किये जाने के बाद ही हो सकता था।प्रारंभ मेँ यह काम गुप्त पुलिस करती थी। बाद मेँ हर विभाग मेँ सेंसर स्थापित हो गया।
वे किताबें मूल रूसी में भी अमरीकी फ़ाउण्डेशनों से प्राप्त अनुदानों से पैरिस और न्यूयॉर्क के आप्रवासी रूसी प्रकाशनगृहों द्वारा छापी जाती थीं। सुसम्पादित ग्रन्थावलियाँ और उनके अंग्रेजी अनुवाद भी सब्सिडी के कारण सर्वसुलभ कीमतों पर प्रकाशित होते थे।
महान रूसी कवि ओसिप मान्देलश्‍ताम की विधवा नदेज़्दा मान्देलश्ताम के  दोनों ग्रन्थ होप अगेन्स्ट होप तथा  होप अबेण्डेण्ड  सर्वप्रथम अंग्रेजी अनुवाद मेँ ही छपे। मूल रूसी मेँ भी अमेरिका मेँ छपे। रूस में वे आज तक भी प्रकाशित नहीं हुए हैं। इन ग्रन्थों में जिस समाज में आवास व्यवस्था, रोज़गार, आय, सब-कुछ सरकार के नियंत्रण मेँ हो, उस समाज में जीने की यंत्रणा और सरल हृदय की बातचीत हैऔर सहज परिहास के लिये भी दण्डित होने की नियति का विवरण दिया गया है।
1954 में सोवियत संघ की कम्यूनिस्ट पार्टी की बीसवीं कॉन्ग्रेसमें जनरल सेक्रेटरी निकिता ख्रुश्‍चेव की गोपनीय आधिकारिक रिपोर्ट में स्तालिन के कारनामों का कच्चा चिट्ठा पेश करते हुए सोवियत सरकार द्वारा जनता पर ढाये गये जुल्मोँ की आत्मस्वीकृति थी। इस विस्फोटक रिपोर्ट के पेश होने के कुछ ही घण्टों के भीतर सी.आई.ए. ने उसे प्राप्त करके दुनिया भर मेँ प्रकाशित करा दिया। पाँच सौ पृष्ठों की न्यूज़प्रिण्ट पर छपी हुई पेपरबैक। कीमत होती थी डेढ़ रुपया।
इसी तरह निकिता ख्रुश्‍चेव के 'मेमॉयर्स' भी प्रकाशित किये गये थे, हालाँकि ख्रुश्‍चेव की मृत्यु के बाद सोवियत सरकार के पदाधिकारी इसके प्रकाशन के विरुद्ध थे। पीटर रेड्डावे की  'अनसेन्सर्ड रशिया' मेँ 'क्रानिकल ऑफ़ करेण्ट ईवेण्ट' संकलित है, जो असहमत लोगों के दुस्साहस का भूमिगत प्रकाशन है।
इन प्रकाशनों को असल में मूल उद्देश्य के सह-उत्पाद के मामले की तरह समझा जा सकता है, जो उत्पाद के मूल उद्देश्‍य का अतिक्रमण कर जाता है। लेकिन इन पंक्तियों को यहाँ उद्धृत करने से मेरा मतलब सी.आई.ए. को दूध का धुला साबित करना नहीं है।  इस ओर इशारा करना है कि सोवियत यूनियन की लौह-प्राचीरों के पीछे क्या हो रहा था। यहाँ बात पचास साठ के दशक की हो रही है। आज सीआईए  के कारनामे कालेपन में खुद अपनी मिसाल हैं, लेकिन तब तुलना मेँ केजीबी के मौजूद होने की वजह से मेरी साड़ी तेरी साड़ी से कम काली जैसी छूट और मेरी कमीज तेरी कमीज से अधिक सफ़ेद जैसी प्रशस्ति के रास्ते खुले थे।
पूछताछ मेँ उस पीढ़ी के दोस्तों और परिचित लोगों की धुँधली पड़ती स्मृति के सहारे जोडी गयी इस सूची में सैकडोँ-हजारों किताबों से ये कुछ ही किताबें हैं।
आशुतोष कुमार ने कहा है कमलेश जी की कृतज्ञता ज्ञान के विस्तार के कारण नहीं,  बल्कि कम्युनिस्ट-विरोध के कारण है।
पहली बात तो यह कि जो कम्यूनिस्ट नहीं है, उसे कम्यूनिस्ट विरोधी होने का हक है। कमलेश किसी वक्त समाजवादी थे। दोनो में तब भी कठिन विरोध का रिश्‍ता था। अब तो वे समाजवादी भी नहीं हैं। इस साक्षात्कार मेँ कमलेश ने बताया है कि समाजवाद और वामपंथ के मूल उत्स एक ही हैं। निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि जिन कारणों से कोई कम्यूनिज़्म विरोधी होता है, उन्हीं कारणों से अन्ततः समाजवाद से भी मोहभंग के परिणामों तक जा ही पहुँचता है।
लेकिन कृतज्ञता के मामले में दोनो कारण एक दूसरे से अलग-अलग हैं। दोनो बातों मेँ खासा फ़र्क है। 1954 के उद्‍घाटनों का धक्का बर्दाश्‍त करना बहुत सारे लोगों के लिये आसान नहीं था। उस दौर मेँ असहमति संवाद -विवाद विपक्ष को समूल नष्ट कर देने की राजनीति मेँ विश्‍वास के बिना कम्यूनिज़्म के पक्ष मेँ नहीँ हुआ जा सकता था। भारत मेँ वामपंथ का अनुभव आम तौर से सत्ता से असहमति और विपक्षता का है  शायद मुक्ति का भी लेकिन जहाँ वह सत्ता का पर्याय होता है वहाँ उसका अर्थ बदल जाता है। हमारे लिये प्रायः वैसी व्यवस्था मेँ जीने की कल्पना आसान नहीं है। शीतयुद्ध के सांस्कृतिक आयाम की सफलता के पीछे कारण यही था कि दुनिया भर के बड़े बड़े बौद्धिकों रचनाकारों कलाकारों के पास कम्यूनिज़्म- विरोध के ठोस और वास्तविक कारण मौजूद थे।अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उनके लिये जीवन का पर्याय थी।
दूसरी बात यह कि आज अगर कोई कम्यूनिस्ट होता होगा तो उसके उद्देश्‍य और कारण शायद पहले से बिल्कुल अलग होते होंगे। एक तो यह कि आज वह पहले जैसी नीरन्ध्र आज्ञाकारिता का पर्याय नहीं है। दूसरे एकध्रुवीय विश्‍व में समतोल या प्रतिभार की जो भूमिका जरूरी है और थोड़ी बहुत निभाई जा सकती है, उसके लिये संगठित प्रतिपक्ष का चाहे कितना भी अपर्याप्त विकल्प वामपंथ ही है। हालाँकि आज की पूँजी की जो शक्ल हमारे सामने है उसे देखते हुए भारतीय वाम जितना अपर्याप्त उतना ही, अप्रासंगिक भी। इसलिये प्रतिपक्षता के अनुरूप यही उसकी कार्यपद्धति बनी जा रही है। उसे हमेशा एक प्रतिपक्ष की तलाश रहती है, जिसकी दानवाकार प्रतिमा खड़ी करके आस-पास एक त्रास का वातावरण बनाया जाय और फिर बचाव का आश्‍वासन देकर संघशक्ति को अपने नेतृत्व में अपने पीछे खड़ा किया जाय। कुल हासिल किसी-न-किसी किस्म की हलचल गड़बड़ी और अव्यवस्था बनाए रखना है। रचा भले न जा सके, रचने से रोके रखना जरूरी है। इस तरह सौदे की मोल-तोल की संभावना बढ़ती है। लेकिन यहाँ वैसे भी कौन कुछ रचने को तैयार बैठा है! साहित्यजगत मेँ इन कारवाइयों से या तो व्यूह मेँ अकेले योद्धा का दृश्‍य बनता है, या फिर विचहण्टिंग का। लेकिन ठीक है फ़िलहाल अपने अपने लिये जिसने जैसे भी वामपंथ को चुना या परिभाषित किया हो, उनका व्यक्तिगत मामला है। खास बात यह है कि इस पीढी के हमारे अच्छे कवि और कथाकार और आलोचक सबसे अधिक यहीं से आते हैं। यह अधीरता और असहिष्णुता और निष्ठुरता उनकी युवता का लक्षण है। चलता है।
आशुतोष कुमार ने सीआईए के काले कारनामों के सन्दर्भ मेँ उचित ही कहा है "कमलेशजी मानवजाति की ओर से जिस सीआईए के ऋणी हैं,  अच्छा होता कि पिछली सदियों में  एशिया -अफ्रीका से ले कर - लातीनी अमरीका में -- दुनिया भर में-- लोकतांत्रिक समाजवादी सरकारों को पलटने नेताओं और लेखकों को खरीदने  उनकी हत्या कराने  से ले कर खूनी सैनिक क्रांतियां जनसंहार कराने तक की उस की करतूतों के बारे में भी दो शब्द कह देते। ”
इस सिलसिले मेँ भी पहली बात तो यही कि यह कोई बयान नहीं है। कोई स्टैण्ड भी नहीं है, जिसे एक प्रतिभार या समतोल देकर पोलिटकली करेक्ट बनाना जरूरी हो। यह सिर्फ़ एक पासिंग रिफरेंस है। माना जा सकता है कि शब्दों का चुनाव दुर्भाग्यपूर्ण है। सचमुच मेरे जैसा कोई दूसरा भी खुरपेंची पाठक मिल ही जाय जो ढूंढ-ढूंढ कर ऐसी पंक्तियाँ रेखांकित करने का हठी हो, जो प्रायः दूसरों से अनदेखी रह जाती हैँ, तो वह छिहत्तर पन्नों के इस साक्षात्कार मेँ से खोजकर वे ही सात शब्द निकाल लायेगा और झण्डा लहरा देगा। देगा क्या लहरा ही दिया है!
लेकिन इन शब्दों मेँ कमलेश जी जो महसूस कर रहे हैं, उसे मैँ समझ सकती हूँ। महसूस भी कर सकती हूँ। वैसे तो कोई नहीं जानता कि सदियों के गर्भ मेँ कितना कुछ बिना कोई निशान छोड़े बह गया, डूब गया। यह भी चला ही गया होता तो खो देने का अहसास भी न होता। लेकिन क्योंकि वह बच गया हमारे पास है तो यह अहसास कि अन्ना अख़्मातोवा, ओसिप मान्देलश्ताम] मारीना त्स्वेतायेवा, निकोलाई   बोलोत्स्की की कविताएँ और गद्य-रचनाएँ और मिखाइल बुल्गाकोव, यूरी ओलेशा, आइज़क बाबेल ... ये सब लुप्त हुए हो सकते थे; बच रहे इसलिये ईश्‍वर मेँ विश्‍वास जैसी किसी अपरिभाषेय-सी उपस्थिति का अहसास देते हुए-से इल्येनकोव और वाइगोत्स्की और बाक्तिन आदि गहरी कृतज्ञता से भर देते हैं। हाँ, इनके बचे रहने के लिये कृतज्ञता, जिसे एक असतर्क असावधान क्षण मेँ मैं सीआईए के लिये मानवता की ओर से कृतज्ञ होने की तरह भी अभिव्यक्त कर जाऊं तो ताज्जुब नहीं होगा। हाँ, मानवता की ओर से, क्योँकि अतीत से संचित ऐसी निधियों को बचा लाने का मतलब मानवता के उत्तराधिकार को बचा लाना है, चाहे किसी भी उद्देश्‍य से।
यह कह कर मैँ सीआईए को कोई सर्टिफ़िकेट नहीं दे रही हूँ। यह कहना अगर मुझे वध्य बनाता है तो मैं अगले निशाने पर कतार में खड़ी हूँ। (www.jankipul.com से साभार)

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