Thursday 18 July 2013

शाश्वतोऽयं : प्रभाकर श्रोत्रिय


रमेश दवे

महाभारत एक क्लासिक रचना है। उसमें से अनेक कथाएं जन्म लेती हैं जो अपने समय, अपनी नियति, अपने मनोराग और अपने परिवेश को मूल कथाओं के संदर्भ से जोड़ती हैं और एक क्लासिकी रचना को अधिक बोधगम्य और रससिद्ध करती हैं। प्रभाकर श्रोत्रिय की पुस्तक शाश्वतोऽयं- सनातन है यह एक ऐसा नवाचार है जिसमें कथा और आलोचना एक साथ संक्रमित होती हैं। क्लासिक्स या गौरव-ग्रंथ अक्सर श्रद्धा के केंद्र होने से आलोच्य नहीं माने जाते, इसलिए उनकी कमियां बताना कठिन होता है जिस प्रकार धर्मग्रंथों की आलोचना करना। एक जमाने में यूनान को क्लासिक रचनाओं का देश माना जाता था। इसलिए यह बात प्रचलित थी जो लोग ग्रीक के विरुद्ध, भाषा या साहित्य दोनों स्तर पर, कुछ नहीं कहते, वे सर्वाधिक शिक्षित और सभ्य माने जाते थे। जब होमर का काव्य सारे यूरोप का क्लासिक बन गया, तो उसके नए-नए पाठ हुए और कई लोग तो होमर को मनोविनोद के लिए ही पढ़ने लगे। श्रोत्रिय ने ‘शाश्वतोऽयं’ में क्लासिक रचना का सामान्यीकरण करके ठीक ही किया है क्योंकि इस कारण ‘महाभारत’ जैसे विराट महाकाव्य को आधुनिक चेतना से देखने की दृष्टि भी मिलती है।
कुछ प्रतिष्ठित लेखक-आलोचक यह प्रश्न उठाते रहे हैं कि किसी भी क्लासिक रचना और उसके मिथकों पर आधारित काव्य, कहानी, उपन्यास, नाटक आदि लिखना मौलिक सृजन कैसे माना जा सकता है। यह तो मूल रचना का ही पुनर्पाठ है या मूल रचना का अनुकरण है। अगर ऐसे प्रश्न जायज हैं तो क्या कामायनी, राम की शक्तिपूजा, संशय की एक रात, उर्वशी, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, साकेत, द्वापर, जयद्रथवध, अंधायुग आदि क्लासिक-प्रेरित रचनाओं को उनकी मौलिकता से निरस्त कर दिया जाएगा? अगर महर्षि व्यास ने एक विराट रचना का सृजन किया तो इससे यह सिद्ध नहीं होता कि उस रचना के अंदर से अन्य रचनाओं का उद््भव ही न हो। वह अनेक मौलिकताओं को रच सकती है- विवेक की, विचार की, विन्यास की, कथ्य की, आदि।
प्रभाकर श्रोत्रिय ने ‘शाश्वतोऽयं’ में यह दावा तो कतई नहीं किया कि वे अपनी इन बयालीस कथा-रचनाओं के निबंधन में किसी मौलिक रचना को निष्पन्न कर रहे हैं। श्रोत्रिय का नवाचार यह है कि उन्होंने कोई उपन्यास, नाटक या मूल कहानी नहीं रची बल्कि एक कथा-समुद्र का मंथन कर उसमें से वे कहानियां चुनीं जो मनुष्य के आभ्यंतर का भी उद््घाटन करें और उसके बाह्य को भी प्रस्तुत करें। इन कथाओं में जो निहितार्थ हैं, उन्हें कई तरह से व्याख्यायित किया जा सकता है, हर सर्जक उन्हें अपने चिंतन के अनुरूप अर्थ देकर रच सकता है। लेकिन श्रोत्रिय ने मूलकथा को अविकृत और अविकल रूप से प्रस्तुत कर केवल वे टिप्पणियां की हैं जो उन्हें कथा में उतरने के कारण प्रकरण के पक्ष-विपक्ष को देखने पर रचने का अवसर मिला।
‘शाश्वतोऽयं’ को लेकर श्रोत्रिय भूमिका में कहते हैं- ‘‘ये (कथाएं) ऐसा अवकाश (स्पेस) रचती हैं जिसमें आगामी सर्जना के सोते फूटते हैं। महाभारत की युद्धकथा, और धर्मकथा के दायरे से निकालने में इन आख्यानों, उपाख्यानों, दंतकथाओं, दृष्टांत कथाओं की बड़ी भूमिका है।’’ श्रोत्रिय इन आख्यानों को मानवीय अनुभवों के विस्तार की संभावना के रूप में भी प्रस्तुत करते हैं। ये कथाएं अपने रूप-विधान में भले ही आख्यान हों, श्रोत्रिय मानते हैं कि ये कथाएं मनुष्य-बोध से जुड़ी हैं। व्यास ने भले ही राजा, ऋषि, ब्राह्मण, देव, दानव आदि के माध्यम से कथाएं रची हों, पर साधारण व्यक्ति, स्त्री, दलित, दरिद्र, कमजोर आदि के प्रति उनके मन में सच्ची करुणा और आदर था। ऐसा ही तो वाल्मीकि-कृत रामायण में भी है।
पंचतंत्र और हितोपदेश की कथाएं जिस प्रकार का संवादात्मक कथासूत्र प्रकृति और मनुष्य के बीच रचकर नैतिकता का मूल्य-निष्पादन करती हैं, वैसा महाभारत की कथाओं में नहीं है, क्योंकि जहां तक मूल्य-निष्पादन का प्रश्न है वे कथाएं स्वयं नहीं कहतीं बल्कि पाठक, श्रोता या आलोचक को वे मूल्य कथा के निहितार्थों से खोजने पड़ते हैं। ‘शाश्वतोऽयं’ में आए आख्यानों में माधवी, सावित्री, कुंती जहां स्त्री सशक्तीकरण का विमर्श रचती हैं, तो लगता है इन कथाओं में कितने-कितने आधुनिक यहां तक कि उत्तर आधुनिक मूल्य निहित हैं। भीष्म का शरशय्या पर युधिष्ठिर से प्रश्नात्मक विमर्श केवल संवाद नहीं है बल्कि महाभारत जिस प्रकार धर्मनीति, राजनीति, कूटनीति, अर्थनीति, युद्ध-नीति आदि के साथ रचा गया, उन नीतियों का उद््घाटन ही तो यह विमर्श है। परीक्षित और जनमेजय की कथा तो लोक-प्रचलित है, जनमेजय का नागयज्ञ पिता का प्रतिशोध है या पुत्र में घटित प्रायश्चित्त, यह कथा सोचने का अवकाश देती है। यहां श्रोत्रिय ने परीक्षित की कथा को श्रीमद्भागवत के पाठ से पृथक रखा है और मोक्ष जैसे मनोभाव को भी कथा में जगह नहीं दी है।
‘शाश्वतोऽयं’ एक ऐसी रचना है जो ऋषियों, पात्रों, चरित्रों और अनेक जटिल मनोवेगों को लोक-पाठ बना कर प्रस्तुत करती है। हिंदी में ऐसी पुस्तक को किस विधा में रखा जाए, यह प्रश्न उठाया जा सकता है। लेकिन ‘कथा’ एक विधा है इसलिए इसे श्रोत्रिय का कथात्मक नवाचार कहना ही ठीक होगा। (जनसत्ता से साभार)

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