Thursday 18 July 2013

सदी के पहले दशक में हिंदी बालसाहित्य


ओमप्रकाश कश्यप

स्मृति अंतराल अधिक नहीं है। सब कुछ जैसे हमारी आंखों के सामने हो। इकीसवीं शताब्दी का स्वागत लोगों ने पूरे हर्षोल्लास के साथ किया था। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में पिछली शताब्दी ने जो लक्ष्य सिद्ध किए थे, उनसे उत्साहित लोग यह मान चुके थे कि आने वाली शताब्दी वैज्ञानिक क्रांति की होगी। वर्तमान शती के पहले दशक में देखें तो लगता है कि इसने हमें निराश भी नहीं किया है। मात्र दस वर्ष की अवधि में हम विकास की इतनी लंबी यात्रा कर आए हैं, जितनी पहले पूरी शताब्दी में असंभव-प्रायः थी। कंप्यूटर, इलेक्ट्रानिक्स, संचार, अंतरिक्ष, आवास, स्वास्थ्य, चिकित्सा, यातायात जैसे अनेक क्षेत्र हैं जिनमें विकास की गति इतनी तेज है, मनुष्यता के इतिहास में उतनी शायद ही कभी रही हो। हम यह भी नहीं भूले हैं कि साहित्य के लिए इकीसवीं शती की दस्तक आशंकाओं-भरी थी। दूरदर्शन और कंप्यूटर को शब्द पर संकट के रूप में लिया जा रहा था। माना जा रहा था कि तेजगति जीवन और आपाधापी में लोगों के पास शब्द से संवाद करने का समय ही नहीं बचेगा। लगातार बढ़ते चैनल पाठकों को पुस्तकों से दूर कर देंगे। पर जो हो रहा है, वह उस समय की हमारी कल्पना से एकदम परे है।
आज इंटरनेट के कारण टेलीविजन को खतरा बढ़ चुका है, जबकि शब्द-साधकों और पाठकों के लिए जो महंगी होने के कारण पुस्तकों से कटने लगे थे, इंटरनेट पर मौजूद साहित्य कागज पर छपे साहित्य का सार्थक विकल्प बनता जा रहा है। वहां मौजूद नेट-पुस्तकों का खजाना पुस्तक-प्रेमियों के लिए अनूठा वरदान है। दुर्लभ मानी जाने वाली पुस्तकें मात्र एक क्लिक पर, लगभग मुफ्त उपलब्ध हैं। साहित्य और बौद्धिक संपदा के लिए नए बाजार तलाशने की कोशिश भी जोर-शोर से जारी है। संचारक्रांति ने साहित्य और पाठक की दूरी को समेट दिया है। अब उत्तर में रह रहे दक्षिण भारतीय पाठक को यह चिंता करने की आवश्यकता नहीं है कि उसकी भाषा की पुस्तक और पत्रिकाएं उसके आसपास उपलब्ध नहीं। प्रायः सभी अच्छी पत्रिकाओं के इंटरनेट संस्करण मौजूद हैं, जिन्हें सामान्यतः निःशुल्क उतारा जा सकता है। साहित्य विद्युतीय त्वरा से हम तक पहुंच रहा है। भाषाएं क्षेत्रीय सीमाएं लांघकर विश्वमंच पर संवाद कर रही हैं। शब्द के नए-नए रूपाकार सामने आ रहे हैं। इंटरनेट की लोकप्रियता का आलम यह है कि चाहे वह लेखक हो, पाठक हो अथवा प्रकाशक, सभी वहां अपना नाम-पता खोजने को लालायित रहते हैं। नई तकनीक का लाभ उठाने में बालसाहित्य भी अछूता नहीं है। इंटरनेट पर नए-नए जालपट्टों(बेवसाइटों) एवं जालपट्टिकाओं(ब्लागों) के आगमन से बालसाहित्य की उपलब्धता बढ़ी है।
वहां बालसाहित्य की प्रत्येक विधा कहानी, कविता, कामिक्स, चुटुकले, संस्मरण, यात्रा-वृतांत, लेख आदि विपुल मात्रा में मौजूद हैं। यानी आधुनिक तकनीक बालसाहित्य के लिए उस रूप में तो हानिकर सिद्ध नहीं हुई है, जैसा आमतौर पर सोचा जा रहा था। तो भी सवाल उठता है कि तकनीकी बदलावों के साथ-साथ बालसाहित्य के रूपाकार में जो बदलाव आ रहे हैं, क्या वे हमारी कल्पनाओं के अनुरूप हैं? विज्ञापनों की भूख से बिलबिलाता हमारा आधुनिक मीडिया, जिसमें प्रिंट और इलेक्ट्रानिक दोनों सम्मिलित हैं, बालसाहित्य के नाम पर जो परोस रहा है, क्या वही हमारी अपेक्षा थी? बालसाहित्यकारों का एक वर्ग वैज्ञानिक रचनाओं का हिमायती रहा है। पर विज्ञान और तकनीक के नाम पर जो सूचनावाद बालसाहित्य में फल-फूल रहा है, क्या वही उनका लक्ष्य था? क्या बालसाहित्य की पुस्तकों का सुंदर-सजीला होना ही उनकी उत्कृष्टता की कसौटी माना सकता है? और यदि बाजार के दबाव में कुछ ऐसा हो रहा है जो हमारी कल्पना के विरुद्ध है, जो हमने कभी सोचा तक नहीं था, तो क्या उसे रोका जा सकता है? क्या हमारे बालसाहित्यकार इस अनपेक्षित चुनौती से जूझने के लिए तैयार हैं?
बाजार कोई नई अवधारणा नहीं है। करीब पांच हजार वर्षों से जब साहित्य केवल श्रुति का हिस्सा था, सभ्यता ने पांव पसारने शुरू ही किए थे, बाजार रहा है। उस समय बाजार की भूमिका साहित्य के प्रवत्र्तक की थी। व्यापारियों के काफिले अपने साथ अपनी जमीन का साहित्य और कलाएं भी ले जाते थे। पंचतंत्र, कथासरित्सागर, वैताल-पचीसी, सिंहासन बतीसी, आलिफ-लैला, मुल्ला नसरुद्दीन, किस्सा चार दरवेश, गुलीवर की यात्राएं, जातक कथाएं, सिंदबाज जहाजी जैसी कालजयी रचनाएं बाजार द्वारा प्रेरित सांस्कृतिक-साहित्यिक आदान-प्रदान के कारण ही विश्व-साहित्य की धरोहर बनी हैं। उस समय संस्कृति के सम्मिलन के प्रायः दो ही रास्ते थे। वे यायावर जिज्ञासु जो ज्ञान एवं सत्य की खोज में धरती का कोना-कोना छानते रहते थे। दूसरे वे व्यापारी जो काफिलों के रूप में न केवल वस्तुओं बल्कि साहित्य और संस्कृति का भी आदान-प्रदान करते थे। उस समय तक दोनों परस्पर पूरक थे। बाजार साहित्य और संस्कृतियों के सम्मिलन में अहं भूमिका निभाता था, तो साहित्य एवं कलाएं उसे व्यापार के नए अवसर तथा विश्वसनीयता प्रदान करते थे। फिर ऐसा नया क्या है, जो चिंता का विषय बना है, जिससे साहित्य और कलाओं पर संकट की बात समय-समय पर उठती रहती है। वस्तुतः बाजार और बाजारवाद में बहुत अंतर है। बाजार मानव-समाज के विकास को दर्शाता है। जबकि बाजारवाद पूंजीवादी व्यवस्था की देन है, उस व्यवस्था की देन है जो मनुष्य का अवमूल्यन कर उसको जड़ उपभोक्ता में बदल देना चाहती है। उसके साथ वही व्यवहार करती है, जो किसी जड़ वस्तु अथवा पशु के साथ किया जा सकता है। यह कार्य वह शासन और अपने भरोसे के अर्थशास्त्रियों की मदद से करती है। चूंकि सांस्थानिक धर्म अवसर मिलते ही निरंकुश सत्ता की भांति व्यवहार करने लगता है, अतः बाजारवाद एवं तज्जनित सांस्कृतिक अवमूल्यन का रोना रोते-रोते धार्मिक संस्थाएं भी प्रकारांतर में उसके पोषण का ही काम करती हैं। विषय गंभीर है तथा विशद् विवेचना की अपेक्षा रखता है। लेख की मर्यादा के निर्वहन में हम वर्तमान चर्चा को मात्र निम्नलिखित बिंदुओं तक सीमित रखेंगे, क्या बालसाहित्य की रचना को प्रौढ़ पाठकों के लिखी गई रचना की अपेक्षा अनिवार्यरूप से छोटा होना चाहिए? बालसाहित्य की पुस्तकों चित्र महत्त्वपूर्ण हैं अथवा कथ्य? प्रकाशन-क्षेत्र में तकनीक की मदद से पुस्तक को सुंदर और सजीला बनाने के प्रयासों ने क्या प्रकाशकों को कथ्य के प्रति उदासीन बनाया है, क्या बालसाहित्य में बढ़ते सूचनाओं के दबाव पर नियंत्रण जरूरी है? क्या बालसाहित्य लैंगिक भेदभाव का शिकार है? यदि हां तो उसमें बाजारवाद की क्या भूमिका है?
साहित्यकारों द्वारा बाजार के समक्ष समझौतावादी रवैये की शुरुआत उस समय से मानी जानी चाहिए, जब उन्होंने बजाय विषयवस्तु के, पत्र-पत्रिकाओं में उपलब्ध स्पेस अथवा प्रकाशक की अपेक्षाओं को देखते हुए लिखना आरंभ किया था। वरिष्ठतम लेखक भी रचना आमंत्रित करने वाले संपादक से उसकी अनुमानित शब्द-संख्या पूछना नहीं भूलते थे, ताकि निर्धारित सीमा के भीतर कथानक का ढांचा खड़ा किया जा सके। साहित्यिक पांडुलिपियों की पृष्ठसंख्या प्रकाशक की मांग पर, उसकी जरूरत को देखकर तय की जाने लगी थी। वह साहित्य के नाम पर रचनाओं का बोनसाई संस्करण बनाने की शुरुआत थी, जो आज भी बदस्तूर जारी है। आज भी साहित्यकार से अपेक्षा की जाती है कि वह पाठकों की रुचि के अनुकूल ऐसी रचना लिखकर दे जो अखबार में उपलब्ध स्पेस की मर्यादाओं का पालन करती हो, जिसे पूर्वनिर्धारित खाने में सेट किया जा सके। इसमें कोई संदेह नहीं है कि पत्र-पत्रिकाओं की भी एक सीमा है, बाजार की मजबूरियों और जनरुचि का ख्याल रखते हुए प्रत्येक विधा को सीमित स्थान देना उनकी विवशता हो सकती है। परेशानी तब खड़ी होती है, जब लेखक-संपादक ही यह मानने लगें कि बच्चों की रचनाओं यथा कहानी, कविता, उपन्यास आदि को अनिवार्य रूप से छोटा ही होना चाहिए…।कि बच्चों का मानसिक सामथ्र्य उतना नहीं कि वे बड़ी रचनाओं को पचा सकें। संपादकों-प्रकाशकों की यह विवशता हो सकती है कि वे अपने विभिन्न उम्र, वर्ग, क्षेत्र और संस्कृति के पाठकों की रुचि के अनुरूप साहित्य का प्रकाशन करें। किंतु यह मान लेना कि बच्चे छोटी रचनाएं पढ़ना पसंद करते हैं, या पाठ्य पुस्तकों के दबाव में उनके पास बड़ी रचनाएं पढ़ने का समय ही नहीं होगा, अपने पूर्वग्रहों तथा कमजोरियों को पाठक पर थोपना है। बाजारवाद पहले बड़ों को, जो अर्थोपार्जन में सक्षम हैं, अपने प्रभाव में लेता है। जब तक वे उसके आगे समर्पण न करें, तब तक वह बच्चों तक पहुंच ही नहीं सकता। उल्लेखनीय है कि लोकसाहित्य के रूप में पहचानी जाने वाली प्रायः सभी क्लासिक रचनाएं, जो हमारे संस्कारों का बड़ा हिस्सा गढ़ती हैं, बड़ों के साथ बच्चों में भी समानरूप से लोकप्रिय रही हैं। बच्चे नल-दमयंती, रामायण, महाभारत, किस्सा चार दरवेश, हातिमताई आदि को भी उतने ही चाव से पढ़ते-सुनते थे, जितने कि बड़े। कथासरित सागर, जातक कथाएं, वैताल पचीसी, सिंहासन बतीसी जैसी रचनाएं भी उतनी छोटी नहीं हैं, जितनी आजकल के समाचारपत्रों में प्रकाशित की जाती हैं। उनकी लोकप्रियता का कारण यह भी है कि उनमें एक तारतम्यता है। एक कहानी पूरी होते ही दूसरी के शुरू होने का संकेत दे जाती है। साथ ही उनमें पाठक को बांधे रखने वाली किस्सागोई है, जो उपन्यास जैसा आनंद देती थी। परिणामस्वरूप बालक का मन रचना में डूबा रहता था। अब बालक कथा-कहानी में जब तक डूबने का प्रयास करता है, तब तक कहानी पूरी हो जाती है। कहानी में न तो परिवेश होता है, न चरित्र-चित्रण के लिए समय। बिना शैली और परिवेश की चिंता के सबकुछ ऐसे परोसा जाता है, जैसे फास्ट फूड।
कुछ समय पहले तक पत्र-पत्रिकाओं द्वारा औसत 1500 शब्द संख्या की बालकहानी आमंत्रित की जाती थी। अब यह स्पेस भी पांच-सात सौ शब्दों में सिमटता जा रहा है। शब्द-संख्या का निर्धारण करते समय बालकों की रुचि या मनोविज्ञान का कोई ध्यान नहीं रखा जाता, जबकि बालक कहानी का आकार, उसकी शब्द संख्या क्या हो, यह कभी नहीं देखता। वह उसकी रोचकता और विषयवस्तु को देखता है। इसलिए दादा-दादी के लंबे, कई-कई रातों तक चलनेवाले किस्से बच्चों में अपेक्षाकृत अधिक लोकप्रिय हुआ करते थे। हमारे लोकसाहित्य का अधिकांश हिस्सा आज भी वही घेरते हैं। परीकथाओं को आधुनिक परिवेश में रचने वाले महान डेनिश बालसाहित्यकार हेंस क्रिश्चिन एंडरसन की कई बालकहानियां 11000—13000 शब्दों की हैं, और वे बच्चों में पर्याप्त लोकप्रिय रही हैं। उनकी कहानी ‘भविष्य के जूते’ तथा ‘वर्फ की रानी’ क्रमशः 12644 तथा 11930 शब्दों की हैं। उनकी कहानियों की औसत शब्द संख्या ही 3100 है। हिंदी के पत्र-पत्रिका तो प्रौढ़ साहित्य की इतनी बड़ी रचना नहीं छापते। अब जरा हिंदी के बालउपन्यासों अथवा बच्चों के उपन्यास के नाम पर छापी गई रचनाओं का भी तुलनात्मक अंतर देखिए। हिंदी के वरिष्ठतम बालसाहित्यकारों में से एक, जो शताधिक बालउपन्यासों के लेखक होने का दावा करते हैं, के औसत उपन्यास मोटे टाइप में छपे 30—35 पृष्ठों यानी अधिक से अधिक 12000—13000 शब्दों में सिमटे हैं। अपनी प्रतियोगिताओं में चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट जो पांडुलिपियां आमंत्रित करता है, उनमें बाल उपन्यास के लिए 25000—30000 शब्दों (मोटे टाइप में अस्सी से सौ पृष्ठ) की सीमा रखी जाती है। इनके सापेक्ष अंग्रेजी की क्लासिक रचनाओं की लंबाई देखते हैं। लेविस कैरोल की कालजयी उपन्यास ‘एलिस इन वंडरलेंड’, जिसका प्रायः दुनिया की हर भाषा में अनुवाद हो चुका है, जिसपर दर्जनों फिल्में भी बन चुकी हैं, का 2007 में प्रकाशित संस्करण की पृष्ठ संख्या 204 है। ऐसी ही महान रचना डेनियल डेफो की ‘राबिंसन क्रूसो’ का 2008 में नया संस्करण आया है, पृष्ठ संख्या है 244। ‘दि एडवेंचर आ॓फ टाम सायर’ नामक उपन्यास के लेखक मार्क ट्वेन के असली नाम सेम्युअल लेंगहार्न क्लेमेंस के बारे में बहुत कम लोग जानते होंगे। वह अपने उपनाम से ही पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है। यह उपन्यास पहली बार 1876 में प्रकाशित हुआ था, पृष्ठ संख्या थी—275। पुस्तक इतनी लोकप्रिय हुई कि ट्वेन को इसका अगला हिस्सा लिखना पड़ा। आठ वर्ष बाद पुस्तक का अगला भाग ‘एडवेंचर आ॓फ हकलबेरी फिन(1884)’ प्रकाशित हुआ तो वह पहले से भी अधिक स्थूलकाय था। 366 पृष्ठ संख्या की इस मोटी पुस्तक के बारे में अमेरिका के महान साहित्यकार नोबल विजेता अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने अपनी पुस्तक ‘ग्रीन हिल्स आ॓फ अफ्रीका में लिखा है—‘‘आधुनिक अमेरिकी साहित्य का स्रोत एक ही पुस्तक है—मार्क ट्वेन की ‘हकलबेरी हिन।’’1
ये सभी विश्व क्लासिक्स हैं। फिर भी कहा जा सकता है कि ये उदाहरण पुराने हैं। तो चलिए इन्हें छोड़ देते हैं। हम ‘हैरी पा॓टर’ को भी नहीं लेंगे जिसके एक के बाद एक सात खंड आ चुके हैं और जिसने लोकप्रियता की सभी सीमाओं को तोड़ा है। कुछ लोगों के लिए वह असाहित्यिक रचना है। मगर फिलिप पुलमेन का नाम तो आधुनिक लेखकों में सम्मान के साथ लेना पड़ेगा। अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों के विजेता पुलमेन ने ‘हिज डार्क मैटीरियल्स’ शृंखला की तीन पुस्तकें लिखी हैं। उनमें ‘नादर्न लाइट(1995)’ 399 पृष्ठ, ‘दि सबटेल नाइफ(1997) 341 पृष्ठ तथा ‘दि अंबर स्पाईग्लास(2000) 518 पृष्ठ की हैं। बालउपन्यास की इतनी बड़ी कृति हिंदी में शायद ही किसी ने लिखी है। कम से कम मुझे तो याद नहीं आती। यहां लेखक पर अंग्रेज प्रेमी होने का आरोप लगाया जा सकता है! लीजंेड फिल्मकार सत्यजीत राय ने बालसाहित्य लेखन को गंभीरता से लिया था। बच्चों के मनोविज्ञान तथा उनकी रुचि का ख्याल रखते हुए उन्होंने कई लोकप्रिय पुस्तकों की रचना की। ‘फेलुदा’, ‘प्रोफेसर शंकु’, ‘फाटिकचंद’ उनकी अत्यंत लोकप्रिय कृतियां हैं। इनमें ‘फेलुदा’ और ‘प्रोफेसर शंकु’ कहानी संग्रह हैं। ‘फेलुदा’ शीर्षक से उन्होंने जासूसी, रहस्य और रोमांच से भरपूर एक के बाद एक 35 कहानियों की रचना की थी। ‘प्रोफेसर शंकु’ उनकी विज्ञान-आधारित कहानियों का संकलन है। हिंदी में ऐसा प्रयोग मुझे याद नहीं। इस क्षेत्र में कुछ लेखकों ने अवश्य ही सराहनीय काम किया, पर अधिकांश की वर्णनात्मकता के बोझ से दबी रचनाएं, पाठकों पर अपेक्षित प्रभाव नहीं छोड़ पातीं। ‘फाटिकचंद’ किशोरोपयोगी उपन्यास है, इसका हाल ही में पेपरबैक संस्करण आया है जो अपने आकार, कथ्य और रोचकता में अंग्रेजी की उपर्युक्त पुस्तकों से टककर लेता है। इसलिए यह प्रश्न स्वाभाविक है कि जब अंग्रेजी और बांग्ला में बच्चों के स्थूलकाय उपन्यास तथा लंबी कहानियां चल सकती हैं तो भारत में क्यों नहीं? अब यह तो कोई नहीं मानेगा कि हिंदी पढ़नेवाले बच्चे इतने मंदबुद्धि हैं कि वे लंबे कथानक वाली रचनाओं को पचा ही नहीं सकते।
दरअसल सारा खेल बाजारवादी मानसिकता का है। रचना के पर कतरने का काम यह कहकर किया जाता है कि आधुनिक भागमभाग के युग में बच्चों के पास बड़ी पुस्तकों को पढ़ने का समय ही नहीं है। यदि ऐसा है तो भी यह बाजारवादी मानसिकता का सामना करने के बजाय उसके समक्ष हथियार डाल देने जैसा है। इसमें साहित्यकार की आत्मविश्वास की कमी झलकती है। यदि रचना का लघु कलेवर ही उसकी पठनीयता की कसौटी होता तो लघुकथा को हिंदी साहित्य की सर्वाधिक लोकप्रिय विधा होती। सबसे ज्यादा पाठक कविताओं के होने चाहिए थे। जबकि आज भी ‘कहानी’ और ‘उपन्यास’ सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली विधाएं हैं। दरअसल शब्द-संख्या के आधार पर किसी भी विधा का निर्णय करना अनुचित है। हर विधा की एक तकनीक होती है। रचना का पैमाना उसकी कथावस्तु और प्रस्तुतीकरण होना चाहिए। कहानी-उपन्यास यदि रोचक और उसका विषय बच्चों की पसंद के अनुकूल होगा तो वे उसकी ओर आकर्षित होंगे ही। बाजार की अपेक्षाओं के अनुसार जो बालसाहित्य प्रकाशित होता है, वह बच्चों में पढ़ने की तात्कालिक भूख भले शांत कर दे, किंतु उन्हें पढ़ने का संस्कार देने में असमर्थ सिद्ध होता है। परिणामस्वरूप उसका वैसा प्रभाव नहीं पड़ता जो एक साहित्यिक रचना से अपेक्षित होता है। संस्कार के अभाव में बालक साहित्यिक पुस्तक के साथ भी उपभोक्ता वस्तु जैसा ही व्यवहार करता है। जिससे उसकी प्रभावोत्पादकता घट जाती है। अतएव बालसाहित्यकारों से अपेक्षा की जा सकती है कि वे समाचारपत्र-पत्रिकाओं की के काॅलम को ध्यान में रखकर तो लिखें ही, उससे इतर कुछ अपने और अपने पाठकों के लिए भी अवश्य लिखें। ताकि बच्चों के लिए सिर्फ पुस्तकें ही नहीं बेहतर रचनाएं भी सामने आ सकें।
सभी जानते है कि साहित्य शब्द से गढ़ा जाता है। उसमें महत्ता उस विचार की होती है, जिसे साहित्यकार सर्वकल्याणकारी भावना के साथ रचना में समाहित करता है, और जिसको पाठक रचना के सत्व के रूप में उसके आस्वादन के साथ प्राप्त करता है। विचार सहज, सरल एवं संप्रेषणीय हों, बालपाठक शब्दों की ओर आकर्षित होकर उससे जुड़े, ताकि उनके माध्यम से लेखक की विचारधारा से परिचित हों, उसके साहित्यत्व को आत्मसात कर सके, जो रचना की आत्मा है—इसके लिए चित्रों ही आवश्यकता पड़ती है, विशेषकर बच्चों और उन सरल बुद्धि बड़ों के लिए जिन्हें शब्दों से गुजरने का अभ्यास कम है। साहित्य में चित्रों और शब्द की अटूट मैत्री को पहली बार जा॓न अमोस का॓मिनियस(1592-1670) ने पहचाना था। बच्चों की आवश्यकता को ध्यान में रखकर उस चेक लेखक ने ‘आ॓रबिस पिक्चस्’(वस्तु जगत) शीर्षक से सचित्र पुस्तक तैयार की थी। उसका पहला संस्करण 1658 में प्रकाशित हुआ था। उसमें पहली बार कथ्य को समझाने के लिए चित्रों की मदद ली गई थी। असल में बच्चों का पहला सचित्र शब्दकोश था, जिसमें चित्रों बच्चों को उनके आसपास के संसार के बारे में बताया गया था। वे चित्र सादा थे और उन्हें बहुत कलात्मकता से बनाया भी नहीं गया था। साधारण छापे से बस टाप दिया गया था। तो भी उसकी ऐतिहासिक महत्ता है। लगभग साढ़े तीन सौ वर्ष पहले जब छापाखाने का विकास हुआ तब तक देश शब्द-क्रांति की ओर बढ़ चुका था। कालांतर में चित्रों का रूप-रंग और संवरा। पेशेवर चित्रकारों ने मोर्चा संभाला। अब रचना केवल शब्दों से ही संवाद नहीं करती थी, बल्कि वह चित्रों के माध्यम से भी बोलने लगी थी। किंतु उन चित्रों की एक मर्यादा थी। वे शब्दों के साथ मौजूद तो रहते थे। मगर कभी उनपर भारी नहीं पड़ते थे। दोनों अपनी समानांतर भूमिका में रहकर सफल आयोजन रचते थे। जिन्हें चंदामामा के अंक याद हैं, नंदन और पराग को जिन्होंने पढ़ा है। वे शब्द और चित्र की अटूट जुगलबंदी को बेहतर समझ सकते हैं। वे जानते हैं कि चित्रकार की कूंची का एक कोना किस प्रकार रचना का पूरक और संप्रेषक बन जाता है।
साहित्यिक पुस्तकों के प्रकाशन में व्यावसायिकता के कारण इधर एक प्रश्न उठने लगा है कि बालसाहित्य की पुस्तकों में चित्र महत्त्वपूर्ण हैं अथवा कथ्य? इसमें कोई संदेह नहीं कि चित्र और शब्द यानी साहित्य, अभिव्यक्ति की अलग-अलग शैलियां हैं। दोनों ही कला हैं और परस्पर पूरक भी। उनमें कभी-कभी स्पर्धा भी देखी जा सकती है। चित्रकार की कूंची का एक झोंका एक झटके में जो बात कह सकता है, संभव है उसका बयान करने के लिए लाखों शब्दों का लश्कर भी अपर्याप्त सिद्ध हो। दूसरी ओर शब्द-नाद के माध्यम से जो संदेश मस्तिष्क की शिराओं में प्रवेश करता है, चाक्षुस संदेश की अपेक्षा उसकी अनुगूंज लंबे समय तक रहती है। वह अधिक संप्रेषणीय एवं ग्राह्यः होता है तथा जनसाधारण की पहंुच में भी। जबकि चित्रकला को परखने के लिए पारखी नजरों की जरूरत पड़ सकती है। कई बार तो पाठक कथ्य में इतना रम जाता है कि चित्रमय प्रस्तुतियों की ओर उसका ध्यान ही नहीं जाता। मगर यदि कथ्य कमजोर है तो इस बात की भी संभावना बनी रहती है कि बालक चित्रों को देखकर ही पुस्तक को किनारे रख दे।
अच्छा चित्र पुस्तक में बालक की रुचि जाग्रत करता है। अतः बात जब साहित्य की हो तो उसमें शब्द और उनमें निहित कथ्य ही महत्त्वपूर्ण माना जाएगा। चित्र का काम तो विषय की संप्रेषणीयता को विस्तार देना, उसे सहज एवं चाक्षुस बनाना है। जहां तक बच्चों की पुस्तकों का सवाल है, आजकल अधिकांश चित्र कंप्यूटर द्वारा बनाए जाते हैं। यह कार्य आमतौर पर जिन कंप्यूटर-शिल्पियों से कराया जाता है, उनकी दक्षता कंप्यूटर से काम लेने में होती है, न कि बालसाहित्य या बालमनोविज्ञान को लेकर। इसलिए उनके द्वारा बनाए गए चित्रों में सतहीपन झलक स्पष्ट दिखाई पड़ती है। वे चित्र चित्रों की निर्जीवता रेखाओं और रंगों के संयोजन से आगे नहीं बढ़ पाती। जबकि रचना के साथ दिए गए चित्र की भूमिका केवल उसकी अभिव्यक्ति को सहज-संप्रेषणीय बनाना नहीं है, बल्कि उस अनकहे को भी सामने लाना है, जिसका बयान करते समय शब्द अकसर चूक जाते हैं। एक स्तरीय चित्र पाठक-दर्शक को सोचने के विविध आयाम देता है। आशय है कि बालसाहित्य की पुस्तकों में चित्र तो महत्त्वपूर्ण हैं, मगर वे कथ्य का स्थान नहीं ले सकते। किसी भी महान साहित्यिक रचना के लिए एक अच्छा चित्र कथ्य एवं संदेश का पूरक हो सकता है, उसकी अनिवार्यता नहीं।
इसके बावजूद बालसाहित्य की पुस्तकों के प्रकाशन के समय प्रकाशक जितना उसके चित्रों पर परिश्रम करते हैं, कथ्य पर उतना नहीं करते। कथ्य को प्रायः संबंधित बालसाहित्यकार के लिए छोड़ दिया जाता है। हाल के वर्षों में तो कई प्रकाशकों को भी लेखक की भूमिका निभाते देखा गया है। वे चतुराईपूर्वक इंटरनेट या इधर-उधर से सामग्री जुटाकर उसको चित्रों के साथ सजा देते हैं। कंप्यूटर ने इस काम को और भी आसान करा दिया है। इससे संस्थान में दक्ष लेखकों, चित्रकारों का महत्त्व घटा है। परिणाम यह हुआ है कि चित्रों की आत्मा जाती रही। चित्रकार की कूंची पहले हर चित्रों में प्राणप्रतिष्ठा करती थी। अब वह माउस की बेजान-सी क्लिक के भरोसे रह गया है। इसके कारण चित्र अब भावमय नहीं, रंगमय नजर आते हैं।
लगभग दो दशक पहले तक राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में बालसाहित्य की सामग्री की तुलना आजकल परोसी जा रही रचनाओं से करें। उन दिनों रचनाओं पर पुराकथाओं का गहरा प्रभाव था। उसके अलावा जो साहित्य इस श्रेणी में प्रमुखता से प्रकाशित किया जाता था, वह मुल्ला नसरुद्दीन, तेनालीराम, अकबर-बीरबल, सिंहासन बतीसी, कथासरित्सागर, जातककथाएं और पंचतंत्र जैसे क्लासिकों से आता था। लिखित साम्रगी के साथ-साथ बड़ी मात्रा में धारावाहिक रूप से चित्रकथाएं भी छापी जाती थीं। उनका एक ही उद्देश्य होता था, बालपाठकों को अपनी संस्कृति और परंपरा से परिचित कराना। यद्यपि साहित्यकारों का एक वर्ग चित्रकथाओं को बालकों के लिए हानिकर मानता था। यह माना जाता था कि का॓मिक्सों के अतिमानवीय चरित्र बालकों को फंतासी के बहाने यथार्थ से दूर ले जाएंगे, जिससे वे वास्तविक जीवन की समस्याओं का सामना करने में असमर्थ सिद्ध होंगे। असल में वह दौर यथार्थवाद से प्रेरित था, जिसकी पृष्ठभूमि में माक्र्सवादी प्रेरणाएं थीं। हालांकि उन्हीं दिनों परंपरावादी साहित्यकारों का भी एक वर्ग था, जो अपना त्राण महाकाव्यीय मिथकों, अंतर्कथाओं में देखता था, तो भी गत शताब्दी के समापन तक प्रगतिवादी बालसाहित्यकारों का एक बड़ा वर्ग पैदा हो चुका था, जिसका ध्येय बच्चों की प्रश्नाकुलता को तीव्र बनाना था। उनके प्रेरणास्रोत कथासम्राट प्रेमचंद तथा सुदर्शन जैसे साहित्यकार थे, जिनकी किस्सागोई से भरपूर कहानियां, बच्चों के साथ-साथ बड़ों में भी समानरूप से लोकप्रिय थीं। एक और वर्ग था जो पुराकथाओं के सपाट प्रदर्शन की काट विज्ञान कथाओं में देखता था। ये दोनों ही धाराएं साथ-साथ विकसित हुईं थीं, तथापि वैज्ञानिक-बोध एवं कल्पनाशीलता की युति अभाव में हिंदी विज्ञान-साहित्य अपेक्षित सफलता अर्जित न कर सका, जबकि कल्पना और यथार्थ के समन्वय से बालसाहित्य की रचना करने वाले बालसाहित्यकारों जैसे जहूरबख्श, मस्तराम कपूर ‘उर्मिल’, डा। जाकिर हुसैन, सुदर्शन आदि ने हिंदी को कई अनूठी रचनाएं दी हैं, जिनमें किस्सागोई शैली का भरपूर उपयोग किया गया था।
गत शताब्दी के अंतिम दशक से बाजार ने हर चीज को अपनी अपेक्षाओं के अनुकूल ढालना आरंभ कर दिया था। आज हालात यह है कि समाचारपत्रों में प्रकाशित बच्चों की सामग्री का अधिकांश सूचनावाद से आक्रांत नजर आता है। उपनगरीय(सैटेलाइट टाउनशिप) की मानसिकता के विस्तार ने सुदूर गांव-देहात में भी मध्यवर्ग की संख्या में इजाफा किया है। दूसरी ओर छोटे परिवारों, विशेषकर उनमें जहां माता-पिता दोनों ही कार्य करते हैं, बच्चों को बड़े उपभोक्ता वर्ग के रूप में चिह्नित किया जाने लगा है। अतएव समाचारपत्र, पत्रिकाएं बालसाहित्य के नाम पर उन रचनाओं को प्रकाशित करते हैं, जो बच्चों को नए उत्पादों के बारे में जानकारी देती हों। इसलिए पर्यटन, तीर्थ-स्थलों आदि को लक्ष्य बनाकर, बालसाहित्य के अंतर्गत जो सामग्री परोसी जाती है उसका उद्देश्य बालपाठकों को देश की सांस्कृतिक छटाओं और बहुरंगी सभ्यता की परचाना-भर नहीं होता। उद्योग की तरह चलाए वाले समाचार-उद्यमों की असल मंशा अपनी सहयोगी पर्यटन उद्योग को बढ़ावा देने की होती है। इसलिए उनमें लोकजीवन की से अधिक वहां के प्रमुख होटलों तथा बाजारों की जानकारी होती है। बालसाहित्य पर सूचनावाद का प्रभुत्व तब है जब इंटरनेट ने सूचनाओं को माउस की क्लिक पर सर्वसुलभ बना दिया है। इससे वे चीजें पिछड़ने लगती हैं, जिनका वाणिज्यिक महत्त्व कम होता है, इससे प्रकारांतर में आर्थिक विषमताएं जन्मती हैं। अतएव बालसाहित्यकार के सामने बड़ी चुनौती बालसाहित्य को सूचनावाद के चंगुल से बचाना है। यह कार्य मौलिक सोच एवं साहित्यिक भावना के साथ ही संभव है।
बालसाहित्यकार के समक्ष एक चुनौती लैंगिक भेदभाव की खाई को पाटना भी है। यह आरोप पर बहुत-से साहित्यकार बंधुओं को चौंका सकता है। पर यह सचाई है कि हमारा बालसाहित्य आज भी सामंतकालीन प्रवृत्तियों से बाहर नहीं आ पाया है। हिंदी में बच्चों के लिए लिखी जाने वाली कहानियों, उपन्यासों को यदि हम देखें तो आज भी लगभग तीन-चौथाई रचनाओं के नायक पुरुषवर्ग से संबंधित होते हैं। शेष आधी आबादी को मात्र एक-चौथाई से ही संतोष करना पड़ता है। आजादी के बाद बालसाहित्य के अन्य क्षेत्रों में जहां आमूल परिवर्तन आया है, वहीं लैंगिक विषमता को लेकर हमारा बालसाहित्य आज भी मध्ययुगीन प्रवृत्तियों से भरा है। यहां हम इस बात पर संतोष व्यक्त कर सकते हैं कि लैंगिक भेदभाव केवल हिंदी तक सीमित नहीं है। सर्वाधिक लोकतांत्रिक होने का दावा करने वाला पश्चिमी समाज भी इस जकड़न से बाहर नहीं आ पाया है।
फरवरी 2007 में अमेरिका के सेंट्रल का॓लिज के दो प्रोफेसरों डा॓। डेविड एंडरसन तथा डा॓। माइकल हेमिल्टन ने बच्चों के लिए प्रकाशित पुस्तकों में लैंगिक भेदभाव की स्थिति का अध्ययन किया था। अपनी रिपोर्ट में उन्होंने 2001 के बाद बच्चों की लगभग 200 सर्वाधिक बिक्री वाली पुस्तकों तथा 1938 से स्थापित बहुप्रतिष्ठित काल्डकोट पुरस्कार से सम्मानित सचित्र पुस्तकों में से सात वर्ष की पुस्तकों के नमूने का चयन किया था। उनके अध्ययन के पश्चात वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि बच्चों के लिखा जाने वाला बालसाहित्य लैंगिक भेदभाव की भावनाओं से भरा पड़ा है। बालसाहित्य की रचनाओं में नर पात्रों की संख्या मादा पात्रों की अपेक्षा लगभग दो गुनी होती है। नर पात्रों को चित्रों में प्रमुखता से दर्शाया जाता है। ऐसा दर्शाया जाता है मानो लड़कियां लड़कों की अपेक्षा प्राकृतिक तौर पर कमजोर होती हैं, इसलिए उन्हें लड़कों से अधिक देखभाल की आवश्यकता होती है। अध्ययन में यह भी सामने आया कि बालसाहित्य की रचनाआंे में लड़कियों को प्रायः घर के काम में लिप्त दिखाया जाता है। अध्ययन के निष्कर्षों पर एंडरसन की टिप्पणी थी कि,‘बालसाहित्य की आधुनिक चित्रकथाएं इस अंधविश्वास को आज भी बनाए हुए हैं कि लड़के यानी पुरुष पात्र लड़कियों अर्थात स्त्रीपात्रों की अपेक्षा अधिक मनोरंजन प्रधान होते हैं।’
बच्चों में समानतावादी दृष्टिकोण भरने के लिए आवश्यक है कि माता पिता आरंभ से ही इसपर ध्यान दें। दूसरी शोधकर्ता डाॅ। हेमिल्टन ने चेताया है कि बालसाहित्य की कृतियों मे, ‘लैंगिक भेदभाव बच्चों के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। यह उनकी कैरियर संबंधी उड़ान में अवरोध पैदा करता है, उनकी महत्त्वाकांक्षाओं को कुंद करता है। उनपर गहरा मनौवैज्ञानिक असर डालते हुए भविष्य के माता-पिता के रूप में उनके विचारों और भावनाओं का अनुकूलन करता है।’3 परिणाम यह होता है कि लैंगिक भेदभाव पीढ़ी-दर-पीढ़ी बना रहता है।
रचनाओं में अभिव्यक्त लैंगिक भेदभाव किशोर मानस पर कितना गहरा असर डालता है, उसका ताजा उदाहरण हैरी पा॓टर की लेखिका जे। के। रोलिंग के जीवन से भी दिया जा सकता है। लेखिका का असली नाम जोनी रोलिंग है। करीबी उन्हें प्यार से ‘जो’ कहकर बुलाते हैं। जब उन्होंने हैरी पाॅटर लिखा और उसकी पहली पा॓डुलिपि अपने प्रकाशक ‘ब्लूम्सबरी’ को भेजी तो प्रकाशक को लगा कि यह जानने के बाद कि पुस्तक किसी महिला लेखक की रचना है, किशोर पाठक उसकी ओर कम संख्या में आकर्षित होंगे। इसलिए उसने लेखिका से अनुरोध किया कि वह अपने सरनेम ‘रोलिंग’ के अलावा दो नामाक्षर प्रयोग करे। प्रकाशक की सलाह पर अमल करते हुए जोनी ने अपनी नानी कैथलीन, जो उन्हें बचपन में अच्छी-अच्छी कहानियां सुनाया करती थी, के नाम से ‘के’ उधार लिया। इस प्रकार पुस्तकों पर ‘जे के रोलिंग’ नाम छापा गया। यह आज भी उनका असली नाम नहीं है।
इकीसवीं शती का पहला दशक समापन की ओर है, पर बालसाहित्यकार की चुनौतियां कम नहीं हुई हैं। बल्कि बाजार जिस तरह अपने सर्वग्राही पंजे फैलाता जा रहा है, उससे तो लगता है कि चुनौतियां उत्तरोत्तर बढ़ती ही जा रही हैं। ऐसे में हर उस व्यक्ति का, जो बच्चों को जड़ उपभोक्ता बनने से रोकना चाहता है, जो चाहता है कि सूचनाओं के चैतरफा दबाव और बाजारवादी प्रलोभनों के बीच भी बालक का विवेक और संवेदनशीलता बनी रहे, कर्तव्य है कि बच्चों को पढ़ने के लिए उनकी रुचि के अनुकूल मगर स्तरीय साहित्य उपलब्ध कराए। साहित्यकारों का कर्तव्य है कि महज पत्र-पत्रिकाओं के लिए रचनाओं का बोनसाई तैयार करने के बजाए वे मौलिकता, कथानक की मांग, बच्चों के मनोरंजन एवं उनकी रुचि के अनुसार अपना लेखन-कार्य करें। प्रकाशकों का लेखक बनने से अच्छा है अपने पाठकों का साहित्यकार बनना। रचना यदि मनोरम है तो वह अपना पाठकवर्ग हर हाल में खोज लेगी। साहित्य दिल का मामला, कच्ची उम्र का प्रेम है, बिना संवेदनशीलता के वह लोकप्रिय हो ही नहीं सकता।
पठनीयता के संकट को दूर करने तथा संवेदनाओं के क्षरण को रोकने के लिए आवश्यक है कि बालक का बचपन से ही साहित्य से लगाव हो। इसका एक रास्ता ब्रितानी अध्यापक क्रेग जेंकिन भी दिखा रहे हैं। हालांकि रास्ता नया नहीं हैं। जगह-जगह जाकर वहां की लोककथाएं संचित करने और उन्हें बच्चों तक पहुंचाने का काम उनसे बहुत पहले 1825 के आसपास जर्मनी के ग्रिम बंधु कर चुके हैं। क्रेग जेंकिन पिछले दिनों दक्षिण भारत की यात्रा पर थे। यहां उन्होंने लोककथाएं इकट्ठी कीं। अब वे उन्हें लंदन में अपने विद्यार्थियों को सुनाते हैं। उनका यह प्रयोग बहुत सफल हो रहा है। विद्यार्थी कहानियों को सुनकर झूम उठते हैं। सांस्कृतिक आदान-प्रदान के जिस काम को करने में बड़े-बड़े सांस्कृतिक मंत्रालयों और राजकीय दूतावासों के पसीने छूटने लगते हैं, वह कहानियों के माध्यम से आसानी से पूरा हो रहा है। हिंदी को ऐसे ही समर्पित किस्सागो चाहिए, जो उसको बाजारवाद और सूचनावाद के चंगुल से निकालकर लोक के नजदीक ले जा सकें। (srijangatha.com से साभार)

No comments:

Post a Comment