Thursday 18 July 2013

संस्कृति के चार अध्याय


रामधारी सिंह दिनकर

संस्कृति के चार अध्याय महाकवि रामधारी सिंह दिनकर की एक बहुचर्चित पुस्तक है जिसे साहित्य अकादमी ने सन् १९५६ में न केवल पहली बार प्रकाशित किया अपितु आगे चलकर उसे पुरस्कृत भी किया। इस पुस्तक में दिनकर जी ने भारत के संस्कृतिक इतिहास को चार भागों में बाँटकर उसे लिखने का प्रयत्न किया है। वे यह भी स्पष्ट करना चाहते हैं कि भारत का आधुनिक साहित्य प्राचीन साहित्य से किन-किन बातों में भिन्न है और इस भिन्नता का कारण क्या है ? उनका विश्वास है कि भारतीय संस्कृति में चार बड़ी क्रान्तियाँ हुई हैं और हमारी संस्कृति का इतिहास उन्हीं चार क्रान्तियों का इतिहास है।
पहली क्रान्ति तब हुई, जब आर्य भारतवर्ष में आये अथवा जब भारतवर्ष में उनका आर्येतर जातियों से सम्पर्क हुआ। आर्यों ने आर्येतर जातियों से मिलकर जिस समाज की रचना की, वही आर्यों अथवा हिन्दुओं का बुनियादी समाज हुआ और आर्य तथा आर्येतर संस्कृतियों के मिलन से जो संस्कृति उत्पन्न हुई, वही भारत की बुनियादी संस्कृति बनी। इस बुनियादी भारतीय संस्कृति के लगभग आधे उपकरण आर्यों के दिए हुए हैं। और उसका दूसरा आधा आर्येतर जातियों का अंशदान है। दूसरी क्रान्ति तब हुई, जब महावीर और गौतम बुद्ध ने इस स्थापित धर्म या संस्कृति के विरुद्ध विद्रोह किया तथा उपनिषदों की चिन्ताधारा को खींच कर वे अपनी मनोवांक्षित दिशा की ओर ले गये। इस क्रान्ति ने भारतीय संस्कृति की अपूर्व सेवा की, अन्त में, इसी क्रान्ति के सरोकार में शैवाल भी उत्पन्न हुए और भारतीय धर्म तथा संस्कृति में जो गँदलापन आया वह काफी दूर तक, उन्हीं शैवालों का परिणाम था। तीसरी क्रान्ति उस समय हुई जब इस्लाम, के विजेताओं के धर्म के रूप में, भारत पहुँचा और देश में हिन्दुत्व के साथ उसका सम्पर्क हुआ और चौथी क्रान्ति हमारे अपने समय में हुई, जब भारत में यूरोप का आगमन हुआ तथा उसके सम्पर्क में आकर हिन्दुत्व एवं इस्लाम दोनों ने नव-जीवन का सम्भव किया। इस पुस्तक में इन्हीं चार क्रांतियों का संक्षिप्त इतिहास है।
पुस्तक की भूमिका में रामधारी सिंह दिनकर कहते हैं, " उत्तर-दक्षिण पूर्व पश्चिम देश में जहां भी जो हिन्दू बसते है। उनकी संस्कृति एक है एवं भारत की प्रत्येक क्षेत्रीय विशेषता हमारी इसी सामासिक संस्कृति की विशेषता है। तब हिन्दू एवं मुसलमान हैं, जो देखने में अब भी दो लगते हैं। किन्तु उनके बीच भी सांस्कृतिक एकता विद्यमान है जो उनकी भिन्नता को कम करती है। दुर्भाग्य की बात है कि हम इस एकता को पूर्ण रूप से समझने में समर्थ रहे है। यह कार्य राजनीति नहीं, शिक्षा और साहित्य के द्वारा सम्पन्न किया जाना चाहिए। इस दिशा में साहित्य के भीतर कितने ही छोटे-बड़े प्रयत्न हो चुके है। वर्तमान पुस्तक भी उसी दिशा में एक विनम्र प्रयास है। इस पुरस्तक को साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।

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