Thursday 18 July 2013

क्लासिक साहित्य


विनीत उत्पल

हिन्दी साहित्य बहुत ही विषमकारी दौर से गुजर रहा है। कालजयी रचनाएं ढूंढ़े नहीं मिल रही हैं। कोई भी लेखक बेस्ट सेलर होने का दावा नहीं कर सकता। हिन्दी फिल्में दो सौ करोड़ का बिजनेस कर रही हैं लेकिन हिन्दी साहित्य की किसी कृति की दो सौ प्रतियां भी नहीं बिक रहीं। कौन-सी किताब कितनी संख्या में बिक रही है, कोई नहीं जानता। पाठकों का रोना रोने वाले हमारे शीर्ष साहित्यकार ही अभी तक ‘कालजयी कृतियों’ को लेकर एकमत नहीं हैं, खासकर समकालीनों की रचनाओं के प्रति उनमें दुराग्रह का भाव स्पष्ट है।
हिन्दी भाषा पर लोग जितना भी गर्व करें लेकिन वास्तविकता यह है कि इस भाषा में अभी तक न तो सर्वकालिक कृति या ‘क्लासिक’ की पहचान की गई है और न ही कोई बेस्ट सेलर ही बन पाई है। साहित्यकार गफलत में हैं कि इस भाषा का प्रचार-प्रसार बढ़ रहा है और अधिक से अधिक देशों में यह बोली जा रही है। दुनिया में सबसे अधिक फिल्में हिन्दी भाषा में बन रही और मुनाफा कमा रही हैं। ऐसे में, सवाल है कि यदि हिन्दी फिल्मों की कमाई करोड़ों में है, अखबारों का प्रसार लाखों में है तो हिन्दी साहित्य की रचनाओं के पाठकों की संख्या गिनती के लायक क्यों हैं? हिन्दी के रचनाकार कूपमंडूक क्यों बने हुए हैं और सिर्फ समीक्षा छपने व सेमिनारों में रचना को लेकर विचार-विमर्श होने से संतुष्ट क्यों हो जाते हैं?
आज के युवाओं को हिन्दी की कौन कौन-सी क्लासिक रचनाएं पढ़नी चाहिए, जब ऐसे सवाल हिन्दी विद्वानों से पूछे जाते हैं तो वे बगले झांकने लगते हैं। फोन पर गुलजार कहते हैं कि पढ़ने के अलावा उनके पास और भी काम हैं तो आलोचक शीर्ष नामवर सिंह काम की अधिकता के कारण बाद में फोन करने की बात कह लाइन ही काट देते हैं। निर्मला जैन तो मानती हैं कि फणीश्वरनाथ रेणु के ‘मैला आंचल’ के बाद के समय में किसी भी साहित्यकार ने गहराई में जाकर एक भी उपन्सास नहीं लिखा। विश्वनाथ त्रिपाठी जैसे वरिष्ठ आलोचक जीवित रचनाकारों की कृतियों के नाम लेने में हिचकिचा जाते हैं।
हम हिन्दी भाषी पश्चिमी जगत या अंग्रेजी के पीछे भागते हैं, इसकी शिकायत करने वालों को ही इसका कारण नहीं मालूम है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि ग्रीक कवि होमर की रचनाएं आज भी पढ़ी जाती हैं, जो हजार-दो हजार साल पहले रोम और एथेंस में पढ़ी जाती थी। वह न्यूयार्क, शिकागो, लंदन, पेरिस से लेकर रायपुर, कानपुर, पटना, भागलपुर, देहरादून तक में पढ़ी जा रही है। संस्कृत में लिखी ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ की कहानियां भारतवर्ष के अधिकतर घरों में सुनी जाती हैं । तुलसीदास द्वारा रचित ‘रामचरितमानस’ के दोहे लोगों की जुबान पर हैं और इसकी भाषा अवधी है। लोग इन रचनाओं को सिर्फ पढ़ते नहीं बल्कि उन्हें जबानी तक याद हैं। कालिदास की ‘रघुवंश’ औ र ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’ का कोई जोड़ कहीं नहीं है। ऐसे में, सवाल है कि ’क्लासिक’ रचनाओं की श्रेणी में किन रचनाओं को शामिल किया जाता है? इसका सीधा-सा जवाब है कि साहित्यिक काल की कसौटी पर जो खरी उतरती है, उसे क्लासिक कहा जाता है यानी क्लासिक सार्वभौम है। इसमें वे तत्व समाहित होते हैं, जिनकी उपयोगिता और सार्थकता का संबंध हमारे जीवन से है। रामायण और महाभारत की कथा इस हद तक हमारे जेहन में समाहित है कि उनका अस्तित्व अयोध्या से लेकर मथुरा तक ढूंढते हैं। लेकिन यह साहित्य हिन्दी में नहीं रचा गया।
रवींद्रनाथ टैगोर को जिस कृति ‘गीतांजलि’ पर नोबल पुरस्कार मिला, वह बांग्ला में लिखी गई थी। शीरी-फरहाद, लैला-मजनू से लेकर शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की ‘देवदास’ जैसी कहानियां पंजाबी और बांग्ला से आई हैं पर देश की हर जुबान में सुनी व पढ़ी जाती हैं। इसलिए ये कहानियां क्लासिक हैं। सूरदास, रहीम, कबीर से लेकर प्रेमचंद की रचनाओं को क्लासिक का दर्जा प्राप्त है और सड़क किनारे पटरी पर लगी दुकानों से लेकर मॉल्स में भी ये दिख जाती हैं। हिन्दी लेखनी और लेखक काफी विकट परिस्थितियों से जूझ रहा है। चेतन भगत आज अंग्रेजी में बेस्ट सेलर हैं, जबकि उन पर सही-सही अंग्रेजी तक न लिख पाने के आरोप हैं। लुगदी साहित्य का वक्त अब बीत चुका है लेकिन उस दौर में हिन्दी का बेस्ट सेलर वही बना, जिसने आम लोगों की निजी जिंदगी से जुड़कर लुगदी साहित्य लिखा। गुलशन नंदा, वेदप्रकाश शर्मा जैसे लेखकों की रचनाओं की लोकप्रियता के सामने शायद ही किसी हिन्दी साहित्य के हार्डकोर लेखक की रचनाएं टिक पाती हों। बाजार का सच है कि ‘वर्दी वाला गुंडा’ उपन्यास की तो आठ करोड़ प्रतियां बिकीं। आज कई किताबों के कई संस्करण तक निकले रहे हैं।
धर्मवीर भारती द्वारा लिखे गए ‘गुनाहों का देवता’ के 30 से अधिक संस्करण छप चुके हैं लेकिन कितनी संख्या में इसकी बिक्री हुई है, कोई नहीं जानता। प्रकाशक तो शायद ही किसी भी पुस्तक के छपने और बिकने की सही संख्या बताते हों। किन किताबों को आम पाठक खरीद रहा है, इसकी जानकारी शायद ही मिलती हो। हालांकि जिनकी लॉबी तगड़ी होती है , उनकी बिक्री जरूर ठीकठाक हो जाती है। अखबार में जिस तरह एबीसी संस्था औचक निरीक्षण कर अखबारों की प्रसार संख्या की लिस्ट जारी करती है, ऐसी कोई संस्था साहित्यिक किताबों को लेकर नहीं है। माना कि इस मामले में प्रकाशकों का अपना लोभ होता है लेकिन कोई लेखक भी तो इस मामले में आवाज नहीं उठाता। असल बात यह है कि किसी भी किताब की असली खरीद सरकारी ही होती है। प्रकाशक आम पाठकों को नजरों में रखकर किताबें प्रकाशित नहीं करता।
ऐसे में, रॉयल्टी की बात कौन करे? ऐसे हिन्दी लेखक, जिनकी अधिक रॉयल्टी है, उनके नाम तक सामने नहीं लाये जाते। दूसरे क्षेत्रों की तरह साहित्य में कई लॉबी काम कर रहे हैं। सभी अपनी लॉबी के लोगों की रचनाओं को सर्वश्रेष्ठ का सर्टिफिकेट देने में लगी हैं। आपसी प्रतिस्पर्धा के कारण बड़े-बड़े मठाधीश तक दूसरों की कृतियों का नाम नहीं लेना चाहते। सवाल है कि क्या वास्तव में अच्छी रचनाएं नहीं लिखी जातीं या फिर गु टबाजी के चक्कर में अच्छी रचनाओं की पब्लिसिटी नहीं हो पाती? ऐसे में सवाल यह भी कि कहीं मठाधीश या प्रमुख हस्ताक्षरों ने नई रचनाओं और नए रचनाकारों के लेखन को पढ़ना तो बंद नहीं कर दिया है!
बहरहाल, हिन्दी के नाम पर लोग जितनी उछलकूद करें, राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समारोहों-सम्मेलनों का आयोजन कर लें लेकिन जमीनी हकीकत बड़ी भयावह है और दिलचस्प भी! केंद्र और राज्य सरकारें हिन्दी के नाम पर जमकर पैसे खर्च कर रही हैं, सरकारी लेखक जमकर विदेश की यात्राएं कर रहे हैं लेकिन हकीकत यह है कि अभी हिन्दी में अधिकतर सरकारी वेबसाइटें तक उपलब्ध नहीं हैं। जो लेखक हैं, वे बड़े शहरों में रह रहे हैं, चांदी कूट रहे हैं। दूसरी ओर, मुफ्त में लिखा जाने वाला ऑनलाइन साहित्य खूब पढ़ा जा रहा है, ब्लॉग और साइटों पर रचनाएं जमकर लिखी और पढ़ी जा रही हैं। एक-एक ब्लॉग किसी भी लघु पत्रिकाओं के मुकाबले अधिक पढ़ा जा रहा है। ऐसे में, सवाल फिर घूमकर वही है कि कब हिन्दी की कलम से ‘कालजयी’, ‘क्लासिक’ और ‘बेस्ट सेलर’ रचनाएं लिखी जाएंगी और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी की बिन्दी अपनी धौंस जमा सकेगी। (राष्ट्रीय सहारा से साभार)

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