Thursday 18 July 2013

येफ्रेमोव की विज्ञान-कथाएं और भविष्यवाणियां


योगेन्द्र नागपाल

बीसवीं सदी में विज्ञान ने अकल्पनीय उन्नति की| इसके साथ ही साहित्य में विज्ञान-कथा नाम की एक नई विधा का विकास हुआ| विज्ञान-कथा में लेखक कल्पना करता है कि निकट और सुदूर भविष्य में विज्ञान जीवन को कैसे बदल देगा और उसी के आधार पर अपनी कथा रचता है| अधिक मेधावी लेखकों की कल्पना तो भविष्यवाणी की तरह सच सिद्ध हो जाती है| ऐसे ही एक लेखक थे इवान येफ्रेमोव – बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध के सबसे विख्यात रूसी विज्ञान-कथा के रचयिता |
उन्होंने अपनी रचनाओं में अनेक वैज्ञानिक खोजों की पूर्वकल्पना की: इस बात की कि एक गोली जितने सूक्ष्म डाक्टरी उपकरण बनेंगे - रोगी गोली निगल लेगा, और वह शरीर के भीतर पहुचकर रोग का निदान और उपचार करेगी, कि वस्तु को चारों ओर से दिखाने वाले चित्र खींचे जा सकेंगे (इसे ही अब होलोग्राफी कहते हैं), कि तरल क्रिस्टलों के गुणों का उपयोग करते हुए सजीव चित्र दिखाए जाएंगे (आज के एलसीडी टीवी) | उन्होंने ही सबसे पहले यह अनुमान लगाया था कि सागर तल की रूपरेखा पृथ्वी के धरातल की रूपरेखा को दोहराती है| विज्ञान-कथा लेखक बनने से पहले ही वह एक वैज्ञानिक के नाते मान्यता पा चुके थे| जीवविज्ञान में उन्होंने डी.एससी. की डिग्री पाई और काम किया जीवाश्म-विज्ञान के क्षेत्र में| डायनासौरों के कई “कब्रिस्तान” उन्होंने खोज निकाले|
इवान येफ्रेमोव अत्यधिक लोकप्रिय लेखक थे, उनकी पुस्तकें दुकानों तक पहुँचने से पहले ही बिक जाती थीं, पुस्तकालयों में भी उन्हें खोज पाना आसान नहीं था| कहा जा सकता है कि उन्होंने पाठकों को पूरी तरह वशीभूत कर लिया था| इसका कारण शायद यह था कि उनके उपन्यासों में पाठकों को वे विचार मिलते थे, जो सोवि़यत संघ में प्रकाशित किसी भी तरह की इतिहास की पुस्तकों में नहीं पाए जाते थे|
उनके उपन्यासों में एक ही “महाविचार” सूत्र की भांति पिरोया हुआ था| वह यह कि बहुत पहले कभी, प्रागैतिहासिक काल में तिब्बत में मानवजाति के जीवन के लक्ष्य निर्धारित किए गए थे, कि आज भी हिमालय की गुफाओं में ऐसे महात्मा हैं, जिन्हें इन लक्ष्यों का ज्ञान है| येफ्रेमोव यह मानते थे कि रूस ही वह स्थान होगा जहाँ भारत के विवेक और पश्चिम के विज्ञान का “संश्लेषण” होगा| 1950 के दशक के अंत में उन्होंने ‘सर्प हृदय’ नाम का एक लघु-उपन्यास लिखा, जिसमें संस्कृत भाषा ही पहले कंप्यूटर की भाषा बनती है और फिर सारी मानवजाति की आम भाषा| दूसरे शब्दों में, येफ्रेमोव यह मानते थे कि भूराजनीति और विचारधारा के पहलू से देखा जाए तो यूरेशियाई रूस और भारत के सहबंध से ही भविष्य के मानव-समाज का नाभिक बनेगा|
मनुष्य जीवन में क्या बनता है इसका स्रोत नियमतः उसके बचपन में ही होता है| इवान येफ्रेमोव का जन्म 1908 में एक बड़े व्यापारी के घर हुआ, जो लकड़ी बेचने का काम करते थे| उनके घर में बहुत अच्छा पुस्तक-संग्रह था| चार वर्ष की आयु में ही इवान पढ़ना सीख गया था| छह वर्ष का होते-होते यात्रा-विवरणों और उपन्यासों का दीवाना हो गया| 1917 की क्रांति के बाद परिवार सब कुछ खो बैठा| कहाँ-कहाँ नहीं भटकना पड़ा किशोर को और क्या-क्या पापड नहीं बेलने पड़े - माल ढोने-लादने का भी काम किया और ट्रक के क्लीनर का भी, फिर श्रमिक विद्यालय में शिक्षा भी पाई| इन्हीं दिनों कुछ वैज्ञानिकों से उनका परिचय हो गया और वह विशाल वैज्ञानिक पुस्तकालयों तक पहुँच पाए|
किशोर येफ्रेमोव के मन में दो अभिलाषाएं थीं, जिन्हें वह प्रायः आजीवन ही संजोए रहे| एक ओर सागर का आकर्षणथा| 1925 में उन्होंने नौचालन की परीक्षा पास की और फिर काफी समय तक भांति-भांति के जहाज़ों पर काम किया| दूसरी ओर जीवाश्मिकी में उनकी रूचि निरंतर अधिक गहरी होती गई| पृथ्वी से विलुप्त हो गए जीवन के रूपों का वह अध्ययन करने लगे और इसके साथ ही उनमें पृथ्वी से विलुप्त हो गई सभ्यताओं का अध्ययन करने की जिज्ञासा भी बढ़ी|
येफ्रेमोव बीस वर्ष के थे, जब उनका पहला वैज्ञानिक लेख प्रकाशित हुआ, कुछ साल बाद तो उनकी गिनती दर्जनों में पहुँच गई| सन् 1929 से वह भूगर्भीय-अभियानों पर जाने लगे, जिनके दौरान कई महत्वपूर्ण खोजें उन्होंने कीं| अब वह कभी साइबेरिया जाते, तो कभी याकूतिया और कभी मंगोलिया के गोबी रेगिस्तान में| 1935 में उन्होंने खनन संस्थान के भू-सर्वेक्षण विभाग की परीक्षाएं पास करके भू-विज्ञान में एम.एससी की डिग्री पा ली और फिर साल भर बाद पी.एचडी. भी कर ली|1940 में उन्होंने जीवविज्ञान में डी.एससी. की डिग्री पा ली| अब वैज्ञानिक जगत में वह प्रसिद्धि पाने लगे| खास तौर पर जब उन्होंने जीवाश्मिकी की एक नई शाखा टैथोनोमिया की स्थापना कर दी – यह विज्ञान उन नियमों को सूत्रित करता है, जिनके अनुसार पुरातन जीवों के भूगर्भ में भण्डार बने और उनका अश्मिकरण हुआ|
बीमारी ने साहित्य-सृजन से उनका पक्का नाता जोड़ दिया| बत्तीस वर्ष की आयु में वह लंबे समय के लिए बिस्तर पर पड़ गए| उनके जैसा उद्यमी प्रकृति का व्यक्ति यों खाली ही तो बिस्तर पर पड़ा नहीं रह सकता था, सो अपने दुस्साहसिक अनुभवों और वैज्ञानिक कल्पना पर आधारित पहली कहानियां लिखने लगे| इनका नाम ही उन्होंने रखा: विचित्र कथा-माला| ये कहानियां पत्रिकाओं में छपने भी लगीं|
शीघ्र ही येफ्रेमोव समझ गए कि इस संसार में सब कुछ उद्विकास के निश्चित नियमों से शासित है, इन नियमों का ज्ञान होने पर ही मनुष्य संसार में अपने स्थान को ठीक-ठीक समझ सकता है| उनका दृढ़ विश्वास था कि यदि विज्ञान के पीछे दर्शन-दृष्टि नहीं है तो ऐसा विज्ञान रिक्तता की ओर ही ले जाता है| 1957 में ‘एंड्रोमेडा नीहारिका’ और 1962 में ‘वृषभ काल’ नाम से उनके उपन्यास छपे और सब लोग उन्हें एक सृजनहार चिन्तक और सोवियत संघ में सामजिक-विज्ञान-कथा लेखन का सूत्रधार कहने लगे| ये दोनों पुस्तकें साफ-साफ युवा पीढ़ी को संबोधित हैं| इनमें उन्होंने अपनी इस परिकल्पना को चित्रित किया है कि जीवन कोई भी रूप धारण करे, अंततोगत्वा अपने उद्विकास में वह एक ऐसे निश्चित चरण पर पहुंचता है, जहाँ वह मानव-रूपी हो जाता है| सभ्यता का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि वह मनुष्य के भविष्य का क्या फैसला करती है, क्योंकि “मनुष्य स्वयं में एक अथाह ब्रह्माण्ड है”| लेखक के लिए उसकी आशा का स्रोत मनुष्य की अपार संभावनाओं में है, न कि अंतरिक्ष से अवतरित होनेवाली किन्हीं उच्चतर शक्तियों में|
येफ्रेमोव का एक सबसे मशहूर उपन्यास है ‘उस्तरे की धार’| इसके कथानक में जोखिम-गल्प, प्रेम-गाथा और विज्ञान-कथा, जासूसी कहानी, दार्शनिक और वैज्ञानिक विचार-मंथन – सभी कुछ अंतर्गुन्थित है| इसका घटना-स्थल कहीं प्राचीन भारत है, तो कहीं आधुनिक इटली और अफ्रीका|.. अलग-अलग पात्रों के जीवन-पथ कहीं न कहीं आकर मिल जाते हैं| एक ओर यह डाक्टर गीरिन की कहानी है, जो मानव मस्तिष्क में अंतर्निहित गुप्त संभावनाओं का अध्ययन कर रहा है, दूसरी ओर हैं कुछ इटलीवासी, जो हीरों की खोज में अफ्रीका की यात्रा पर निकले हैं, साथ ही है एक भारतीय चित्रकार की कहानी| इन सब पात्रों को आपस में जोडता है उस “काले मुकुट का रहस्य”, जिसने सिकंदर महान के जीवन में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी| पाठक उपन्यास के हर पन्ने पर भारत से येफ्रेमोव के लगाव के दर्शन पाता है| सभी भारतीय पात्रों (प्रोफ़ेसर योगी वितर्कानंद, चित्रकार दयाराम रामामूर्ति, उसकी प्रेमिका, नर्तकी तिलोत्तमा) का चित्रण नितांत सजीव है, पाठक के मन पर गहरी छाप छोड़ता है| वैसे तो येफ्रेमोव की सभी रचनाओं में जो कुछ भी भारत से जुड़ा हुआ है, वह एक पहेली जैसा होता है और साथ ही उस पर एक आलोक की छाप होती है|
‘उस्तरे की धार’ मनुष्य के आध्यात्मिक बल की, विवेक-विजय की, सौंदर्य, प्रेम और न्याय की खोज की गाथा है| इस उपन्यास के नाम में ही येफ्रेमोव के दार्शनिक सिद्धांत का मर्म व्यक्त हुआ है: संसार में जो कुछ भी सुंदर है, महान है वह दो चरम अवस्थाओं के, दो अथाह गर्तों के बीच स्थित है – उस्तरे की धार पर| इस उपन्यास के छपने से कुछ समय पहले येफ्रेमोव ने एक भेंटवार्ता में कहा था: “मानव शारीर का तापमान – 37अंश मृत्यु के तापमान 42अंश से केवल पांच कदम (अंश) की दूरी पर है, जहाँ प्रोटीन जम जाते हैं| साथ ही 37अंश का तापमान सक्रिय जीवन के लिए सबसे अनुकूल तापमान है| यही है “उस्तरे की धार”|” यह उपन्यास येफ्रेमोव के जीवन के अंतिम काल में प्रकाशित हुआ| रूसी लेखक ने यह पहचान लिया लगता था कि सारी पार्थिव सभ्यता रोगग्रस्त है| वह चाहते थे कि किसी तरह हम धरतीवासियों के दिलोदिमाग में यह बात बिठा दें कि हमें एक दूसरे के प्रति, प्रकृति के प्रति भलमनसी बरतनी चाहिए, ज़िंदा बचे रहने के बुनियादी नियम सीख लेने चाहिए, ताकि हमारा यह पृथ्वी रूपी यान, जो सीमित संसाधन लिए सितारों की शाश्वत दुनिया को उड़ा जा रहा है, वह हजारों साल तक खुशहाल रहे| यहां एक बार फिर उनका दूरदर्शी विद्वान का गुण प्रकट हुआ| उनका कहना था कि मानवजाति ही प्रकृति को नष्ट नहीं कर रही है, प्रकृति भी मानवजाति को नष्ट करने में लगी है| उन्होंने यह चेतावनी दी थी कि लोग प्रकृति की लक्ष्मण रेखा लांघ सकते हैं| भूगर्भ की गहराइयों से तेल और गैस निकालते हुए उनके साथ क्या पता लोग करोड़ों बरसों से वहाँ मौजूद जीवाणु भी निकाल रहे हों| 21वीं सदी के आरंभ में हम जो नई-नई, पहले कभी न देखी और सुनी गई महामारियां फ़ैलती देख रहे हैं, क्या वे इसी का परिणाम तो नहीं हैं|
येफ्रेमोव अद्वितीय मेधा के धनी थे, साथ ही उनका व्यक्तित्व भी बेजोड़ था| उन्हें गजब के संस्कार मिले थे – अपार शारीरिक बल और अटूट संकल्प| उनके दादा बड़े आराम से घोड़े को उठा लेते थे| पिता एक बड़ी गुलेल लेकर ही भालू के शिकार पर निकल जाते थे| वह खुद भी जवानी के दिनों में घोड़े की नाल को हथेली पर रखकर आराम से मोड़ लेते थे| ऐसे लोग जब प्रकृति और समाज के विकास के गूढ़ नियमों को समझने लगते हैं तो उनकी यह समझ उन्हें ऐसी आंतरिक दृष्टि प्रदान करती है, जिसे आम लोग पूर्वाभास और भविष्यवाणी की शक्ति कहते हैं| आज सब जानते हैं कि येफ्रेमोव ने अपनी कहानी ‘हीरक नली’ में जिस स्थान को घटना-स्थल के रूप में चित्रित किया था, बरसों बाद उसी स्थान पर ही याकूतिया में हीरों की खान की खोज हुई| ‘पहाड़ी प्रेतात्माओं की झील’ कहानी में अल्ताई प्रांत में जहाँ येफ्रेमोव ने भविष्यवाणी की थी, वहीँ पारे का विशाल खनिज भंडार मिला था| बश्कीरिया में एक गुफा खोजी गई, जिसमें अफ़्रीकी भित्ति-चित्र मिले - इस प्रकार येफ्रेमोव की कल्पनाजनित विज्ञान-कथा सच हो गई| रूसी भौतिकविज्ञानी यूरी देनिस्युक ने यह स्वीकार किया था कि होलोग्राफ़ी का विचार उन्हें येफ्रेमोव की कहानी “अतीत की परछाइयों” से ही मिला था|
येफ्रेमोव का देहांत 1972 में हुआ - वह केवल चौसठ वर्ष के थे| अपने जीवन के अंतिम दिनों में उनके विचार आनेवाली पीढ़ियों की ओर ही उन्मुख थे: “सारे संसार में वाद-विवाद की महामारी फ़ैल गई है... बातें-बाते-बातें – भविष्य की चिंता की बातें| इस चिंता की खातिर और आगामी पीढ़ियों की खुशहाली की खातिर मनुष्य रेडिएशन बढ़ा रहा है, पानी गंदा कर रहा है, जंगल और उपजाऊ मिट्टी को नष्ट कर रहा है, बस अपना सैन्य बल बढ़ाने की खातिर... आज की सभ्यता के तीन आधार-स्तंभ हैं: ईर्ष्या, निरर्थक बातें और अनावश्यक वस्तुएं खरीदने की होड़| ... कैसे इसे हमारे वंशज आंकेंगे!” क्या भावी पीढियां ये विचार सुनेंगी? भविष्य ही दिखाएगा|
“रूसी संस्कृति की झलकियां” माला के अगले कार्यक्रम में आप सुनेंगे इवान येफ्रेमोव की एक कहानी| बीसवीं सदी के मध्य में उन्होंने अनेक खोजें की थीं| इन्हीं में से एक आपबीती का वर्णन लेखक ने “पहाड़ी प्रेतात्माओं की झील” शीर्षक कहानी में किया|

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