Friday 12 July 2013

कोन्स्तान्तीन पाउस्तोव्सकी की कहानी ‘तार’


योगेन्द्र नागपाल

नोबल पुरस्कार विजेता रूसी कवि और अनुवादक योसिफ ब्रोदस्की ने लिखा था: “आज भी और आगे भी मां-बाप से भला बर्ताव करो| मत करो बगावत उनसे, क्योंकि वे तो तुम्हारे से पहले चले जाएंगे, इससे तुम्हें दुख से छुटकारा भले ही न मिले, दोष-भाव तो नहीं सताएगा”। बस, इन्हीं शब्दों को इस कहानी का मर्म समझिए।
यह कहानी है एक बूढी औरत कतेरीना की, जो दूर-दराज के गांव में अपने चित्रकार पिता के बनाए मकान में एकाकी जीवन बिता रही है। उसकी इकलौती बेटी बड़े शहर में रहती है, मां से मिलने की फुर्सत नहीं निकाल पाती किसी भी तरह| कतेरीना बेटी के मन का बोझ नहीं बनना चाहती, बस आँखें बिछाए उसकी राह देखती रहती है लेकिन एक रात आखिर वह उसे पत्र लिख ही देती है।
 “मेरी लाडली, यह जाड़ा मैं नहीं काट पाऊंगी। भले ही एक दिन के लिए आ जा। बस, एक बार तुझे देख लूं, तेरे हाथ थाम लूं। बिलकुल बूढ़ी हो गई हूँ मैं। शरीर जवाब दे रहा है, न बैठ पाती हूँ, न लेटा जाता है, चलना-फिरना तो दूर रहा। इस साल मौसम बड़ा बोझिल है, दिन में भी ठीक से उजाला नहीं होता।”
कतेरीना की बेटी नास्त्या कलाकार संघ में काम करती थी। काम उसके सिर पर बहुत था। कभी प्रदर्शनी करवानी है, तो कभी प्रतियोगिता। नास्त्या को दफ्तर में ही मां का पत्र मिला। पढ़े बिना ही उसने पत्र अपने बैग में छिपा लिया – “घर जा के पढ़ूँगी”। मां का पत्र पाकर नास्त्या राहत की सांस लेती थी – लिख रही है, मतलब ज़िंदा है। पर साथ ही मन बेचैन हो उठता था - हर चिट्ठी एक मौन उलाहना ही तो थी।
उस दिन काम के बाद नास्त्या को नौजवान मूर्तिकार तिमोफेयेव के स्टूडियो में जाना था – यह देखने कि वह वहाँ कैसे रह रहा है| और फिर इसकी रपट संघ के प्रबंध-मंडल को देनी थी| तिमोफेयेव की शिकायत थी कि जीना दूभर है - स्टूडियो में भयंकर ठंड है, ऊपर से उसे काम में आगे नहीं बढ़ने दे रहे।
खुद तिमोफेयेव ने दरवाज़ा खोला - नाटे कद का था वह, शक्ल से ही हठी और गुस्सैल लगता था| ओवरकोट पहने था और गले पर उसने बहुत बड़ा मफलर लपेट रखा था।
तिमोफेयेव: आइए-आइए| नहीं-नहीं, ओवरकोट मत उतारिए, बेहद ठंड है अंदर भी।
सूत्रधार:वह नास्त्या को अंदर स्टूडियो में ले गया।
नास्त्या: तौबा, कितनी ठंड है।
सूत्रधार:उसे लगा कि दीवारों पर बेतरतीब टंगे संगमरमर के भित्तिचित्र ठंड और भी ज़्यादा बढ़ा रहे हैं।
तिमोफेयेव: लीजिए, देखिए! जाने कैसे ऐसी कड़क सर्दी में अभी तक दम नहीं टूटा।
नास्त्या: चलिए, दिखाइए अपना गोगोल।
वह जानती थी कि तिमोफेयेव रूसी लेखक गोगोल की मूर्ति बनाने में लगा हुआ है। वह यह मूर्ति देखना चाहती थी।
सूत्रधार:स्टूडियो के बीचोबीच गीले कपड़े से ढंकी एक मूर्ति थी। तिमोफेयेव ने यह गीला कपड़ा उतार दिया, मूर्ति के चरों ओर चक्कर लगाकर बड़ी बारीकी से उसे देखा और बोला:
तिमोफेयेव: लीजिए, देखिए! यही हैं गोगोल।
सूत्रधार:नास्त्या सिहर उठी - नुकीली नाक, आगे को झुके गोल से कंधे, चेहरे पर कटाक्ष भरी मुस्कान, सामनेवाले की मानो रग-रग पहचानता हो!
“छी-छी! चिट्ठी तो अभी तक पढ़ी नहीं!” गोगोल की आर-पार बींधती आँखें मानो कह रही थीं।
नास्त्या:“वाह-वाह! लाजवाब! सच में बेजोड़ है।
तिमोफेयेव: वाहवाही तो सब करते हैं, पर इससे आता-जाता क्या है? यहाँ तो सब लाजवाब है, मगर वहाँ, जहाँ एक मूर्तिकार के नाते मेरी किस्मत का फैसला होता है, वहाँ किसी को कुछ लेना-देना नहीं। सारी-सारी रातें जागते बीतती है, गीली मिट्टी से हाथों में गठिया होने को है| तीन साल से लगा हुआ हूँ यह मूर्ति बनाने मे।| सारा गोगोल पढ़ डाला।
सूत्रधार:तिमोफेयेव ने कुर्सी पर रखी किताबों का ढेर उठाया, उन्हें झकझोड़ा और वापिस कुर्सी पर पटक दिया।
तिमोफेयेव: गोगोल पर एक-एक किताब छान मारी है!... माफ़ करना, लगता है, मैंने आपको डरा दिया| सच पूछें, तो मैं लड़ मरने को तैयार हूँ।
नास्त्या: ठीक है| मिलकर लड़ेंगे।
सूत्रधार:तिमोफेयेव नेबड़े ज़ोर से उससे हाथ मिलाया। वह चली गई| मन में यह संकल्प लेकर कि हर हालत में इस प्रतिभावान मूर्तिकार को गुमनामी के अँधेरे से निकालकर उजाले में लाना है।
नास्त्या कलाकार संघ में लौट आई, प्रधान के कमरे में गई, बड़ी देर तक उनसे बातें करती रही, बड़े जोश से बहस करती रही कि बस अभी तुरंत ही तिमोफेयेव की प्रदर्शनी करनी चाहिए। आखिर प्रधान ने उसकी बात मान ली| नास्त्या घर लौट आई, अब कहीं जाकर उसने मां का खत पढ़ा।
नास्त्या: उफ़! कैसे जा सकती हूँ अब! इतना काम है।
सूत्रधार:उसके दिमाग में घूम गई कई तस्वीरें - खचाखच भरी ट्रेनें, गाड़ियां बदलना, सूखा पड़ा बाग, गाँव की नीरस ज़िंदगी, जब सारा-सारा दिन करने को कुछ नहीं होगा| उसने पत्र मेज़ के दराज में रख दिया।
दो हफ्ते तक नास्त्या तिमोफेयेव की प्रदर्शनी के लिए भाग-दौड़ करती रही। प्रदर्शनी का उद्घाटन शाम को हुआ। बहुत से मूर्तिकार, चित्रकार, कलाकार आए थे। प्रदर्शनी में रंग जम गया।
एक प्रसिद्ध अधेड़ चित्रकार नास्त्या के पास आया और उसका शुक्रिया अदा करने लगा:
चित्रकार: धन्य हैं आप, धन्य! सुना है आप ही ने इस मूर्तिकार पर पड़ा गुमनामी का पर्दा हटाया है। अति-उत्तम! बातें सब करते हैं – कलाकारों का ध्यान रखना चाहिए, उनकी हर तरह से मदद करनी चाहिए, उनकी ज़रूरतों का ख्याल रखना चाहिए! पर जब कुछ करने का समय आता है, तो सब न जाने कहाँ खो जाते हैं। एक बार फिर, शीश नवाता हूँ आपके सामने!
सूत्रधार:अब विचार-विमर्श शुरू हुआ| बहुत से लोग बोले, लंबे-लंबे भाषण हुए, तारीफों के पुल बांधे गए और जोश में गर्मागर्मी भी हुई। बूढ़े चित्रकार ने कहा कि इतने अच्छे मूर्तिकार को भुला दिया जाना अन्याय ही था, कि हर कलाकार का, इंसान का ख्याल रखना चाहिए| प्रायः हर भाषण में यही विचार दोहराया जा रहा था। दरवाज़े पर कलाकार संघ की कूरियर आ गई, नास्त्या को इशारे करने लगी| नास्त्या उस तक गई, उसने तार थमा दिया। नास्त्या अपनी जगह पर लौट आई, चुपके से तार खोला, पढ़ा, पर कुछ समझ नहीं पाई:
नास्त्या: “कात्या मर रही है। तीखोन” “कौन सी कात्या? कौन सा तीखोन? किसी और का होगा तार।”
सूत्रधार:नास्त्या एकबारगी को भूल गई थी कि कात्या कतेरीना नाम का ही छोटा रूप है। उसने पता देखा। पता उसी का था। नास्त्या ने तार मुट्ठी में मरोड़-तरोड़ लिया। उसके माथे पर बल पड़ गए। संघ-प्रधान का भाषण हो रहा था: “आज हमारे देश में मानव-मात्र का ध्यान किया जाता है, उसका ख्याल रखा जाता है और यह वह अनुपम यथार्थ है, वह शक्ति है, जिसके फलस्वरूप हम अपना कार्य कर पा रहे हैं, उन्नति के पथ पर बढ़ रहे हैं। मेरे लिए यह हार्दिक प्रसन्नता का विषय है कि हम कलाकार अपने बीच ऐसे ध्यान, ऐसी चिंता का सजीव उदाहरण देख रहे हैं। मेरा आशय मूर्तिकार तिमोफेयेव की कृतियों की प्रदर्शनी से है। इस प्रदर्शनी का श्रेय पूरी तरह हमारे संघ की कर्मी, हमारी प्यारी नास्त्या को जाता है”। उसने नास्त्या की ओर झुककर उसका अभिवादन किया और सभी तालियाँ बजाने लगे। लाज के मारे नास्त्या की आँखें नम हो गईं| सारा समय उसे लग रहा था कि कोई उसे घूर रहा है। उसे कोई बड़ी बोझिल, बींधती नज़र अपने पर टिकी लग रही थी। सिर उठाने की भी वह हिम्मत नहीं कर पा रही थी।
नास्त्या: “कौन है यह? क्या किसी ने सब कुछ ताड़ लिया है? उफ़, क्या मुसीबत है। जाने क्यों, फिर घबराहट ने घेर लिया।”
सूत्रधार:बड़ा ज़ोर लगाकर उसने नज़रें ऊपर उठाईं और तुरंत फेर लीं: वही कटाक्ष भरी मुस्कान लिए गोगोल उसे घूर रहा था। नास्त्या को लगा कि वह हौले से बोला: “छी-छी!” वह तुरंत उठ खड़ी हुई, हाल से निकली, नीचे जाकर ओवरकोट पहना और दौड़ती-दौड़ती बाहर चली गई। बाहर हिमपात हो रहा था। सारे आकाश पर भारी बादल छाए हुए थे और वे सारे शहर पर, नास्त्या के सिर पर नीचे ही नीचे उतरते आ रहे थे। वह चौक में बेंच पर जा बैठी और रोने लगी। हिम के फाये उसके गालों पर पिघल रहे थे, उसके कड़वे आंसुओं में घुल रहे थे। नास्त्या ठंड से सिहर उठी| एकाएक उसे अहसास हुआ कि किसी ने भी कभी उससे इतना प्यार नहीं किया, जितना इस जर्जर बूढी औरत ने, जो दूर के उस नीरस गाँव में भूली-बिसरी पड़ी थी।
नास्त्या: “देर कर दी| अब मां को नहीं देख पाऊँगी।”
सूत्रधार:उसने यह कहा और तभी उसे ख्याल आया कि पिछले साल भर में पहली बार उसके मुंह से बचपन का यह प्यारा शब्द ‘मां’ निकला है।
नास्त्या:“तो? क्या हुआ? मां! मां! कैसे हो गया यह सब? और कौन है मेरा जीवन में? नहीं कोई और सगा, न होगा! बस पहुँच जाऊं किसी तरह, मां देख ले मुझे, माफ कर दे मुझे”।
सूत्रधार:नास्त्या रेलवे स्टेशन की ओर लपकी| पर लेट हो गई| कोई टिकट नहीं बचा था| नास्त्या टिकटघर की खिड़की के पास खड़ी थी, उसके होंठ काँप रहे थे, उससे कुछ बोला नहीं जा रहा था, जानती थी, पहला शब्द मुंह से निकलते ही वह आंसुओं की बाढ़ नहीं रोक पाएगी| बुज़ुर्ग टिकट क्लर्क ने खिड़की से झांका।
टिकट क्लर्क:सुनो, क्या हुआ?
नास्त्या: कुछ नहीं, मां ...
सूत्रधार:नास्त्या तुरंत मुड़ी और बाहर को चल दी।
टिकट क्लर्क:कहाँ जा रही हो? तुरंत बताना था| रुको ज़रा।
सूत्रधार:उसी शाम को नास्त्या रवाना हो गई| सारे रास्ते उसे यही लगता रहा कि ट्रेन घिसटती जा रही है| हालांकि, ट्रेन पूरी रफ़्तार से रात के अँधेरे में खोए जंगलों को पार करती बढ़ती जा रही थी।
उद्घोषक:तीखोन डाकखाने आया, डाकिये से कानाफूसी करता रहा, फिर उसने तार का फार्म लिया, दोनों हाथों से उसे पकड़कर इधर-उधर घुमाता रहा, फिर बड़ी देर तक अपनी टेढ़ी-मेढ़ी लिखावट में उस पर कुछ लिखता रहा, बीच-बीच में आस्तीन से मूंछें पोंछता जाता था| फिर उसने करीने से फार्म को तह किया, अपने कनटोप में रखा, और कतेरिना के घर को चल दिया।
पिछले दस दिन से कतेरीना बिस्तर से नहीं उठी थी। कहीं कुछ नहीं दुख रहा था, बस कमज़ोरी थी, जो छाती, सिर, टांगों को दबोचे हुए थी, सांस लेना मुश्किल हो रहा था| कतेरीना आँखें मूंद लेती, तो आंसू की एकमात्र बूंद उसकी पीली कनपटी पर ढलती हुई।
सफ़ेद बालों में उलझ जाती।
तीखोन आया, गला खंखारता, नाक सुड़कता, लगता था उसके मन में कुछ उथल-पुथल हो रही है।
कतेरीना: क्या हुआ, तीखोन।
तीखोन: ठंड बढ़ रही है, कतेरीना! आज-कल में बर्फ पड़ने लगेगी| अच्छा ही है| पाला पड़ेगा, तो रास्ते सूख जाएंगे| बस, आने में भी कोई तकलीफ नहीं होगी।
कतेरीना: किसे?
तीखोन: अपनी नास्त्या को, और किसे भला!
उसने कनटोप से तार निकाला।
सूत्रधार:कतेरीना उठना चाहती थी, पर उठ नहीं पाई, फिर से सिरहाने पर गिर पड़ी| तीखोन ने संभल-संभल के तार खोला और फिर कतेरीना की ओर बढ़ा दिया।
कतेरीना: तुम्हीं पढ़ दो।
सूत्रधार:तीखोन सहमा-सहमा सा बगलें झाँकने लगा, फिर खोखली, ढीली आवाज़ में तार पढ़ने लगा: “पहुँचती हूँ, चल पड़ी| आपकी प्यारी बेटी नास्त्या”।
कतेरीना: रहने दो, तीखोन! रहने दो, भैया! मेरा ख्याल रखा, प्यार दिया - यही बहुत है। ईश्वर तुम्हारा भला करे।
सूत्रधार:कतेरीना ने बड़ी मुश्किल से दीवार की ओर करवट बदली, फिर मानो सो गई| तीखोन ठंडी ड्योढ़ी में सिर झुकाए बैठा था, सिगरेट पी रहा था, आहें भर रहा था| आखिर पड़ोसन ने उसे कतेरीना के कमरे में बुलाया| तीखोन दबे पाँव अंदर गया| छोटी सी कतेरीना का चेहरा एकदम सफ़ेद था, वह मानो चैन की नींद सो रही थी।
तीखोन: बेचारी! राह ही देखती रह गई! इतना दुख झेला, इतना दुख – कहे न कहा जाए।
सूत्रधार:अगले दिन कतेरीना को दफना दिया| थोड़ा पाला पड़ गया था| रात को कुछ हिमपात भी हो गया था, दिन सूखा था – न बारिश, न बर्फ| आसमान बादलों की हलकी स्लेटी चादर से ढका हुआ था, पर उजाला था।
गाँव की बुढियां और छोकरे कतेरीना को दफनाने आए थे। कब्रिस्तान नदी के ऊंचे किनारे पर था| वहा ऊंचे-ऊंचे विल्लो-वृक्ष लगे हुए था।
उद्घोषक:नास्त्या अगले दिन वहाँ पहुंची। कब्रिस्तान में उसने कब्र पर बना मिट्टी की ताज़ी ढेरी पाई और घर में मां का ठंडा कमरा| लगता था, बहुत पहले ही ज़िंदगी इस कमरे से कूच कर चुकी थी। नास्त्या सारी रात इसी कमरे में रोती रही, जब तक कि पौ फटने के साथ नीला-सा धुंधला उजाला खिड़की से नहीं झांकने लगा। किसी से मिले बिना ही नास्त्या चुपचाप वहाँ से चली गई। नहीं चाहती थी कि कोई उसे देखे, कुछ पूछे। जानती थी, उसकी यह भूल तो अब कभी सुधर नहीं पाएगी, एक मां ही तो थी, जो इस अपराध का बोझ उसके मन से उतार सकती थी।

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