Friday 12 July 2013

बीसवीं सदी के मशहूर लेखक व्लादीमिर सोलोऊखिन


योगेन्द्र नागपाल

मशहूर रूसी लेखक व्लादीमिर सोलोऊखिन का जन्म 1924 में एक किसान परिवार में हुआ। इस पीढ़ी के प्रायः सभी लोगों की ही भांति वह भी द्वितीय विश्वयुद्ध से अछूते नहीं रहे। हां, इस बात में सौभाग्यशाली रहे कि उन्हें मोर्चे पर नहीं भेजा गया, मास्को में क्रेमलिन गार्ड रेजिमेंट में उनको भरती किया गया| अपना साहित्यिक जीवन उन्होंने कविता से ही शुरू किया। सैनिक सेवा के बाद उन्होंने साहित्यिक संस्थान में शिक्षा पाई और फिर गद्य की ओर ही अधिक ध्यान दिया। 1956 में रूस की महान नदी वोल्गा के तटों पर फैले मध्यरूसी मैदानी इलाके का उन्होंने पैदल भ्रमण किया| जीवन के इस अनुभव के आधार पर लिखी काव्यमय रचनाओं ने उन्हें शोहरत दिलाई| ‘ओस की बूंद’ लघु-उपन्यास इनमें से एक था| यह उनके अपने गांव का “छविचित्र” था| सोलोऊखिन यह मानते थे कि जिस प्रकार ओस की एक बूंद में सारा संसार प्रतिबिंबित होता है, वैसे ही एक गांव के जीवन में समस्त विशाल रूस के अपने विशेष लक्षण पाए जा सकते हैं।
इन काव्यमय कहानियों के पश्चात सोलोऊखिन के लेखन में लेखों-निबन्धों का विशेष स्थान रहा है| ‘रूसी संग्रहालय से पत्र’ शीर्षक से तो उनका एक पूरा लेख संग्रह छपा और फिर प्राचीन रूसी कला पर उन्होंने अनेक विचारोत्तेजक लेख लिखे| इनमें लेखक ने ये सवाल उठाए कि पुराने स्मारकों की रक्षा करना और उनका जीर्णोद्धार करना कितना आवश्यक है| इसके अलावा उनकी एक कथा-माला भी निकली, जिसका प्रमुख विषय यह था कि कैसे एक आम देहाती आदमी अपने को शहरी ज़िंदगी में ढालता है| आज के समाज में मानव जीवन में कैसी नैतिक समस्याएं उठती हैं, मनुष्य इस समाज में कैसे नाते-रिश्ते पिरोता है – ये सभी सवाल इन कहानियों में उभर कर सामने आते हैं|
कहानी ‘छड़ी’
सूत्रधार: एक ज़माना था, जब अलेक्सेई को छड़ी लेकर चलने का शौक था| शुरू में तो किसी ने इसकी ओर कोई खास धयन ही नहीं दिया| बस, दोस्त लोग कभी पूछ लेते थे: टांग दुख रही है क्या? या फिर बस में, मेट्रो में लोग उठकर उसे अपनी सीट देते थे, तब वह इनकार करता और उन्हें समझाता कि उसे कोई तकलीफ नहीं है|
उसकी पहली छड़ी सादी–सी ही थी, पर बड़ी आरामदेह, उसका हत्था सींग का बना हुआ था| काफी समय तक वह यही छड़ी लिए रहा| फिर एक दिन एक दूसरी, खासी भारी और देखने में ज़बरदस्त छड़ी पर उसकी नज़र पड़ गई| उसकी मूठ एक गोले की शक्ल की थी, जिस पर नक्काशी से सात कछुए बने हुए थे|
पर अलेक्सेई को सबसे अधिक पसंद थी वह छड़ी, जिसकी मूठ (हाथीदांत की ही) बाज के पंजे की शक्ल की थी और उस पंजे मे कसा हुआ था चिकना गोला| यह छड़ी लेकर ही वह एक बार लेनिनग्राद पहुँच गया| और यहां उसे एक युवा नारी के घर पर बुलाया गया, जहाँ कवि, कलाकार, पत्रकार और चित्रकार जमा होने वाले थे|
उद्घोषक:यह अलेक्सेई की ल्युबोव व्लादीमिरोव्ना से पहली मुलाकात नहीं थी| पहली बार तो वह उससे कोई एक साल पहले किसी काव्य-गोष्ठी में मिला था|
दूसरी बार शहर में अचानक उनकी मुलाकात हो गई थी और वह उसे घर तक छोड़ने गया था| विदा लेते समय ल्युबोव व्लादीमिरोव्ना ने उसे अपना फोन नंबर दिया और कह दिया कि किस्मत अगर फिर से लेनिनग्राद खींच लाई, तो फोन कर लीजिएगा|
बस, यही सुहाना अहसास लिए वह जी रहा था कि जब चाहे फोन कर सकता है और ल्युबोव व्लादीमिरोव्ना से मिलने जा सकता है, कि कभी न कभी ऐसा ज़रूर होगा| पर लेनिनग्राद तो रोज़-रोज़ जाना होता नहीं| मगर एक बार मन बुरी तरह उदास हो उठा, एक गुबार–सा उठा और बहा ले चला| मानो मन ने किसी की पुकार सुनी हो| दूसरे मन की कशिश से उठी पुकार ही यों खींच सकती थी| बस, वह स्टेशन जा पहुँचा| गाडी छूटने से घंटा भर पहले अचानक उसे टिकट मिल गया| सुबह जब नींद खुली, तो नवंबर की धुंधली सुबह में लेनिनग्राद के मकान पीछे छूट रहे थे|
ल्युबोव व्लादीमिरोव्ना: कितना मन था कि आप आ जाएं, बस किसी तरह आ जाएं, आ जाएं! और आप आ गए| कैसा सुखद संयोग है| तो शाम को आ जाना| आज कुछ लोग मेरे यहां आ रहे हैं| बड़े दिलचस्प लोग हैं...पर आप तो एक दिन के लिए नहीं आए हैं न? सोमवार तक आप मेरे बंदी हैं! तीन दिन तक| मना नहीं करना|
सूत्रधार: बस इस तरह वह ल्युबोव व्लादीमिरोव्ना के घर पहुँच गया| पहली बार जब वे मिले थे, तो अलेक्सेई छड़ी लिए बिना चलता था, बाद में छड़ी लेकर चलने लगा| इस बार वह अपनी सबसे मनपसंद छड़ी लेकर आया था, वही, जिसकी हाथीदांत की मूठ बाज के पंजे की शक्ल की थी और उस पंजे मे कसा हुआ था चिकना गोला| छोटी सी ड्योढ़ी में कितने ही ओवरकोट टंगे हुए थे|उसका स्वागत करने बैठक से निकली मालकिन ने छड़ी की ओर कोई ध्यान नहीं दिया| अलेक्सेई ने भी उसे एक कोने में रख दिया|
बैठक में ल्युबोव व्लादीमिरोव्ना ही महफ़िल चला रही थी| किसी से वह कविता पढ़वाती, किसी को गिटार बजाते हुए कोई गीत सुनाने को कहती, और किसी से जाम उठाकर कुछ बोलने को कहती|
उद्घोषक:उन दोनों के बीच सब कुछ तय हो चुका था, सो ल्युबोव व्लादीमिरोव्ना मानो अलेक्सेई की ओर कोई ध्यान ही नहीं दे रही थी| वह दूसरों की ओर ही ज्यादा देखती थी, उनसे ही हंसी-मजाक करती थी, मुस्कराती थी| पर उसकी ओर गई सरसरी नज़र भी उसे कह जाती थी: “तुम्हें पता है, ये सब लोग जल्दी ही चले जाएंगे| नवंबर की इस ठंड में इन्हें ही बाहर जाना है, तुम्हें नहीं|” कुछ समय बाद, अचानक सब एक साथ उठ खड़े हुए, चलने को हो गए|
ल्युबोव व्लादीमिरोव्ना: छोड़ आते हैं इन्हें|
अलेक्सेई: “हे भगवान! क्या सचमुच ऐसे ही होगा? जल्दी ही...”
सूत्रधार:मेहमानों का झुण्ड शोर मचाता हुआ सूनी सड़कों पर बढ़ चला, नीवा नदी का पुल उन्होंने पार किया, क्योंकि दूसरी तरफ से बस मिलना आसान था| अलेक्सेई से किसी ने विदा नहीं ली, शायद यही सोचते रहे कि वह भी बस में बैठ जाएगा| और जब बस के दरवाज़े बंद हो गए तो फिर यह अटकलें लगाने का वक्त गुज़र गया था कि अकेला वही क्यों मालकिन के साथ रह गया| आखिर किसी को तो उसे भी घर तक पहुंचाना था, आधी रात के बाद इस चौड़ी नदी के पार, जहाँ चारों ओर से हवाएं बह रही थीं, वह अकेली कैसे लौट सकती थी|
उसने अलेक्सेई की बाईं बांह पकड़ ली| दाएं हाथ में अलेक्सेई ने छड़ी ले रखी थी – वही “प्राचीन” छड़ी, जिसकी हाथीदांत की मूठ बाज के पंजे की शक्ल की थी और उस पंजे मे कसा हुआ था चिकना गोला| वह छड़ी को घुमा रहा था, बड़े अलबेले ढंग से, जैसे सदियों से लाखों-करोड़ों मर्द घुमाते आए हैं| ऐसे ही वे शायद घर तक पहुँच जाते, अगर इस कमबख्त हवा का रुख न बदला होता| ल्युबोव व्लादीमिरोव्ना ने उसका दूसरा हाथ पकड़ना चाहा, ताकि हवा से ज़रा छिप सके, सो अलेक्सेई को छड़ी दूसरे हाथ में लेनी पड़ी| उसके ऐसा करते ही ल्युबोव व्लादीमिरोव्ना का ध्यान छड़ी की ओर चला गया|
ल्युबोव व्लादीमिरोव्ना: यह क्या है? लंगडाते हो क्या?
अलेक्सेई: नहीं तो| बस यों ही छड़ी ले रखी है|
ल्युबोव व्लादीमिरोव्ना: छैला बन रहे हो?
अलेक्सेई: मर्दों के मतलब की खूबसूरत चीज़ है| सदियों से लेकर चलते आए हैं...
ल्युबोव व्लादीमिरोव्ना: हो सकता है| महँगी भी है न?
अलेक्सेई:नहीं, वह... वैसे तो.. आबनूस की लकड़ी, हाथी दांत की मूठ, पुराना, बारीकी का काम...
ल्युबोव व्लादीमिरोव्ना: फेंक दो नदी में|
सूत्रधार: दो कदम चल कर औरत रुक गई, यह देख कर कि मर्द के कान पर जूं तक नहीं रेंगी, उसने फिर से स्पष्ट और ऊंची आवाज़ में कहा:
ल्युबोव व्लादीमिरोव्ना: फेंक दो इसे नदी में!
अलेक्सेई: क्या ख्याल आया है, सच में...
ल्युबोव व्लादीमिरोव्ना: जब तक तुम इसे नदी में फेंक नहीं देते, हम यहाँ से हिलेंगे नहीं| नहीं, हम अलग अलग रास्ता पकड़ेंगे, मैं घर जाउंगी और आप बस स्टाप को|
अलेक्सेई:प्यारी ल्युबोव व्लादीमिरोव्ना! क्या नखरा कर रही हैं आप!
ल्युबोव व्लादीमिरोव्ना: ठीक है, नखरा ही सही| औरत को हक है नखरा करने का| तीन दिन जो तुम्हें मिल रहे हैं, उनकी खातिर एक छोटा सा नखरा भी नहीं सह सकते? आखिर मैं यह तो नहीं कह रही कि तुम नदी में कूद जाओ|
सूत्रधार:वे पुल के बीचोंबीच रुक गए और मर्द समझ गया कि फैसला करने के लिए उसके पास कुछ पल का ही समय है| ये पल बीत गए, उसने फिर से आगे चलने की कोशिश की| पर कहाँ!
ल्युबोव व्लादीमिरोव्ना: नहीं, नहीं! अगर मेरी बात नहीं माननी, तो हमारे रास्ते अलग-अलग| हे भगवान, कहाँ गया वह आत्मत्याग, वह शूरवीरता, ह्रदय की वह विराटता? कहाँ है वह युवक, जो प्रिया के प्याले के पीछे उफनते समुद्र में कूद गया? कहाँ हैं वे पुरुष, जो भालों की नोंक पर प्राणों की बाजी लगाए कूद पड़ते थे अखाड़े में? प्राणों की बाजी लगाते थे अपने दिल की रानी के एक चुम्बन की खातिर, चुम्बन तो दूर, एक स्नेहभरी नज़र की खातिर|..
सूत्रधार: ल्युबोव व्लादीमिरोव्ना के स्वर में अब आदेश नहीं, अनुनय-विनय का पुट था| शायद वह खुद भी एक छोटी सी बात के लिए उनके संबंधों को तोड़ना नहीं चाहती थी| मगर अपने स्वभाव से विवश, वह अपनी बात से पीछे भी नहीं हट सकती थी| शब्द कुछ भी रहे हों, लेकिन उनके पीछे उसकी आवाज़ में अब वह बिलकुल दूसरी ही बात सुन रहा था: “मान भी जाओ, न| क्या जाता है तुम्हारा| हां, ऐसी सिरफिरी हूँ मैं| निकल गई बात मुंह से, अब कुछ कर नहीं सकती| स्वभाव ऐसा है| तुम तो मर्द हो| औरत की बात मानना मर्द की हार नहीं, इससे वह कभी छोटा नहीं होता| मान भी जाओ, न...”
लेकिन शब्द बिलकुल दूसरे थे:
ल्युबोव व्लादीमिरोव्ना: हे भगवान! क्या नौबत आ गई है| ज़मीन-जायदाद, घरबार, बाल-बच्चों की तो बात छोड़ो, एक नाचीज़ छड़ी की कुर्बानी नहीं दी जा रही| एक औरत की बात का इतना भी मान नहीं रख सकते!
सूत्रधार:अलेक्सेई के सिर पर भी एक अनजाना हठ सवार हो गया| पर शायद, हठ तो था ही, पर उससे भी बढ़ कर था अफ़सोस| हां उसे अफ़सोस हो रहा था यह छड़ी फेंकते हुए| इसलिए नहीं कि वह मंहगी थी, अगर उतने ही नोट निकलकर फेंकने होते तो वह पल भर को भी नहीं हिचकता| अफ़सोस इस बात का था कि यह वाकई बड़ी सुंदर, विरली छड़ी थी, शायद इसके जैसी और दूसरी कभी बनी ही न हो| हां, उसे अफ़सोस हो रहा है, आखिर क्या नखरा है यह! ऐसे हर नखरा सहने लगे तो... आखिर उसका भी अपना मान है| यह सिरफिरी औरत बेमतलब कुर्बानी मांग रही है और वह इसकी बात मानता फिरे|..
ल्युबोव व्लादीमिरोव्ना: चलो, करो फैसला! यहां ठंडी हवा में और खड़ा नहीं हुआ जाता| हां या ना? मेरे साथ चलोगे या फिर वापिस लौटोगे?
अलेक्सेई: घर तक तो छोड़ आने दो|.. इतनी रात गए, यहां अकेली थोड़े ही छोड़ सकता हूँ| चलिए, आपको घर छोड़ आता हूँ|
ल्युबोव व्लादीमिरोव्ना: कोई ज़रूरत नहीं| मैं जवाब चाहती हूँ: हां या ना?
सूत्रधार: अलेक्सेई तेज़ी से घूमा और बस स्टॉप की ओर चल दिया|
अलेक्सेई: “हद होती हर बात की! इतनी पुरानी, बेजोड़ चीज़ को नदी में फेंक दो! पूछो भला?! दिमाग खराब है| भाड़ में जाए! बस, होटल पहुंच के गरम-गरम बिस्तर मे लेटकर नींद पूरी की जाए और कल तुरंत लौटा जाए वापिस मास्को! आगे से कोई फ़ोन-वोन नहीं, कोई मुलाकत-वुलाकात नहीं| आखिर मेरा भी अपना मान है|..”
सूत्रधार:कई साल बीत गए| अलेक्सेई को एक दिन किसी किताब की ज़रूरत पड़ी, तो सोफे पर और सोफे तले लगे किताबों के ढेर में उसे ढूँढने लगा और अचानक उनके के पीछे उसे वह चीज़ मिल गई, जिसके अस्तित्व को ही पिछले कम से कम तीन-चार साल से भुला बैठा था – आबनूस की काली लकड़ी की, हाथीदांत की मूठवाली छड़ी|
न जाने कब से उसने छड़ी लेकर चलना छोड़ दिया था| एक छड़ी अचानक हाथ से गिर पड़ी और टूट गई, दूसरी चोरी हो गई, तीसरी वह ट्रेन में भूल आया| पर छड़ी लेकर चलना उसने इसलिए नहीं छोड़ा था कि उसकी सबसे अच्छी छड़ियां नहीं बची थीं| बस अपने आप ही वह चाव जाता रहा था, वह दौर गुजार गया था| वह तो भूल ही गया था कि उन छड़ियों में से उसकी सबसे मनपसंद छड़ी सही-सलामत है|
अब वह छड़ी उसे मिल गई थी| क्या बेकार की, नाकाम चीज़ है! काश वह उस ठंडी रात को लौटा सकता...एक नहीं सौ छडियां, दुनिया में जितनी भी हो सकती हैं वे सभी की सभी छडियां, ये सारी बेजान, बेमतलब चीजें देकर वह रात लौटा सकता|..पर कौन कह सकता है अब कि कहाँ है वह पानी, जो तब पुल तले बह रहा था, उस पुल तले, जिस पर वे दोनों खड़े थे और ऐसी बेतुकी दिखा कर अलग-अलग दिशा को चल दिए थे?

2 comments:

  1. बहुत प्यारी कहानी।

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  2. vaah.. manushya ke hathh kee seema nahi hoti.. aur pashchataap kee bhi

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