Friday 12 July 2013

मिशन मून - पल्लव बागला/सुभद्रा मेनन


डा. रीता सिंह

एक समय वह था जब मां अपने बच्चों को बहलाने के लिए पानी भरे किसी पात्र में चांद उतार देती और बच्चा यह सोचकर खुश हो जाता कि चंदा मामा उसके पास आ गए हैं। कई सौ वर्षों की इस परम्परा में चांद तो अंतरिक्ष में वहीं है लेकिन अब मानव ने अपनी कल्पना को साकार करते हुए उस पर कदम रख दिए हैं। "मिशन मून" में उसी परिकल्पना से प्रक्षेपण तक के चंद्र मिशन की जानकारी दी गई है। अंग्रेजी की "बेस्ट सेलर" पुस्तक रही "डेस्टीनेशन मून" के लेखकद्वय पल्लव बागला और सुभद्रा मेनन को पुस्तक का हिंदी भाषा में अनुवाद अरुण आनंद ने किया है।
लगभग एक दशक पहले जब कुछ वैज्ञानिकों ने इस तरह का प्रस्ताव किया था तो उसे अति आशावादी करार दिया गया था। लेकिन मात्र एक दशक में भारतीय वैज्ञानिकों ने इस परिकल्पना को साकार कर दिया। इस पुस्तक में उसी उपलब्धि की गाथा को वर्णित किया गया है। पुस्तक में प्रारम्भ में ही डा. कस्तूरीरंगन और डा. जी. माधवन नायर की सारगर्भित भूमिकाएं इसे और भी महत्वपूर्ण बनाती हैं। यह पुस्तक भारत या दूसरे देशों के अंतरिक्ष कार्यक्रमों और उनकी उपलब्धियों की जानकारी ही उपलब्ध नहीं कराती है और न केवल इसमें अंतरिक्ष कार्यक्रमों से संबंधित अब तक की सफलताओं और असफलताओं का विश्लेषण किया गया है। बल्कि इसमें भारतीय वैज्ञानिक उपलब्धियों का सहज शैली में वर्णन किया गया है। यह पुस्तक अंतरिक्ष अन्वेषण के मार्ग में उपलब्ध हुए रोमांचक अनुभवों का संकलन है।
पुस्तक के प्रथम अध्याय "अज्ञात की खोज में: चंद्रमा का उद्गम और पानी की तलाश" में चंद्रमा के संबंध में प्राचीन और पौराणिक मान्यताओं के विषय में बताया गया है। साथ ही चंद्रमा के निर्माण और उसके अस्तित्व संबंधित परिकल्पनाओं पर भी मिथकीय और वैज्ञानिक धारणाएं दी गई हैं।
पुस्तक के दूसरे अध्याय "भारतीय मानस में चंद्रमा" में पृथ्वी के इस इकलौते उप ग्रह से संबंधित धार्मिक मान्यताओं के विषय में संक्षिप्त प्रकाश डाला गया है। विदेशों में भी चांद को लेकर किस तरह की अवधारणाएं प्रचलित रही हैं, इसको भी संक्षेप में प्रस्तुत किया गया है। चंद्रमा पर आधारित कैलेंडर, उससे संबंधित पर्व और उत्सवों के बारे में भी बताया गया है।
पुस्तक के तीसरे अध्याय "विश्व के अभियान: वर्तमान से भूतकाल में" को इस लिहाज से महत्वपूर्ण कहा जा सकता है क्योंकि इसमें विभिन्न देशों (मुख्यत: सोवियत संघ और अमरीका) के द्वारा चलाए गए चंद्र अभियानों की विस्तृत जानकारी दी गई है। इसी क्रम में पुस्तक के अगले अध्याय "समताप मंडल से आगे: भारत का अतंरिक्ष कार्यक्रम" में अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी के व्यावसायिक और जनकल्याण से जुड़ी उपलब्धियों का वर्णन किया गया है। इसके साथ ही इस अध्याय में डा. विक्रम साराभाई के अमूल्य योगदान और अंतरिक्ष कार्यक्रमों में भारतीय उपलब्धियों पर भी विस्तार से चर्चा की गई है। पुस्तक के पांचवें अध्याय "चंद्रयान: भारत का चंद्रमा पर निशाना" को सबसे महत्वपूर्ण कहा जा सकता है। इसमें चंद्रयान की योजना बनाने से लेकर उसके प्रक्षेपण तक की प्रक्रिया को बड़े ही रोचक अंदाज में लिखा गया है। पुस्तक के अंतिम अध्याय में उन आगामी संभावनाओं और उपलब्धियों की विस्तृत चर्चा की गई है, जो आने वाले वर्षों में सच्चाई के रूप में हम सबके सामने होंगी। इन अभूतपूर्व उपलब्धियों के साथ ही उपसंहार में यह भी कहा गया है कि चंद्रमा और अंतरिक्ष को प्रदूषित होने से रोकने के उपाय पर भी गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। पुस्तक के अंतिम खण्ड में संकलित तीन परिशिष्ट इसे और भी महत्वपूर्ण बनाते हैं। इसरो अध्यक्ष डा. जी. माधवन नायर, नासा प्रशासक डा. माइकल ग्रिफिन और सेंटर ऑफ स्पेस साइंस, चीन के निदेशक डा. वू.जी. के साक्षात्कार, चंद्रमा और अंतरिक्ष विज्ञान से जुड़े महत्वपूर्ण प्रश्नों को स्पष्ट करते हैं। कहा जाना चाहिए कि यह पुस्तक चंद्रमा ही नहीं बल्कि अतंरिक्ष से संबंधित भारतीय अभियानों को कल, आज और आने वाले कल के बारे में विस्तृत जनकारी उपलब्ध कराती है।

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