Saturday 20 September 2014

प्रेमचन्‍द

जब तक साहित्‍य का काम केवल म‍नबहलाव का सामान जुटाना, केवल लोरियां गाकर सुलाना, केवल आंसू बहाकर जी हल्‍का करना था, तब तक इसके लिए कर्म की आवश्‍यकता न थी। वह एक दीवाना था, जिसका ग़म दूसरे खाते थे। मगर हम साहित्‍य को केवल मनबहलाव की वस्‍तु नहीं समझते, हमारी कसौटी पर वही साहित्‍य खरा उतरेगा, जिसमें उच्‍च चिन्‍तन हो, स्‍वाधीनता का भाव हो, सौन्‍दर्य का सार हो, सृजन की आत्‍मा हो, जीवन की सच्‍चाइयों का प्रकाश हो– जो हममें गति और बेचैनी पैदा करे, सुलाये नहीं, क्‍योंकि अब और ज्‍यादा सोना मृत्‍यु का लक्षण है :
(लखनऊ के राष्ट्रीय पुस्तक मेले में 'मीडिया हूं मैं' भी उपलब्ध)

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