Friday 28 February 2014

फ़ेदेरिको गार्सिया लोर्का



हर गीत चुप्पी है प्रेम की, हर तारा चुप्पी है समय की,
समय की एक गठान, हर आह चुप्पी है चीख़ की!
-

जब चांद उगता है घंटियाँ मंद पड़कर ग़ायब हो जाती हैं
और दुर्गम रास्ते नज़र आते हैं।
जब चांद उगता है समन्दर पृथ्वी को ढक लेता है
और हृदय अनन्त में एक टापू की तरह लगता है।
पूरे चांद के नीचे कोई नारंगी नहीं खाता
वह वक़्त हरे और बर्फ़ीले फल खाने का होता है।
जब एक ही जैसे सौ चेहरों वाला चांद उगता है
तो जेब में पड़े चांदी के सिक्के सिसकते हैं!

--

गुलाब ने सुबह नहीं चाही
अपनी डाली पर चिरन्तन
उसने दूसरी चीज़ चाही,
गुलाब ने ज्ञान या छाया नहीं चाहे
साँप और स्वप्न की उस सीमा से
दूसरी चीज़ चाही।
गुलाब ने गुलाब नहीं चाहा
आकाश में अचल
उसने दूसरी चीज़ चाही !

--

लकड़हारे मेरी छाया काट
मुझे ख़ुद को फलहीन देखने की यंत्रणा से
मुक्त कर!
मैं दर्पणों से घिरा हुआ क्यों पैदा हुआ?
दिन मेरी परिक्रमा करता है
और रात अपने हर सितारे में
मेरा अक्स फिर बनाती है।
मैं ख़ुद को देखे बग़ैर ज़िन्दा रहना चाहता हूँ।
और सपना देखूंगा
कि चींटियाँ और गिद्ध
मेरी पत्तियाँ और चिड़ियाँ हैं।
लकड़हारे मेरी छाया काट
मुझे ख़ुद को फलहीन देखने की यंत्रणा से
मुक्त कर!

---

तालाब में नहा रही थी
सुनहरी लड़की
और तालान सोना हो गया,
कँपकँपी भर गए उसमें
छायादार शाख और शैवाल
और गाती थी कोयल
सफ़ेद पड़ गई लड़की के वास्ते।
आई उजली रात
बदलियाँ चांदी के गोटों वाली
खल्वाट पहाड़ियों और बदरंग हवा के बीच
लड़की थी भीगी हुई जल में सफ़ेद
और पानी था दहकता हुआ बेपनाह।
फिर आई ऊषा हज़ारों चेहरों में
सख़्त और लुके-छिपे
मुंजमिद गजरों के साथ
लड़की आँसू ही आँसू शोलों में नहाई
जबकि स्याह पंखों में रोती थी कोयल
सुनहरी लड़की थी सफ़ेद बगुली
और तालाब हो गया था सोना !

---

माँ, चांदी कर दो मुझे!
बेटे, बहुत सर्द हो जाओगे तुम!
माँ, पानी कर दो मुझे!
बेटे, जम जाओगे तुम बहुत!
माँ, काढ़ लो न मुझे तकिए पर
कशीदे की तरह! कशीदा?
हाँ, आओ!

--

No comments:

Post a Comment