Wednesday 17 July 2013

पढ़ने की संस्कृति


प्रांजल धर

हमारे यहां एक ऐसी व्यवस्था विकसित नहीं हो सकी है जिसमें पढ़ने की संस्कृति अपने व्यापक अर्थों में आम जन-जीवन का हिस्सा बन पाए। सवाल है कि जब विकास की परिभाषा ही एकांगी तरीके से गढ़ ली गई है तब पुस्तक-संस्कृति को बढ़ावा कैसे मिलेगा? आज विकास का मतलब चिकनी सड़क पर चमचमाती लंबी कारों के दौड़ने तक सीमित रह गया है, फ्लाईओवर और मॉल-संस्कृति उन्नति की कसौटियां बनते जा रहे हैं। ध्यान रखना चाहिए कि विकास की कोई भी परिभाषा जड़ या स्थिर हरगिज नहीं हो सकती।
पहले बांध बना कर बिजली पैदा करने को विकास कहा जाता था। आज न सिर्फ बांध से बिजली पैदा करना महत्त्वपूर्ण है, बल्कि बांध की वजह से विस्थापित हुई जनता का पुनर्वास भी जरूरी है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने देश में सार्वजनिक पुस्तकालयों के महत्त्व को स्वीकार करते हुए राज्य सरकारों से इस ओर ध्यान देने की अपील की है। क्या देश में किसी पुस्तकालय-कानून की उम्मीद करना गैर-वाजिब है? क्या इस तथ्य से इनकार किया जा सकता है कि जगह-जगह मदिरालय तो खुलते जा रहे हैं, लेकिन प्राचीन भारतीय सभ्यता के वाहक पुस्तकालयों की हालत जर्जर ही नजर आती है। आखिर पुस्तक-संस्कृति और पुस्तकालयों के प्रति देश में जागरूकता का प्रचार-प्रसार क्या तभी हो पाएगा जब ये चीजें लुप्त होकर संग्रहालय में सजाने लायक रह जाएंगी? अंग्रेजी में चेतन भगत बनना आसान है, हम सभी जानते हैं। पर सवाल है कि कब तक चुनिंदा लोग यह तय करते रहेंगे कि अच्छा साहित्य किस भाषा का है और उसकी कसौटियां क्या हैं?
देश में कितने लोग अंग्रेजी बोलते हैं, या कितने लोगों की मातृभाषा अंग्रेजी है? इस स्थिति के लिए हिंदी प्रकाशक भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। देश में पुस्तक-संस्कृति का प्रसार भला कैसे होगा जब एक खास भाषा बेवजह हावी होती चली जाएगी? वह भी ऐसी भाषा जिसे बहुत कम लोग जानते-समझते और बोलते हैं? और सवाल केवल भाषा की प्रकृति का ही नहीं है, एक ही भाषा के भीतर पनप रही भाई-भतीजावाद वाली तथाकथित लोकतांत्रिक शैली का भी है। आज यह बेहद आम है कि हिंदी में जो पुस्तकें छप रही हैं, वे गुणवत्ता के बजाय किसी नकली मार्केटिंग, ब्रांडिंग या ‘एप्रोच’ की बदौलत छप रही हैं। क्या गुणवत्ता से इतर किसी कसौटी को आधार बना कर छापी गई पुस्तकें किसी स्वस्थ पुस्तक-संस्कृति को बढ़ावा दे पाएंगी?
पुस्तकों को इंटरनेट और इ-बुक जैसे नए डिजिटल माध्यमों से चुनौतियां भी मिल रही हैं। इससे ज्यादा क्या कहा जाए कि इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका ने अब कागज वाली पुस्तकों के प्रकाशन को बंद करने का फैसला ले लिया है, क्योंकि वह अब अपने पास मौजूद समस्त सूचनाओं को आनलाइन जारी करेगी। पर जो बात यूरोप या अमेरिका में लागू होती है, वह क्या भारत में भी लागू हो जाएगी?
पुस्तकों को लेकर भारत की जनता में आदर बहुत है। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते जब मगध में एक शानदार पुस्तक मेले का आयोजन किया गया था। उसमें सैकड़ों लेखक और हजारों दर्शक रोज आते रहे। मीडिया ने उसे कोई खास कवरेज नहीं दिया। तो क्या दिल्ली में पुस्तक-संस्कृति का हो-हल्ला मचाने से देश के कोने-कोने तक किताबें पहुंच जाएंगी? जाहिर है कि पुस्तक-संस्कृति को आगे बढ़ाने का सबसे संवेदनशील समय वर्तमान दौर ही है, वरना यह उबारे भी न उबर पाएगी। (जनसत्ता से साभार)

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