Wednesday 17 July 2013

सम्यक भारत : श्यौराज सिंह बेचैन


सम्यक भारत के विशेषांक 'श्यौराज सिंह बेचैन: व्यक्तित्व एवं कृतित्व' में विभिन्न आलेखों और साक्षात्कार के जरिए श्यौराज सिंह के जीवन के उन पहलुओं को बारीकी से उकेरा गया है, जो उनमें सामाजिक असमानता के खिलाफ लडऩे की ललक पैदा करते हैं.
उनका बचपन उन अभावों में गुजरा, जहां समाज ने उनसे मानवीय अस्मिता तक छीन ली, जहां रोटी-कपड़े तक के लाले थे. वे अमानवीय और बदतर जीवन जीने को मजबूर थे. लेकिन इन्हीं हालात में उन्होंने अपने हौसलों को बुलंद किया और मनुष्य जीवन की एक नई इबारत लिखी.
श्यौराज की आत्मकथा अनेक सामाजिक, राजनैतिक परिप्रेक्ष्य बुनती है और कई सवाल खड़े करती है. ये सवाल मौजूदा दलित आंदोलन की आंतरिक बुनावट में बदलाव की मांग करते हैं और आर्य समाजी अथवा गांधीवादी सुधार आंदोलनों की सीमाओं को भी साफ करते हैं. वस्तुत: यह दलितोत्थान के तमाम मौजूदा प्रतिमानों की परतें पलटती है, वहीं दलित चेतना की सीमाओं को भी उजागर करती है. यह रचना उनके अस्मिता बोध को तो बनाती ही है साथ ही उनकी पहचान को भी मुकर्रर करती है.
उन्होंने सदियों से चले आ रहे अंधविश्वास, कुरीतियों, दलित अत्याचारों और तिरस्कारों पर गहरा कुठाराघात किया है. साथ ही उन्होंने स्त्रियों की पीड़ा का भी मार्मिक चित्रण किया है. अपने कृतित्व के जरिए वे समाज को एक संदेश देने में सफल होते हैं.
उन्होंने युवा वर्ग के साथ स्त्रियों को भी शिक्षा देने की वकालत की है और कहा है कि किसी भी कीमत पर पढ़ो-लिखो, चाहे बाकी काम अधूरे ही क्यों न पड़े रहें. श्यौराज के लेखन की यह विशेषता है कि पाठक उनके साथ हर मोड़ पर खुद को एक संवाद स्थापित करते हुए महूसस करते हैं. भाषा की रचना में श्यौराज का कोई मुकाबला नहीं है.वे जटिल परिस्थितियों का सहज भाषा में चित्रण करते हैं. पाठकों के आगे बिना कोई चीत्कार किए, अपने लिए किसी भी तरह की सहानुभूति और समानुभूति की लालसा से मुक्त और विद्रोही मुद्रा में अपने भोगे हुए यथार्थ से एक दूरी बनाकर न्याय की बात करते हैं. (आजतक से साभार)

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