Wednesday 24 July 2013

ख़लील जिब्रान की अद्भुत शब्द संपदा


तीन चीटियां
एक व्यक्ति धूप में गहरी नींद में सो रहा था । तीन चीटियाँ उसकी नाक पर आकर इकट्ठी हुईं । तीनों ने अपने-अपने कबीले की रिवायत के अनुसार एक दूसरे का अभिवादन किया और फिर खड़ी होकर बातचीत करने लगीं ।
पहली चीटीं ने कहा, “मैंने इन पहाड़ों और मैदानों से अधिक बंजर जगह और कोई नहीं देखी ।” मैं सारा दिन यहाँ अन्न ढ़ूँढ़ती रही, किन्तु मुझे एक दाना तक नहीं मिला ।”
दूसरी चीटीं ने कहा, मुझेभी कुछ नहीं मिला, हालांकि मैंने यहाँ का चप्पा-चप्पा छान मारा है । मुझे लगता है कि यही वह जगह है, जिसके बारे में लोग कहते हैं कि एक कोमल, खिसकती ज़मीन है जहाँ कुछ नहीं पैदा होता ।
तब तीसरी चीटीं ने अपना सिर उठाया और कहा, मेरे मित्रो ! इस समय हम सबसे बड़ी चींटी की नाक पर बैठे हैं, जिसका शरीर इतना बड़ा है कि हम उसे पूरा देख तक नहीं सकते । इसकी छाया इतनी विस्तृत है कि हम उसका अनुमान नहीं लगा सकते । इसकी आवाज़ इतनी उँची है कि हमारे कान के पर्दे फट जाऐं । वह सर्वव्यापी है ।”
जब तीसरी चीटीं ने यह बात कही, तो बाकी दोनों चीटियाँ एक-दूसरे को देखकर जोर से हँसने लगीं।
उसी समय वह व्यक्ति नींद में हिला । उसने हाथ उठाकर उठाकर अपनी नाक को खुजलाया और तीनों चींटियाँ पिस गईं ।

बच्चे 
तुम्हारे बच्चे तुम्हारी संतान नहीं हैं
वे तो जीवन की स्वयं के प्रति जिजीविषा के फलस्वरूप उपजे हैं
वे तुम्हारे भीतर से आये हैं लेकिन तुम्हारे लिए नहीं आये हैं
वे तुम्हारे साथ ज़रूर हैं लेकिन तुम्हारे नहीं हैं.
तुम उन्हें अपना प्रेम दे सकते हो, अपने विचार नहीं
क्योंकि उनके विचार उनके अपने हैं.
तुमने उनके शरीर का निर्माण किया है, आत्मा का नहीं
क्योंकि उनकी आत्मा भविष्य के घर में रहती है,
जहाँ तुम जा नहीं सकते, सपने में भी नहीं
उनके जैसे बनने की कोशिश करो,
उन्हें अपने जैसा हरगिज़ न बनाओ,
क्योंकि ज़िन्दगी पीछे नहीं जाती, न ही अतीत से लड़ती है
तुम वे धनुष हो जिनसे वे तीर की भांति निकले हैं
ऊपर बैठा धनुर्धर मार्ग में कहीं भी अनदेखा निशाना लगाता है
वह प्रत्यंचा को जोर से खींचता है ताकि तीर चपलता से दूर तक जाए.
उसके हाथों में थामा हुआ तुम्हारा तीर शुभदायक हो,
क्योंकि उसे दूर तक जाने वाले तीर भाते हैं,
और मज़बूत धनुष ही उसे प्रिय लगते हैं.

सागर-कन्याएं
सूर्योदय (पूर्व) के समीपस्थ द्वीपों को सागर की गहनतम गहराई आवृत किये हैं। लम्बे सुनहले बालों वाली सागर-कन्याओं से घिरा एक युवक का मृत शरीर मोतियों पर पड़ा था। संगीतमय माधुर्य के साथ आपस में वार्तालाप करती हुई वे कन्याएँ अपनी नीलाभ पैनी दृष्टि से टकटकी लगाकर उस लाश को देख रही थीं। गहराइयों द्वारा सुने गये तथा लहरों द्वारा सागर-तट पर सम्प्रेषित यह वार्तालाप मन्द वायु द्वारा मुझ तक पहुँचा।
उन सागर-कन्याओं में से एक ने कहा, “यह वही मानव है जिसका प्रवेश उस दिन हमारे सागर-संसार में हुआ था और उसके प्रवेश-काल में हमारी जलधि ज्वारोद्वेलित थी।”
दूसरी बोली, “जलधि ज्वारोद्वेलित नहीं थी। दृढ़तापूर्वक अपने को सुर-सन्तान कहनेवाला मानव लौह-युद्ध कर रहा था और इस लौह-युद्ध के फलस्वरूप उसका लहू इस हद तक प्रवाहित हुआ कि सागर के जल का रंग लोहित हो गया। यह व्यक्ति मानव-युद्ध का शिकार है।”
पूर्ण साहस के साथ तीसरी ने कहा, “युद्ध के विषय में मुझे कुछ नहीं मालूम, परन्तु मुझे इतना मालूम है कि भूमि को विजित करने के बाद मानव की प्रवृत्ति आक्रामक हो गयी और अब वह सागर-विजय हेतु दृढ़प्रतिज्ञ है। अपने विलक्षण विषय-चिन्तन के कारण उसका सागर पर पहुँचना हुआ। उसकी इस लोलुपता से हमारे प्रचण्ड समुद्र-देवता वरुण कुपित हो गये। वरुण के क्रोध को शान्त करने के लिए (अर्थात् उन्हें प्रसन्न करने के लिए) मनुष्यों ने उन्हें उपहारों एवं वसिरानों का अहर्य देना प्रारम्भ कर दिया, और हमारे बीच आज जो यह मृत-शरीर है, हमारे महान तथा उग्र वरुण देवता को मानव द्वारा समर्पित सद्यः उपहार है।”
चौथी ने दृढ़तापूर्वक स्वीकारा, “हमारे वरुण देवता कितने महान हैं, परन्तु उनका हृदय कितना कठोर है। मगर मैं सागर-सम्राज्ञी होती तो ऐसे उपहार को अस्वीकार कर देती... अब आओ, हम लोगों को इस भुगतान (बन्दी का उद्धार मूल्य) का परीक्षण करना चाहिए। हम लोग भी सम्भवतः अपने को मानव-वंश के सदृश प्रकाशित कर सकती हैं।”
सागर-कन्याएँ मृतक युवक के निकट गयीं। उन्होंने उसकी जेबें तलाशीं और ऊपरी जेब में एक पत्र मिला। अपनी सहेलियों को सुनाती हुई एक सागर-कन्या ने पत्र को पढ़ा :
“मेरे प्रिय,
मध्य रात्रि का आगमन पुनः हुआ है, मेरे प्रवाहित आँसुओं के अतिरिक्त मुझ में धैर्य का सर्वथा अभाव है। युद्ध से रक्त-रंजित भूमि से तुम्हारी वापसी की जो मुझे आशा है, यही मेरी खुशी का कारण है। अपनी जुदाई के समय तुम्हारे व्यक्त शब्दोद्गार को मैं भूल नहीं सकता हूँ - प्रत्येक व्यक्ति को अपने आँसुओं का ही एक आलम्बन है जिसका प्रत्यर्पण किसी न किसी दिन अवश्य होता है।
“मेरे प्रिय, मुझे नहीं मालूम कि मुझे क्या कहना चाहिए, परन्तु मुझे इसका ज्ञान है कि मेरी आत्मा इस चर्म-चीरक (शरीर) में स्वतः निस्सरण करती है... मेरी आत्मा विघटन से पीड़ित होते हुए भी, प्रेम से आश्वासित हुई है जो प्रेम-पीड़ा को आनन्द और क्लेश को सुख प्रदान करता है और यही प्रेम हमारे दो हृदयों को एकीभूत करता है। जब हम लोगों ने उस दिन का चिन्तन किया, जिस दिन सर्वशक्तिमान सर्वेश्वर के सशक्त श्वास से हम दोनों के हृदय एकाकार हुए थे, तभी युद्ध की विकराल ज्वाला प्रज्वलित हुई और इस युद्ध-ज्वाला को और भी प्रज्वलित, नेताओं ने अपने वक्तव्य (भाषण) की आहुति देकर की और तुमने अपना कर्तव्य समझकर उस युद्ध का अनुगमन किया।
“यह कैसा कर्तव्य है कि दो प्रेमियों को पृथक् करता है, स्त्रियों के अहिवात को वैधव्य में परिवर्तित कर देता है तथा बच्चों को यतीम बनाता है? यह कैसी देशभक्ति है कि युद्धों को उत्तेजित करती है और तुच्छ वस्तुओं की प्राप्ति के लिए राज्यों का विनाश करती है? यह कैसा कर्तव्य है कि आततायियों के यश हेतु निरीह व्यक्तियों को मरण-वरण हेतु आमन्त्रित करता है जिन निरीह व्यक्तियों पर न समर्थ और न वंशागत आभिजात्यों की कृपा-दृष्टि ही पड़ती है। अगर कर्तव्य राष्ट्रों की सन्धि को भंग करता है तथा देशभक्ति प्रजा को शान्तिमय जीवन में विघ्न डालती है, तब हम यह कहेंगे कि - ‘कर्तव्य और देशभक्ति को शान्ति मिले।’
“नहीं, नहीं, मेरे प्रिय! मेरे शब्दों का खयाल मत करो! अपने देश के प्रति बहादुर और वफादार बनो... प्रेम में अन्धा बनकर तथा जादुई और एकाकीपन से विकसित होकर मेरी (कुमारी) बातों पर ध्यान मत दो... अगर मेरे इस जीवन में तुम्हें प्राप्त करने में प्रेम असमर्थ रहेगा, तब पुनर्जन्म में हम लोगों को प्रेम निश्चित रूप से प्राप्त होगा।
तुम्हारा सदैव”
सागर-कन्याओं ने पत्र पढ़कर उसे उस मृतक युवक की जेबी में पुनः रख दिया। मौन-स्तब्ध होकर सव्यथा वे सभी कन्याएँ तैरती हुई उस स्थान से दूर चली गयीं और एकत्रित हुईं। उनमें से एक ने कहा, “वरुण देवता के संगदिल से कहीं अधिक प्रस्तर मानव का हृदय है।”

भूखा आदमी 
एक बार एक आदमी मेरी मेज पर आ बैठा। उसने मेरी रोटियाँ खा लीं और वाइन को पीकर मुझपर हँसता हुआ चला गया।
रोटी और वाइन की तलाश में अगली बार वह फिर आया।
मैंने लात मारकर उसे भगा दिया।
उस दिन फरिश्ता मुझ पर हँसा।

पागलपन 
काफी समय पहले की बात है। एक आदमी था। उसे प्यार बाँटने और प्यारा बनने के दण्डस्वरूप फाँसी पर लटका दिया गया था।
गज़ब की बात यह है कि कल मैं तीन बार उससे मिला।
पहली बार : वह एक पुलिसवाले को जेल में चकलाघर न चलाने के बारे में समझा रहा था।
दूसरी बार : वह 'देशनिकाला' की सज़ा पाए एक आदमी के साथ मस्ती कर रहा था।
और तीसरी बार: चर्च के भीतर वह एक पादरी के साथ हाथापाई कर रहा था।

वसंत 
हजार साल पहले मेरे पड़ोसी ने मुझसे कहा - "मुझे ज़िन्दगी से नफरत है क्योंकि पीड़ा के अलावा इसमें कुछ नहीं है।"
और कल, मैं जब कब्रिस्तान की ओर से गुजर रहा था, मैंने देखा - जिन्दगी उसकी कब्र पर लहलहा रही थी।

बुद्धि के विक्रेता
कल मैंने दार्शनिकों को बाज़ार में देखा। अपने सिरों को टोकरी में रखकर वे चिल्ला रहे थे - "बुद्धि… ऽ… ! बुद्धि ले लो… ऽ… !"
बेचारे दार्शनिक! अपने दिलों को खुराक देने के लिए उन्हें सिर बेचने पड़ रहे हैं।

तीन अजूबे
हमारे भाई जीसस के तीन अजूबे ऐसे हैं जिन्हें आज तक लिखा नहीं गया।
पहला यह कि - वह आपकी और मेरी तरह एक इंसान ही था।
दूसरा यह कि - वह तर्कशील-बुद्धि का स्वामी था।
और तीसरा यह कि - पराजित होने के बावजूद वह जानता था कि वह विजेता है।

आज़ादी 
वह मुझसे बोले - "किसी गुलाम को सोते देखो तो जगाओ मत। हो सकता है कि वह आज़ादी का सपना देख रहा हो।"
"अगर किसी गुलाम को सोते देखो तो उसे जगाओ और आज़ादी के बारे में उसे बताओ।" मैंने कहा।

आस्तिक और नास्तिक 
प्राचीन नगर अफ़कार में दो विद्वान रहते थे। वे एक-दूसरे को नफरत करते थे और लगातार एक-दूसरे के ज्ञान को नीचा ठहराने की कोशिश में लगे रहते थे। उनमें से एक देवताओं के अस्तित्व को नकारता था, जबकि दूसरा उनमें विश्वास करता था।
एक बार वे दोनों बाजार में मिल गए। अपने-अपने चेलों की मौजूदगी में वे वहीं पर देवताओं के होने और न होने पर तर्क-वितर्क करते भिड़ गए। घंटों बहस के बाद वे अलग हुए।
उस शाम नास्तिक मन्दिर में गया। उसने अपने आपको पूजा की वेदी के आगे दण्डवत डाल दिया और देवताओं से अपनी पिछली सभी भूलों के लिए क्षमा माँगी।
और उसी दौरान, दूसरा विद्वान जो आस्तिक था, उसने अपने सारे धर्मग्रंथ जला डाले। वह नास्तिक बन चुका था।

प्रेमगीत 
एक कवि ने एक बार एक प्रेमगीत लिखा। यह बड़ा सुन्दर था। उसने उसकी कई प्रतियाँ तैयार कीं और अपने मित्रों व प्रशंसकों को भेज दिया। एक प्रति उसने पर्वत के पीछे रहने वाली उस युवती को भी भेजी जिससे वह सिर्फ एक बार ही मिला था।
एक या दो दिन के बाद उस युवती का पत्र लेकर एक आदमी उसके पास आया। पत्र में उसने लिखा था - "मैं आपको यकीन दिला दूँ कि मुझे लिखे आपके प्रेमगीत ने मुझे विभोर कर डाला है। आओ, मेरे माता-पिता से मिलो। हम सगाई की तैयारियाँ करेंगे।"
कवि ने पत्र का उत्तर लिखा - "दोस्त! यह कवि के हृदय से निकला गीत था। इसे कोई भी पुरुष किसी भी स्त्री के लिए गा सकता है।"
युवती ने जवाब भेजा - "झूठ और पाखंड से भरी बातें लिखने वाले! आज से लेकर कब्रिस्तान जाने के दिन तक मैं कभी भी किसी कवि पर यकीन नहीं करूँगी, तुम्हारी कसम।"

स्त्री-दर्शन 
बहुत ही खूबसूरत एक देहाती लड़की मेला देखने आई। उसका चेहरा गुलाब और लिली की रंगत लिए था। उसके बाल शाम के धुँधलके-जैसे काले थे। उसके होंठ उगते सूरज-से लाल थे।
ज्यों ही वह अनजान लड़की वहाँ पहुँची, नौजवानों ने उसे घेर लिया। कोई उसके साथ नाचना चाहता था तो कोई उसके सम्मान में केक काटने को उतावला था। वे सब-के-सब उसके गाल चूमने को पागल थे। आखिरकार, था तो वह मेला ही।
लड़की सहमी और भौंचक थी। नौजवानों के लिए उसके मन में घृणा भर गई थी। उसने उन्हें झिड़क दिया। उनमें से एक या दो को तो उसने झापड़ भी रसीद कर दिए। आखिरकार वह वहाँ से निकल भागी।
घर लौटते हुए वह अपने दिल में सोच रही थी - "मुझे घिन आ रही है। ये लोग कितने असभ्य और जंगली हैं। यह सब बर्दाश्त से बाहर है।"
इस घटना को एक साल बीत गया। वह पुन: उस मेले में आई। लिली-गुलाब, शाम का धुँधलका, उगता सूरज - सब वैसे-के-वैसे थे।
नौजवानों ने उसे देखा और दूसरी ओर को पलट पड़े। पूरे दिन वह अनछुई, अकेली घूमती रही।
शाम के समय, अपने घर की ओर लौटते हुए उसका हृदय चीख-चीखकर कह रहा था - "मुझे घिन आ रही है। ये नौजवान कितने जंगली और असभ्य हैं। यह सब मेरी बर्दाश्त से बाहर है।"

दार्शनिक और मोची
जूते पहने एक दार्शनिक एक मोची के पास आया। बोला, "मेरे जूतों की मरम्मत कर दो।"
मोची बोला, "इस समय में किसी-और के जूते मरम्मत कर रहा हूँ। आपका नम्बर आने से पहले और-भी कई मरम्मत के लिए रखे हैं। आप अपने जूते यहाँ छोड़ जाइए और ये दूसरे वाले आज पहन जाइए। कल आकर अपने वाले ले जाना।"
ऐसी अभद्र बात सुनकर दार्शनिक भड़क उठा और बोला, "मैं किसी और के जूते नहीं पहना करता।"
मोची बोला, "तब ठीक है। क्या आप वाकई इतने सच्चे दार्शनिक हैं कि किसी अन्य के जूते पैरों में नहीं डाल सकते? इस गली के दूसरे सिरे पर एक और मोची बैठता है। वह दार्शनिकों की बात मेरे मुकाबले अच्छी तरह समझता है। आप उससे अपने जूते मरम्मत करा लीजिए।"

सपने
एक आदमी ने एक सपना देखा।
नींद से जागकर वह स्वप्नविश्लेषक के पास गया और उससे स्वप्न का अर्थ बताने की विनती की।
स्वप्नविश्लेषक ने उसे बताया, "मेरे पास अपने वे सपने लेकर आओ, जिन्हें तुमने चेतन अवस्था में देखा हो। मैं उन सबका अर्थ तुम्हें बताऊँगा। लेकिन सुप्त अवस्था के तुम्हारे सपनों को खोलने जितनी या तुम्हारी कल्पना की उड़ान को जान लेने जितनी बुद्धि मुझमें नहीं है।"

अहं ब्रह्मास्मि
अपनी जाग्रत अवस्था में उन्होंने मुझसे कहा - "वह दुनिया जिसमें तुम रहते हो अन्तहीन किनारे वाला असीम सागर है और तुम उस पर पड़े एक कण मात्र हो।"
और अपने सपने में मैंने उनसे कहा - "मैं असीम सागर हूँ और पूरी सृष्टि मेरे किनारे पर पड़ा एक कण मात्र है।"

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