Tuesday 23 July 2013

चाहती हूं ये कोई यादगार उपन्यास लिखें

 प्रसिद्ध कथाकार शिवमूर्ति की पत्नी सरिता जी से दिनेश कुशवाह की बातचीत

डॉ. दिनेश कुशवाह :- भाभी जी, कुछ अपने बचपन के बारे में बताइए। अपनी पैदाइश, परिवार भाई-बहन आदि।
सरिता जी :- मेरा मायका भी इनके जिले सुल्तानपुर में ही है। ससुराल से 4 कोस दूर। हम तीन बहनें हैं केवल। भाई एक था लेकिन पागल सियार के काट लेने से 12-13 वर्ष की उम्र में उसकी मृत्यु हो गई।
डॉ. दिनेश :- अरे कैसे?
सरिता जी :-  स्कूल से पढ़कर आए और गांव के बच्चों के साथ मैदान की ओर खेलने चला गया। वहीं एक जाते हुए सियार को देखकर लड़के उसके पीछे भागे। मेरा भाई सबसे पीछे था पर दौड़ तेज होने के कारण सबसे आगे पहुंच गया। तभी अचानक मुड़कर सियार ने मेरे भाई के गाल पर काट लिया। एक महीने बाद उसकी तबियत खराब हो गई। जो भी लोग मिलने आते उनसे वह कहता कि अस्पताल ले चलकर मेरे सुई लगवा दीजिए। मेरी जान बचा लीजिए। लेकिन तब इतनी जागरूकता नहीं थी। सुई लगवाने नहीं ले गए। झाड़-फूंक करते रह गए और मेरा भाई जान बचाने की चिरौरी करते-करते चला गया। सारा गांव सन्न था। लोग कहते कि जब इनका बेटा मरा, बहू मरी तो यह कहकर समझाते थे कि एक पोता है। उसी को देखकर धीरज रखिए। अब तो एकमात्र पोता भी चला गया तो अब क्या कहकर समझाएं?
डॉ. दिनेश :- तो माता-पिता का वियोग आपको बचपन में ही सहना पड़ा?
सरिता जी :-  जी हां, मैं आठ वर्ष की थी तब पिताजी मरे और उनकी मृत्यु के एक वर्ष बाद मां चल बसी।
डॉ. दिनेश :- आपको अपने विवाह की याद है?
सरिता जी :-  नहीं। मैं 5-6 साल की रही होऊंगी।
डॉ. दिनेश :- ससुराल की पहली याद?
सरिता जी :-  जब विवाह के 11 वर्ष बाद गौना हुआ तब की याद है।
डॉ. दिनेश :- डोली में आई थीं?
सरिता जी :-  नहीं इक्के पर।
डॉ. दिनेश :- रोते-रोते?
सरिता जी :-   हां, रास्ते-भर।
डॉ. दिनेश :- तो गौने में पहली बार इनको देखा तो कैसे लगे?
सरिता जी :-  कहां देखा? दो रात रहे। तीसरे दिन विदा हो गए।
डॉ. दिनेश :- तो भेंट तो हुई होगी, दिन या रात में।
सरिता जी :-  भेंट तो हुई लेकिन मैं देख नहीं पाई । दिन में तो आमना-सामना ही नहीं हुआ। रात में थोड़ी देर के लिए साथ हुआ। लेकिन आंख ही नहीं उठी। नहीं देख पाए। वापस जाकर अपनी एक सहेली से पूछा कि कैसे थे तेरे जीजा? उसने बताया कि अरे जीजी, उनके चेहरे पर तो बहुत सोरे दाग, बहुत सारे फोड़े।
सुनकर मैं सोच में पड़ गई। इस उमर में इतने दाग? कैसे?
डॉ. दिनेश :-  तो बचपन से दागी थे शिवमूर्ति?
सरिता जी :-   दरअसल उनके बहुत मुंहासे हुए थे।
डॉ. दिनेश :- क्या मन में आता था, कैसी होगी ससुराल? कैसे होंगे वे?
सरिता जी :-  हां, कुछ पता नहीं। सब कुछ अनजाना-अनजाना?  डर लगता था।
डॉ. दिनेश :- तो दुबारा कब आईं?
सरिता जी :- पांच-छह महिने बाद।
डॉ. दिनेश :- तब देखा इनको। सचमुच?
सरिता जी :-   (हंसती हैं।) हां, तभी देखा। कसम से।
डॉ. दिनेश :- साल-भर लग गया पति का मुंह देखने में?
सरिता जी :-  नहीं, छह महीने। (हंसती हैं।)
डॉ. दिनेश :- तब ये किस क्लास में पढ़ते थे।
सरिता जी :-   इंटर में।
डॉ. दिनेश :- तो कैसी लगी ससुराल? सास? ससुर?
सरिता जी :- बहुत अच्छे। ननद भी बहुत अच्छी। कई बेटियां होने पर अक्सर ताना मिलता है लेकिन न कभी इन लोगों के चेहरे लटके न हमें कुछ कहा। मेरी सास कहती थी। कि आंधी आ रही है तो कभी पानी भी आएगा।
डॉ. दिनेश :- लेकिन आंधी बहुत ज्यादा आई। छह-छह बेटियां।
सरिता जी :-  हां (हंसती है), लेकिन मेरे ससुर तो इंतजार करते रहते थे कि सौर घर से नवें दिन बाहर निकले तो वे नातिन को गोद में लेकर खिलाएं। जब अपने गुरू महाराज की कुटी से चार-छह दिन के लिए आते थे तो खेलाते थे। मालिस करते थे।
डॉ. दिनेश :- तो पहली बेटी कब हुई ?
सरिता जी :- जिस साल इन्होंने बी.ए. किया।
डॉ. दिनेश :- तो उस समय मन लगाकर पढ़ते थे?
सरिता जी :-  हां, जब पढ़ने का समय होता था तो पढ़ते थे।
(अरे, साफ-साफ पूछिए कि भरतनाट्‌यम क्या इन्हीं की कहानी है?- संजीव जी जोर से कहते हैं । )
डॉ. दिनेश :- शिवमूर्ति जी की एक कहानी है भरतनाट्‌यम। उसकी नायिका के भी लगातार लड़कियां ही लड़कियां होती हैं। बाप भी बहुत गुस्सैल है। जबकि वह चाहती है कि लड़का हो जाए। अरे, जिसमें वह खलील दर्जी के साथ भाग जाती है। पढ़ी है?
सरिता जी :-  हां।
डॉ. दिनेश :- सब लोग समझते थे कि शिवमूर्ति अपनी ही कहानी लिखे हैं।
सरिता जी :-  (जोर से हंसती हैं) नहीं-नहीं। अरे इनकी एक कहानी है, 'सिरी उपमा जोग', जिसे पढ़कर हमारी बड़ी बेटी की सहेलियां पूछती थीं। कि जो मां तुम्हारे साथ रहती हैं वे तुम्हारी पहली मां हैं कि दूसरी वाली? (सामूहिक हंसी।)
डॉ. दिनेश :- अच्छा, यह बताए कि आप लोगों में कुछ नोंक-झोंक, कुछ तनातनी, कुछ टुन्न-पुन्न होता है?
सरिता जी :-  हां, क्यों नहीं? जब कोई मेरी बात ए नहीं मानते या उनकी कोई बात मैं नहीं मानती।
डॉ. दिनेश :-  एकदम शुरूआत से?
सरिता जी :-  हां, एक बार ए मुझे विदा कराने के लिए मेरे मायके आए। मैं जाना नहीं चाहती थी। दादी ने कहा इंकार कर दो। लेकिन उन्होंने लिवाकर ही जाने की जिद्‌द की तो दादी ने मुझे समझा-बुझाकर विदा कर दिया। मेरे इंकार के चलते ए गुस्सा हो गए। गांव से निकलकर थोड़ी दूर पगडंडी पर आगे बढ़ने के बाद साइकिल पर बैठाने का चलन था। लेकिन उस दिन कोस-भर पैदल चलाने के बाद इन्होने मुझे साइकिल पर बैठाया।
डॉ. दिनेश :-  अच्छा, आपको कब पता चला कि आपके पति लेखक हैं?
सरिता जी :-  बहुत बाद में। जब मैं इनके साथ बलिया आ गई। सेल्स टैक्स अफसर वाली नौकरी में। जब 'कसाईबाड़ा' छपी 'धर्मयुग' में।
डॉ. दिनेश :-  बातचीत तो शुरू से होती होगी?
सरिता जी :-  हां, पहले सिर्फ रात मे होती थी। दिन में नहीं। खाना भी मुझसे नहीं मांगते थे। अपनी मां से ही मांगते थे। बेटी हो गई लेकिन उसे खेलाते नहीं थे। कभी-कभी जब वह चारपाई  पर सो रही होती, उसे झुककर देखते और कहते कि लगता है यह मरेगी नहीं। मेरी जान का कंटक बनेगी। कहां से इसकी शादी-ब्याह करूंगा।
डॉ. दिनेश :-  बड़ी वाली, रेखा? जो डाक्टर है?
सरिता जी :-  हां। बहुत स्वस्थ थी। जब नीम के पेड़ पर कौआ बैठकर कां-कां बोलता तो वह भी लेटे-लेटे उसकी बोली दोहराती। उस समय ए वहीं बगल में बैठकर पढ़ रहे होते और मैं खेत पर काम कर रही होती। तब ए उदास होते उसकी किलकारी सुन-सुनकर। जितना ही लड़कियों की पैदाइश से डरते थे उतना ही लड़कियों की  भरमार  हो गई।
डॉ. दिनेश :- कभी अपने बच्चों को खेलाते थे शिवमूर्ति जी?
सरिता जी :-  कभी नहीं। गांव में अपने बच्चों को शायद ही कोई खेलाता हो। सब शरमाते हैं।
डॉ. दिनेश :-  पैसे की तो बहुत तंगी रहती होगी उस समय?
सरिता जी :-बहुत ज्यादा। पांच-पांच रूपए महीने का ट्‌यूशन पढ़ाते थे।
डॉ. दिनेश :-  सुनते हैं, मजमा लगाकर मेले में दवा भी बेचते थे?
सरिता जी :-  हां, बहुत काम किए हम लोग उस समय। ए मजमा लगाते थे। उसके लिए मैं शीशियों में दवा भरती थी। लेबल चिपकाती थी। तंबाकू और तेंदू का पत्ता लाते थे। हम लोग बीड़ी बनाते थे। मैं, मेरे ससुर, सास, ननद और एक भगौती यादव थे, पिताजी के गंजेड़ी दोस्त-सब मिलकर।
डॉ. दिनेश :-  गंजेड़ी? गांजा पीने वाले?
सरिता जी :-  हां, उसके चलते भी बहुत दिक्कत होती थी। गांजे की पुड़िया भी इनको रोज लाना पड़ता था। चार आने की एक पुड़िया मिलती थी। न लाने पर खेत-बारी बेच डालने की धमकी देने लगते थे।
डॉ. दिनेश :- तो बीड़ी बनाकर बेचते थे?
सरिता जी :- बहुत सारी तो ए दोनों लोग पीकर खत्म कर देते थे। जो बचती थीं, गांव के एक जयराम भूज थे, उन्हीं को बेचने को दे दिया जाता था।
डॉ. दिनेश :- और क्या-क्या किए उस समय आप लोग?
सरिता जी :-  और इन्होंने कैलेंडर बेचने की एजेंसी लिया था। उसका आर्डर बुक करने जाते थे। साड़ियों का आर्डर लेने जाते थे। नजदीक के मेलों मे दवाई का मजमा नहीं लगाते थे। वहां साइकिल स्टैंड लगाते थे दो-तीन लोग मिलकर।
डॉ. दिनेश :-  तो इन सब से कितनी आमदनी करते थे?
सरिता जी :-  पता नहीं।
डॉ. दिनेश :-  आमदनी की कोई चर्चा नहीं करते थे आपसे?
सरिता जी :- नहीं। आखिर घर उन्हीं को चलाना था। खर्चा-वर्चा उन्हीं के जिम्मे रहता था इसलिए न हम कुछ पूछते थे न वे कुछ बताते थे। यह जरूर था कि एक किलो दाल बाजार से लाते थे तो कह देते थे कि इसी से हफ्ते-भर का काम चलाना है। मैं वैसा ही करती थी। उस दाल के सात भाग कर देते थे। एक टाइम शाम को पकाते थे। नमक खत्म हो जाता था, तो कभी-कभी दो-चार दिन पड़ौस से उधार मांगकर काम चलाते थे। आने पर वापस कर देते थे।
डॉ. दिनेश :-  कभी उपवास की नौबत तो नहीं आई?
सरिता जी :-  नहीं। बस दो बार एक जून उपवास की नौबत आई थी। दरअसल दादा अपने गुरू जी को भंडारे के लिए बुला लाए थे। वे अपने सारे चेलों के साथ आ गए। घर में जितना राशन था सब उन्हें खिलाने में खत्म हो गया। तो सबेरे उन लोगों की बिदाई के बाद दोपहर में पकाने के लिए कुछ नहीं था। शाम को हमारी सास कहीं से अनाज उधार लाईं। उसमें से एक-डेढ़ किलो मैंने जल्दी-जल्दी जांत में पीसा। तब रोटी बनी।
डॉ. दिनेश :-  और दूसरी बार कब?
सरिता जी :- हमारे एक बडे़ ससुर जी थे। अहमदाबाद में मिल में काम करते थे। उनका देहांत हो गया। उनके क्रियाकर्म के भोज में घर का सारा राशन खत्म हो गया। सबेरे मेहमानों की बिदाई के समय उन्हें नाश्ते में देने के लिए कुछ नहीं था। तब एक पल्था (क्यारी) आलू खोदी गई। अभी आलू पूरी तैयार नहीं थी। नन्ही-नन्ही आलू निकली। उन्हें उबालकर सबको थोड़ा-थोड़ा दिया गया। अंत में मेरे लिए एक भी आलू नहीं बचा। किसी ने देखा नहीं, सोचा नहीं कि मेरे लिए भी कुछ बचना चाहिए। मैंने जूठे बर्तन समेटे और उन्हें धोने लगी। घूंघट होने के कारण कोई मेरे आंसू नहीं देख सका जो देर तक बहते रहे थे।
डॉ. दिनेश :-  तो जो दवा वगैरह बेचते थे उनसे आमदनी?
सरिता जी :-  दवा बेचना उसी के बाद शुरू किया।
डॉ. दिनेश :-  और मास्टरी भी तो करते थे?
सरिता जी :-  एक-डेढ़ साल दवा वगैरह बेचे, तब मास्टरी शुरू किया। मास्टरी शुरू की तो दवा बेचना बंद कर दिए। मास्टरी में भी 70-75 रूपए महीने मिलते थे। स्कूल से आकर जो भी खाने के लिए रहता दो-चार आलू, चबेना, या गंजी (शकरकंदी), तब तो यही दोपहर का भोजन होता था, उसे खाकर टयूशन पढ़ाने चले जाते थे। वहां से रात दस-साढे़ दस बजे तक लौटते थे। फिर बड़े सबेरे चार बजे उठकर ढाई-तीन घंटा पढ़ते थे।
डॉ. दिनेश :-  जब अधिकारी हो गए तो कैसा लगा?
(संजीव जी की आवाज: पूरा बताइए। लजाइए मत)।
सरिता जी :- लजा नहीं रहे हैं। अच्छा लगा। पता लगा तो पूरे गांव के लोग कई दिन तक शाबासी देने और पूछने आते रहे कि कैसे हुआ? क्या करने से नौकरी मिली? दरअसल मैंने सपने में देखा था कि इनका नौकरी वाला कागज निकल आया है लेकिन किसी ने छिपा दिया है। ऐसा पहले हुआ भी था। इनके इंटरव्यू की चिट्‌ठी आई थी। तो डाकिए ने गांव के किसी आदमी को दे दिया था। उसने समय से नहीं दिया। इंटरव्यू की तारीख बीत जाने के बाद कोई हमारे घर के सामने उसे फेंक गया था। लेकिन ए इलाहाबाद से ही हर बात का पता लगाए रहते थे और समय से इंटरव्यू देने पहुंच गए थे।
डॉ. दिनेश :-  तो बहुत सावधान रहते थे शिवमूर्ति जी?
सरिता जी :-  हां, रहते थे। क्योंकि गांव में हमारे परिवार को एक पीढ़ी पहले से लड़ाई-भिड़ाई करना पड़ रहा था। खेत के एक विवाद में हमारे ससुर को गांव के एक ठाकुर परिवार के साथ लंबी मुकदमेबाजी करनी पड़ी जिसमें फौजदारी और घर से बाहर निकलकर छिपकर रहने तक के लिए मजबूर होना पड़ा थां जैसाकि हर गांव का चलन है, किसको आपसे अंदरूनी जलन है और कौन कब दगा कर देगा इसका अंदाजा लगाना मुश्किल होता है। इसलिए सावधान रहना पड़ता था। और बचकर चलना पड़ता था।
डॉ. दिनेश :-  पहली बार कब ले गए आपको अपने साथ?
सरिता जी :- रेलवे की दो-ढाई साल की नौकरी में तो अकेले ही रहते थे लुधियाना में। हम सब गांव में ही रहते थे। फिर सन 77 से इस नौकरी में आए। ट्रेनिंग के बाद अगस्त में बलिया में ज्वाइन किया। उसके पांच - छह महीने बाद ले गए।
डॉ. दिनेश :- तो परिवार के लागों ने एतराज नहीं  किया आपको शहर ले जाने का?
सरिता जी :- नहीं। बहुत पहले जब वे मास्टरी कर रहे थे तभी पिता जी ने गांव आना छोड़ दिया था। साधू लेकर अपने गुरू जी कुटिया पर रहने लगे थे। जब हम लोगों को बाहर ले जाने की बात आई तो ए गए, ससुर जी के पास गए। उन्हें समझाया कि अब घर पर केवल मां ही अकेली रह जाएंगी क्योंकि ननद भी ससुराल चली गई थीं। इसलिए आप घर चलिए। वहीं कुटी बनवा देंगे। वहीं रहिए ताकि मां अकेली न पड़ जाएं। कुछ काम-धाम मत करिए। सिर्फ भजन करिए।
(संजीव जी :- अच्छा साफ-साफ बताइए, कैसा लगा पहली बार जब शहर गई तो?)
सरिता जी :-  बहुत अच्छा लगा। सब कुछ नया-नया था। अच्छी सड़क। बिजली की रोशनी। साफ सुंदर लोग। अच्छा लगा।
डॉ. दिनेश :-  कोई खास याद उस समय की?
सरिता जी :- एक चपरासी आते थे घर खाना बनाने। तो मैंने कहा कि खाना ए बानाएंगे तो मैं क्या करूंगी? इन्होंने कहा-जैसा होता है होने  दीजिए।
डॉ. दिनेश :-  और?
सरिता जी :-एक दिन विश्वनाथ जी, जो खाना बनाते थे, बोले-बहूजी, एक कूकर ले आइए। मैं समझी नहीं। सोचा शहर में कूकर (कुत्ता) का क्या काम? विश्वनाथ जी मुझे 'बहूजी' कहते थे लेकिन इतनी जल्दी में भोजपुरी लहजे में बोलते थे कि मुझे 'भउजी' सुनाई पड़ता था। तो हमेशा की तरह शाम को मैंने इनसे कहा कि ए उम्र में मुझसे बडे़ हैं, तब मुझे भउजी क्यों कहते हैं? तो इन्होंने समझाया कि  भउजी नहीं, बहूजी कहते हैं।
(सबकी समवेत हंसी)
डॉ. दिनेश :-  और?
सरिता जी :- बस और जाने दीजिए। (हंसती हैं)
(कब सोचा कि आपको पढ़ना चाहिए?-संजीव जी पूछते हैं।)
सरिता जी :-  जब ये रेलवे की नौकरी में लुधियाना गए तभी मेरे पढ़ने के लिए गांव में टयूशन लगवा दिए थे। गांव का एक ठाकुर का लड़का शाम को पांच-छह बजे पढ़ाने आता था और मैं गाय-बैलों की सानी-पानी रसोई का काम निपटाने, सबको खिलाने-पिलाने के बाद दिए की रोशनी में उसका बताया हुआ लिखती थी।
डॉ. दिनेश :-  सबेरे भी उठकर पढ़ती थीं?
सरिता जी :-  नहीं, सबेरे नहीं। सबेरे तो चार बजे उठकर रोज अनाज पीसने या धान कूटने का काम रहता था। वह सबसे जरूरी था। नहीं तो चूल्हा कैसे जलता?
डॉ. दिनेश :- खुद आटा पीसती थीं? घर के जांते में?
सरिता जी :-  हां। तब आटा-चक्की का चलन उतना नहीं था। घर-घर में औरतें बाम्हणों, ठाकुरो, बनिया को छोड़कर खुद ही अपनी जरूरत की कुटाई-पिसाई करती  थीं। अब तो शायद ही किसी के घर में जांत मिले।
डॉ. दिनेश :-  अच्छा, तो आप अपनी पढ़ाई के बारे में बता रही थीं?
सरिता जी :-  गांव से बलिया गए पहली-पहली बार तो वहां भी ट्‌यूशन लगवा दिया। जो लड़का बच्चों को पढ़ाने आता था वही मुझे भी पढ़ाता था। इस तरह थोड़ा-थोड़ा पढ़ना-लिखना आया।
डॉ. दिनेश :-  पहली बड़ी किताब कौन-सी पढ़ी?
सरिता जी :-  बिना पैसे पैदल दुनिया का सफर।
डॉ. दिनेश :-  क्या था इसमें?
सरिता जी :-  दो लोग बिना जेब में एक पैसा रखे दो-पौने दो साल तक पैदल सारी दुनिया घूमे और कई प्रकार की मुसीबतें झेले। एक का नाम सतीश था। शायद राजस्थान के रहने वाले, दूसरे दक्षिण भारतीय । ए बाता रहे थे कि सतीश अब शायद लंदन में रहते हैं। जब वे घूमने के लिए निकले तो उनकी पत्नी को बच्चा होने वाला था।
डॉ. दिनेश :-  शिवमूर्ति जी की पहली कहानी कौन-सी पढ़ी?
सरिता जी :- सिरी उपमा जोग। पढ़कर बहुत रोई।
डॉ. दिनेश :-  और कौन-कौन सी किताबें पढ़ी हैं आपने?
सरिता जी :-  कई पढ़ी हैं। बर्नियर की भारत यात्रा,इब्नबतूता की यात्रा का हाल। मेरा दागिस्तान, सूबेदार सीताराम पांडे, ठग, ढोढाई चरित मानस, गोदान, मैला आंचल, गोर्की का उपन्यास वे तीन, जैक लंडन की भेड़िए वाली कहानी, आंखों देखा गदर, आधा गांव, क्या भूलूं क्या याद करूं, नंगा तलाई का गांव, हावर्ड फास्ट का मुक्ति मार्ग वगैरह।
डॉ. दिनेश :-  दोस्तों की आवाजाही बढ़ने से खिलाने-पिलाने का झंझट बढ़ा तो बुरा लगा?
सरिता जी :-  कभी नहीं। अच्छा लगता था। घर चार-छह आदमी आएं तो खुशी होती है। इनके दोस्त-मित्र बहुत हैं गांव में भी हैं। अभी कितने साल से बाहर रह रहे हैं पर अब भी गांव जाते हैं ऐसा कभी नहीं हुआ कि आने की खबर पाकर चार-छह लोग मिलने न आ आएं।
डॉ. दिनेश :-  अच्छा, कभी इन पर ऐसा गुस्सा आया जब सोचा हो कि अब इनसे नहीं बोलेंगे?
सरिता जी :- आ जाता है कभी-कभी। तब एकाध घंटे या एकाध दिन बोलचाल बंद हो जाती है।
डॉ. दिनेश :-  इनकी कौन-सी आदत आपको सबसे ज्यादा अच्छी लगती है?
सरिता जी :-  इस तरह तो कभी सोचा नहीं।
डॉ. दिनेश :- अच्छा, पति के अलावा हर स्त्री का एक प्रेमी भी होता है। दोनों में आप क्या अंतर करती हैं?
सरिता जी :-  पति तो पति है। उसका स्थान प्रेमी नहीं ले सकता। लेकिन जैसे आजकल के लड़कों की गर्ल फ्रैंड होती हैं, लड़कियों के ब्वाय फ्रैंड होते हैं। शादी होने पर अगर पति ब्वाय फ्रैंड से कमतर रहा किसी रूप में तो ब्वाय फ्रैंड की याद आती रहेगी। अब दुनिया ज्यादा खुल रही है। लड़कियों के लिए यह अच्छी बात है लेकिन आज की कितनी लड़कियों के पास प्रेमी होते हैं? बहुत कम। दिल्लगी और बात है। मतलब निकालना और बात है। हमारे समय में तो पति ही सब कुछ होता था। ब्याय फ्रैंड बनाने की छूट ही नहीं थी, तो वह बात दिमाग में कभी आती ही नहीं।
डॉ. दिनेश :-  अच्छा, शिवमूर्ति भाई के साथ कहां-कहां घूमी हैं?
सरिता जी :-  पहली बार नेपाल गए थे पंद्रह दिन के लिए पोखरा काठमांडु वगैरह। फिर पुरी कोणार्क गए थे। फिर कलकत्ता सुंदरवन डायमंड हार्बर दीघा वगैरह। फिर दार्जिलिंग,सिक्किम वगैरह। फिर आसाम, मणिपुर, मेघालय, चैरापूंजी, वर्मा बार्डर की मोरे बाजार तक। फिर हरिद्वार, ऋषिकेष, फूलों की घाटी, मणिकर्ण हेमकुंड साहेब वगैरह। अंडमान-निकोबार, हैबलक, आइलैंड, जारवा आदिवासियों के जंगलों में। फिर लेह, लद्‌दाख, कारगिल का इलाका, चीन-सीमा की विशाल झील जिसका नाम भूल गया, एक छोटा रेगिस्तान जिसमें दो कूबड़ वाले ऊंट की सवारी करते हैं। और वहां का पूरा इलाका एक हफ्ते तक। खजुराहो, नैनीताल, रानीखेत,  शिमला, कुल्लू मनाली, धर्मशाला, चंबा, खजियार, डलहौजी वगैरह और भी कई जगहें, याद नहीं आ रही हैं।
डॉ. दिनेश :-  अच्छा, इतनी ज्यादा लड़कियां पैदा हुई तो उनकी शादी-ब्याह की चिंता करते थे शिवमूर्ति जी?
सरिता जी :-  करते होंगे लेकिन कभी मुझसे नहीं कहा। इस तरह की बातें ज्यादातर मन में ही रखते हैं वे।
डॉ. दिनेश :-  कभी आपको रोना आया हो इनके व्यवहार से?
सरिता जी :-  हां, एक बार जब रेलवे में नौकरी में थे तो बच्चों के लिए ऊन भेजा। अपने एक दोस्त नंदलाल जो कसाईबाड़ा कहानी के अधरंगी हैं, उनके लिए एक स्वेटर भेजा। उस पैकेट से सबके लिए कुछ-न-कुछ निकला। मैं सोचती थी मेरे लिए भी कुछ निकलेगा लेकिन मेरे लिए कुछ नहीं निकला। उस रात में बहुत रोई अकेले में कि क्या मुझे जाड़ा नहीं लगता?
डॉ. दिनेश :-  क्यों नहीं भेजा?
सरिता जी :-  अरे शुरू-शुरू में ऐसे ही बकलोल थे ए इन मामलों में। अपने-पराए की समझ नहीं थी। अब भी बहुत फर्क थोडे़ पड़ा है।
डॉ. दिनेश :- और कभी रोने का मौका दिए?
सरिता जी :-  एक बार जब गांव में थे तो मेरे लिए काली किनारी वाली साड़ी लाए थे। मैंने एतराज किया तो बोले कि तुम भी तो काली हो। इतनी समझ नहीं थी कि नई दुल्हन को काली किनारी नहीं पहनाना चाहिए।। उस रात भी मैं बहुत रोई।
डॉ. दिनेश :-  और कभी इनकी वजह से रोना पड़ा?
सरिता जी :-  और भी रोना पड़ा है लेकिन अभी बहुत कुछ बताने का समय नहीं आया है (हंसती हैं)।
(सबकी सामूहिक हंसी।)
डॉ. दिनेश :-  शिवमूर्ति जी बहुत जल्दी रो पड़ते हैं? एक बार मिर्जापुर में मैंने इन्हें एक गीत सुनाया। सुनते-सुनते रोने लगे। उसी के बाद केशर-कस्तूरी कहानी लिखी थी। इतना ज्यादा रोना क्यो?
सरिता जी :- रोना और गाना दोनों बहुत हैं इनके पास। अक्सर अकेले रहते हैं तो कुछ-न-कुछ गुनगुनाते रहते हैं। फिर गाते-गाते आंसू गिरने लगते हैं। कभी-कभी तो बेख्याली में गाते हैं। पचीसों साल पुराना गीत। और टोक न दीजिए तो बाद में इन्हें याद ही नहीं रहेगा कि क्या गा रहे थे।
डॉ. दिनेश :- तो आप टोकती हैं?
सरिता जी :-  रहती हूं तो कहती हूं जरा खुलकर सुनाइए। तब पकड़ लेते हैं उस लाइन को। नोट करने लगते हैं।
डॉ. दिनेश :-- इधर कोई गीत पकड़ा है आपने?
सरिता जी :- हां, तीन-चार दिन पहले बाथरूम जाते हुए चाय पीते हुए गुनगुना रहे थे। आवाज उदासी में डूबी जा रही थी। मैंने कहा-जोर से सुनाइए। सुनाया-'जिंदगानी में लाखों का मेला जुड़ा। हंस जब-जब उड़ा तब अकेला उड़ा।'
डॉ. दिनेश :-और?
सरिता जी :- हमारे घर के पास के एक फरवाह (लोक नृत्यक) थे कन्हई यादव। उनका एक गीत गाते हैं- 'पियरी भइउं मैं गुंइया पिया-पिया रटि के।
बावरी भइउं मैं बरसनवा मा बसि के।'
डॉ. दिनेश :- क्या मतलब?
सरिता जी :- मतलब गोपियां कहती हैं। कि बरसाने में बसने से मैं बावरी हो गई। पिया-पिया रटते-रटते मैं पीली पड़ गई।
डॉ. दिनेश :- वाह! और?
सरिता जी :- हमारे पड़ोस के एक कवि हैं जुमई खां आजाद। उनका गीत गुनगुनाते हैं- 'बड़ी-बड़ी कोठिया उठाया पूंजीपतिया कि दुखिया कै रोटिया चोराइ-चोराइ। अपनी महलिया मा केहा तू अंजोरया कि झोपड़ी के दियना बुझाइ-बुझाइ।'
डॉ. दिनेश :- उदासी के गीत ही गाते हैं?
सरिता जी :- राग-रंग वाले गीत भी गाते हैं। ऐसे गीत भी जिन्हें औरतें ही गाती हैं शादी-ब्याह में। फूहड़ गालियां भी। पता नहीं कहां-कहां से इकट्ठा किए हैं। तिरिया चरित्तर, सिरी उपमा जोग, केशर-कस्तूरी आदि कहानियां लिखते समय निरंतर गाते या रोते रहते थे।
डॉ. दिनेश :- आजकल क्या लिखते हैं?
सरिता जी :- आजकल लिख कम रहे हैं। ज्यादातर अपनी गर्ल फ्रैंड के साथ बिताते हैं।
डॉ. दिनेश :- क्या?
सरिता जी :- हां, वही जिसके भौंकने की आवाज बीच-बीच में आ रही है। उसका नाम है लारा। उसको खिलाने-पिलाने, नहलाने-टहलाने में इतने मगन हैं इन दिनों कि बेटियां कहती हैं कि यह पापा की गर्ल फ्रैंड है।
डॉ. दिनेश :- संजीव भाई ने भी अपने एक संस्मरण में लिखा है कि शिवमूर्ति जी कुत्तों के प्रेमी हैं।
सरिता जी :- बहुत ज्यादा। बचपन में कुत्ते पालने के चलते बाप की मार खाए हैं। जब गांव में थे तो पूरे टोले के कुत्ते इनके प्रेमी थे। रेलवे की नौकरी में बाहर जाने के बाद चार-छह महीने में आते तो कुत्तों को गांव के बाहर ही पता चल जाता। एक देखता तो आवाज देकर दूसरों को बताता, फिर पूरा झुंड इनके साथ चलते हुए कूद-कूदकर इनके कपडे़ खराब करते हुए घर तक आता। बाहर नौकरी करते हुए भी कहीं-न कहीं से कोई पिल्ला-पिल्ली उठा लाते। पाल लेते। इलाहाबाद में एक थी उर्वसी। उसके पहले एक थी टीना। उसके भी पहले जाने कितने-कितनी। गांव में हमारे घर पर अभी भी चार-पांच कुत्ते हैं पहुंचते ही घेर लेते हैं।
डॉ. दिनेश :- किस्से भी बहुत सुनाते हैं छोटे-छोटे। कहां पाते हैं इतने किस्से?
सरिता जी :- पता नहीं। पहले से ही हैं इनके पास।
डॉ. दिनेश :- अच्छा यह बताइए, भाई साहेब को जब साहबी वाली नौकरी मिली, आप शहर आईं, तो कभी गहने वगैरह की फरमाइश किया इनसे?
सरिता जी :- फरमाइस तो बहुत पहले ही कर दिया था। रेलवे की नौकरी से लंबी छुट्‌टी लेकर चले आए थे। बहुत सारी किताबें लेकर सबेरे से शाम तक महुए के पेड़ के नीचे खटोला बिछाकर पढ़ते रहते थे। कहते थे कि बड़ी नौकरी के लिए पढ़ रहे हैं। बताए कि पांच-छह महीने बाद इम्तहान होगा। उसको देने के बाद ही रेलवे की नौकरी पर वापस जाएंगे। मैंने कहा कि दादा साधू होकर अपने गुरू महाराज के घर चले गए हैं। मैं ही खेती-बारी का आपका सारा काम निपटा रही हूं। जब भारी तनखाह वाली नौकरी मिल जाएगी तो मेरे लिए बहुत सारे गहने गढ़वाना होगा। तभी बचन ले लिए था।
डॉ. दिनेश :- तो गढ़वाया इन्होंने?
सरिता जी :- ए तो जब से मुझे शहर में लाए अपने पास कभी पैसा रखा ही नहीं। जो कुछ लाए मेरे हाथ पर रख दिया और कभी पूछा नहीं कहां खर्च किया? गहने भी मैंने खुद ही गढ़ाए। ए तो साथ भी नहीं जाते दुकान तक।
डॉ. दिनेश :- काली किनारी वाली साड़ी के बाद फिर कब साड़ी दिए?
सरिता जी :- बस दो बार आज तक साड़ी लाए हैं मेरे लिए। एक काली किनारी वाली गांव में और एक नीले रंग की जब गांव से शहर आना था उस समय।
डॉ. दिनेश :- भरतनाट्‌यम कहानी में तो बेटा पाने के लिए वह औरत खलील दर्जी के साथ भाग जाती है। आपने बेटा पाने के लिए क्या-क्या किया?
सरिता जी :- मैंने कुछ नहीं किया। मऊ में पोस्टिंग हुईं तब तक मेरे छह बेटियां हो चुकी थीं। मऊ में एक मिसराइन जी से हेल-मेल हो गया। उन्होंने कहा कि मार्कण्डे पुराण सुन लीजिए तो बेटा हो जाएगा। मैंने कहा ठीक है। बाद में उन्होंने कहा कि बनारस, के जो विद्धान पुराण सुनाएंगे वे सीधे आपको नहीं सुनाएंगे क्योंकि शूद्र लोग यह पुराण नहीं सुन सकते। हमारी जाति को शूद्र कहा जाता है। उन्होंने इसका उपाय बताया कि पुराण सुनाने का खर्च दे दीजिए। वे खुद यह पुराण सुनकर उसका पुण्य मुझे संकल्प कर देंगी, तो पुराण सुनने का फल मुझे मिल जाएगा। मैंने कहा कि जो पुराण मैं सुन नहीं सकती उसका पुण्य भी मुझे नहीं चाहिए।
डॉ. दिनेश :- सच? ऐसा कहा आपने? क्यों?
सरिता जी : आदमी-आदमी के बीच इतनी नीच-ऊंच की बात मुझे अच्छी नहीं लगी।
डॉ. दिनेश :- कि शिवमूर्ति जी ने इंकार करवा दिया था?
सरिता जी :- इनसे तो मैंने उस समय कुछ कहा ही नहीं। उसी बार बेटा हो गया। जब बेटा हो गया, उसके पांच-छह महीने बाद बताया कि ऐसा-ऐसा हुआ।
डॉ. दिनेश :- तो कैसे हुआ बेटा? आपने किसी देवी-देवता की मन्नत मानी थी?
सरिता जी :- मैं किसी देवी-देवता को नहीं मानती।
डॉ. दिनेश :- पूजा-पाठ, ब्रत-उपवास?
सरिता जी :- कोई पुजा-पाठ, ब्रत-उपवास आज तक मैंने नहीं किया। न किसी मंदिर में हाथ जोड़ने गई।
डॉ. दिनेश :- अरे आप तो पक्की कम्युनिस्ट हैं?
सरिता जी :- (हंसती हैं) हमारी सास भी ऐसी ही थीं। कभी ब्रत-उपवास, पुजा-पाठ नहीं किया। कहीं गंगा-जमुना स्नान करने नहीं गईं।
डॉ. दिनेश :- हद है। लेकिन आपके ससुर तो साधू थे?
सरिता जी :- हां, वे साधू थे। शाकाहारी थे। दिन-भर पूजा-पाठ करते थे लेकिन सास मांस-मछली खाती थीं। ए मां-बाप दोनों के लिए अलग-अलग इंतजाम करते थे। सास के लिए मछली-गोस और ससुर के लिए गांजा-भांग।
डॉ. दिनेश :- अच्छा, एक खास बात पूछना चाहते हैं। शिवमूर्ति जी ने कई जगह अपनी एक महिला मित्र शिवकुमारी का जिक्र किया है। जानती हैं?
सरिता जी :- हां-हां, वे तो हमारे ही गांव की हैं।
डॉ. दिनेश :-तो किस तरह की दोस्ती है इन लोगों की? सुनते हैं कि वे देह का पेशा करने वाली बिरादरी की हैं। कब से इनकी दोस्ती है?
सरिता जी :- बचपन से है। मेरे आने के पहले से।
डॉ. दिनेश :- आप आईं , आपको पता लगा तो कैसा लगा आपको?
सरिता जी :- इन लोगों की दोस्ती ऐसी नहीं है जिसमें कुछ बुरा लगे। मैं आई  तो शिवकुमारी मेरी भी दोस्त हो गईं। इनकी तो पक्की दोस्त हैं। बहुत मदद किया है उन्होंने इनकी बचपन से। इनसे तीन-चार साल बड़ी हैं। जैसा कि उनके खानदान के बारे जानकर सब सोचते होंगे, इनकी दोस्ती का आधार देह नहीं है। यह बात मेरी समझ में भी धीरे-धीरे आई। गांव का जो मेरा कच्चा घर है, उसके बनने के दौरान शिवकुमारी ने भी महीने-भर मिट्‌टी ढोया है। दोस्ती में, बिना कोई  पैसा-मजदूरी लिए। पैसे की उन्हें जरूरत भी नहीं थी। नाच-गाकर बहुत कमाती थीं। लेकिन सब कुछ छोड़कर जेठ की धूप में मिट्‌टी ढोने जैसा कठिन काम करने आईं तो जरूर बहुत पक्की दोस्ती रही होगी दोनों के बीच।
डॉ. दिनेश :- तो कैसे हुई  इतनी पक्की दोस्ती?
सरिता जी :- आप तो गांव में हमारे घर गए हैं। शिवकुमारी के घर भी गए हैं। दोनों घरों के बीच काफी दूरी है लेकिन बचपन मे पिता के साधू हो जाने के चलते इनको कोई टोकने वाला नहीं था कि यहां जाओ, वहां न जाओ। न शिवकुमारी के घर में कोई रोकने वाला था कि कोई क्यों मिलने आया है। ए थोड़ा घूमते-घामने, संबंध बनाने में आगे हैं ही। तो आने-जाने लगे होंगे। धीरे-धीरे दोस्ती हो गई होगी। मेरी बड़ी बेटी का मुंडन कराने गंगा जी वही लेकर गईं थीं मुझे। जब ए रेल की नौकरी में गए तो उन्हीं का कंबल-अटैची लेकर गए।
डॉ. दिनेश :- तो अभी गांव में रहती हैं शिवकुमारी?
सरिता जी :- नहीं। इनके गांव छोड़ने के बाद वे भी बाहर चली गईं। पहले कलकत्ता रहती थीं। आजकल बंबई में रहती हैं। कभी-कभार आती हैं।
डॉ. दिनेश :- आपसे आखिरी बार भेंट कब हुई उनसे?
सरिता जी :- तीन महीने पहले गांव गए तो पता चला आई हैं मिलने के लिए गए तो पता चला कि आई थीं लेकिन हफ्ते-भर पहले फिर बंबई चली गईं। तो मिलना नहीं हो सका। इसके पहले जब बहुत बीमार होने के बाद ए ठीक हुए और गांव गए तो वे मिलने आईं  थी। छह साल पहले।
डॉ. दिनेश :- इस तरह की दोस्ती या प्रेम को आप कैसा मानती हैं?
सरिता जी :- अच्छा मानती हूं। मेरे दिमाग में कभी नहीं आया कि एक नाचने-गाने वाली के साथ दोस्ती क्यों है। औरत-औरत बराबर होती है। जो जिस देश-समाज-जाति मे पैदा हो गई उसी के अनुसार उसे रहना है। बहुत लोग इस नजर से देखते हैं कि यह तो नाचने वाली हैं। पेशा करने वाली हैं। मैं नहीं देखती हूं। न ए देखते हैं। असल में आदमी और औरत के बीच की दोस्ती को लोग ऐसी ही नजर से देखते हैं, देह की लालच के नजर से। इसलिए ऐसी दोस्ती पर लोगों की नजर लग जाती है। ज्यादा चल नहीं पाती है। मुझे लगता है कि आगे के जमाने में ऐसी दोस्तियां ज्यादा होंगी। इनकी तो इस तरह की और भी दोस्तियां हैं। गांव जाते हैं तो मिलने जाते हैं। ए नहीं जा पाते तो वे लोग आ जाती हैं। एक यादव परिवार की भाभी हैं। इस समय 75 साल की होंगी। ए 40-42 साल से कहते हैं कि मेरी नजर में दुनिया की सबसे सुंदर महिला यही हैं। उनसे भी कहते हैं, उनके पति और उनके बेटों से भी कहते हैं। उनके बड़े बेटे को इन्होंने ट्‌यूशन पढ़ाया था। तब से कहते हैं। अभी पंचायत चुनाव के समय (अक्टूबर 2010) वे लाठी टेकते हुए मिलने के लिए मेरे घर आईं थीं। घंटों हम लोग बात करते रहे। इनको बहुत कुछ याद करती हैं। हमेशा पूछती हैं। और भी हैं। एक तो अब साधू हो गई हैं। गांव के पश्चिमी सिरे पर उनका घर है। आती-जाती हाल-चाल लेती रहती हैं।
    एक और थीं। मनतोरा नाम था उनका। उनसे भी इनकी बहुत पटती थी। बहुत बोल्ड महिला थीं। किसी से डरती नहीं थीं। घर-बार अच्छी तरह संभालती थीं। ए उनकी हर जगह तारीफ करते थे। बीस-बाइस साल पहले सांप काटने से उनकी मृत्यु हो गई। लेकिन  ए अभी तक अक्सर उनको याद करते हैं। और भी कई हैं दूसरे गांव में। पहले शादी-ब्याह में जाते थे तो वहां भी इनके दोस्त-दोस्तिन बन जाते थे। ए हैं ही ऐसे। सबसे धाय के मिलते हैं तो उसी में नजदीकी हो जाती है।
डॉ. दिनेश :- शिवमूर्ति जी ने कहीं लिखा है कि इनकी दोस्ती किसी डाकू से भी थी। यह तो अच्छी बात नहीं है।
सरिता जी :- हां, उनका नाम नरेश था। लेकिन वे मजबूरी में डाकू बने थे। अपनी बहन की बेइज्जती का बदला लेने। इस तरह के लोग जो अन्याय के खिलाफ लड़ते  हैं, इनको बहुत अच्छे लगते हैं। उस समय गांव में हमारी दुश्मनी भी बहुत थी। नरेश के कारण बहुत हिम्मत रहती थी।
डॉ. दिनेश :- आप मिली हैं उससे?
सरिता जी :- हां, एक-दो बार। फिर इमरजेंसी में उनका इंकाउंटर हो गया।
डॉ. दिनेश :- आप शाकाहारी हैं कि मांसाहारी?
सरिता जी :- शाकाहारी थी। दस-पंद्रह साल पहले तंदुरूस्ती के लिए अंडे खाने लगी। बच्चों ने दबाव बनाया तो इधर दो-तीन साल से मछली खाने लगी। इसके आगे नहीं। बच्चे अब और जोर दे रहे हैं कि चिकन भी खाओ लेकिन हम चिकन कभी नहीं खाएंगे। इसी को चाहे शाकाहारी, कहिए चाहे मांसाहारी।
डॉ. दिनेश :- आपके बच्चे, बेटे-बेटियां शिवमूर्ति जी के लेखन को किस रूप में लेते हैं?
सरिता जी :- सभी चाहते हैं कि पापा लिखें। सबको अच्छा लगता है लेकिन लिखने के लिए मैं उन पर ज्यादा जोर देती हूं तो बच्चे मेरा विरोध करते हैं। कहते हैं पापा 60 साल के हो चुके हैं, उन्हें अपने आप तय करने दीजिए कि कितना कब लिखना है, कितना कब घूमना है।
डॉ. दिनेश :- फिर घूमने की कोई योजना है?
सरिता जी :- ए तो नहीं जा रहे हैं। मैं बच्चों के साथ दस दिन के लिए जनवरी मे गोवा जा रही हूं।
डॉ. दिनेश :- ए क्यों नहीं जा रहे है?
सरिता जी :- बहुत भीड़ में इन्हें मजा नहीं आता। हमारा बड़ा परिवार है। कई बेटियां। उनके बच्चे। बीसों लोग। इसलिए ए नहीं जा रहे हैं।
डॉ. दिनेश :- अकेले में कहीं जाने की योजना है क्या?
सरिता जी :- अकेले नहीं। दोनों लोग जाएंगे यूरोप, मई में। उसके पहले शायद सिंगापुर , बैंकाक बगैरह।
डॉ. दिनेश :- शिवमूर्ति जी को अपने बहुत कुछ दिया। इन्होने आपको बहुत कुछ दिया। अब आप इनसे क्या चाहती हैं?
सरिता जी :- हमें सब कुछ मिला। अब सचमुच कुछ नहीं चाहिए। बस यही चाहती हूं कि ए अपनी सारी ताकत सारा समय लिखने में लगाएं। कोई यादगार उपन्यास लिखें।
डॉ. दिनेश :- जैसे?
सरिता जी :- (सोच में पड़ जाती हैं। थोड़ी देर बाद) अब जैसे क्या बताएं ।हम तो ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं।
डॉ. दिनेश :- जो पढ़ा है, उसी में से बताएं कि किस तरह की कहानी लिखें तो आपको अच्छा लगेगा?
सरिता जी :- गरीब दुखिया की, किसानी की, गांव-देश की कहानी लिखें तो अच्छा लगेगा। जैसे ढोढाय चरित मानस।
डॉ. दिनेश :-कोई  कहानी जो पढ़ी हो और याद रह गई हो?
सरिता जी :- हां, एक कहानी थी-सतमी के बच्चे। आजमगढ़ के पंडित जी थे। कचेहरी के पास रहते थे। बुढ़ापे में अपना नाम-पता भूल गए थे। जिनकी एक पत्नी रूसी थीं, एक दार्जिलिंग में थीं। उनका नाम...... देखिए......
डॉ. दिनेश :- वो, राहुल सांस्कृत्यायन?
सरिता जी :- हां-हां, उन्हीं की कहानी थी। रूला देती है वह कहानी। कितनी भयानक गरीबी का जमाना था। एक और कहानी शायद प्रेमचंद की है- ठाकुर का कुंआ। कितनी छुआछूत थी। कितना अत्याचार किया है हिंदू धरम में लोगों ने अपने ही भाई-बंदों  पर। इसीलिए मैं धरम-करम नहीं मानती।
डॉ. दिनेश :- आपके घर में भीड़भाड़ कुछ ज्यादा ही है। हम तो कहेंगे कि अगर चाहती हैं कि शिवमूर्ति जी सिर्फ लिखें तो इनको कहीं एकांत में भेज दीजिए, जहां डिस्टर्व न हो।
सरिता जी :- एकदम एकांत में रहेंगे तो रोते रहेंगे। लिखेंगे कम, रोएंगे ज्यादा। इसलिए एकदम अकेले नहीं छोड़ सकते। साठ पार करने के बावजूद मन से अभी बच्चे ही हैं। (आवाज को धीमी करके) मुझे तो डर लगता है कि ए भी अपने दादा की तरह साधू न हो जाएं। (मुस्कराती हैं)।

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