Tuesday 23 July 2013

शिवमूर्ति का वशीकरण और 'लमही'


हिंदी के सुपरिचित कवि, नवगीतकार डॉ.ओम निश्चल

''प्रेमचंद की कहानियॉं किस्सागोई का जो मानक सामने रखती हैं, शिवमूर्ति अपनी कहानियों में वही लीक अपनाते हैं''-डॉ.ओम निश्चल


मूलत: कथा साहित्य में प्रेमचंद के उच्चादर्शों को लेकर स्थापित लमही ने अपने अब तक की साहित्यकारिता में अनेक विशेषांक और साधारणांक संजोए हैं, किन्तु हाल ही में ग्रामीण पृष्ठ भूमि के अनूठे कथाकार शिवमूर्ति पर केंद्रित लमही के विशेषांक ने अप्रतिम लोकप्रियता अर्जित की है। लमही ने शिवमूर्ति को लमही सम्मान देते हुए यह अंक उन पर केंद्रित किया है जो अपने आपमें एक लेखक के लिए पुरस्कार है। कवि-संपादक विजय राय और अतिथि संपादक सुशील सिद्धार्थ ने शिवमूर्ति की कहानियों पर विभिन्न कोणों से और आज के कथा संसार में उनकी फलश्रुतियों को लेकर इतना ग्राह्य विशेषांक तैयार किया है कि पोथन्ना लिखने वाले और साहित्य के सत्ता केंद्रों में काबिज उनके समानधर्मा लेखकों को रश्क हो जाए।
केवल सात आठ कहानियों और तीन स्लिमकाय उपन्यासों के बलबूते शिवमूर्ति ने कहानी संसार में वह प्रतिष्ठा पाई है जो बड़े बड़े लेखकों कथाकारों को सुलभ नही है। उनकी लोकप्रियता का आलम यह कि लमही के लोकार्पण और सम्मा न के अवसर पर उनके गॉंव समाज से आए और उनकी कहानियों के अनेक जीवित पात्रों का जो संगम लहराता हुआ दिखता था, वह लमही सम्मान के आस्वाद और कीर्ति को द्विगुणित करता जान पड़ता था। बोलने में अवधी के धुर मुहावरों से न्यस्त शिवमूर्ति की बातें बातनि की झोंक में लगेई चले जात हैं का वशीकरण फूँकती जान पड़ती थीं।
सारांशत: यह कि अवध के जीवन और रहन सहन के सीमित भूगोल की परिक्रमा करते हुए शिवमूर्ति ने जैसे गॉंव देस पर पड़ते ग्लोरबल प्रभावों, राजनीतिक असर, लंपटई, पंचैती, जहरीले वातावरण और सामंती कवच कुंडल की बखिया उधेड़ कर रख दी है। शिवमूर्ति के कथासंसार ने जताया है कि बड़ा कथाकार होने के लिए पोथियॉं लिखने की जरूरत नहीं है, उसके लिए जनमानस की संवेदना में संतरण करना जरूरी है। इन दिनों कहानियों का जो कुक्‍ड वातावरण चल रहा है, यथार्थ को कांस्ट्रक्ट करने की जो प्रविधि अपनाई गयी है, शिवमूर्ति की कहानियॉं अपनी संरचना में ऐसे बनावटीपन से दूर रहती आई हैं। प्रेमचंद की कहानियॉं किस्सागोई का जो मानक सामने रखती हैं, शिवमूर्ति अपनी कहानियों में वही लीक अपनाते हैं---केवल समय और मिजाज का अंतराल उन्हें अलग खड़ा करता है। उनकी कहानियॉं यथार्थ के थिगड़े नहीं टॉकतीं, वे अपने चरित्रों के भीतर और बाह्य को उरेहती हुई पूरे समाज को चित्रित करती हैं।
लमही का पहला पृष्ठ उन्हें संवेदनाओं का किस्सागो करार देता है। अपने वक्तव्य में शिवमूर्ति ने लिखा है, मन का असाढ़ कभी सूखता नहीं। यही जज्बा उन्हें कहानी दर कहानी में अपने गांव के कथ्य को कथा के बड़े फलक पर उतारने में मदद करता है। पात्रों से समरस होकर वे जो कुछ लिखते हैं वह नास्टेरल्जियाग्रस्त कथाकारों-कवियों की आह उूह से ऊपर उठ कर चरित्रों, स्थि तियों का वाचन करता हुआ एक एक मन की गहरी थाह लेता है। यही थाह उन्हें संवेदना की गहराइयों में ले जाती है और कुछ ही कहानियों में अपने कुशल कथा-कारीगर की सारी भाव भंगिमाऍं और अंत:प्रक्रियाऍं उड़ेल देते हैं।
शिवमूर्ति की सादगी और उनकी पठनीयता का यह अद्वितीय साक्ष्य है कि इस अंक में बड़े लेखकों से लेकर युवा लेखकों की एक बड़ी टोली ने सहकारिता की है। ओमप्रकाश वाल्मीकि, संजीव, उर्मिला शिरीष, वीरेन्द्रेकुमार बरनवाल, सृंजय, शैलेन्द्र सागर, अरुण आदित्य , राजेन्द्र राव, मैत्रेयी पुष्पा, विश्वनाथ त्रिपाठी, मुद्राराक्षस,राजेन्द्र यादव, शेखर जोशी, कामता नाथ, गिरिराज किशोर, दूधनाथ सिंह, नरेश सक्सेँना, ममता कालिया, चित्रा मुद्गल, रवीन्द्र वर्मा और विभूतिनारायण राय जैसे लेखकों के साथ इस अंक को राहुल सिंह, संतोष कुमार चतुर्वेदी, वैभव सिंह, उमेश चौहान, धनंजय चौबे, विवेक मिश्र, राकेश बिहारी, शरद सिंह, पंकज पराशर, पंकज सुबीर, श्रीप्रकाश शुक्ल , भरत प्रसाद, विपिन तिवारी, अमिताभ राय, पल्लव, राजेश राव, विजय शर्मा, प्रियम अंकित, प्रवीण शेखर, दिलीप मंडल, अनवर जमाल, लता शर्मा, शशिभूषण द्विवेदी जैसे अस्सी फीसदी युवतर लेखकों ने अपनी तेजस्विता और दोटूक विमर्शों से सबल और बहसतलब बनाया है।
विशेषांक में युवा लेखकों आलोचकों ने शिवमूर्ति की कहानियों के यथार्थ, ग्रामीण जीवन, स्त्री जीवन, वंचित अस्मिाताओं, यथास्थितिवाद, गांव के बदलाव, कहानियों की अंतर्ध्वनियों, प्रतिरोधी तेवर, जातीय द्वंद्व, दलित जीवन, अवध की मिट्टी से लेकर यथार्थ और गल्प् के रसायन से किस्सा गोई का एक अलग डेल्टा सृजित करने वाले कहानीकार की एक अलग ही मूर्ति गढी है। ऐसा कम होता है कि कथाकारों पर किसी के निजी जीवन को अतिक्रमित करने का आरोप न हो, यथार्थ से आगे के अतियथार्थ को रचने बुनने में आख्यान को निहायत कृत्रिम न बना दिया जाए, पर ऐसा शिवमूर्ति के यहां बहुत कम हुआ है। कहानियों के भीतर प्रवेश करने पर शिवमूर्ति के भीतर के लेखक का अपना ओवरव्यू कहीं कहीं कौंधता है।
वे पिछड़ी जातियों की बौद्धिकता के एक सजग प्रतीक के तौर पर कहानियों के जरिए गांव समाज और जन के बदलते चरित्र और मिजाज की पड़ताल भी करते हैं। हालांकि से ऐसा कर रहे हैं यह आभास भी बहुधा नहीं होता। पर वे कहानी लिखते हुए अपने वर्गचरित्र को नेपथ्यै में रखते हैं इसीलिए उनकी कहानियॉं एक विश्वसनीय आख्यान होने का गौरव पाती हैं। दलित और पिछड़े वर्ग के लेखकों का अपना वर्गचरित्र इतना हावी रहता है कि वे कहानियों एक ब्रांड में बदल देता है। उसे लिखने पढ़ने की दृष्टि जैसे निर्धारित सी होती है। शिवमूर्ति जिस समाज के वाशिंदा रहे हैं और अभी भी हैं, उसे अपने बहुत पड़ोस से अनेक सूक्ष्म् और स्थूल बदलावों से गुजरते हुए देखा है। खुद की वंचनाओं के सहभागी रहे हैं। अनेक संगी साथियों का प्यार भी पाया है। साइकिल की हैंडल पर बैठ कर परीक्षा दिलवाने वाले मित्र भी उन्हें सुलभ रहे हैं। अपनी कहानियों में प्रतिरोध के नकली तेवर से बचते हुए उन्हों ने यथास्थिेतिवाद को रचने बुनने में जो महारत पाई है वह कम लेखकों को हासिल है। सुशील सिद्धार्थ कहते हैं, शिवमूर्ति बड़े रचनाकार की तरह आपबीती और जगबीती का अंतर समाप्त कर देते हैं और अपने जीवन संघर्ष के अनुभवों से दृष्टि, पाकर वे जाने कितनों के दुखों का कारण तलाश करते हैं।
विशेषांक का पहला और बड़ा आकर्षण है शिवमूर्ति से ओमा शर्मा से बातचीत। यह आद्यंत पठनीय है। एक जुझारू कथाकार का कन्फेशन समझें इसे। बचपन मे ही जिसके पिता साधू होकर घर छोड़ चुके हों, पूरी गिरस्ती का भार उन पर आ गया हो, जल्दीं ही बेटी हो गयी हो, कायदे का कामधाम न हो, दो जून की रोटी का जुगाड़ जीवन की सबसे बड़ी समस्या, हो, अवर्णो सवर्णो के बीच जिमि दसनन मह जीभि बिचारी की तरह रहना हो, उसके लेखक का यह साक्षात्का्र है। वे कोई सात्विक आदतों के उदात्त मनुष्यी हों ऐसा नही है, उनमें भी झूठ बोलने, बिना टिकट यात्राऍं करने, किसी की मुहब्बत में गिरफ्तार होने से लेकर तमाम मानवीय ऐब रहे हैं और इन ऐबों को उन्होंने अपने इंटरव्यू में छिपाया नही है। यानी वे ही हैं जो मंच पर अपने बचपन के संगी साथियों द्वारा पहाड़े के रूप में 'कय नवा मुँह चुम्मी कै चुम्मा।' पूछे जाने का हाल फख्र से बयान करते हैं। दूसरा बड़ा आकर्षण है: उनका व्यबक्तिगत कथ्य: मन का असाढ़ कभी नही सूखता। नई पुरानी डायरी के अंश यहॉं उन्होंने सँजोए हैं जो उनके लेखक के जीवन और उसके आब्जर्वेशन्स को साफगोई से विन्यस्त करते हैं। शिवमूर्ति के मन को सींचने वाली अंत:सलिला शिवकुमारी, गांव के लोगों, शिवनारायण दुबू, रामनरेशपाल, मथुराप्रसाद यादव, प्रतिभासिंह, राम खेलावन शर्मा, माताफेर सिंह दीपक, राम सुख सिंह के वक्ताव्यों में आत्मीयता का रस टपकता है। नरेन ने डूब कर लिखा है।
राजेंद्र राव जैसे कथाकार ने उनके गॉंव जाकर जो रिपोर्ताज रचा है: बांधो तो नाव इस ठांव बंधु---उसका तो कहना ही क्या। अनेक चिट्ठी पत्रियों से संपन्नं इस विशेषांक में शिवमूर्ति को समझने के वे सारे प्रसंग समाहित हैं जिससे होकर एक लेखक एक कथाकार को समझा जा सकता है। प्रधान संपादक विजय राय ने विशेषांक को बहुत ही मोहक तरीके से प्रस्तुत किया है कि उसका पहला पन्ने से आखिर तक एक लय बनी रहती है। कहानी कला के उस्ताद लेखकों से लेकर युवा लेखकों तक से शिवमूर्ति पर इतना कुछ लिखवा लेना अतिथि संपादक सुशील सिद्धार्थ की खूबी है पर यह उस आत्मी यता के कारण भी संभव हुआ है जो लेखकों में शिवमूर्ति जैसे सहज कथाकार और एक सच्चे मनुष्य के प्रति है और रहेगी।

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