Thursday 4 December 2014

जो जितना गलत है, वो उतना सही है / जयप्रकाश त्रिपाठी

इधर खालीपन है, उधर खालीपन है,
कहीं कुछ नहीं है तो क्यों कुछ नहीं है!

अकेले-अकेले मुसीबत के मेले
करोड़ो के किस्से, हजारो झमेले
चलन-बदचलन जो भी थीं वो अधन्नी,
इकन्नी, दुअन्नी, चवन्नी, अठन्नी
टका भी नहीं है मचा रोना-धोना
जमूरों के लॉकर में सोना-ही-सोना
न पूछा, न ताछी, न खाता-बही है,
कहीं कुछ नहीं है तो क्यों कुछ नहीं है!....

नहीं गांठ में कुछ, फिरें मारे-मारे
ठिकाने सड़क के किनारे-किनारे
न दाना, न पानी, न मेहनत-मजूरी
सुबह-शाम रोटी न आधी, न पूरी
इधर सबका गीला गरीबी में आटा
उधर वो गिनाते हैं चोरी में घाटा
जो जितना गलत है, वो उतना सही है,
कहीं कुछ नहीं है तो क्यों कुछ नहीं है!....

हवा भी हवा है, न आंधी, न पानी
न ओलों की बारिश, न रिमझिम रवानी
घटाओं के घर भी उदासी, उदासी
ये क्यों हर फसल है रुआंसी, रुआंसी
न धनिया के मन से, न होरी के धन से,
उधारी में गोबर वहीं-का-वहीं है,
कहीं कुछ नहीं है तो क्यों कुछ नहीं है!....

लुटे-से, पिटे-से, तड़प है न गुस्सा,
न मोटू का किस्सा, न छोटू का हिस्सा
भरे हैं, भरे हैं मगर खाली-खाली
कहीं पर दुनाली, कहीं हाथ-ताली
जरा-सी भी हरकत से जग जा रहे हैं
सुबकते-सुबकते सुलग जा रहे हैं
बताओ-बताओ कि क्या वाकया है
कि रातें कहीं और सपने कहीं है,
कहीं कुछ नहीं है तो क्यों कुछ नहीं है!....

1 comment:

  1. सच कहा अपने, अति सुंदर ।

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