Friday 28 November 2014

पतित वैश्वीकरण

आज जबकि लद्दाख से लिस्बन तक, चीन से पेरू तक; पूरब, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण में—वेशभूषा, जीन्स, बाल काढ़ने के तरीके, टी-शर्टस, जॉगिंग, खाने की आदतें, संगीत के सुर, यौनिकता के प्रति रवैये, सब वैश्विक हो गए हैं। यहां तक कि नशीली दवाइयों से संबंधित अपराध, औरतों के साथ दुराचार व बलात्कार, घोटाले और भ्रष्टाचार भी सरहदों को पार करके वैश्विक रूप धारण कर चुके हैं। वैश्वीकरण और उदारीकरण के अंतर्निहित वैचारिक आधार को ‘मुक्त बाजार’, ‘प्रगति’ और ‘बौद्धिक स्वतंत्रता’ जैसे विचारों की देन माना जा सकता है जो एक खास तरह के सांस्कृतिक परिवेश का हिस्सा होते हैं। इस प्रकार हमें मुट्ठी भर विकसित राष्ट्रों के वर्चस्व वाली समरूप वैश्विक संस्कृति में घुल-मिल जाना पड़ता है ताकि वैश्वीकरण और उदारीकरण के अधिकतम लाभ पा सकें। इसका नतीजा यह होता है कि राष्ट्रीय संस्कृति और लगातार घुसपैठ करती वैश्विक संस्कृति के बीच तनाव पैदा होता जाता है। और भी चिंताजनक बात यह है कि महानगरीय केंद्रों से नियंत्रित होने वाली क्षेत्रीय उपसंस्कृतियों को भी मीडिया अपने दबदबे में ले लेता है। वैश्वीकरण की प्रक्रिया कुछ खास सिद्धांतों पर चलती है : बाजार सब कुछ जानता है (व्यक्तिवाद); व्यक्ति जो चाहता है उसे मिलना चाहिए ताकि वह संतुष्ट रहे, भले वह पोर्नोग्राफी ही क्यों न मांगे (भोगवाद)। कहने का मतलब यह है कि इससे विविध संस्कृतियों में बनावटी समरूपता पैदा होती है जिससे मानव सभ्यता दरिद्र होने लगती है।

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