Thursday 6 November 2014

फोर्ब्स मैगजीन और अरबपति लेखक/अंशुमाली रस्तोगी

कुछ लेखक केवल व्यस्त रहते हैं और कुछ अति-व्यस्त। मैं, दरअसल, उन्हीं 'अति-व्यस्त' लेखकों में से एक हूं। न.. न.. मेरी अति-व्यस्तता को मेरा 'ढीगें हंकना' न समझें। यह उत्ता ही सत्य है, जित्ता शराब पीने के बाद शराबी का बहक जाना।
लेखकीय अति-व्यस्तता के चलते मैं बहुत से काम खुद नहीं निपटा पाता, उसे मेरा पीए देखता है। अक्सर पीए भी, मेरे छूटे कामों की वजह से, अति-व्यस्त सा रहता है। मेरी अति-व्यस्तता ही एक मात्र वजह रही, जो मेरा नाम फोर्ब्स मैगजीन के सौ अरबपतियों की सूची में शामिल न हो सका। वरना इरादा तो पक्का था।
जानता हूं, आपका माथा जरूर ठनका होगा, हिंदी के लेखक को भला अरबपतियों की सूची में क्यों होना चाहिए? फोर्ब्स का लेखक (वो भी हिंदी के) से क्या मतलब? क्यों भई.. क्यों नहीं होना चाहिए लेखक को अरबपतियों की सूची या फोर्ब्स मैगजीन में शामिल?
देखिए, वो अगर अरबपति उद्योगपति हैं तो मैं भी किसी 'अरबपति लेखक' से कम नहीं! क्यों.. आंखें फटी रह गईं न आपकी। तुरंत दिमाग में यह सवाल भड़का होगा- भला लेखक (वो भी हिंदी का) कैसे अरबपति हो सकता है? तो क्या अरबपति होना का एक मात्र अधिकार उद्योगपतियों को ही है? लेखक भी तो अरबपति हो सकता है, जैसाकि मैं हूं!
मुझे अरबपति मेरी लखकीय व्यस्तता ने बनाया है। दिन में चौबीस में से साढ़े बाइस घंटे तो मैं लिखता रहता हूं। इत्ती जगह लिखता हूं कि पैसा खुद-ब-खुद मेरे कने चलकर आता है। मैं कोई एंवई सस्ता-मद्दा लेखक नहीं हूं। एक लेख के मैं इत्ते रुपए चार्ज करता हूं, जित्ते में चेतन भगत अपनी किताब छपवा पाता होगा। चेतन भगत या अरविंद अडिगा अगर अंगरेजी में बेस्ट-सेलर लेखक हैं तो मैं हिंदी में हूं। हिंदी का कोई भी अखबार उठाकर देख लीजिए जहां मैं न छपता हूं। देश को छोड़िए, मेरे मोहल्ले का बच्चा-बच्चा तक मेरे नाम से परिचित है, ठीक अमिताभ बच्चन की तरह।
मैंने हिंदी का लेखक होकर यह सोचा तो कि मेरा नाम भी फोर्ब्स मैगजीन में होना चाहिए था। वरना तो हिंदी का लेखक दो-चार पत्रिकाओं में छपकर ही गद-गद होता रहता है। लेखन से जब तलक पैसा न कमाया या अंतरराष्ट्रीय स्तर की पत्रिका में नाम न आया, तो भला लेखन किस काम का? हाल यह है कि हिंदी में अरबपति लेखक तो छोड़ दीजिए, लखपति लेखक तक नजर नहीं आता। मेरे विचार में, हिंदी के लेखक को अपने 'आदर्शवाद' से बाहर निकलकर बाजार और फोर्ब्स जैसी महान मैगजीन से जुड़ना चाहिए।
हिंदी लेखन में स्थिति बड़ी विकट है। यहां अगर लेखक अपने दम पर चार पैसे ज्यादा कमा लेता है, तो पड़ोस के लेखक के पेट में 'कब्ज' बनना शुरू हो जाता है। इस बात की, जासूसों द्वारा, पड़ताल करवाई जाती है कि फलां हिंदी का लेखक किताब या लेखन से ही कमा रहा है या नंबर दो के धंधे से। हिंदी के लेखक की किताब की जहां चार-पांच सौ प्रतियां बिकी नहीं कि उसके लेखन के खिलाफ किस्म-किस्म के फतवे जारी होना शुरू हो जाते हैं। बेचारा लेखक खुद की कमाई को 'जस्टीफाई' करते-करते एक दिन 'डिप्रेशन' में चला जाता है।
लेकिन प्यारे मैं इन सब काना-फूसियों या जलनखोरों पर ध्यान नहीं देता। मेरे कने इत्ता समय ही नहीं है। मैं तो ठाठ से लिखता हूं और सीना ठोंककर पैसा मांगता हूं। आखिर दिमाग खपा रहा हूं, तो पैसा क्यों नहीं मागूंगा? जो ऐसा करने में विश्वास नहीं रखते या फिर अति-आदर्शवादी हैं, उनकी वे जानें।
चलिए, इस दफा नहीं अगली दफा ही सही पर फोर्ब्स मैगजीन की अरबपतियों की सूची में मैं आऊंगा जरूर। आखिर अरबपति लेखक हूं, क्यों शर्माऊं, यह स्वीकारने में।
(चिकोटी ब्लॉग से साभार)

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