Wednesday 22 October 2014

दो शहीदों की याद

(क्रान्तिकारी पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी और अशफाक उल्ला खान का जन्मदिन (22 और 26 अक्टूबर)

गणेश शंकर विद्यार्थी : देश की स्वाधीनता के लिए जो उद्योग किया जा रहा था, उसका वह दिन निस्सन्देह, अत्यन्त बुरा था, जिस दिन स्वाधीनता के क्षेत्र में खि़लाफ़त, मुल्ला, मौलवियों और धर्माचार्यों को स्थान देना आवश्यक समझा गया। एक प्रकार से उस दिन हमने स्वाधीनता के क्षेत्र में एक कदम पीछे हटकर रखा था। हमें अपने उसी पाप का फल भोगना पड़ रहा है। देश की स्वाधीनता के संग्राम ही ने मौलाना अब्दुल बारी और शंकराचार्य को देश के सामने दूसरे रूप में पेश कर उन्हें अधिक शक्तिशाली बना दिया और हमारे इस काम का फल यह हुआ कि इस समय हमारे हाथों ही से बढ़ायी इनकी और इनके जैसे लोगों की शक्तियाँ हमारी जड़ उखाड़ने और देश में मजहबी पागलपन, प्रपंच और उत्पात का राज्य स्थापित कर रही हैं। हमारे देश में धर्म के नाम पर कुछ इने-गिने आदमी अपने हीन स्वार्थों की सिद्धि के लिए लोगों को लड़ाते-भिड़ाते हैं। धर्म और ईमान के नाम पर किये जाने वाले इस भीषण व्यापार को रोकने के लिए साहस और दृढ़ता के साथ उद्योग होना चाहिए। एक तरफ जहाँ जन आन्दोलन और राष्ट्रीय आन्दोलन हुए, वहीं, उनके साथ-साथ जातिगत और साम्प्रदायिक आन्दोलनों को भी जान-बूझकर शुरू किया गया क्योंकि ये आन्दोलन न तो अंग्रेज़ों के खि़लाफ़ थे, न किसी वर्ग के, बल्कि ये दूसरी जातियों के खि़लाफ़ थे। लेनिन के अधूरे ग्रन्थ के पन्ने रूस में ही नहीं, सर्वत्र लिखे जा रहे हैं। विप्लव होंगे, परिवर्तन की धाराएँ घूमेंगी, पुराने आतताईपन पर गाज गिरेगी। 

अशफाक उल्ला खान : देश की गुलामी की जंजीरों को तोड़ने के लिए हंसते−हंसते फांसी का फंदा चूमने वाले अशफाक उल्ला खान जंग−ए−आजादी के महानायक थे। अंग्रेजों ने उन्हें अपने पाले में मिलाने के लिए तरह−तरह की चालें चलीं लेकिन वे सफल नहीं हो पाए। स्वतंत्रता संग्राम पर कई पुस्तकें लिख चुके इतिहासकार सर्वदानंदन के अनुसार काकोरी कांड के बाद जब अशफाक को गिरफ्तार कर लिया गया तो अंग्रेजों ने उन्हें सरकारी गवाह बनाने की कोशिश की और कहा कि यदि हिन्दुस्तान आजाद हो भी गया तो उस पर हिन्दुओं का राज होगा तथा मुसलमानों को कुछ नहीं मिलेगा। इसके जवाब में अशफाक ने ब्रितानिया हुकूमत के कारिन्दों से कहा कि फूट डालकर शासन करने की अंग्रेजों की चाल का उन पर कोई असर नहीं होगा और हिन्दुस्तान आजाद होकर रहेगा। अशफाक ने अंग्रेजों से कहा था− तुम लोग हिन्दू−मुसलमानों में फूट डालकर आजादी की लड़ाई को नहीं दबा सकते। हिन्दुस्तान में क्रांति की ज्वाला भड़क चुकी है जो अंग्रेजी साम्राज्य को जलाकर राख कर देगी। अपने दोस्तों के खिलाफ मैं सरकारी गवाह बिल्कुल नहीं बनूंगा। 22 अक्तूबर 1900 को उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में जन्मे अशफाक उल्ला खान अपने छह भाई बहनों में सबसे छोटे थे। अशफाक पर महात्मा गांधी का काफी प्रभाव था लेकिन जब चौरी चौरा की घटना के बाद गांधी जी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया तो वह प्रसिद्ध क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल से जा मिले। बिस्मिल और चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में क्रांतिकारियों की आठ अगस्त 1925 को शाहजहांपुर में एक बैठक हुई और हथियारों के लिए रकम जुटाने के उद्देश्य से ट्रेन में ले जाए जाने वाले सरकारी खजाने को लूटने की योजना बनाई गई। क्रांतिकारी जिस खजाने को हासिल करना चाहते थे, दरअसल वह अंग्रेजों ने भारतीयों से ही लूटा था। 9 अगस्त 1925 को रामप्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र लाहिडी, ठाकुर रोशन सिंह, सचिंद्र बख्शी, केशव चक्रवर्ती, बनवारी लाल मुकुंद और मन्मथ लाल गुप्त ने लखनऊ के नजदीक काकोरी में ट्रेन में ले जाए जा रहे सरकारी खजाने को लूट लिया। इस घटना से ब्रितानिया हुकूमत तिलमिला उठी। क्रांतिकारियों की तलाश में जगह−जगह छापे मारे जाने लगे। एक−एक कर काकोरी कांड में शामिल सभी क्रांतिकारी पकड़े गए लेकिन चंद्रशेखर आजाद और अशफाक उल्ला खान हाथ नहीं आए। इतिहास में यह घटना काकोरी कांड के रूप में दर्ज हुई। अशफाक शाहजहांपुर छोड़कर बनारस चले गए और वहां एक इंजीनियरिंग कंपनी में 10 महीने तक काम किया। इसके बाद उन्होंने विदेश जाने की योजना बनाई ताकि क्रांति को जारी रखने के लिए बाहर से मदद करते रहें। इसके लिए वह दिल्ली आकर अपने एक मित्र के संपर्क में आए लेकिन इस मित्र ने अंग्रेजों द्वारा घोषित इनाम के लालच में आकर पुलिस को सूचना दे दी। यार की गद्दारी से अशफाक पकड़े गए। अशफाक को फैजाबाद जेल भेज दिया गया। उनके वकील भाई रियासत उल्ला ने बड़ी मजबूती से अशफाक का मुकदमा लड़ा लेकिन अंग्रेज उन्हें फांसी पर चढ़ाने पर आमादा थे और आखिरकार अंग्रेज जज ने डकैती जैसे मामले में अशफाक को फांसी की सजा सुना दी। 19 दिसंबर 1927 को अशफाक को फांसी दे दी गई जिसे उन्होंने हंसते−हंसते चूम लिया। इसी मामले में राम प्रसाद बिस्मिल को भी 19 दिसंबर 1927 को फांसी पर लटका दिया गया।


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