Thursday 25 September 2014

धूमिल रिटर्न महाभूत चंदन राय

साहित्य, शोषित-वंचित मनुष्यता का स्वर होता है, भजनानंदी भकोसलेबाजों का मिथ्या आलाप नहीं, इसीलिए हम निराला, मुक्तिबोध, धूमिल, दुष्यंत, प्रेमचंद, नागार्जुन आदि को याद करते हैं और पंत-प्रसाद-महादेवी उत्सवी संस्थाओं, गपोड़ी आख्यानों में गूंजते हैं....सुदामा पांडेय 'धूमिल' को आज भी खूब पढ़ा जाता है, क्षुब्ध जन-मन के कहीं बहुत गहरे गोते लगाती हैं उनकी पंक्तियां, लेकिन क्या आपने 'धूमिल रिटर्न' महाभूत चंदन राय को पढ़ा है, कहां से आता है उनकी ओर ऐसा शब्द-प्रवाह, हमारे समय के अप्रिय यथार्थ से लड़ते हुए, इतना बेबाक, इतना खाटी......'इन दिनों मरा करता हूँ' शीर्षक कविता में वह लिखते हैं -
जी मुझे मरने का शौक़ है, हाँ जी ! मरने का ’हाजी’ हूँ, साली मौत चीज़ ही ऐसी है, तबीयत ठीक करता हूँ लिखने से, राख होने का मज़ा मैंने सीखा है मरघट में मुस्कराती चिताओं से, पंचर वाले की जेब से मैने एक लावा लिया, पी लिया, उसका सजदा किया आँख में बची आख़िरी दो बूँदों से, आमीन, ज़ख़्मों के पंचर वाले! हमारे घावों का पंचर निरस्त्रीकरण है, वफ़ादार होना आख़िरकार कुत्ता होना ही तो है, क़लम उठाई, अपना चेहरा फिर से काला किया, मै एक धोखेबाज़ था आईने में भी....मै रिक्शेवालों से दुनिया में सबसे ज़्यादा डरता हूँ, उनके पैरों में घूमती पृथ्वी, वो शैलेन्द्र के गीतों पर भूख को थपकियों से सुला सकता है, इन दिनों माँ चाय बनाती है चौराहे पर, मेरा बाप पनवाड़ी है, मुसलसल भूख से रोज़ मुलाकात होती है, मैं रोज तारे गिनकर ही सो जाता हूँ.....
उन्होंने 'मानचित्र' शीर्षक से लिखा - हमने ही बांटी यह गोल दुनिया सरहदों के चौखटे में, हमने ही अपने बच्चों के अक्षरों में घोला साम्राज्यवाद का ज़हर, हमने ही मजबूत की विभाजन की लूटखोर भाषा, हमने ही बाँटा महानता की परिभाषा का ये गिद्ध-ज्ञान कि सरहदें हमारी महानता के विस्तार का क्षेत्रफल हैं, भारत-पाकिस्तान बनने में महज शब्द खर्च नहीं हुए थे, इतिहास का हृदय काटा गया था आधा-आधा, सरहदों पर दिन-रात घूमता है एक आदमखोर प्रेत, और उसी आदमखोर भूख का नाम है मानचित्र, ये प्रेत पीता है दुनिया की शान्ति का लहू.......
'असुविधाएं' रचना की कुछ पंक्तियां - हमारे हिस्से आयी कितनी ही अनाम असुविधाएँ हैं खतरनाक, घुन की तरह धीरे-धीरे खोखला कर रही हैं जो हमें, हमारी संवेदनशीलता ने निष्ठुरताओं की आत्म-मृत्यु को अंगीकार कर लिया है, कमजर्फियां हमारी अभिशप्त पाकीजगी का भूषाचार हो चुकी हैं, हम अपनी मुर्दा पक्षधरता के साथ पक्षहीन जिन्दा है, अपने गूंगा होने का अभिनय, हमारे सामने हाशिये पर मानुस-खोर चुनौतियां थीं, खुलेआम दिन दहाड़े शहर के बीचो बीच कर रही थीं नरसंहार, हम हर हत्याकांड पर शांति के बहरूपिये शहंशाह, अपनी कृत्रिम सहानभूतियों के गुलाब चढ़ा कर खुश, इस जंगल होते शहर के जंगली, हम कायरों की तरह साफ़ करते हत्यारों की जूतियाँ, अपने तेवरों को खुद ही बधिया कर लिया, यार ! असुविधा के लिए अ-खेद है, हम अपने भीतर छिपे 'मांस के व्यापारी' पर चढ़ा लेते समाज-सेवक होने का मुलम्मा, कोर्ट के बटन में ख़रीदा गुलाब लगाकर हम खुद को सिद्ध  कर लेते एक अघोषित लोकनायक, इतना मीठा बोलने लगते कि मीठे को आने लगती शर्म, जबकि शहर इतना जल चुका, हमारी ट्रेडमार्क बुतपरस्ती, चंद हस्ताक्षर अभियान, मोमबत्तियां मार्च करते हुए, हम मनुष्यता के खून की बनी नदियों में अवसरवादी डुबकियाँ लगाते, हमारे खून सने हाथ धोते रहे हर जिम्मेदारी, हम पिछलग्गुओं की तरह दुबक जाते हैं हर गीदड़ चाल में, जबकि जरूरत पुरजोर चीख की, हमारा आदमी होना देश की पहली जरूरतों  में था, हम व्यक्तिपूजक चिमटा सारंगी लिए निकल पड़ते रैलियों, जुलूसों, रंगशालाओं में, हममें शेष नहीं हमारा अपना कुछ भी, न विचारधारा, न प्रतिरोध, हमने तोतों की तरह उनके पास गिरवी रख दी अपनी जबान भी, दांत चियार देना हर सवाल पर निकम्मे नेवलों की तरह, गोया बेशर्मी नहीं हुई हमारे होंठों की लाली हो गयी, हमारी अंधी आस्थाओं ने ही चोर-उचक्कों की जमात को अवसर दिया किया कि वे हमारे माथे पर मूतें अपने मुनाफे की नीतियां, हमारे कन्धों पर बैठकर हमे ह गुलामों की तरह हांकें, असुविधाएं मक्कारियों का हाट बाजार हो सकती है, चाट बाजार भी, आप प्रदर्शनियों से कुछ मुर्गे-चुर्गे-गुर्गे फांस कर पुरस्कार दिला सकते हैं, दंगे की अधजली निर्वस्त्र लाशें आपके लिए औपन्यासिक प्रेरणास्रोत हो सकती हैं, अर्थात आप तीसरे दर्जे  के कहानीकार से सीधे प्रथम पंगत में बैठ सकने वाले उत्तराधिकारी  हो सकते  हैं, असुविधाएं इतनी ही हानिकारक और लाभप्रद हैं कि शोक नहीं शौक हैं, हमारी चित्त वृतियों में इतनी ही प्रतिक्रियाशील, क्या मैं आपसे पूछ सकता हूँ कि इंग्लिश का सबसे सस्ता पव्वा कितने का है, असुविधा के लिए अ-खेद है !
और अंत में 'अपाहिज लोकतन्त्र' शीर्षक लंबी कविता की कुछ पंक्तियां -
एक भयानक किलसता हुआ मातम, आत्मा को कलपाता-काटता-छीलता रुदन, मरसियों का मुर्दहिया आर्तनाद, जला कर राख कर दे आपकी आँखों में बसी बेहयाई की अफ़ीम, एक सार्वजानिक सूचना जनहित में जारी, राजनीति के कसाईख़ाने में अब रोज़ काटे जाएँगे आज़ादी के अंग, रोज़ आठ दस या इससे ज्यादा करेंगे उसका गैंगरेप, संविधान जिसे पहले ही कर दिया गया अपंग, काश उसे छोड़ दिया जाता, यह एक कटी जीभ वाले देश की आत्मा के स्वर का छोर, अचानक कोई खा गया हमारी परछाइयां, अचानक एक अघोरी बदबूदार हवा की सुण्डी, जैसे पाँच महीने पुराने मांस का भभूका रख दिया हो किसी ने नाक के भीतर, राम नाम असत्य, जा रहे लोग जाने किस मरघट की ओर, ब्रह्मराक्षस लील रहे मूर्छित चेतनाएं, अपना भी है कोई बीमार, हम क्यों पचड़े में पड़ें, आख़िर ये हमारा कौन है, पर फूट-फूट इतना रोए, इतना रोए कि ...चलिए छोड़िए, हाहा... हाहा..हाहा....हाहा, लोकतंत्र इज राइजिंग, लोकतंत्र ! माई फुट, मुझे शर्म आती है, मैं भी एक गरीब हूं और आप? लोकतंत्र में बैठे हुए नरभेडि़ए जो करते है आचमन भी आम आदमी के खून से, हम जो शौक से गिनते हैं अपने मौत की उलटी गिनतियां और जिन्दगी का हिसाब नहीं रखते, जानते हैं मौत कुछ आसान, एक अदब तहजीब सी होगी, आपकी तरह निक्कमी नहीं, जा तुझे माफ़ किया लोकतंत्र, मेरा गुनाहगार खुदा है, अपनी मौत से पहले मैं आम आदमी मांगता हूँ अपनी आखिरी ख्वाहिश, ओ मेरे जान से प्यारे लोकतंत्र, गैट वैल सून, पर जानता हूं, कोई उम्मीद नहीं....

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