Wednesday 24 September 2014

विज्ञापनों का इमोशनल अत्याचार

भारतीय टीवी चैनलों पर इमोशन से भरपूर विज्ञापनों का चलन देख कर ऐसा लग रहा है कि दुनिया में इमोशनल ऐड का दौरफिर से शुरू हो गया है, और यह विज्ञापन जगत का मूलमंत्र बन गया है। जहां विज्ञापन में ग्राहकों को उत्पाद के लाभकारी या बेहतर होने के बारे में जानकारी देने की जगह, इमोशन (भावना) से ब्रैंड को जोड़ने की कोशिश हो रही है। सभीब्रैंड उपभोक्ताओं को अपने उत्पाद के साथ विशेष भावनात्मक लगाव महसूस कराने के तहत अपना एक अलग भावनात्मक क्षेत्र तैयार करने में जुटे हैं। कई अन्य उत्पादों के अलावा बैंक खाता खोलने से लेकर ज्वेलरी, सर्च इंजनऔर यहां तक की खाद्य तेल के विज्ञापन में भी यही थ्योरी अपनाई गई है। लेकिन सवाल उठता है कि इसकी सीमा क्या है?
कुछ ब्रैंड विज्ञापनदाताओं का ये मानना है कि विज्ञापन के माध्यम से ग्राहकों के स्वभाव को प्रभावित किया जा सकता है और अपने ब्रैंड के प्रति उनके खरीदने के व्यवहार को भी बदला जा सकता  है। लेकिन लोग कैसे समझ पाएंगे कि भावनात्मक विज्ञापन हमेशा बदलेगा और उपयुक्त भावनात्मक विज्ञापन हमेशा काम करेगा।
रेडीफ्यूजन वाई ऐड आर के नेशनल क्रिएटिव डाइरेक्टर, च्रनीता मान का कहना है कि कुछ भी हो जो दिल की बात करेगा वह हमेशा कायम रहेगा। साथ ही उनका ये भी कहना है किसी आइडिया को किस प्रकार लागू किया जाता है इस पर ध्यान देना भी जरूरी है। उनका कहना है कि हम लोग भारतीय हैं और भावना में जल्दी बह जाते हैं। जो भी चींजे हमारे दिल को छू जाती हैं, बहुत ज्यादा चांस होता है कि उसका तार हमारे बटुए से भी जुड़ जाए। वे कहती हैं कि आज के समय में खरीदार काफी जागरूक हो चुके हैं, लेकिन कम्युनिकेशन का काम ही है कि वह खरीदारों को अपनी भावना से उत्पाद की ओर खींचे, और उत्पाद को भी अंत में ग्राहक के रूप में बदलना होता है। उन्होंने आगे कहा कि भावनाओं को भी अपने वास्तविक काम के प्रति प्रासंगिक होना पड़ता है। ऐसे में नींबू फ्रेश काविज्ञापन हो, जो दर्शकों को अपने होमटाउन के उन पुराने दिनों में ले जाता है जहां बचपन गुजरा है, या फिर फार्चून तेल केलिए ‘घर का खाना’ विज्ञापन हो,  जिसमे कहा जाता है कि ‘मां के हाथ की बनी दाल मेरे लिए हमेशा विशेष होती है’। इनसारी भावनाओं के साथ ग्राहक खुद को जुड़ा महसूस कर सकते हैं क्योंकि उन्हें इसका अनुभव है। मेरे हिसाब से जो भावना दर्शकों को यह महसूस कराती है कि यह विज्ञापन उन्हीं के लिए है, दिखाने के लिए वही सबसे मजबूत भावना है।
जेनो समूह, भारत के प्रबंध निदेशक पैपरी देव के अनुसार जो ब्रैंड सही अर्थों में लंबे समय तक चला है, जो भावनाओं के साथ उनके मूल्यों पर फिट रहा है, उसी को सबसे ज्यादा लाभ हुआ है। उदाहरण के लिए Nike को ही लेते हैं, जो लोगइस ब्रैंड के प्रति आकर्षित हुए हैं वे सालों से इसके बारे में कही जा रही कहानी के साथ खुद को जोड़ सकते हैं।किसी भी ब्रैंड की पहचान उनके ग्राहकों से जुड़ी होती है। विक्रेता सोचते हैं कि ब्रैंड की पहचान उनसे है, लेकिन ये सच नहीं है।
अब कोक का उदाहरण लीजिए, इस ब्रैंड के विज्ञापन में जो एक ही भावना दिखती है वह है खुशी। लेकिन इस ब्रैंड में जो सबसे महत्वपूर्ण बात रही है वह है भावनाओं के साथ लंबे समय तक का जुड़ाव।
एक सामान्य दर्शक से अलग अब भारतीय उपभोक्ताओं का दिमाग खरीदारी को लेकर बदला है। ऐसे में प्रतिस्पर्द्धा से भरे बाजारमें विज्ञापनदाताओं को भी पुराने तरीको से अलग अपने संचार तरीकों में बदलाव करने की जरूरत है। भारतीय ग्राहकों का अगला जेनरेशन काफी जागरूक, पढ़ा लिखा, स्मार्ट  और तकनीकी तथा उपलब्ध मीडिया चैनलों के माध्यम से अन्य जानकारियों से लैस है।
भावनात्मक हेरफेर के कारण फेसबुक के खिलाफ उठे विवाद के अध्ययन ने यह स्पष्ट कर दिया है कि भावनाएं बिल्कुल निजी हैं जिन्हे लोग खुद ही संभालकर रखते हैं, लेकिन यह विज्ञापन के लिए भी काफी महत्वपूर्ण है कि वह किस प्रकार लोगों के दिमाग के साथ दिल को भी छू सके।
च्रनीता मान का कहना है कि बिना किसी भावनात्मक लाग लपेट के तथ्य के बारे में कहने का तरीका ही हार्ड सेल है। अब अगर कपड़े धोने का पाउडर के गुण बताने की बजाए अगर कंपनी ये कहे कि दाग अच्छे हैं तो वह यहां सीधे- सीधेभावना को जोड़ रही है। यह कहने के बाद अगर ब्रैंड तुरंत उपभोक्ता के दिमाग में चल रहे विचार के बीच उत्पाद के फायदे बता देतो इससे ज्यादा जुड़ाव होता है। ऐसा करते ही अचानक वह उत्पाद आपके जीवन में स्थान पाने लगता है, आप उससे जुड़ावमहसूस करने लगते हैं, आप उस मां को पसंद करने लगते हैं जो कुछ अच्छा करने के लिए अपने बच्चों को कीचड़ में खेलने देतीहै। उन्होंने कहा कि मैं मानती हूं कि हार्ड-सेल एक अल्प अवधि की प्रक्रिया है, आपको परिणाम तब दिखता है जब कोईप्रतियोगी आता है और हार्ड-सेल तरीके से अपना उत्पाद और भी बेहतर तरीके से बेच देता है। लेकिन एक भावनात्मक जुड़ावबिना किसी विशेष प्रयास से ही लोगों के दिमाग में बैठ जाता है। हालांकि कई बार संचार और खासर ई-कॉमर्स के शुरुआती स्टेज में हार्ड-सेल की जरूरत होती है। वहां उपभोक्ता को यह समझाना जरूरी होता है कि आखिर ई-कॉमर्सकाम कैसे करता है, उनकी समस्या को सुलझाना होता है क्योंकि वह नए तरीके के खुदरा बाजार से वाकिफ हो रहे होते हैं।
भावनात्मक बिक्री और हार्ड सेल के बीच की फाइन लाइन के बारे में पूछे जाने पर इंटेक्स टेक्नोलॉजी के मार्केटिंग डाइरेक्टर केशव बंसल कहते हैं कि विज्ञापन में मौजूद भावना का स्तर पता करने का कोई पैमाना नहीं है। फिर भी एक ब्रैंड को अपनेवादे के मुताबिक उत्पाद के साथ न्याय करना ही होता है। लंबे समय तक एक ग्राहक तभी आपके साथ जुड़ा रह सकता हैजब आप अपने वादे को निभाएंगे।
मेरे विचार से यदि ब्रैंड अपने वादे के मुताबिक परिणाम दे सके तो वहां हार्ड- सेल की जरूरत नहीं पड़ेगी। आकर्षक अभियानचला कर कभी भी उपभोक्ताओं को जोड़ा जा सकता है लेकिन अपने ग्राहकों को बनाए रखने के लिए ब्रैंड को भावना के मुताबिकअपने वादों को भी निभाना होता है। उनका कहना है कि किसी भी चीज की अति अच्छी नहीं होती है और विज्ञापन के मामलेमें व्यर्थ नाटक कोई बाध्यता नहीं है।
लगातार किसी भावना पर हो रहा हमला मूल्य खत्म होने की वजह बन सकता है। यह कहना है एकसाउरस केसंस्थापक और क्रिएटिव डाइरेक्टर सुरेश एरियात का।उनका कहना है कि यदि कहीं भावनात्मक लगाव है तो वहां हार्ड सेलनहीं होगा। दिखावटी नाटक से लोगों का मन नहीं बदला जा सकता है क्योंकि लोग काफी सतर्क हैं।
जेनो की पैपरी देव का भी यही मत है। जब किसी ब्रैंड में इमोशन फिट नहीं बैठता है तो उस वक्त हार्ड सेल काफीनुकसानदेह होता है।भावनात्मक कहानियों और कार्यक्रमों को एक बड़े दिल के साथ चलाने की आवश्यकता होती है, कभीकभी लगता है कि यदि ब्रैंड ने एक अच्छी छवि बनाई है तो वह उपभोक्ताओं के दिमाग में हमेशा रहती है और खुद उसकेप्रशंसक विज्ञापन करते हैं।
ऐसा अक्सर होता है कि जब उपभोक्ता एक विज्ञापन से बोर हो जाते हैं तो विज्ञापनदाता उसे बदलकर दूसरा विज्ञापन चलाने लगते हैं।
सुरेश एरियात का कहना है कि कई ऐसे सर्किल होते हैं जिनकी चिंता करनी होती है, लेकिन यह खेल एक पूरे सर्किल का होता हैजहां आपको वास्तविक भावना दिखाना होता है जो कि हमेशा एक जैसी ही होती है।
अधिकांश इमोशन वाले विज्ञापन से उपभोक्ताओं से ज्यादा विज्ञापनदाता खुद बोर हो जाते हैं। यदि शोध साबित करता है किउपभोक्ता बोर हो रहे हैं तो यह एक संकेत है कि समस्या को जानने के लिए गहराई में जाने की जरूरत है। ब्रैंड लाइफसाइकिल में ब्रैंड की अवस्था को खोजते रहते की जरूरत होती है।वातावरण में होने वाले बाहरी बदलाव के कारण बाजार केलोगों को भी बदलाव के लिए मजबूर होना पड़ता है।
वहीं मान का विचार इससे भिन्न है वह कहती हैं कि मैं ऐसा नहीं कहूंगी कि हार्ड सेल विज्ञापन या फिर भावनात्मक विज्ञापनएक रुझान है जहां कुछ समय के लिए कोई आता है और फिर अगला उसे वहां से हटा देता है। मेरा मानना है कि दोनों एक साथबने रहते हैं। दोनों संचार की विभिन्न जरूरतों को पूरा करते हैं और यह निर्भर करता है कि आपका ब्रैंड किस अवस्था में है।यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि आखिर विज्ञापनदाता कितनी भावनाएं इस्तेमाल कर सकता है और कितनी ब्रैंड के साथ बनी रह सकती है।
फॉक्सीमोरन के सह संस्थापक प्रतीक गुप्ता का कहना है कि विज्ञापनदाताओं को यह समझने की जरूरत है कि अगर कोई ब्रांड वीडियो से बाहर आता है तो विज्ञापन किस तरह उपभोक्ताओं पर प्रभाव छोड़ेगा। क्या कोई भी ग्राहक उससे जुडा है? अगर है तो फिर सामग्री को इसका साथ देना होगा। ज्यादातर विज्ञापनदाता अधिकाधिक मानव स्वभाव कोसमझने की कोशिश करते हैं। इमोशनल मॉडल साधारण होता है इसलिए उपभोक्ता की बात करता है और उपभोक्ताओं के अनुभवों को जानना विज्ञापन जगत का मुख्य काम सा बन गया है। (समाचार4मीडिया से साभार)

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